Monday, 11 April 2016

मरें तो सही पर बुद्धिमत्ता के साथ

Preface

यों कहने को तो सभी कहते हैं कि जो जन्मा है सो मरेगा । इसलिए किसी की मृत्यु पर दुःख मनाते हुए भी यह नहीं कहा जाता है कि यह अनहोनी घटना घट गई । देर-सबेर मेंआगे-पीछे मरना तो सभी को है, यह मान्यता रहने के कारण रोते-धोते अंतत: संतोष कर ही लेते हैं । जब सभी को मरना है तो अपने स्वजन-संबंधी ही उस काल-चक्र से कैसे बच सकते हैं ? 

लोक मान्यताओं की बात दूसरी है, पर विज्ञान के लिए यह प्रश्न काफी जटिल है । परमाणुओं की तरह जीवाणु भी अमरता के सन्निकट ही माने जाते हैं । जीवाणुओं की सरचना ऐसी है, जो अपना प्रजनन और परिवर्तन क्रम चलाते हुए मूलसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रहती है । जब मूल इकाई अमर है तो उसका समुदाय-शरीर क्यों मर जाता है? उलट-पुलटकर वह जीवित स्थिति में ही क्यों नहीं बना रहता ? उनके बीच जब परस्पर सघनता बनाए रहनेवाली चुंबकीय क्षमता का अविरल स्रोत विद्यमान है, तो कोशाओं के विसंगठित होने और बिखरने का क्या कारण है? थकान से गहरी नींद आने और नींद पूरी होने पर फिर जग पड़ने की तरह ही मरना और मरने के बाद फिर जी उठना क्यों संभव नहीं हो सकता ? 

बैक्टीरिया से लेकर अमीबा तक के दृश्यमान और अदृश्य जीवधारी अपने ही शरीर की उत्क्रांति करते हुए अपनी ही परिधिमें जन्म-मरण का चक्र चलाते हुए प्रत्यक्षत: अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रहते हैं । फिर बड़े प्राणी ही क्यों मरते हैं ? मनुष्यको ही क्यों मौत के मुँह में जाने के लिए विवश होना पड़ता है ?

मरें तो सही पर बुद्धिमत्ता के साथ

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घरेलू चिकित्सा

Preface

हमारे देश की साधारण जनता अशिक्षित तथा गरीब हें । शहरोंसे बहुत दूरी पर फैले हुए ग्रामीण क्षेत्रों की जनता के लिए चिकित्साका प्रश्न बड़ा ही टेड़ा प्रश्न है । स्वास्थ्य विज्ञान में उनकी निजकी जानकारी प्राय: नहीं के बराबर होती है । वहाँ जो चिकित्सक पाए जाते हैं, उनका चिकित्सा क्रम भी बड़ा दोषपूर्ग हाता है, ऐसी दशा में ऐसे अनेक रोगी जो साधारण चिकित्सा से ही अच्छे होसकते हैं-साधन न मिलने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं ।ऐसे लोगों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए ही यह पुस्तक लिखी गई है, इसमें गिने-चुने प्रसिद्ध रोगों पर कुछ सरलतासे उपलब्ध हो सकने वाली सीधी-सादी औषधियाँ लिखी हैं, जोकम मूल्य की, बनाने में सुगम और हानि रहित हैं । विष, रस, भस्म तथा ऐसी चीजें, जिनके सेवन में कुछ असावधानी हो जाए तोखतरा उत्पन्न हो जाए इस पुस्तक में नहीं लिखी गई हैं । इस पुस्तककी सहायता से साधारण पड़े-लिखे लोगों को और अल्पशिक्षित स्त्रियों को तो अपने निकटस्थ लोगों की बीमारियाँ दूर करने में बहुतहद तक सफलता प्राप्त हो सकती है ।रोगों के लक्षण, पथ्य, मात्रा, सेवन-विधि आदि बहुत सी बातेंइस छोटी पुस्तिका में नहीं लिखी जा सकी हैं । इसके लिए अपनी स्वाभाविक बुद्धि से काम लेना चाहिए या किसी निकटवर्ती जानकार वैद्य से सलाह लेनी चाहिए । नुसखों में कोई एकाध चीज प्राप्त न हो,तो उसे छोड़ा भी जा सकता है । हमारा विश्वास है कि जिन देहाती क्षेत्रों में प्राकृतिक चिकित्साका ज्ञान और साधन पहुँचने अभी कठिन हैं, उन क्षेत्रों में यह पुस्तक लाभप्रद सिद्ध होगी ।


घरेलू चिकित्सा

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मन के हारे हार है मन के जीते जीत

Preface

मस्तिष्क मानवी सत्ता का ध्रुवकेंद्र है ।। उसकी शक्ति असीम है ।। इस शक्ति का सही उपयोग कर सकना यदि संभव हो सके, तो मनुष्य अभीष्ट प्रगति- पथ पर बढ़ता ही चला जाता है ।। मस्तिष्क के उत्पादन इतने चमत्कारी हैं कि इनके सहारे भौतिक ऋद्धियों में से बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है ।। मस्तिष्क जितना शक्तिशाली है, उतना ही कोमल भी है ।। उसकी सुरक्षा और सक्रियता बनाए रहने के लिए यह आवश्यक है कि अनावश्यक गरमी से बचाए रखा जाए ।। पेंसिलिन आदि कुछ औषधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें कैमिस्टों के यहाँ ठंढे वातावरण में, रेफ्रीजरेटरों में सँभालकर रखा जाता है ।। गरमी लगने पर वे बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं ।। औषधियाँ ही क्यों अन्य सीले खाद्य पदार्थ कच्ची या पक्की स्थिति में गरम वातावरण में जल्दी बिगड़ने लगते हैं ।। उन्हें देर तक सही स्थिति में रखना हो तो ठंढक की स्थिति में रखना पड़ता है ।। मस्तिष्क की सुरक्षा के मोटे नियमों में एक यह भी है कि उस पर गरम पानी न डाला जाए गरम धूप से बचाया जाए ।। बाल रखाने और टोपी पहनने का रिवाज इसी प्रयोजन के लिए चला है कि उस बहुमूल्य भंडार को यथासंभव गरमी से बचाकर रखा जाए ।। सिर में ठंढी प्रकृति के तेल या धोने के पदार्थ ही काम में लाए जाते हैं ।। इससे स्पष्ट है कि मस्तिष्क को अनावश्यक उष्णता से बचाए रहने की सुरक्षात्मक प्रक्रिया को बहुत समय से समझा और अपनाया जाता रहा है ।।

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मरकर भी अमर हो गये-४४

रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई एवं लक्ष्मीबाई हमारे भारतवर्ष के इतिहास में ऐसा स्थान प्राप्त कर चुकी हैं कि हर स्त्री को अपने स्त्री होने पर गौरव हो सकता है । आज जब नारी को पददलित- अपमानित-लज्जाहीन किया जा रहा है, इन तीनों के पराक्रम से-एकाकी पुरुषार्थ, बड़े-चढ़े मनोबल से किए गए कर्त्तत्त्व हर नारी को प्रेरणा देते हैं अन्याय से लड़ने के लिए । मात्र विगत डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास है इनका, किंतु ये सभी अमर हो, प्रेरणा का स्रोत बन गईं । अवंतिका बाई गोखले, सरोजिनी नायडू कस्तुरबा गांधी, जानकी मैया भी इसी तरह हमारे लिए सदा प्रेरणा का स्रोत रहेंगी । समाज सेवा-राष्ट्र की सेवा-परतंत्रता से मुक्ति में भागीदारी में गृहस्थ जीवन किसी भी तरह बाधक नहीं, ये इसका प्रमाण है । श्रीमती एनी बेसेंट एवं भगिनी निवेदिता (कुमारी नोबुल) मूलत: तन से विदेशी थीं, किंतु इनका अंतरंग भारतीयता के रंग में रँगा था । दोनों ने ही अपना पूरा जीवन तत्कालीन परतंत्र भारत में परिस्थितियों को अपने- अपने मंच से, अध्यात्म के माध्यम से सुधारने में नियोजित कर दिया । जहाँ एनी बेसेंट "थियोसेफी" के रूप में, सर्वधर्म समभाव के प्रतीक के आदोलन के सर्वेसर्वा के रूप में उभरीं, वहाँ स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने अपनी गुरु- आराध्यसत्ता के कार्यों को-नारी जागरण के कार्यों को संपादित करने में अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहकर स्वयं को खपा दिया । फ्लोरेंस नाइटिंगेल नर्सिंग आदोलन की प्रणेता हैं । सेवा एक ऐसा धर्म है, जो नारी अपनी संवेदना का स्पर्श देकर भली भांति संपन्न कर सकती हैं, इसका उदाहरण बनीं नाइटिंगेल । 


मरकर भी अमर हो गये-४४

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निरोग जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र-३९

नीरोग जीवन एक ऐसी विभूति है, जो हर किसी को अभीष्ट है । कौन नहीं चाहता कि उसे चिकित्सालयों-चिकित्सकों का दरवाजा बार-बार न खटखटाना पड़े । उन्हीं का, औषधियों का मोहताज होकर न जीना पड़े, पर कितने ऐसे हैं, जो सब कुछ जानते हुए भी रोगमुक्त नहीं रह पाते ? यह इस कारण कि आपकी जीवनशैली ही त्रुटिपूर्ण है । मनुष्य क्या खाए कैसे खाए; यह उसी को निर्णय करना है । आहार में क्या हो यह हमारे ऋषिगण निर्धारित कर गए हैं । वे एक ऐसी व्यवस्था बना गए हैं, जिसका अनुपालन करने पर व्यक्ति को कभी कोई रोग सता नहीं सकता । आहार के साथ विहार के संबंध में भी हमारी संस्कृति स्पष्ट चिंतन देती है, इसके बावजूद भी व्यक्ति का रहन-सहन, गड़बड़ाता चला जा रहा है । परमपूज्य गुरुदेव ने इन सब पर स्पष्ट संकेत करते हुए प्रत्येक के लिए जीवनदर्शक कुछ सूत्र दिए हैं, जिनका मनन, अनुशीलन करने पर निश्चित ही स्वस्थ, नीरोग और शतायु बना जा सकता है । 

परमपूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक अध्यात्म के ऐसे पहलुओं पर सदा से ही जोर दिया जिनकी सामान्यतया मनुष्य उपेक्षा करता आया है और लोग अध्यात्म को जप-चमत्कार, ऋद्धि-सिद्धियों से जोड़ते हैं, किंतु पूज्यवर ने स्पष्ट लिखा है कि जिसने जीवन जीना सही अर्थों में सीख लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । जीवन जीने की कला का पहला ककहरा ही सही आहार है । इस संबंध में अनेकानेक भ्रांतियाँ हैं कि क्या खाने योग्य है, क्या नहीं ? ऐसी अनेकों भ्रांतियां यथा-नमक जरूरी है, पौष्टिकता संवर्द्धन हेतु वसाप्रधान भोजन होना चाहिए शाकाहार से नहीं, मांसाहार से स्वास्थ्य बनता है, को पूज्यवर ने विज्ञानसम्मत तर्क प्रस्तुत करते हुए नकारा है ।


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वेदांत दर्शन



भारतीय चिन्तन धारा में जिन दर्शनों की परिगणना विद्यमान है, उनमें शीर्ष स्थानीय दर्शन कौन सा है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर एक ही नाम उभरता है, वह है - वेदान्त । यह भारतीय दर्शन के मंदिर का जगमगाता स्वर्ण कलश है- दर्शनाका देदीप्यमान सूर्य है । वेदान्त की विषय वस्तु, इसके उद्देश्य, साहित्य और आचार्य परम्परा आदिपर गहन चिन्तन करें, इससे पूर्व आइये, वेदान्त शब्द का अर्थ समझें | 

वेदान्त का अर्थ- वेदान्त का अर्थ है- वेद का अन्त या सिद्धान्त । तात्पर्य यह है - वह शास्त्र जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है । वेदान्तमें जितनी बातों का उल्लेख है, उन सब का मूल उपनिषद् है । इसलिए वेदान्त शास्त्र के वे ही सिद्धान्त माननीय हैं, जिनके साधक उपनिषद् के वाक्य हैं । इन्हीं उपनिषदों को आधार बनाकर बादरायण मुनि ने ब्रह्मसूत्रों की रचना की ।

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प्रेम ही परमेश्वर है

संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक वह जौ शक्तिशाली होते हैं, जिनमें अहंकार की प्रबलता होती है ।। शक्ति के बल पर वे किसी को भी डरा- धमकाकर वश में कर लेते हैं ।। कम साहस के लोग अनायास ही उनकी खुशामद करते रहते हैं किंतु भीतर- भीतर उन पर सभी आक्रोश और घृणा ही रखते हैं ।। थोडी सी गुँजाइश दिखाई देने पर लोग उससे दूर भागते हैं, यहीं नहीं कई बार अहंभावना वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार भी होता है और वह अंत में बुरे परिणाम भुगतकर नष्ट हो जाता है ।। इसलिए शक्ति का अहंकार करने वाला व्यक्ति अंततः बड़ा ही दीन और दुर्बल सिद्ध होता है ।।

एक दूसरा व्यक्ति भी होता है- भावुक और करुणाशील ।। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ाएँ देखकर उसके नेत्र तुरंत छलक उठते हैं ।। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है, वहीं जा पहुँचता है और कहता है लो मैं आ गया- और कोई हो न हो, तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम्हारे पास जो कुछ नहीं है, वह मैं दूँगा ।। उस प्रेमी अंत:करण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है, इसलिए वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है ।। प्रेम वह रचनात्मक भाव है, जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है ।। इसीलिए विश्व- प्रेम को ही भगवान की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है ।।

Table of content

• पढ़ै सो पंडित होय-ढाई अक्षर प्रेम के
• प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
• प्रेम और उसकी शक्ति
• प्रेम समस्त सद्प्रेरणाओं का स्रोत
• प्रेम जगत का सार और कुद सार नहीं
• प्रेम का अमृत और उसकी उपलब्धि साधना
• मानव जीवन का अमृत : प्रेम
• प्रेम का अमृत मधुरतम है१३
• आनन्द का मूल स्रोत प्रेम ही तो है
• गर न हुई दिल में इश्क की मस्ती
• प्रेम साधना द्वारा आन्तरिक उल्लास का विकास
• प्रेम का अमृत और उसका प्रतिदान
• प्रेम और सेवा ही तो धर्म है
• आत्मजागृति की अमर साधना : प्रेम
• प्रेम की परख-प्रेम की परिणति
• तुलसी प्रेम पयोधि की ताते माप न जोख
• सृष्टि का विकास प्रेम से ही सम्भव
• प्रेम की आश्श, प्रेम की प्सास, पशु-पक्षियों के भी पास


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