Monday 7 November 2016

स्वामी श्रद्धानंद

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1245सन ५६८ की बात है, आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने धर्म और जातीयता की शिक्षा देने के लिए भारतवर्ष के प्राचीन आदर्श पर एक गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव पास किया । सभा में वक्ताओं ने कहा कि अंग्रेजी ढंग की विदेशी शिक्षा के प्रभाव से नवयुवकों में से अपने धर्म और संस्कृति की भावना दिन पर दिन घटती जाती है, वे विदेशी सभ्यता की तरफ आकर्षित होते जाते है । यदि इस पतनोन्मुख प्रवाह को रोकना है, तो वैदिक सिद्धांतों के अनुकूल एक आदर्श शिक्षा-संस्था की स्थापना अत्यावश्यक है ।

प्रस्ताव तो पास कर दिया गया, पर ऐसे गुरुकुल के लिए धन और विद्यार्थी प्राप्त करना सहज न था । उस समय तक लोगों ने गुरुकुल का नाम भी न सुना था । जब उनको प्राचीन शास्त्रों में वर्णित ऋषि के उन गुरुकुलों का वर्णन जाता था, जिनमें विद्यार्थी ब्रह्मचारी बनकर अपने निर्वाह की व्यवस्था स्वयं करके अठारह-बीस वर्ष तक वेदादि विद्याओं का अध्ययन करते थे और उतने समय तक गुरुओं के आश्रम में ही रहते थे, तो लोग आश्चर्य करने लगते थे । वे हँसकर कहते-" श्रीमान् जी! इस अंग्रेजी शिक्षा के जमाने में कौन दस-बीस वर्ष तक सिर मुंडाकर जंगलों में रहेगा और संस्कत जैसी मृत-भाषा को पड़ेगा । पर आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष लाला जी (१८५६ से १९२६) (बाद में स्वामी श्रद्धानंद जी), जिन्होनें इस प्रस्ताव को पास कराया था, दूसरी धातु के बने मनुष्य थे । वे इस योजना में आने वाली महान् कठिनाइयों और लोगों की उदासीनता की बात को अच्छी तरह समझते थे । इसलिए प्रस्ताव के पास होते ही सभा-स्थल पर उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपया इकट्ठा न कर लूँगा, घर में पैर नहीं रखूँगा। 

 

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सेठ जमनालाल बजाज

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=717एक और भामाशाह- श्री जमनालाल बजाज

सन १९२० में नागपुर कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था ।। वर्धा के प्रसिद्ध सेठ जमनालाल जी उस समय रायबहादुर

आनरेरी- मैजिस्ट्रेट भी थे, उसके स्वागताध्यक्ष थे ।। उस अधिवेशन में विशेष रूप से महात्मा गाँधी के असहयोग प्रस्ताव पर विचार किया गया और निश्चय किया गया कि विदेशी सरकार से समस्त प्रकार का संबंध और व्यवहार बंद करके उसे विवश किया जाय कि भारतवर्ष को स्वराज्य अधिकार देने में अधिक विलंब न करे ।। इस प्रस्ताव के पास होने पर जमनालाल जी ने सबसे पहले अपनी रायबहादुरी और आनरेरी मैजिस्ट्रेटी छोड़ने की घोषणा की ।।

इसी अवसर पर उन्होंने महात्मा गांधी से कहा कि यद्यपि आपके चार पुत्र हैं, तो भी मुझे अपने पाँचवे पुत्र के रूप में स्वीकार कर लें! दूसरे शब्दों में इसका अर्थ था कि आप मुझे गोद (दत्तक) ले लें ।। यद्यपि एक ऐसे व्यक्ति द्वारा, जो आकार और वजन की दृष्टि से गांधी जी की अपेक्षा लगभग डयौढे होंगे, इस प्रकार की गोद लेने की प्रार्थना सुनने वालों को अनौखी जान पडी़ और गांधी जी भी एक बार आश्चर्य में पड़ गये पर उनका आग्रह देखकर इसकी स्वीकृति दे दी ।।

यद्यपि जमनालाल जी चार वर्ष की आयु में वर्धा के सेठ बच्छराज जी द्वारा पोते के रूप में गोद लिये गये थे पर उस समय उनको इस परिवर्तन का कोई ज्ञान न था ।। पर इस बार दत्तक पुत्र होते समय दोनों पक्षों को इस बात के महत्त्व और र्पारेणामों का अच्छी तरह ज्ञान था ।। 

 

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सरोजिनी नायडू

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=734मातृभूमि की सच्ची सेविका- श्रीमती सरोजिनी नायडूलगभग सौ वर्ष पूर्व की बात होगी की इंगलैड की एक निजी "गोष्ठी ने एक १५-१६ वर्ष की भारतीय बाला उस देश के दो- चार प्रसिद्ध साहित्यिकों से वार्तालाप कर रही थी। अंग्रेजी साहित्य का प्रसिद्ध आलोचक एडमंड गोले भी उनमें से एक था ।। कुछ सोच- विचार कर उसने अपनी कुछ काव्य- रचनाएँ गोसे के हाथ में दी और कहा इनके विषय में अपनी सम्मति देने की कृपा करें।" 

गोसे ने बड़े ध्यान से उन रचनाओं को पढ़ा, उन पर विचार किया और फिर कहने लगा- शायद मेरी बात आपको बुरी जान पड़े, पर मेरी सच्ची राय यही है कि आप इन सब रचनाओं को रद्दी की टोकरी में डाल दें। इसका आशय यह नहीं कि यह अच्छी नहीं हैं। पर तुम जैसी एक बुद्धिमती भारतीय नारी से, जिसने पश्चिमी भाषा और काव्य- रचना में दक्षता प्राप्त कर ली है, हम योरोप के वातावरण और सभ्यता को लेकर लिखे गये काव्य से तुलना की अपेक्षा नहीं करते। वरन् हम चाहते हैं कि आप हमको ऐसी रचनाएँ दे, जिनसे हम न केवल भारत के वरन् पूरे पूर्व की आत्मा के दर्शन कर सकें।

अपनी रचनाओं की यह आलोचना उस कवयित्री को बहुत हितकर जान पड़ी और उसी दिन से उसने गोसे को अपना गुरु मान लिया। उसके पश्चात् उसने जो काव्य- रचना की, उसने योरोप की नकल करने के बजाय भारत और पूर्व से अंतर्निहित विशेषताओं के दर्शन ही योरोप वालों ने किये और सर्वत्र उनका बड़ा। सम्मान होने लगा ।। यह बाला और कोई नहीं "भारत-कोकिला" के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती सरोजिनी नायडू (सन् १८७६ से १६४६) ही थी।

 

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सन्त सुकरात

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=844ईसा मसीह के जन्म से भी चार सौ वर्ष पहले एथेन्स (यूनान) के न्यायालय में एक सत्तर वर्षीय वृद्ध मनुष्य खड़ा हुआ था। उसके ऊपर अभियोग लगाया गया था कि वह नवयुवकों को विपरीत उपदेश देकर गलत रास्ते पर ले जाता है। दूसरा अभियोग यह भी था कि उसने प्रजातंत्र के अधिकारियों के आदेश की अवहेलना की है। यह अभियुक्त और कोई नहीं, पश्चिमी संसार का एक अति प्राचीन दार्शनिक सुकरात था।

पाठक देख सकते हैं कि सुकरात ने ज्ञानी व्यक्ति का जो लक्षण बतलाया, वह हमारे ऋषि-मुनियों के सिद्धांतों से पूर्ण रूप से मिलता हुआ है। हमारे यहाँ कहा गया है कि ज्ञान की कोई‌सीमा नहीं। सामान्य रूप से ज्ञानी कहा जाने वाला व्यक्ति जितना जानता है, वह संपूर्ण ज्ञानराशि की तुलना में एक घड़े में एक बूंद के समान भी नहीं है। जिनको "महाज्ञानी" कहा जाता है, वे भी कभी यह नहीं कह सकते कि हमने पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। उदाहरण के लिए सांख्य और वैशेषिक जैसे जगत प्रसिद्ध दर्शनों के रचयिता भी शिल्प, संगीत, काव्य के विषय में अपने को निष्णात नहीं कह सकते। फिर अध्यातम-ईश्वर, जीव, आत्मा, परलोक जैसे सर्वथा अप्रत्यक्ष और अव्यक्त विषय में तो कोई दावे के साथ कुछ कैसे कह सकता है ? इसलिए भारतीय ऋषि-मुनियों ने सब कुछ वर्णन कर देने के बाद भी कहा है – "नेति-नेति" ? अर्थात् जितना हम जानते थे उतना हमने बतला दिया, पर यह इस विषय की अन्तिम सीमा नहीं है। इसके बाद भी जानने की बहुत सी बातें हैं, जिनका पता हमको नहीं, पर संभव है और किसी को हो, अथवा आगे चलकर जिनकी जानकारी हो सके। 

 

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संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=888प्रेमी हृदय का मार्ग

घृणा, विद्वेष, चिड़चिड़ापन, उतावली, अधैर्य, अविश्वास यही सब उसकी संपत्ति थे ।। यों कहिए कि संपूर्ण जीवन ही नारकीय बन चुका था, उसके बौद्धिक जगत में जलन और कुढ़न के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं था ।। सारा शरीर सूखकर काँटा हो गया था ।। पड़ोसी तो क्या पीठ पीछे मित्र भी कहते- स्टीवेन्सन अब एक- दो महीने का मेहमान रहा है; पता नहीं, कब मृत्यु आए और उसे पकड़ ले जाए ?

विश्वविख्यात कवि राबर्ट लुई स्टीवेन्सन के जीवन की तरह आज सैकड़ों- लाखों व्यक्तियों के जीवन मनोविकारग्रस्त हो गए हैं पर कोई सोचता भी नहीं कि यह मनोविकार शरीर की प्रत्येक जीवनदायिनी प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डालते हैं ।। रूखा- सूखा बिना विटमिन प्रोटीन और चरबी के भोजन से स्वास्थ्य खराब नहीं होता, यह तो चिंतन, मनन की गंदगी, ऊब और उत्तेजना ही है जो स्वास्थ्य को चौपट कर डालती है शरीर को खा जाती है ।।

 

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Sunday 6 November 2016

संत तुकाराम

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=840संसार में सभी मनुष्यों का लक्ष्य धन, संतान और यश बताया गया है। इन्हीं को विद्वानों ने वित्तैषणा, पुत्रैषणा और लोकैषणा के नाम से पुकारा है। इन तीनों से विरक्त व्यक्ति ढूँढ़ने से भी कहीं नहीं मिल सकता। संभव है किसी मनुष्य को धन की लालसा कम हो, पर उसे भी परिवार और नामवरी की प्रबल आकांक्षा हो सकती है। इसी प्रकार अन्य व्यक्ति ऐसे मिल सकते हैं कि जिनको धन के मुकाबले में संतान या यश की अधिक चिन्ता न हो। पर इन तीनों इच्छाओं से मुक्त हो जाने वाला व्यक्ति किसी देश अथवा काल में बहुत ही कम मिल सकता है।

इस प्रकार विरक्त अवस्था में रहकर उन्होंने भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य को जीत लिया। गीता के अनुसार "युक्ताहार विहार" होने से सब इन्द्रियाँ वश में आ गयीं। समय-समय पर वे तीर्थ यात्रा को भी जाते थे, पर वे तीर्थ आस-पास के ही होते थे। अपने पूर्वजों के नियमानुसार आषाढ़ और कार्तिक की पूर्णिमा को पंढरपुर तो जाते ही थे। ज्ञानेश्वर की जन्म भूमि "आलदी" तथा एकनाथ का निवास स्थान "पैठण" उनके गाँव से पास ही थे। फिर एक बार २३-२४ वर्ष की अवस्था में उन्होंने समस्त भारत के तीर्थों की यात्रा करके भारतीय समाज की अवस्था और तत्कालीन समस्यायों की जानकारी प्राप्त की। पर तीर्थों की दशा उस समय भी बहुत त्रुटिपूर्ण हो गयी थी और सब जगह धर्म-जीवियों ने उनको पेट भरने का साधन बना लिया था। 

 

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विश्ववंद्य सन्त वसुधा जिन्हें पाकर धन्य हुई

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=725भक्तिमार्ग के प्रवर्तक प्रसिद्ध धार्मिक संत स्वामी रामानंद काशी से रामेश्वरम की यात्रा पर निकले थे ।। मार्ग में एक गाँव पड़ता था - आलंदी ।। स्वामी रामानंद ने वहाँ अपना डेरा डाला और कुछ दिनों तक रुक कर जन- साधारण को ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी में मज्जित कराते रहे ।। स्वामी रामानंद एक मारुति मंदिर में ठहरे हुए थे, उसी मंदिर में गाँव की एक युवती स्त्री भी प्रतिदिन दर्शन और पूजन के लिए आया करती थी ।। संयोग से एक दिन स्वामीजी का उससे सामना हो गया ।। स्त्री ने रामानंद जी को प्रणाम किया तो बरबस उनके मुँह से निकल गया पपुत्रवती भव । आशीर्वाद सुनकर युवती पहले तो हँसी फिर एकाएक चुप हो गई ।। स्वामी जी को कुछ समझ में नहीं आया उन्होंने पूछा… देवी तुम हँसी क्यों हो ? फिर एकाएक चुप क्यों हो गई ? हैं उस युवती ने कहा - मेरी हँसी और फिर चुप्पी का कारण यह है कि आप जैसे महात्मा का आशीर्वाद बिल्कुल निष्फल जाएगा । क्यों बेटी तुम्हारी कोई संतान नहीं है क्या - माथे पर सिंदूर और हाथों में चूडियाँ देखकर स्वामी जी ने उसके सधवा होने का अनुमान लगाते हुए कहा ।। 

 

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विज्ञान उपवन के महकते पुष्प

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=585जर्मनी देश का एक शहर ।। बड़ी तेज बारिश हो रही थी ।। एक सभ्य और प्रतिष्ठित- सा देखने वाला आदमी अपने हैट को कोट के भीतर छुपाकर चला जा रहा था ।। पास में छाता भी नहीं था ।। रास्ते में चलते हुए कई लोगों ने नमस्कार किया ।। कुछ परिचित मित्र भी मिले ।। वह व्यक्ति उनसे हँसता- बोलता अपनी राह पर चला जा रहा था  ।। किसी ने पूछा- भाई ! तेज बारिश हो रही है ।। हैट से सिर को ढकने के बजाए तुम उसे कोट में दबाकर चल रहे हो ।। क्या तुम्हारा सिर नहीं भीग रहा है ?

भीग तो रहा है परंतु बाद में सूख जाएगा, लेकिन हैट खराब हो गया तो नया खरीदना पड़ेगा ।। नया हैट खरीदने के लिए मुझे समय, धन निकालना पड़ेगा ।। जानते हो जिस काम में लगा हुआ है इससे उसमें कितना व्यवधान होगा। उस व्यक्ति ने कहा ।।

वास्तव में यह व्यक्ति जिस काम में लगा हुआ था बड़ा महत्वपूर्ण था ।। विज्ञान के क्षेत्र में उस प्रतिभाशाली व्यक्ति ने जो खोजें की, सारा संसार उनसे उपकृत है ।। और ऐसी छोटी- छोटी बातों में भी समय और धन लगाने को व्यर्थ समझने वाला वह व्यक्ति था संसार का महानतम वैज्ञानिक- अल्वर्ट आइंस्टीन ।। 

 

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राष्ट्रमाता कस्तूरबा गाँधी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1234भारतीय नारियों के लिए आदर्श - राष्ट्रमाता कस्तूरबा

यह उस समय की बात है जब महात्मा गांधी भारतवासियों पर किये जाने वाले अत्याचारों के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका में गोरों की सरकार से जूझ रहे थे । सरकार हिंदुस्तानियों को पदावनत और दीन-हीन बनाने के लिए नये-नये कानून बना रही थी और गांधी जी अपने अहिंसात्मक सत्याग्रह से उसके आक्रमण को व्यर्थ करने का प्रयत्न कर रहे थे । उन्हीं दिनों सरकारी अधिकारियों ने एक नियम यह बनाया कि भारतवासियों के अपनी धार्मिक पद्धति के अनुसार किये विवाह गैर कानूनी माने जायेंगे और उनकी स्त्रियाँ पत्नी नहीं रखेल के दर्जे की समझी जायेंगी । गांधी जी तो इसके विरुद्ध सत्याग्रह करने ही वाले थे, पर उन्होंने विचार किया कि इस प्रश्न पर यदि स्त्रियाँ भी सत्याग्रह में भाग लेकर जेल जायें तो ठीक रहेगा । साथ ही वे यह भी जानते थे कि स्त्रियों का जेल जाना खतरे का काम है । इसलिए उन्होंने विचार किया कि सबसे पहले अपनी पत्नी कस्तूरबा को ही इसके लिए तैयार किया जाए । वे जानते थे कि यदि वे बा से जेल जाने को कहेंगे, तो वह इनकार तो नहीं करेगी, पर बाद में उसका कहाँ तक निर्वाह कर सकेगी, इसका निश्चय न था । इसलिए वे ऐसा अवसर खोजने लगे, जब सामान्य बात-चीत करते हुए इसकी चर्चा कर ली जाय । 

 

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रवीन्द्र नाथ टैगोर

साहित्यिक ऋषि - रवींद्र
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इंग्लैंड में जाड़े का मौसम कितना कठिन और कष्टप्रद होता है इसे भुक्तभोगी जानते हैं ? मोटे- मोटे ऊनी कपड़े लाद लेने पर भी शीत से पीछा नहीं छूटता ।। ऐसे ही एक दिन में महाकवि रवींद्र लंदन की एक सड़क पर जा रहे थे ।। चलते- चलते उन्होंने देखा कि मार्ग के पास ही एक व्यक्ति खड़ा है ।। उसके फटे जूतों में से उसके पैर दिखाई पड़ रहे थे, क्योंकि उसके पास मोजे नहीं थे ।। कपड़ों की कमी से सीना भी कुछ खुला था ।। इंग्लैंड में भीख माँगना कानूनन माना जाता है, इसलिए उसने कुछ कहा तो नहीं, पर एक क्षण लिए अर्थपूर्ण से देखता रहा ।। रवि बाबू का हृदय उसकी दीनता पर द्रवित गया और उसके हाथ पर एक गिन्नी (स्वर्ण- मुद्रा) रखकर आगे चल दिये ।। एक मिनट बाद ही वह दौड़ता हुआ इनके पास आया और कहने लगा- महोदय, आपने भूल से मुझे एक गिन्नी दे दी है । यह कहकर वह उसे वापस करने लगा ।। जब रवि बाबू ने आश्वासन दिया तब वह उसे लेकर गया ।।

इस छोटी- सी घटना से जहाँ महाकवि की दयार्द्र प्रकृति का पता लगता है वहाँ यह भी विदित होता है कि इंग्लैंड जैसे "रुपया परस्त" समझे जाने वाले देश के निवासी हम संसार को नश्वर कहने वाले लोगों की अपेक्षा कितने अधिक ईमानदार और सत्य- व्यवहार करने वाले हैं ।। एक गरीब भिखारी की तो बात क्या, यहीं के अधिकांश सफेदपोश बाबू और धनी व्यक्ति भी भूल से किसी से कुछ अधिक पा जाएँ तो उसे चुपके से जेब के हवाले करते हैं ।। इतना ही क्यों हमने प्राय: सेठ- साहूकारों को तरकारी मंडी में सौदा तुल जाने पर छोटी के बदले बड़ी चीज लेने का प्रयत्न करते देखा है ।। भाव- ताव और लेन- देन में झूठे व्यवहार को यहीं अधिकांश व्यक्ति एक बुराई के बदले चतुरता समझते हैं ।। इतने पर भी हम अपने को ससार भर में सबसे अधिक धार्मिक और आदर्शवादी मानते हैं ।। इस दंभ का कुछ ठिकाना नहीं है ।।


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मानवता को विश्वबंधुत्व का मंत्र देने वाले सृजन शिल्पी

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अहिंसा के पुजारी - अफ्रीका के गांधी जोमो केन्याता

स्कॉटलैंड मिशन के एक बुजुर्ग पादरी ने सड़कों पर भटकते और धूल की खाक छानते फिर रहे एक दसवर्षीय बालक को देखा तो उनके मानवीय हृदय में दयार्द्र भाव जाग्रत हो उठा और उन्होंने उसका नाम, ग्राम, पिता, निवास आदि सभी का परिचय पूछा ।। दसवर्षीय बालक के उत्तरों से जो पता चला उससे के पादरी की आत्मा द्रवित हो उठी ।। नाम जो भी कोई पुकारे, गाँव का पता नहीं, पिता का मुँह भी नहीं देख पाया और जहाँ शाम हो जाए वहीं निवास- इस स्थिति का जिस भोलेपन से परिचय दिया और अंतर की पीड़ा अपनी द्रवीभूत कर देने वाली शक्ति के साथ जिस तरह उभर आई, उसे देखते हुए पादरी से यह कहते ही बना- "तुम हमारे साथ रहोगे ।"

खाने को मिलेगा - एक ही शर्त थी उस अफ्रीकी बालक की और इसका सकारात्मक उत्तर देते हुए पादरी ने इतना भर कहा- भर पेट ।।

"तो मैं जरूर आपके साथ रहूँगा और जो भी काम बताएँगे करूँगा ।"

इसी शताब्दी के दूसरे दशक ही घटना है ।। केन्या में धर्मप्रचार और मानव सेवा का कार्य कर रहे एक पादरी तथा एक फटेहाल गरीब और भूखे बालक के बीच हुआ संवाद है यह।। इस संवाद का परिणाम यह हुआ कि पादरी ने उसे अपने फोर्ट हाल मिशन में भरती कर लिया ।। वहाँ पर उसे बढ़ईगीरी का काम सिखाया जाता, निर्धारित घंटों में शिक्षा दी जाती और खाने- पीने का कोई अभाव तो था ही नहीं ।। 

 

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माँ की सीख

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=811बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है ।


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महात्मा गाँधी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=841गाँधीजी का वास्तविक जीवन संघर्ष सन् १८९३ से आरम्भ होता है, जब डेढ़ वर्ष तक बंबई और राजकोट में बैरिस्टरी के धंधे में सफलता प्राप्त न होने पर वे एक भारतीय व्यापारी के मुकदमे की पैरवी करने दक्षिण अफ्रीका गए। वहाँ अदालती काम तो उनको थोड़ा ही करना पड़ा, पर भारतवासी होने के कारण कदम-कदम पर उनको अपमानजनक व्यवहार सहन करना पड़ा, जिससे उनकी आँखें खुल गईं। वहाँ के गोरे सभी भारतवासियों को कुली-मजदूर मानते थे और इसलिए गाँधीजी को "कुली बैरिस्टर" के नाम से पुकारते थे।. . . कुछ मित्रों के आग्रह से उन्होंने वहाँ रहकर इस अन्याय के प्रतिरोध का निश्चय किया।

वर्तमान युग में जबकि संसार के लोग आधिभौतिक (वैज्ञानिक) चमत्कारों पर ही विशेष जोर दे रहे हैं, भारतवर्ष का यह वीर और तपस्वी नेता अपने सात्विक गुणों, स्वार्थ-त्याग और आत्म-शक्ति के कारण ही देश और विदेशों में अत्यधिक सम्मान प्राप्त कर रहा है। जिस समय पाश्चात्य सभ्य राष्ट्र अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए युद्ध के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग जानते ही नहीं, उस समय महात्मा गाँधी अपने राष्ट्रीय आन्दोलन को "अहिंसात्मक असहयोग" के पथ पर चला रहे हैं। वे कहते हैं कि, भारत को रक्तपात से ही स्वराज्य मिल सकता है, तो हम दूसरों के बजाय अपना ही रक्त क्यॊं न बहावें ? हिंसा का आश्रय लेना तो स्पष्टत: आत्मा की दुर्बलता का प्रमाण है। वीर पुरुष तो वही है – जो अपने शत्रु पर भी दया करता है।"

योरोपियन प्रतिनिधियों ने बड़े विनीत भाव से कहा – "आप से भेंट होने को हम अपना बड़ा सौभाग्य समझते हैं। आप जब बोलते हैं तो जान पड़ता है कि वे शब्द "बाइबिल" में से ही चले आ रहे हैं। 

 

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Saturday 5 November 2016

महर्षि कार्ल मार्क्स

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=777उस समय जर्मन सरकार जन-जाग्रति का दमन करने पर उतारू हो गई थी। योरोप में क्रान्ति की जो हवा फैल रही थी, वह जर्मनी में भी पहुँच गई थी। जनता चाहती थी कि देश का शासन सार्वजनिक हित को दृष्टि में रखकर किया जाय और शासन संस्था में प्रजा के प्रतिनिधियों को उचित स्थान मिले। पर निरंकुश शासक इस प्रकार की माँग को “छोटे मुँह बड़ी बात” समझते थे और इसलिए जनता के मुंह को तरह-तरह से बंद करने की कोशिश कर रहे थे।

ऐसे समय में कार्लमार्क्स (सन् १८१८से१८८३) ने सरकार का मुकाबला करने के लिए “राइनिश जीतुंग” नामक अखबार का संपादन ग्रहण किया। उसकी लेखनी ऐसी जोरदार थी और वह सरकार की गलत नीतियों पर ऐसे प्रहार करता था कि कुछ ही समय में उसका नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया। पर साथ ही सरकारी “सेंसर” की क्रूर दृष्टि भी उस पर अधिकाधिक पड़ने लगी और उस पत्र के कार्य में तरह-तरह की विघ्न बाधाएं डाली जाने लगीं। तो भी मार्क्स ऐसे घुमा-फ़िराकर लिखता था कि वह सेंसर के फंदे से बच जाता था। अंत में सरकार ने अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और “राइनिश जीतुंग” को राज द्रोही बतलाकर जबरदस्ती बंद कर दिया।

जब मार्क्स ने जर्मनी में विद्रोह फैलाने के लिए ऐसा प्रचार कार्य आरम्भ किया, तो वहाँ की सरकार चौकन्नी हो गई और उसने फ्रांस की सरकार से इसकी शिकायत की। फ्रांसीसी सरकार ने मार्क्स को अपने यहाँ से निकल जाने की आज्ञा दे दी। इस पर वह बेलजियम की राजधानी ब्रूसेल्स चला गया। वहाँ पर भी वह मजदूरों के संगठन की चेष्टा करता रहा और “लीग आफ़ जस्ट” (न्याय संघ) नामक संस्था में शामिल होकर, योरोप के समस्त देशों में उसके द्वारा प्रचार कार्य की चेष्टा करने लगा। 

 

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भले बनो

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=810बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है ।


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बुराइयों के अंधकार मे अच्छाइयो की किरणे

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=720वृद्ध अध्यापक की वसीयत

एक वृद्ध रोगी मृत्यु- शय्या पर था ।। सभी परिजन दुःख से त्रस्त, मुँह पर हवाइयाँ उड़ी हुई।। डॉक्टर परेशान था ।। उसने हर प्रकार की दवाइयाँ और इंजेक्शन दिए थे, किंतु कोई लाभ न हुआ था ।। रह- रहकर रोगी आँखें खोलता, विस्फारित नेत्रों से मित्रों और निकट संबंधियों को अपने चारों ओर खड़ा देखता, पहचानने की कोशिश करता, पर कमजोरी के कारण नेत्र स्वयं मुँद जाते, जैसे सायंकाल के मुरझाए पुष्प!

जो कुछकर सकते हों, इन्हें बचाने केलिए कीजिए! हम आपको अधिक से अधिक फीस देंगे! उसके संबंधियों ने अनुनय की ।।

चिंतित डॉक्टर ने रोगी का परीक्षण करते हुए कहा- "मैं सब दवाइयाँ और उपचार करके देख चुका हूँ और भी कर रहा हूँ. .लेकिन रोगी बहुत बूढ़ा है.. जर्जर हो चुका है, कई दिनों से ताकत की दवाइयों पर जीता रहा है.. .मनुष्य की आयु की भी एक सीमा है...।"

फिर भी...फिर भी... रोते हुए संबंधी बोले -आप इनके लिए तो कुछ और प्रयत्न कीजिए।। प्राण बचाइए... जब तक साँस तब तक आस... ।

डॉक्टर फिर नया इंजेक्शन देने लगा ।।

सहसा रोगी ने अपने निर्बल हाथों से डॉक्टर का हाथ पकड़ लिया ।। धीमी सी कमजोर ध्वनि में उसने कुछ कहना चाहा ।। 

 

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बच्चों की शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी आवश्यक

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1023बच्चों को सुसंस्कृत बनाने वाली रचनात्मक प्रेरणा ही उनकी दीक्षा कही जाती है । शिक्षा के साथ ही दीक्षा भी आवश्यक है।

मनुष्य का बचपन वह दर्पण है जिसमें उसके भावी व्यक्तित्व की झलक देखने को मिल जाती है।। विश्व के महापुरुषों की जीवनी से यह स्पष्ट झलकता है कि उनका बाल्यकाल किस तरह अनुशासित, सुसंस्कृत, आत्म सम्मान पूर्ण था ।। साहस, आत्म विश्वास, धैर्य, संवेदना की ऐसी उदात्त भावनाएँ थीं, जिन्होंने उन्हें महापुरुष के स्थान तक पहुँचा दिया।। इसके विपरीत अपराधी प्रवृत्ति के मनुष्यों की जीवनी से पता चलता है कि उनका बाल्यकाल किस प्रकार कुंठाओं से ग्रस्त था, अव्यवस्थित था, बच्चे भावी समाज की नींव होते है ।। जिस प्रकार की नींव होगी, उसी के अनुरूप महल या भवन का निर्माण किया जा सकता है ।। यदि नींव ही कमजोर होगी तो कैसे उस पर भव्य भवन निर्मित किया जा सकेगा ।।

परिवार एक प्रयोगशाला होती है और माता उसकी प्रधान "वैज्ञानिक" ।। इस प्रयोगशाला में विभिन्न प्रयोगों से नए- नए आविष्कार किए जा सकते हैं ।। यदि इस प्रयोगशाला में सुसंस्कृत एवं आत्म- सम्मानी बच्चों का निर्माण करना हो तो उन्हीं के अनुरूप प्रयत्न एवं प्रयोग किए जाने चाहिए ।। अपने प्रयोगों को उत्कृष्टता की श्रेणी तक पहुँचाने के लिए यथासंभव प्रयत्न करने पड़ेंगे, जिससे देश व समाज भी लाभान्वित हो सके ।। 

 

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प्रेरणाप्रद कथा गाथाएँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=891कहानी और कथा सुनने-पढ़ने की रुचि मनुष्य में स्वभावत: पाई जाती है । जो शिक्षा या उपदेश निबंध के रूप में पढ़ना और हृदयंगम करना कठिन जान पड़ता है वही कथा-कहानी के रूप में रुचिपूर्वक पढ़ लिया जाता है और समझ में भी आ जाता है । कारण यही है कि निबंध या लेख विवेचनात्मक होते हैं, उनका मर्म ग्रहण करने में बुद्धि को विशेष परिश्रम करना पड़ता है । जिन निबंधों की भाषा अधिक प्रौढ़ अथवा गूढ़ होती है उनके समझने में प्रयत्न भी अधिक करना पड़ता है और उसके लायक विद्या, बुद्धि तथा भाषा ज्ञान सब व्यक्तियों के पास होता भी नहीं ।

पर कहानी की बात इससे भिन्न है । वर्णनात्मक प्रसंग सुनने का क्रम आरंभिक अवस्था से ही चलने लगता है । छोटे बच्चे भी कहानी सुनने का आग्रह करते हैं और उसे सुनने के लालच से रात में जगते भी रहते हैं । कम पढ़े व्यक्ति भी कहानी-किस्सा की पुस्तक शौक से पढ़ या सुन लेते हैं । कारण यही कि कहानी में जो घटनाएँ कही जाती हैं उनमें से अधिकांश हमको अपने या अन्य परिचित व्यक्तियों के जीवन में घटी हुई सी जान पड़ती हैं । उन्हें समझ लेने में कुछ कठिनाई नहीं होती । साथ ही कहानीकार उनमें जो थोड़ी बहुत विचित्र अथवा कुतूहल की बातें मिला देता है उससे पाठक का मनोरंजन भी हो जाता है । 

 

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प्रफुल्ल चन्द्र राय

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=837सन् १८८९ का वर्ष था। इंग्लैंड में रसायनशास्त्र की सर्वोच्च परीक्षा डी० एस-सी० पास करके एक बंगाली तरुण बंगाल के शिक्षा-विभाग के प्रधान अधिकारी मि० क्राफ़्ट के सामने यह शिकायत करने पहुँचा कि जब उसकी योग्यता वाले अँग्रेजों को ११००-१२०० वेतन पर नियुक्त किया जाता है, उसको २५० रुपया मासिक की सहायक प्रोफेसर की जगह ही दी जा रही है। मि० क्रफ़्ट ने कुछ नाराजगी के साथ कहा – "जिन्दगी में सभी तरह के काम-धन्धे तुम्हारे लिए खुले हैं। तुम इसी नौकरी को स्वीकार करो, इसके लिए तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार का दबाव तो नहीं डाला जा रहा है। अगर तुम अपनी योग्यता को इतना अधिक समझते हो तो व्यावहारिक क्षेत्र में कोई स्वतन्त्र कार्य करके उसे प्रकट करो।” अंग्रेज अफ़सर के यह व्यंगपूर्ण शब्द उसके कलेजे में चुभ गए, पर उस समय अपनी परिस्थिति को समझकर वह चुप रह गया और उसने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कालेज में २५० रु० की नौकरी ही स्वीकार कर ली। पर साथ ही उसने यह भी स्वीकार कर लिया कि, अवसर पाते ही मैं इनको कोई स्वतंत्र काम करके दिखलाऊँगा।

इस महत्वपूर्ण संस्था के संस्थापक थे – आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय (१८६१ से १९४४) जो भारतवर्ष में रसायन-विज्ञान के सर्वप्रथम उच्च कोटि के ज्ञाता थे और उनकी योग्यता को अन्त में विदेशी सरकार ने भी स्वीकार करके "सर" की उपाधि प्रदान की थी। यद्यपि उनके पश्चात् और भी कई भारतीयों ने विज्ञान में उल्लेखनीय प्रसिद्धि प्राप्त की थी और उनके समकालीन श्री जे० सी० बोस ने भी ज्ञान-विज्ञान में बहुत अधिक नाम कमाया था, पर प्रफ़ुल्ल बाबू ने इतनी अधिक विद्या और पदवी पाकर, उसको जिस तरह लोक कल्याण के उद्देश्य से उत्सर्ग कर दिया, उसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। 

 

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Friday 4 November 2016

दो घिनौने मुफ्तखोर, कामचोर

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=701परिश्रम के बिना धनाकाँक्षा प्रकृति को पसंद नही

समुद्र अन्वेषी अंग्रेज कप्तान वैज्ञानिकों का एक दल लेकर सन् १७५८ में लंबी यात्रा पर था ।। इसमें उसने इंग्लैण्ड से लेकर आस्ट्रेलिया, तक के लंबे क्षेत्र के प्रामाणिक नक्शे तैयार किए थे, साथ ही उस बहुमूल्य संपदा का पता लगाने का प्रयत्न किया जो समय- समय पर डूबे हुए जहाजों के कारण समुद्र तल में डूबी पड़ी है ।। एक तूफान में फँस जाने के कारण सन् १७७० में ग्रेट वैरियर रीफ के समीप उसने अपने जहाज पर लदी छै: तोपें भी पानी में फेंक दी थी ।। कप्तान कूक के द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदनों में से कुछ गुम हो गए है अस्तु उसके कामों का फिर सर्वे करना पड़ रहा है ।। उसने जिस स्थान पर अपनी तोपें फेंकी थी उसी के नजदीक बहुत- सी संपत्ति समुद्र तल में होने का संकेत था ।। अस्तु उस स्थान को ढूँढ़ने का प्रयास नए सिरे से करना पडा ।।

पिछले दो सौ वर्षो में एक के बाद एक खोजी दल दस बार उस क्षेत्र में गए, पर उन तोपों के डुबोए जाने के स्थान का सही पता न लगा सके ।। अब फिलाडेल्फिया की प्रकृति विज्ञान एकेड़मी के एक खोजी दल ने उस स्थान को ढूँढ़ निकाला और छहों तोपें सुरक्षित रूप से प्राप्त कर ली गई है ।। अब अगला कदम उन स्थानों का पता लगाने का है जहाँ बड़ी धनराशि मिलने की संभावना है ।। 

 

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देशबंधु चित्तरंजन दास

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=776सन् १९०८ की बात है भारतवर्ष का राजनैतिक वातावरण पूरी तरह गर्म हो रहा था। देश भर में "स्वदेशी आंदोलन" की धूम मची हुई थी। "अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करो" की ध्वनि से आकाश गूजँ रहा था। भारतवासियों की इस विद्रोही भावना को देखकर ब्रिटिश अधिकारी भी कुपित होकर दमन पर तुल गये। देश के सैकड़ों सुप्रसिद्ध नेता और कार्यकर्ता गिरफ्तार किए और ले जाकर जेलों में बन्द कर दिये गये। स्वदेशी-प्रचार की सभाओं को पुलिस लाठी चलाकर भंग कर रही थी। अनेक स्थानों में तो "वन्देमातरम्" कहने पर गिरफ्तार कर लिए जाते थे। इस प्रकार जनता और सरकारी अधिकारियों में भयंकर संघर्ष हो रहा था। भारतीय नर-नारी अपने जन्मसिद्ध अधिकारों की माँग कर रहे थे और सरकारी कर्मचारी आंदोलन को कुचल डालना चाहते थे।

सरकार के दमन चक्र का प्रतिकार करने के लिए देश के कुछ नवयुवकों ने शांतिपूर्ण आंदोलन का मार्ग त्यागकर शस्त्र-बल का आश्रय लेने का निश्चय किया। खुले तौर पर तो अंग्रेजों की आधुनिक, अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सेना का मुकाबला कर सकना मुट्ठी भर व्यक्तियों के लिए संभव न था, इसलिए इन क्रांतिवादियों ने गुप्त-संगठन बनाये और छिपे तौर पर बम बनाने तथा पिस्तौल आदि एकत्रित करने का कार्य आरंभ किया। बंगाल के क्रांतिकारी दल ने अपना सबसे पहला लक्ष्य कलकत्ता के एक मजिस्ट्रेट मि० किंग्सफोर्ड को बनाया। वे स्वदेशी आंदोलन में पकडे़ जाने वाले व्यक्तियों को कड़ी-कड़ी सजायें दे रहे थे। एक पंद्रह वर्ष के लड़के को उन्होंने बेंत लगाने की भी सजा दी। इस पर क्रुद्ध होकर क्रांतिकारी दल ने मि० किंग्सफोर्ड को मारने का आदेश दे दिया। 

 

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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=843राजेन्द्र बाबू (सन् १८८४ से १९६३) का जन्म बिहार और जीरादेयी गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री महादेव सहाय एक सामान्य जमींदार थे, जो अपनी सेवा और दयालुता के लिए आस-पास बहुत प्रसिद्ध थे। उनको आयुर्वेद तथा यूनानी चिकित्सा का सामान्य ज्ञान था और वे बहुत तरह की दवाइयाँ बनाकर लोगों को मुफ्त बाँटा करते थे। उस समय सब जगह सरकारी अस्पताल और औषधालय तो थे नहीं, इसलिए बाबू महादेव सहाय के स्थान को ही अस्पताल मानकर रोगियों की‌भीड़ लगी रहती थी। उनकी पत्नी भी बड़ी दयावान और सहानुभूति रखने वाली थीं। वह किसी के कष्ट, पीड़ा को नहीं देख सकती थीं। उनके पास लोग सदैव किसी न किसी प्रकार की सहायता माँगने आते ही रहते थे।

राजेन्द्र बाबू और मजरुल हक दोनों उन महापुरुषों में से थे, जो जातीय द्वेष की क्षुद्र भावना से बहुत ऊपर रहते थे। भारत के गत ५० वर्षों के इतिहास को देखते हुए हम जानते हैं कि मुसलमानों में मजहबी पक्षपात दूसरी जातियों की अपेक्षा अधिक होता है तो भी व्यक्तिगत रूप से सज्जन पुरुष उनमें भी पाए जाते हैं। इस सम्बन्ध में हमको अपना दृष्टिकोण उदार और संतुलित ही रखना चाहिए। 

 

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जीवट एवं संकल्पशक्ति के धनी पराक्रमी व्यक्तित्व

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=715संसार में महापुरुष अनेक श्रेणियों के होते हैं। हमारे यहाँ के सामान्य जन तो इतना ही समझते हैं कि लोग एकांत में रहकर तपस्या करते हैं, कंदमूल, फल या दूध आदि पर निर्वाह करते है दाढ़ी और सर के बालों को बढ़ाए रहते हैं, अवसर पड़ने पर किसी व्यक्ति को आशीर्वाद देकर उसका द़ुःख दूर कर सकते हैं, वे ही महात्मा अथवा महापुरुष हैं ।। पर यह धारणा बड़ी संकुचित है और वर्तमान परिस्थितियों में अपूर्ण भी है। इसमें संदेह नहीं कि किसी युग में भारत के ऋषि- मुनि जिनमें से अनेक निश्चय ही महापुरुष थे, इसी प्रकार रहते थे। वह समय ऐसा ही था जबकि देशकाल के अनुसार सभी लोग बहुत सीधा- सादा और प्राकृतिक जीवन बिताते थे। उस समय समाज एवं व्यक्तियों की सेवा और भलाई करने की इच्छा रखने वाले महापुरुषों को और भी सरल, अपरिग्रही व तपस्यामय जीवन बिताना पड़ता था, क्योंकि इन्हीं साधनों से वे दूसरे लोगों का उपकार करने में समर्थ होते थे।

पर अब समय बहुत अधिक बदल गया हैं। आवागमन, संसार में होने वाली घटनाओं की जानकारी, व्यापार- व्यवसाय, वैज्ञानिक आविष्कार आदि की अभूतपूर्व वृद्धि के कारण मनुष्यों का जीवन वैसा सीधा और स्वाभाविक रह सकना असंभव हो गया है, जैसा कि कुछ हजार वर्ष पहले था, पर इसका यह अर्थ नहीं कि आजकल महापुरुष नहीं होते अथवा वे पुराने समय वालों की अपेक्षा हीन हैं। उस समय जिस प्रकार जटाजूट रखकर लंगोटी से ही काम चला लेने वाले अधिकांश में इस श्रेणी में आते थे, उसी प्रकार आज कोट- पतलून, हैट- बूट धारण करने वाले और होटलों में रहकर डबल रोटी और चाय से पेट भरने वाले भी महापुरुष माने जाते हैं। 

 

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जिजीविषा की धनी ये असामान्य प्रतिभाएँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=583मानवरत्न- लाल बहादुर शास्त्री

सन् ११२१, असहयोग आंदोलन का बिगुल बज उठा।। भावनाशील लोग समय की पुकार सुनकर लाखों की संख्या में रणक्षेत्र में जा कूदे ।। विद्यार्थियों ने विद्यालय छोड़ दिए कर्मचारियों ने काम करना छोड़ दिया, न्यायालय बंद पड़ गए किसानों ने लगान देना बंद कर दिया, रेल, तार, डाक सेवा का उपयोग बंद हो गया ।। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया ।।

सोलह वर्ष के एक किशोर की आत्मा भी युग की पुकार सुनकर अधीर हो उठी ।। वह जानता था कि विद्यालय छोड़ने से उसका ही नहीं उसकी विधवा माँ का भविष्य भी अंधकार में हो जाएगा ।। पिता जिसे मंझधार में छोड़ गए थे, अब बेटा भी आंदोलन करने लगा, यह जानकर वह कितनी दुखी होगी ।। रिश्तेदार तो पहले ही उसकी देशभक्ति को खतरनाक कहते रहे हैं ।। ये विवशताएँ उनके मार्ग में बाधा बनकर खड़ी थीं।। फिर भी जीत अंतःकरण की आवाज की हुई, वह अध्यापक के सम्मुख जा खड़ा हुआ ।। 'गुरूजी अब आज्ञा दीजिए ।' अध्यापक इस किशोर की भावनाओं को समझते थे और घर की स्थिति भी जानते थे ।। उन्होंने समझाया 'बेटा हाईस्कूल परीक्षा में कुछ ही महीने रहे हैं ।। परिश्रम करके तुम अच्छे डिवीजन से पास हो जाओगे तो माँ को सहारा हो जाएगा ।' किशोर ने गुरु जी की बात सुनी पर वह रुक न सका ।। अपने तथा अपनी बेसहारा माँ के हितों को देश हितों पर बलिदान करके असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाला यही किशोर एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बना ।। अन्य राष्ट्रों के नेताओं ने आश्चर्य से सुना कि भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पास अपना घर का मकान भी नहीं, जिन्होंने प्रधानमंत्री बनकर किश्तों पर कार खरीदी ।। महामंत्री चाणक्य जैसा ही यह एक अनुपम उदाहरण था ।। 

 

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जन जागृति के प्रणेता युग मनीषी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=584कामना मानव मन की एक सहज स्वाभाविक वृत्ति है ।। यही वह वृत्ति है जो मनुष्य को निरंतर कर्मशील बनाए रखती है।। यों लौकिक कामनाएँ तो हर व्यक्ति करता है पर पारमार्थिक पारलौकिक या बहुजन हिताय बहुजनसुखाय के लिए अपनी योग्यता, प्रतिभा व शक्ति को नियोजित करते हुए एक महान ध्येय को पा लेने की दैवी अभिलाषाएँ भी कइयों के मन में उठा करती हैं ।। कुछ व्यक्ति उन भावनाओं, अभिलाषाओं को पूर्ण नहीं पाते और कुछ पूर्ण कर लेते हैं ।। इसके पीछे उन लोगों की व्यावहारिक सूझ- बूझ व ध्येयनिष्ठा की प्रखरता जुड़ी रहती है ।। कोई सामान्य जन अपनी सीमित सामर्थ्य में कितना बड़ा काम कर सकता है- इसके अनुपम उदाहरण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं ।। पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को पूरी तरह निभाते हुए भी आचार्य वर ने राष्ट्रभाषा हिंदी के उन्नयन में जो योगदान दिया उसे सभी जानते हैं ।। उनका काल ही हिंदी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है ।।

हिंदी के वरद् पुत्रों में प्रतिभाशाली तो कई हुए हैं ।। उन प्रतिभाओं का सदुपयोग करने वाले भी अनेक हुए हैं ।। किंतु जहाँ प्रश्न आता है किसी ध्येय को लेकर श्रम की उपलब्धि- दैवी संपदा के सहारे जिन लोगों ने अपने आप में प्रतिभा का सृजन, संवर्द्धन किया, ऐसे विरले ही मिलेंगे ।। उन्हीं में से एक महावीर प्रसाद द्विवेदी भी हैं ।। 

 

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गणेश शंकर विद्यार्थी


 


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=759त्याग और बलिदान के


आराधक गणेश शंकर विद्यार्थी

सन १९१४- १५ की बात है कि पुलिस का एक बड़ा दल कानपुर के प्रताप प्रेस की तलाशी लेने आ धमका ।। बीसियों पुलिस के सिपाही शहर के कोतवाल खान बहादुर बाकरअली और इन्स्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, जो अंग्रेज था, सबने प्रेस को एकाएक घेर लिया और विद्यार्थी जी के कमरे में जा पहुँचे ।। उन दिनों प्रताप का कार्य धनाभाव से बड़ी गरीबी में चलाया जाता था ।। ऑफिस में केवल दो ही कुर्सी थी ।। एक पर संपादक विद्यार्थी जी और दूसरी पर मैनेजर शिवनारायण मिश्र बैठकर काम कर रहे थे ।। कोतवाल को अन्य सरकारी नौकरों की तरह ही अपने अंग्रेज अफसर की बड़ी फिकर थी ।। उनको खड़े देखकर कोतवाल साहब ने विद्यार्थी जी से कुर्सी देने को कहा पर वे तो सरकार के ही विरोधी थे उसके अफसरों की आवभगत वह भी पुलिसवालों की क्यों करने लगे ? इस पर कोतवाल ने विद्यार्थी जी को बदतमीज कह दिया ।। यह सुनते ही विद्यार्थी जी की त्यौरियाँ चढ़ गई और अपने को शहर का कर्ता- धर्ता समझने वाले कोतवाल को डाँटकर जोर से कहा बदतमीज तुम और होंगे तुम्हारे साहब ।। साहब हैं तो मैं क्या करूँ, क्या सिर पर चढ़ा लूँ ? वे पब्लिक सर्वेट हैं, तो उसी तरह रहें ।। आप इस प्रकार रौब किस पर झाड़ते हैं ?' इंस्पेक्टर जनरल इस निर्भीकता और खरी- खरी बातों से स्तंभित रह गये और स्वयं क्षमा माँगने लगे ।।

ऐसी ही दूसरी घटना १९२१ की है, जब विद्यार्थी जी को एक अभियोग में जेल भेजा गया ।। जेल के नियमानुसार जेलर उनको लेकर सुपरिटेंडेंट मेजर बकले के सामने गया।। उस समय वे कुर्सी पर बैठे कुछ कागजात देख रहे थे और असिस्टेंट जेलर आदि कई कर्मचारी उनके पास खड़े थे ।। विद्यार्थी जी देर होते देखकर वही पड़ी कुर्सी पर बैठ गये ।। जेलर ने यह देखा तो वह घबरा उठा ।।

 

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कर्मयोगी केशवानन्द

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साधु- संन्यासियों के लिए आदर्श - कर्मयोगी केशवानंद

भारतवर्ष की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता यहाँ के साधु- संन्यासी भी हैं ।। इसमें संदेह नहीं कि यह परंपरा अति प्राचीन काल से चली आई है, पर विभिन्न युगों में इसका इतना अधिक रूपांतर हुआ है कि आज के साधु- सन्यासियों को देखकर प्राचीन काल के साधुओं का किसी भी प्रकार अनुमान नहीं लगाया जा सकता ।। हमको भारतीय- साहित्य में वशिष्ठ, विश्वामित्र, व्यास, गौतम, कपिल, कणाद आदि ऋषियों का जो विवरण मिलता है उससे यह कभी प्रकट नहीं होता कि वे आजकल के साधुओं की तरह बिना कोई समाजोपयोगी कार्य किये दूसरों के परिश्रम की कमाई से पेट भरने वाले जीव थे ।। उनमें से शायद ही कोई गृहत्यागी था ।। वे सच्चे अर्थों में समाज और धर्म के संचालक थे और यदि दान ग्रहण भी करते थे, तो उसका उपयोग अधिकांश में विद्या- प्रचार समाजोत्रति की विविध प्रकार की प्रवृत्तियों में ही करते थे ।। यदि आजकल के अस्सी- नब्बे लाख सा नामधारी व्यक्ति उस परंपरा का कुछ अंशों में भी पालन करते ती आज भारतीय समाज और जाति की दशा वर्तमान से बहुत भिन्न और संतोषजनक हो सकती ।। पर इस समय हम साधुओं की जो गतिविधियाँ देख रहे हैं, उसका परिणाम विपरीत ही देखने में आ रहा है उससे समाज की किसी प्रकार की सेवा या उन्नति होने के बजाय, उसके पतन में ही सहायता मिलती दिखाई पड़ रही है ।।

 

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ऋषि टाल्सटाय

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=842"एक समय था जब मैं खुले शब्दों में कह दिया करता था कि हमारा ईसाई धर्म बिल्कुल झूठ है। किन्तु आगे चलकर इसमें परिवर्तन हो गया। तब मैने संदेह करने में तो कमी कर दी, किन्तु मुझे इस बात का पक्का विश्वास हो गया, जिस धर्म को हम मान रहे हैं, उसमें पूरी सच्चाई नहीं है। साधारण मनुष्यों द्वारा माने जाने वाले धर्म में तो वास्तविकता थी, क्योंकि इसमें लेशमात्र संदेह नहीं कि सच्चाई के बिना जीवित रहना असम्भव है। यह सच्चाई मुझे मालूम थी और मैं उसी के अनुसार चलाता था। पर इस सच्चाई के साथ भी झूठ मिला हुआ था। यह ठीक है कि साधारण लोगों के विचारों में पादरी लोगों (पंडा-पुरोहित) की अपेक्षा अधिक सच्चाई थी, किन्तु वह असत्य से सर्वथा मुक्त न थे।"

जब धर्म की नींव कमजोर पड़ जाती है और उसका सार-तत्व निकल जाता है, तो मनुष्य का चरित्र भी कायम नहीं रह सकता। ऐसा होने पर भी कुछ लोग तो "धर्म" का नाम लेते रहते हैं और थोड़ा-बहुत दिखावा भी कर देते हैं और कुछ लोग बड़ी शान के साथ अपने को ऐसी "बेवकूफ़ी" की बातों से अलग बतलाने लगते हैं और प्राय: धर्म का मज़ाक उड़ाया करते हैं। इन दोनों ही प्रकार के लोगों का चारित्रिक और नैतिक पतन अनिवार्य होता है। उनकी दृष्टि में खाना, कमाना, भोग करना ही मनुष्य-जीवन का सार रह जाता है और उसी की पूर्ति में वे सदा लगे रहते हैं। इस सम्बन्ध में टाल्सटाय के अनुभव वास्तव में बड़े करुणा-जनक और हृदय-द्रावक हैं। उनका वर्णन करने में उन्होंने जिस स्पष्टता और साहस का परिचय दिया है, वह अद्वितीय है। वे जन्म से ही एक बहुत प्रतिष्ठित और राजवंश से संबन्धित घराने से थे और बाद में भी अपने उद्योग तथा त्याग और तप से जगत्-पूज्य बन गये।. . 

 

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आदर्शो की बलिवेदी पर जीवन चढाना सीखें भाग-१

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1255अपनी संस्कृति में मनुष्य के दीर्घायुष्य की कामना करने का विधान है । दीर्घायुष्य की यह कामना किसलिए ? क्या केवल इसलिए कि मनुष्य सारा जीवन सांसारिक सुखोपभोग करता रहे और एक दिन राम नाम सत्य हो जाय ? नहीं, कदापि नहीं । भारतीय संस्कृति की आधारशिला भोगवाद नहीं अपितु कर्मवाद है । त्याग, तप, लोक संग्रह और लोक मंगल इस आधारशिला के चार सुदृढ़ स्तम्भ हैं । मनुष्य इस धरती का दोहन करने नहीं वरन् इसे जीवन के उच्चतम मूल्यों से सुसज्जित करने, सुषमामय बनाने के लिए जन्मा है । ऐसा मूल्य समन्वित, त्याग-तप-लोक संग्रह और लोक मंगल प्रेरित कर्मनिष्ठ जीवन मनुष्य जिए-दीर्घायुष्य की कामना में अन्तनिर्हित यही भावना है ।

आयु का विस्तार दीर्घ हो अथवा अल्प, काम्य दीर्घता अथवा अल्पता नहीं है, काम्य जीवन की सार्थकता है । जीवन की सार्थकता की उपलब्धि यदि मृत्यु के शीघ्र वरण से होती है तो वही वरणीय है । ऐसा ही जीवन स्पृहणीय है, अनुकरणीय है, श्लाघ्नीय है । वह जीवन नहीं जो दीर्घ होते हुए भी केवल पृथ्वी का भार बना हुआ है, जिसके बोझ से धरती माता धँसी-पिसी जा रही है । इसी सत्य का बोध कराने और केवल बोध ही नहीं अपितु जीवन में उसे उतारने, तदनुरूप जीवन ढालने के लिए ही इस संकलन में ऐसे महावीरों के जीवन की झाँकी दिखलाई गई है जिनको अपने अंक से लगाकर मृत्यु भी धन्य हो गई । 

 

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आदर्श कहानियां

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=809बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है । 

 

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अब्राहम लिंकन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=727अमेरिका आज संसार में धन और शक्ति की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। संसार कं अधिकांश राष्ट्र उसके कर्जदार और सबसे अधिक सैन्य- साम्रगी उसके ही पास है। पर इतनी समृद्धि और सामर्थ्य होने पर भी वहीं सामाजिक शांति का बड़ा अभाव है। लूटमार, अपहरण, हत्या, आत्महत्या की जितनी घटनायें वहीं होती हैं, उतनी शायद ही किसी अन्य देश ने होती होंगी। सब प्रकार के साधन होते हुए भी इस तरह का अशांत, असंतुष्ट -जीवन व्यतीत करना, इस बात का चिह्न है कि वहीं के समाज में कोई ऐसी बड़ी त्रुटि है, जिससे वे वास्तविक सुख से वंचित ही रह जाते है।

न मालूम वह कौन -सी अशुभ घड़ी थी, जब धन के लोनी कुछ नर- पिशाचों ने अफ्रीका कं निरीह हबशियों को जबर्दस्ती पकड़कर गुलाम के रूप में अमेरिका में बेचना शुरू जिया ।। उस समय अमेरिका की आबादी कम थी। जमीन जितनी चाहे पडी़ हुई थी बस वहाँ वहीं के गोरी ने इन काले लोगों से पशुओं की तरह काम लेकर अपने वैभव की वृद्धि करनी आरंभ की। वे लोग हबशियों को मनुष्य नहीं समझते थे और उसके साथ कैसा भी व्यवहार कर सकते थे। हबशी दास को मार डालने पर भी कोई कानूनों प्रतिबंध न था और वास्तव में प्रति वर्ष सैकड़ों दास अधिक क्रुर प्रकृति के मालिकों द्वारा मार दिये जाते थे। हबशियों की संतान, स्त्री, बच्चे सब मालिक की अचल संपत्ति की तरह माने जाते थे और उनको पीढ़ी- दर एक ही मालिक की दासता करनी पड़ती थी जब तक यह स्वयं उसे किसी दूसरे के हाथ बेच न दे। अगर भीषण कष्टों को सहन न कर सकने के कारण कोई दास भाग जाता, तो जानवरों की तरह उसका पीछा और खोज की जाती थी और उसे पकड़कर पहले से अधिक यंत्रणायें दी जाती थी। 

 

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Thursday 3 November 2016

Wealth Of Knowledge

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1199Stories have always been very useful for overall development of children. Short Stories sow the seeds of knowledge and moral ideas in their mind. Through these stories children learn to differentiate between good and bad, friend and foe. Stories are considered to be most effective medium for personality development of children and for giving them good sanskars. Previously, grandmothers (dadi & nani) used to tell inspiring stories to children. But these days this important art is being neglected. Yug Nirman Yojna has published Picture Books containing short stories which will entertain, guide and inspire the children and elders both. 

 

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Stories Of Saints

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Saturday 29 October 2016

Road To Progress

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Rely On Prudence

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Pearls Of Ocean

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Inspiring Stories

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Fruits Of Contentment

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Firm Endeavour

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बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=95पुस्तिका में विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र- छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि। विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग- व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं। पढ़ी- लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे। 

 

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Tuesday 25 October 2016

खाते समय इन बातों का ध्यान रखें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=138अध्यात्म विद्या के वैज्ञानिक ऋषियों ने आहार के सूक्ष्म गुणों का अत्यंत गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया था और यह पाया था कि प्रत्येक खाद्य- पदार्थ अपने में सात्विक, राजसिक, तामसिक गुण धारण किए हुए है और उनके खाने से मनोभूमि का निर्माण भी वैसा ही होता है । साथ ही यह भी शोध की गई थी कि आहार में निकटवर्ती स्थिति का प्रभाव ग्रहण करने का भी एक विशेष गुण है । दुष्ट, दुराचारी, दुर्भावनायुक्त या हीन मनोवृत्ति के लोग यदि भोजन पकावें या परसे, तो उनके वे दुर्गुण आहार के साथ सम्मिश्रित होकर खाने वाले पर अपना प्रभाव अवश्य डालेंगे । न्याय और अन्याय से, पाप और पुण्य से कमाए हुए पैसे से जो आहार खरीदा गया है उससे भी वह प्रभावित रहेगा । अनीति की कमाई से जो आहार बनेगा वह भी अवश्य ही उसके उपभोक्ता को अपनी बुरी प्रकृति से प्रभावित करेगा ।

इन बातों पर भली प्रकार विचार करके उपनिषदों के ऋषियों ने साधक को सतोगुणी आहार ही अपनाने पर बहुत जोर दिया है । मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ, बासी, बुसे, तमोगुणी प्रकृति के पदार्थ त्याग देने ही योग्य हैं । इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के लोगों द्वारा बनाया हुआ अथवा अनीति से कमाया हुआ आहार भी सर्वथा त्याज्य है । इन बातों का ध्यान रखते हुए स्वाद के लिए या जीवन रक्षा के लिए जो अन्न औषधि रूप समझकर, भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाएगा 

 

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समाज - सुधार और जनसेवा मे संलग्न जानकी मैया

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=451शहरों में रहने वाले और विशेषतया वे व्यक्ति जिनके घरों में नल लगे हैं, इस बात को जल्दी नहीं समझ सकते कि पानी के अभाव से भी करोड़ों लोगों को कितना कष्ट सहन करना पड़ता है । अमेरिका आदि आधुनिक देशों में तो जिन स्थानों में पानी की कमी होती है, सरकार समुद्र के पानी को मीठा बनाकर बाहर से पानी लाकर नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । पर भारत के लाखों गाँवों में जहाँ कुएँ बहुत कम और गहरे हैं, अथवा गर्मी में जिनका पानी सूख जाता है, वहाँ के निवासियों को थोड़े से पानी के लिए भी कितना परिश्रम और प्रयत्न करना पड़ता है, इसको भुक्त-भोगी ही जानते हैं । जहाँ मुनुष्यों को भी पीने के लिए जल-कष्ट सहन करना पड़ता है, वहाँ गाय, बैल, घोड़ा आदि पशुओं की क्या दशा होती होगी, इसकी कल्पना से भी मन दुःख से भर जाता है ।

ऐसा ही दृश्य जब "जानकी मैया" ने महापुरुष विनोबा के साथ बिहार के गाँवों की पद-यात्रा करते समय देखा, तो उसका हृदय करुणा से ओत-प्रोत हो गया । वह विचार करने लगी कि कैसे खेद की बात है कि ये गरीब लोग पूरा पानी भी नहीं पाते, अथवा दो-दो, चार-चार मील से लाकर अपनी प्यास बुझाते हैं जबकि नगरों में लाखों व्यक्तियों के यहाँ चाय, शर्बत, कोको-कोला की ही भरमार होती रहती है । उन्होंने यह बात विनोबा जी के सम्मुख प्रकट की । उन्होंने भी इसकी गंभीरता स्वीकार की और वे इस संबंध में किसी उपाय पर विचार करने लगे । 

 

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वीर दुर्गादास

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=450धर्म और जाति की रक्षा के लिए समय-समय पर जिन वीरों ने भारत माता की गोद में जन्म लिया और अपने पावन कर्तव्य का पालन करने में सर्वस्व के साथ जीवन तक बलिदान कर दिया, उनमें वीर दुर्गादास का बहुत ऊँचा स्थान है । इतिहास में जो तलवार के धनी योद्धा, नायक आगे दिखलाई देते हैं, उनमें वह संख्या उन्हीं की है, जो या तो राजा थे या राजकुमार, और ये अधिकतर अपने ही भू-खंड की रक्षा-स्वतंत्रता अथवा आन-बान-शान यश, गौरव और अभिमान के लिए मैदान में आये और अपना जौहर दिखलाकर अस्त हो गये । उनके बलिदान अथवा वीरता की निष्पक्ष विवेचना की जाए, तो उनके कर्तृत्व के पीछे उनका आत्म-व्यक्तित्व किसी न किसी अंश में सक्रिय रहा दिखलाई पड़ेगा ।

वीर दुर्गादास एक ऐसे नायक थे, जिनका सारा कर्तृत्व, कर्तव्य और संपूर्ण जीवन परस्वार्थ, परसेवा और परोपकार की पवित्र वेदी पर बलिदान होता रहा । वे न राजा थे और न राजकुमार । न उनका कोई पैतृक राज्य था और न बाद में ही उन्होंने कोई भू-खंड अपने अधिकार में करके उस पर अपना राजतिलक कराया । जबकि उन्होंने अपने बाहुबल और बुद्धिबल से मारवाड़ को स्वतंत्र कराया, मुगलों से तमाम जागीरें छीन ली, दिल्ली के बादशाह औरंगजेब को नीचा दिखाकर आर्य धर्म की पताका ऊँची कर दी । आगामी मुगल बादशाहों के होश इस सीमा तक ठिकाने कर दिये कि भारत में धार्मिक अथवा जातीय अत्याचार का चक्र बंद हो गया और हिंदू-मुसलमानों के बीच समान गौरव की स्थापना हो गई।

वीर दुर्गादास एक साधारण सेनानायक के पुत्र थे और आजीवन, बड़ी-बड़ी विजय पाकर भी सिपाही बने रहे । न उन्होंने कभी राज्य का लोभ किया और न राजपद का । वे योद्धा होकर भी जन सेवक और नायक होकर भी अपने को नगण्य बनाये रहे ।



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Monday 24 October 2016

राजा राम मोहन राय

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=448उन्नीसवीं सदी का समय भारतवर्ष के इतिहास में महान् परिवर्तनों का था ।। मुसलमानों का भारतव्यापी शासन- कटकर लगभग निर्जीव हो चुका था और उसका स्थान दूरवर्ती इंग्लैण्ड ग्रहण कर रहा था ।। अंग्रेज शासक अपनी सेना और तोप के साथ अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म को भी लाये थे इस बात के प्रयत्न में थे कि यहाँ के निवासियों में इनका प्रचार करके अपनी जड़ मजबूत की जाये ।। मुसलमानों ने भी हिंदुओं को अपने धर्म में दीक्षित करने की चेष्टा की थी, पर उनके साधन मुख्यतः: तलवार और तरह- तरह के उत्पीड़न थे ।। इसके विपरीत अंग्रेजों ने अपने धर्म को शस्त्र- बल से थोपने की नीति से काम नहीं लिया, वरन युक्ति, तर्क और प्रमाणों से ईसाई- धर्म की श्रेष्ठता और हिन्दू की हीनता सिद्ध करने का प्रयत्न किया और उनको अपने इस प्रयत्न में सफलता भी मिली ।।

इसका कारण यह नहीं था कि ईसाई- धर्म के सिद्धांत अथवा उसका तत्त्वज्ञान हिंदू- धर्म की अपेक्षा उच्च कोटि का था ।। जो धर्म हजारों वर्ष पहले वेदांत सिद्धांत के रूप में रचना के एकमात्र कारण परब्रह्म की विवेचना कर चुका था इस अखिल विश्व के अनादि और अनंत होने की घोषणा कर चुका था, उसकी तुलना ईसाई धर्म से कैसे की जा सकती थी ?? जो एक शरीरधारी द्वारा पाँच हजार वर्ष पहले सात दिन के भीतर इस दुनिया का निर्माण किए जाने पर विश्वास रखता था ।। भारतीय मनीषियों ने संसार को वेद और उपनिषदों का जो गंभीर ज्ञान दिया, उसकी समता बाईबिल की कथाओं से, जिनमें ईसा के थोड़े से चमत्कार और राजाओं के किस्से ही पाये जाते हैं, कैसे की जा सकती थी?? 

 

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बृहत भारत के विश्वकर्मा श्री विश्वेश्वरैया

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=447श्री विश्वेश्वरैया जिन दिनों मैसूर के दीवान थे, एक दिन सरकारी काम से कहीं दौरे पर जा रहे थे।। यह सूचना किसी प्रकार मार्ग में एक स्कूल में पहुँच गई।। मास्टर इस अवसर को उत्तम समझकर सड़क पर पहुँचकर खड़ा हो गया और जब श्री विश्वेश्वरैया की कार आई तो उसे रोककर उसने प्रार्थना की कि वे स्कूल के बच्चों को दर्शन दें ।। यद्यपि उनको जाने की जल्दी थी, पर छोटे बच्चों के आग्रह को वे टाल न सके और गाड़ी से उतरकर पाँच- सात मिनट के लिये स्कूल के कमरे में चले गये ।। मास्टर ने कहा- "कृपया बच्चों के दो शब्द कह दीजिये ।" विश्वेश्वरैया बिना पहले से सोचे- समझे और तैयारी किये कसी सार्वजनिक संस्था में नहीं बोलते थे, पर बच्चों के प्रेमवश उन्होंने यों ही दो- चार बातें कह दी ।। बच्चे खुश हो गये और उनको बारंबार धन्यवाद देने लगे ।। पर विश्वेश्वरैया ने अनुभव किया कि उनका भाषण छात्रों के उपयुक्त न था ।। इसलिये वे मास्टर को सूचना देकर दो- चार दिन बाद फिर उस स्कूल में पहुँचे और लड़कों के सामने एक सारगर्भित और शिक्षाप्रद भाषण दिया, जिससे छात्रवृंद ही नहीं, अपितु समस्त ग्रामवासी बहुत प्रभावित हुये ।। अगर वे यह सोचकर रह जाते कि छोटे लड़के अच्छे या साधारण भाषण के अंतर को नहीं समझ सकते तो उनसे कोई कुछ कहने वाला नहीं था।। पर उनका आरंभ से ही यह सिद्धांत था कि कोई भी काम कभी घटिया ढंग से नहीं करना चाहिए ।। हल्के ढंग से उस समय काम भले ही चल जाय पर उसमें स्थायित्व नहीं आ सकता ।। इसलिये कैसा भी अवसर क्यों न हो, मनुष्य को अपना स्तर नहीं घटाना चाहिये ।। ऊँचा स्तर रखने से उसका प्रभाव अच्छा ही पड़ता है और आज नहीं तो कल लोग उसकी तरफ आकर्षित होते ही हैं ।।


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