राष्ट की आजादी के बाद एक बहुत बड़ा वर्ग तो उसका आनन्द लेने में
लग गया किन्तु एक महामानव ऐसा था जिसने भारत के सांस्कृतिक आध्यात्मिक
उत्कर्ष हेतु अपना सब कुछ नियोजित कर देने का संकल्प लिया। यह महानायक थे
श्रीराम शर्मा आचार्य। उनने धर्म को विज्ञान सम्मत बनाकर उसे पुष्ट आधार
देने का प्रयास किया। साथ ही युग के नवनिर्माण की योजना बनाकर अगणित देव
मानव को उसमें नियोजित कर दिया। चेतना की शिखर यात्रा का यह दूसरा भाग
आचार्य श्री 1947 से 1971 तक की मथुरा से चली पर देश भर में फैली संघर्ष
यात्रा पर केन्द्रित है।हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है। समस्त
ऋषिगण यहीं से विश्वसुधा की व्यवस्था का सूक्ष्म जगत् से नियंत्रण करते
हैं। इसी हिमालय को स्थूल रूप में जब देखते हैं, तो यह बहुरंगी-बहुआयामी
दिखायी पड़ता है। उसमें भी हिमालय का ह्रदय-उत्तराखण्ड देवतात्मा-देवात्मा
हिमालय है। हिमालय की तरह उद्दाम, विराट्-बहुआयामी जीवन रहा है, हमारे
कथानायक श्रीराम शर्मा आचार्य का, जो बाद में पं. वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ
कहलाये, लाखों ह्रदय के सम्राट बन गए। तभी तक अप्रकाशित कई अविज्ञात विवरण
लिये उनकी जीवन यात्रा उज्जवल भविष्य को देखने जन्मी इक्कीसवीं सदी की
पीढ़ी को-इसी आस से जी रही मानवजाति को समर्पित है।
awgpstore.com
Monday, 8 May 2017
स्वामी रामतीर्थ
जिस समय स्वामी रामतीर्थ जापान होकर अमेरिका पहुँचे तो जहाज पर
आपको बिना किसी तरह के सामान के देखकर एक अमेरिकन सज्जन को बड़ा आश्चर्य हुआ
। तपस्या की ज्योति और प्रेम की भावना से परिपूर्ण ऐसा चेहरा उसने पहले
कभी नहीं देखा था। वह उनके पास आकर पूछने लगा-
प्रश्न-आपका सामान है?
उत्तर-मेरे पास इतना ही सामान है - जो मेरें शरीर पर है ।
प्रश्न-तो फिर आप अपना रुपया-पैसा कहीं रखते है ?
उत्तर मेरे लिए रुपया-पैंसो अपने पास रखना मना है ।
प्रश्न-आप कहाँ जायेंगे? क्या आप अमेरिका में किसी को जानते है? आपका कोई मित्र नहीं है ?
उत्तर-हाँ, मैं आपको जानता हूँ आप ही मेरे मित्र हैं ।
स्वामी जी के इस आंतरिक आत्म-भाव को देखकर वह अमेरिकन सज्जन, जिसका नाम मि०
हिल्लर था, चकित रह गया । वह उसी क्षण उनका भक्त बन गया और उन्हें अपने
साथ घर ले गया । स्वामीजी को उसने दो वर्ष तक अपने यहाँ रखा ।
अमेरिका में ही एक महिला स्वामी राम से मिलने आई । वह बड़ी दुःखी थी,
क्योंकि उसका बच्चा मर गया था । वह चाहती थी राम करके सुखी होने का उपाय
बता दें ।
स्वामी जी ने कहा-
राम खुशी बेचता है, पर तुम्हें उसकी कीमत देनी होगी ।
स्त्री-आप जो कुछ माँगे, मैं देने को तैयार हूँ ।
स्वामी जी-सुख के राज्य का सिक्का दूसरा ही है और तुम्हें राम के देश का ही सिक्का देना पड़ेगा ।
Buy online:
Tuesday, 2 May 2017
हम बदलें तो युग बदले
आज युग-परिवर्तन की चर्चा प्राय: सर्वत्र सुनने में आती है ।
संसार की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में बहुत अधिक अंतर पड़ जाने से उसका
प्रभाव सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर भी दिखलाई दे रहा है । पर ये दोनों
ही क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें मनुष्य जल्दी से बदलाव करने को तैयार नहीं होता
। खासकर हमारे देश में तो सामान्य सामाजिक प्रथाओं को भी धर्म का अंग मान
लिया जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि प्रत्यक्ष में हानिकारक परपराओं
को त्यागने या बदलने में लोग आनाकानी करने लगते हैं । वे यह नहीं समझते कि
सामाजिक प्रथाएँ मुख्यत: देश-काल पर आधारित होती हैं । उनके लिए यह हठ करना
कि वे पूर्व समय से चली आयी हैं और आगे भी ज्यों की त्यों चलती रहनी
चाहिए, नासमझी का परिचय देना है ।
इस पुस्तक में बतलाया गया है कि आज सामयिक परिस्थितियों के कारण
युग-परिवर्तन की जो विचारधारा जोर पकड़ रही है, उसको देखते हुए हमको अपनी
सामाजिक प्रथाओं की अच्छी तरह जाँच करके, उनमें समयानुकूल परिवर्तन करने
चाहिए । विशेष रूप से हमारे यहाँ की विवाह और मरणोपरांत की प्रथाएँ इतनी
लंबी-चौड़ी और खर्चीली बना दी गई है कि अधिकांश लोगों को वे असह्य भार
स्वरूप अनुभव होती हैं, पर जातीय बंधनों के कारण लोग रोते-झींकते,
मरते-जीते उनको आगे ढकलते जा रहे है । यह स्थिति शीघ्र से शीघ्र बदलनी
चाहिए । तभी हम सुख-शांति के दर्शन कर सकेंगे ।
Buy online:
संस्कृति की सीता की वापसी
मित्रो ! संस्कृति की सीता का रावण ने अपहरण कर लिया था, तब
भगवान् रामचन्द्र जी राक्षसों समेत रावण को मारकर सीता को वापस लाने में
सफल हुए थे। इतिहास की वह पुनरावृत्ति फिर से होनी है। मध्यकाल में हमारी
संस्कृति की सीता को वनवास हो गया। साम्प्रदायिकता इस कदर फैली, मत-
मतान्तर इस कदर फैले, बाबाजियों ने अपने- अपने नाम के इतने मजहब इस कदर खड़े
कर लिए कि हिन्दू समाज का एक रूप ही नहीं रहा। संस्कृति के साथ में अनाचार
शामिल हो गया। बुद्ध के जमाने में ऐसा भयंकर समय था कि हमारी संस्कृति
उपहास का कारण बन गयी थी। घिनौने उद्देश्यों को संस्कृति के साथ में शामिल
कर दिया गया था। पाँच काम बड़े घिनौने माने जाते हैं और इन पाँचों कामों को
भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया था और संस्कृति को कलंकित कर दिया गया था। ये
पाँचों हैं—‘‘मद्यं मांसं तथा मत्स्यो मुद्रा मैथुनमेव च। पञ्चतत्त्वमिदं
देवि! निर्वाण मुक्ति हेतवे ॥ ’’ ये पाँचों घिनौने काम संस्कृति के साथ
शामिल हो गये।
और मित्रो ! यज्ञ का रूप कैसा घिनौना हो गया था? आपको मालूम नहीं है, तब
मनुष्यों को मारकर होम दिया जाता था घोड़ों और गौवों तक को होम दिया जाता
था। वह क्या था? वह संस्कृति का वनवास काल था और अब क्या हो गया ? अब बेटे,
संस्कृति की सीता रावण के मुँह में (अपसंस्कृति के कब्जे में) चली गयी,
जहाँ बेचारी की जान निकल जाने की उम्मीद है और जहाँ से वापस आने का ढंग
दिखाई नहीं पड़ता। सीता राक्षसों के मुँह में से कैसे निकलेगी? चारों ओर
समुद्र घिरा हुआ है। उस (मूढ़ मान्यताओं अनगढ़ परम्पराओं रूपी) समुद्र को कौन
पार करेगा ? रावण कितना जबरदस्त है ? राक्षस (मनुष्य में व्याप्त आसुरी
प्रवृत्तियाँ) कितने जबरदस्त हैं? इनसे लोहा कौन लेगा?
Buy online:
विश्व की महान नारियां -२
नारियों में अपरिमित शक्ति एवं क्षमताएँ सन्निहित हैं ।। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए हैं, अपने अदम्य साहस, अथक संघर्षशीलता, दूरदर्शी बुद्धिमत्ता आदि विविध गुणों का परिचय दिया है ।। मानवीय संवेदना, करुणा, ममत्व और वात्सल्य तो नारी की सामान्य विशेषताएँ हैं ही, परंतु जिन क्षेत्रों में सदियों से पुरुषों ने अपना आधिपत्य जमा रखा था, उनमें भी प्रवेश कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है, यदि वे चाह लें- एक बार संकल्प कर लें, तो उन क्षेत्रों में भी वे अपनी श्रेष्ठता एवं विशिष्टता सिद्ध कर सकती है ।।
प्रस्तुत संकलन में हम "युग निर्माण योजना" में प्रकाशित विश्व की ऐसी महान नारियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जिनसे प्रेरणा लेकर भारतीय नारियों अपने जीवन को सँवार- सजा सकती हैं ।।
अब समय आ गया है जबकि भारतीय नारियों को घर की चहार दिवारी से बाहर निकलना ही होगा ।। खुले आकाश के तले एक सद्संकल्प लेकर विचरना होगा ।। राष्ट्र निर्माण एवं विश्वशांति के क्षेत्र में अपनी- अपनी भूमिका निश्चित कर अपनी अंतर्निहित शक्तियों एवं क्षमताओं का परिचय देना ही होगा ।।
परम वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा का जीवन आदर्श हमारे सामने है ।। भारतीय नारियाँ उनसे प्रेरणा लेकर उनके स्वप्नों को साकार करने में तन- मन से जुट जाएँ- यही उन दिव्य महिमा मंडित शक्तिस्वरूपा के प्रति महिला जगत की सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।।
Buy online:
http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=633
विचारो की सृजनात्मक शक्ति
जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यत: कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान है । विचारणा की शुरुआत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है या वे पढ़ने, सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती हैं । अपनी अभिरुचि के अनुरूप विचारों को मानव मस्तिष्क में प्रविष्ट होने देता है जबकि जिन्हें पसंद नहीं करता उन्हें निरस्त भी कर सकता है । जिन विचारों का वह चयन करता है उन्हीं के अनुरूप चिंतन की प्रक्रिया भी चलती है । चयन किए गए विचारों के अनुरूप ही दृष्टिकोण का विकास होता है । जो विश्वास को जन्म देता है, वह परिपक्व होकर पूर्वधारणा बन जाता है । व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य-मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अंतर पाया जाता है । चिंतन पद्धति में अर्जित की गई भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है । स्वभाव-चिंतन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है । स्वस्थ और उपयोगी चिंतन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है अथवा आत्मविकास में बाधक है ।
प्राय: अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं । अभ्यास द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए संभव है । परिस्थिति विशेष में लोग प्राय: जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिंतन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है । मानसिक विकास के लिए, अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है ।
Buy online:
http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=454
Monday, 1 May 2017
वातावरण के परिवर्तन का आध्यात्मिक प्रयोग
युग- परिवर्तन को घड़ी सन्निकट है ।। व्यक्ति में दुष्टता और समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय- समय पर सुधारने संभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज को संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है ।।
यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है- इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है ।। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख- शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उददंडता बरतता है- चिंतन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानों अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है।
Buy online:
http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=550
Subscribe to:
Posts (Atom)