Tuesday 28 February 2017

मन के हारे हार है मन के जीते जीत

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=96मस्तिष्क मानवी सत्ता का ध्रुवकेंद्र है ।। उसकी शक्ति असीम है ।। इस शक्ति का सही उपयोग कर सकना यदि संभव हो सके, तो मनुष्य अभीष्ट प्रगति- पथ पर बढ़ता ही चला जाता है ।। मस्तिष्क के उत्पादन इतने चमत्कारी हैं कि इनके सहारे भौतिक ऋद्धियों में से बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है ।। मस्तिष्क जितना शक्तिशाली है, उतना ही कोमल भी है ।। उसकी सुरक्षा और सक्रियता बनाए रहने के लिए यह आवश्यक है कि अनावश्यक गरमी से बचाए रखा जाए ।। पेंसिलिन आदि कुछ औषधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें कैमिस्टों के यहाँ ठंढे वातावरण में, रेफ्रीजरेटरों में सँभालकर रखा जाता है ।। गरमी लगने पर वे बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं ।। औषधियाँ ही क्यों अन्य सीले खाद्य पदार्थ कच्ची या पक्की स्थिति में गरम वातावरण में जल्दी बिगड़ने लगते हैं ।। उन्हें देर तक सही स्थिति में रखना हो तो ठंढक की स्थिति में रखना पड़ता है ।। मस्तिष्क की सुरक्षा के मोटे नियमों में एक यह भी है कि उस पर गरम पानी न डाला जाए गरम धूप से बचाया जाए ।। बाल रखाने और टोपी पहनने का रिवाज इसी प्रयोजन के लिए चला है कि उस बहुमूल्य भंडार को यथासंभव गरमी से बचाकर रखा जाए ।। सिर में ठंढी प्रकृति के तेल या धोने के पदार्थ ही काम में लाए जाते हैं ।। इससे स्पष्ट है कि मस्तिष्क को अनावश्यक उष्णता से बचाए रहने की सुरक्षात्मक प्रक्रिया को बहुत समय से समझा और अपनाया जाता रहा है ।। 

 

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परिवार को सुव्यवस्थित कैसे बनाएँ ?

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=239 परिवार अर्थात सहकारी परिकर

व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी है - परिवार व्यक्ति को अपनी सूझ व्यवस्था, क्षमता, सुसंस्कारिता आदि गुणकर्म- स्वभाव से संबंधित विशेषताएँ बढ़नी पड़ती हैं। इनका अभ्यास न होने पर कोई किसी क्षेत्र में प्रगति नहीं कर सकता। जीवनयापन की सुनियोजित विधि−व्यवस्था ही समग्र साधना है, इसे एकाकी नहीं क्रिया जा सकता ।। प्रयोग- परीक्षण और अभ्यास के लिए कोई सुविधा संपत्र सुनियोजित तंत्र चाहिए। ऐसी प्रयोगशाला निकटतम क्षेत्र में नितांत सरलतापूर्वक उपलब्ध हो सकने वाली परिवार व्यवस्था ही है ।।

समाज के साथ समुचित तालमेल बिठाने दो लिए किसी न किसी प्रकार का अनुभव- अभ्यास करना ही होता है। दूसरों को अनुकूल बनाने, उनकी स्थिति समुन्नत करने तथा सुधार प्रयोजन के लिए संघर्ष करने जैसे जितने ही कार्य करने पड़ते हैं। कितने ही अनुभव एकत्रित करने और प्रयोग अभ्यासों में प्रवीणता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए क्या विद्यालय में प्रवेश पाया जाए ? कितने दिन में इस प्रकार का पाठ्यक्रम पूरा जिया जाए ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यह समस्त सुविधाएँ और परिस्थितियों परिवार परिकर में सहज उपलब्ध हैं, यदि मनोयोग पूर्वक प्रयोग परिणामों का विश्लेषण- विवेचन करते हुए उसी क्षेत्र में सही रीति- नीति अपनाई जा सके। कृत्यों के परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते रहा जाए तो उस शिक्षा की समग्र आवश्यकता पूरी हो सकती है, जो सामाजिक सुसंतुलन उपलब्ध करने और अभीष्ट सहयोग प्राप्त होते रहने के लिए नितांत आवश्यक है। 

 

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The Secret Of A Healthy Life

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=204Good health and ability for proper understanding—both these are the best blessings in life.

Good health is closely related to proper understanding. It is said that a stable mind resides in a healthy body. The mind, thoughts and understanding of a person having indifferent health will never be mature. One can judge a man from the status of his health. People with good moral conduct are healthy, strong and free from diseases. They always have a smiling face. These people have some sort of a magnetism so that everyone wishes to talk to them, make friends with them and always be with them. 

 

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सुख चाहें तो यों पाएँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=98आशा और उत्साह कहीं से लाने अथवा आने वाली वस्तुएँ नहीं हैं । यह दोनों तेज आपके अतःकरण में सदैव ही विद्यमान रहते हैं । हाँ, आवश्यकता के समय उनको जगाना तथा पुकारना आवश्यक पड़ता है । जीवन की कठिनाइयों तथा आपत्तियों से घबरा कर अपने इन अंतरंग मित्रों को भूल जाना अथवा उनका साथ छोड़ देना बहुत बड़ी भूल है । ऐसा करने काअर्थ है कि आप अपने दुर्दिनों को स्थाई बनाते हैं, अपनी कठिनाइयों को पुष्ट तथा व्यापक बनाते हैं । किसी भी अंधकारमें, किसी भी प्रतिकूलता अथवा कठिनाई में अपने आशा, उत्साह के समन्वय को कभी मत छोडिएगा । कठिनाईयाँ आपका कुछ नहीं कर सकेंगी । 

 

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Monday 27 February 2017

हमारे महान उत्तराधिकारी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1210छोटे बच्चों की शिक्षा का विषय बड़ा महत्त्वपूर्ण और साथ ही पेचीदा भी है ।। जन्मकाल में बच्चा गीली- मिट्टी के एक लौंदे की तरह होता है जिसको जैसा चाहे गढ़ा जा सकता है ।। कुम्हार उससे भगवान कृष्ण की मूर्ति भी बना सकता है, हनुमानजी भी गढ़ सकता है और रावण की आकृति भी तैयार कर सकता है, यही बात अधिकांश में छोटे बच्चों पर लागू होती है ।। उनका शरीर, मन, प्रवृत्ति आरंभ में किसी भी तरफ मुड़ने लायक होती है और माता- पिता, अभिभावक उसे जैसा चाहें अच्छा या बुरा, सद्गुणी या दुर्गुणी बना सकते है ।।

आप कहेंगे कि ऐसा माता- पिता कौन होगा जो अपने बच्चों को अच्छा और सद्गुणी न बनाना चाहे ?? यों कहने को तो संसार में ऐसे चोर, बदमाश, गुंडे, लुटेरे, ठग लोगों की भी कमी नहीं जो कुमार्ग के सिवाय और कोई रास्ता जानते ही नहीं और अपनी संतान को भी वैसी शिक्षा देते है ।। यदि ऐसे अपराधी श्रेणी वालों की बात छोड़ भी दी जाय तो भी प्राय: यही देखते है कि लोग अपने बच्चों को सुशील, सद्गुणी देखना तो चाहते हैं, पर उसके लिए कोई प्रयत्न नहीं करते ।। वे स्वयं ही अपनी सुविधा या परिस्थिति के ख्याल से बच्चे की आदतों को शुरू से ही बिगाड़ देते है, उनके सामने कभी श्रेष्ठ आदर्श उदाहरण रखने की चेष्टा नहीं करते और जब बालक अनुचित मार्ग पर चलने लगता है तो उसी को दोष देने लगते हैं ।। सही बात तो यह है कि बच्चे का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, चारित्रिक सब प्रकार का विकास माता- पिता या अभिभावकों के व्यवहार पर ही निर्भर रहता है ।। 

 

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हम सुख शान्ति से वंचित क्यो है

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=589हम सुख-शांति से वंचित क्यों हैं ?

सुख और दुःख क्या है ?

सुख और दुःख का अपना कोई अस्तित्व नहीं है । इनका कोई सुनिश्चित ठोस, सर्वमान्य आधार भी नहीं है । सुख-दुःख मनुष्य की अनुभूति के ही परिणाम हैं । इसकी मान्यता कल्पना एवं अनुभूति विशेष के ही रूप में सुख-दुःख मनुष्य के मानस पुत्र हैं, ऐसा कह दिया जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी । मनुष्य की अपनी विशेष अनुभूतियाँ मानसिक स्थिति में ही सुख-दुःख का जन्म होता है । बाह्य परिस्थितियों से इनका कोई संबंध नहीं । क्योंकि जिन परिस्थितियों में एक दुखी रहता है तो दूसरा उनमें खुशियाँ मनाता है, सुख अनुभव करता है । वस्तुत: सुख-दुःख मनुष्य की अपनी अनुभूति के निर्णय हैं और इन दोनों में से किसी एक के भी प्रवाह में बह जाने पर मनुष्य की स्थिति असंतुलित एवं विचित्र सी हो जाती है । उसके सोचने-समझने तथा मूल्यांकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है । किसी भी परिस्थिति में सुख का अनुभव करके अत्यंत प्रसन्न होना, हर्षातिरेक हो जाना तथा दुःख के क्षणों में रोना बुद्धि के मोहित हो जाने के लक्षण हैं । इस तरह की अवस्था में सही-सही सोचने और ठीक काम करने की क्षमता नहीं रहती । मनुष्य उलटा-सीधा सोचता है । उलटा-सीधा काम करता है ।कई लोग व्यक्ति विशेष को अपना अत्यंत निकटस्थ मान लेते हैं । फिर अधिकार भावनायुक्त व्यवहार करते हैं । विविध प्रयोजनों का आदान-प्रदान होने लगता है । 

 

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स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=819यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है-जो जैसा बोता है, वह वैसा काटता है । क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । पैंडुलम एक ओर चलता है तो लौटकर उसे फिर वापस अपनी जगह आना पड़ता है । गेंद को जहाँ फेंककर मारा जाए वहाँ से लौटकर उसी स्थान पर आना चाहेगी, जहाँ से फेंकी गई थी । शब्दवेधी बाण की तरह भले-बुरे विचार अंतरिक्ष में चक्कर काटकर उसी मस्तिष्क पर आ विराजते हैं, जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है । कर्म के संबंध में भी यही बात है । दूसरों के हित-अहित के लिए जो किया गया है, उसकी प्रतिक्रिया कर्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी जिसके लिए वह कर्म किया गया था, उसे हानि या लाभ भले ही न हो । गेहूँ से गेहूँ उत्पन्न होता है और गाय अपनी ही आकति-प्रकृति का बच्चा जनती है । कर्म के संबंध में भी यही बात है, वे बंध्य नपुंसक नहीं होते । अपनी प्रतिक्रिया संतति उत्पन्न करते हैं । उनके प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं । यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में घोर अंधेर छाया हुआ दीखता, तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की चिंता न करता । 

 

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सुसंस्कृत बनें, समुन्नत बनें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1013अपना काम तो किसी तरह पशु भी चला लेते हैं ।। पेट भरने और प्रजनन करने के इर्द- गिर्द ही उनकी सारी चेष्टाएँ नियोजित रहती हैं ।। मानव की अपनी सामर्थ्य एवं प्राप्त अतिरिक्त विभूतियाँ भी यदि मात्र इसी सीमा तक रहीं तो मनुष्य की विशेषता क्या रही ?? पशुओं से थोड़ा अधिक समुन्नत स्तर का साधन- सुविधाओं से युक्त जीवनयापन कर लेना मानव जीवन की सार्थकता का परिचायक नहीं है ।। सार्थक और सफल मनुष्य जीवन वह है जो अपने ही तक सीमित न रहकर कुछ दूसरों के लिए- समाज, देश और संस्कृति के भी काम आए ।। जिन गुणों के कारण अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य की श्रेष्ठता- वरिष्ठता स्वीकार की जाती है, वे हैं- करुणा, दया, उदारता तथा सदाशयता ।। अंतःकरण की इन विशेषताओं के कारण ही मनुष्य को सृष्टि का मुकुटमणि माना जाता है ।।

बुद्धिमान होना एक बात है पर भाव- संवेदना से संपन्न होना सर्वथा दूसरी बात है ।। जहाँ ये दोनों विशेषताएँ एक साथ परिलक्षित होती हैं व्यक्ति एवं समाज दोनों ही की प्रगति का कारण बनती हैं ।। पर ऐसा होता कम ही है ।। बुद्धि अंतःकरण की- सदाशयता की सहचरी कम ही बन पाती है ।। जहाँ बनती है, मानवी व्यक्तित्व को सही अर्थों में सद्गुणों से विभूषित करती है, आलोकित करती है ।। उस आलोक से कितनों को ही प्रेरणा और प्रकाश मिलता है ।। इसके विपरीत भाव संवेदनाओं की दृष्टि से शुष्क बुद्धि संकीर्ण स्वार्थों में ही लिपटी रहती है ।। अस्तु महत्त्व बुद्धिमता का नहीं उस सद्बुद्धि का है जो सद्भावनाओं से अनुप्राणित हो ।। दूसरों के दुःख- दर्दों को देखकर जिस अंतःकरण में करुणा उमड़ने लगे तथा उनके निवारण के लिए मन मचलने लगे, ऐसे अंतःकरण से संपन्न व्यक्ति सचमुच ही वंदनीय हैं ।। 

 

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सहृदयता आत्मिक प्रगति के लिये अनिवार्य

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=704असुरता की नृशंसता में परिवर्तन

मनुष्य में देवता और असुर की, शैतान और भगवान् की सम्मिश्रित सत्ता है ।। दोनों में वह जिसे चाहे उसे गिरा दे यह पूर्णतया उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है ।। विचारों के अनुसार क्रिया विनिर्मित होती है ।। असुरता अथवा देवत्व की बढ़ोत्तरी विचारक्षेत्र में होती है; उसी अभिवर्द्धन- उत्पादन के आधार पर मनुष्य दुष्कर्मों अथवा सत्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है ।। यह क्रियाएँ ही उसे उत्थान- पतन के, सुख- दुःख के गर्त में गिराती है ।।

असुरता कितनी नृशंस हो सकती है इसके छुटपुट और व्यक्तिगत उदाहरण हमें आए दिन देखने को मिलते रहते हैं ।। ऐसा सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर और मात्र सनक के लिए भी किया जाता रहा है ।। उसके उदाहरण भी कम नहीं हैं ।। छुटपुट लड़ाई- झगड़ों से लेकर महायुद्ध तक जितनी क्रूरताएँ; जितनी भी विनाशलीलाएँ हुईं हैं, सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है ।।

लड़ाइयाँ छोटी हों या बड़ी उनके मूल में मनुष्य की यह मान्यता काम करती है कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए दूसरों के साथ बल प्रयोग करना उचित और आवश्यक है ।। एक ग्रीक कहावत है- शाति चाहते हो तो युद्ध की तैयारी करो" सशक्त पक्ष अपने अहं को प्रतिष्ठित करने के लिए छोटों के साथ दमन की नीति अपनाता है ।। इसमें उसे तिहरा लाभ प्रतीत होता है ।। अपने अहं की तुष्टि- आतंक से दूसरे लोगों का डरकर आत्म- समर्पण करना और दूसरे भौतिक लाभों को कमा लेना ।।  

 

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Friday 24 February 2017

सहयोग और सहिष्णुता

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=861सहयोग और सहिष्णुता

गायत्री मंत्र का दसवाँ अक्षर "गो" अपने आस- पास वालों को सहयोग करने और सहिष्णु बनने की शिक्षा देता है ।

गोप्या: स्वयां मनोवृत्तीर्नासहिष्णुर्नरो भवेत् ।

स्थिति मज्यस्य वै वीक्ष्य तदनुरूप माचरेत ॥

अर्थात-"अपने मनोभावों को छिपाना नहीं चाहिए आत्मीयता का भाव रखना चाहिए । मनुष्य को असहिष्णु नहीं होना चाहिए । दूसरों की परिस्थिति का ध्यान रखना चाहिए।"

अपने मनोभाव और मनोवृत्ति को छिपाना ही छल कपट और पाप है । जैसा भाव भीतर है वैसा ही बाहर प्रकट कर दिया जाय तो वह पाप निवृत्ति का सबसे बड़ा राजमार्ग है । स्पष्ट और खरी कहने वाले,पेट में जैसा है वैसा ही मुँह से कह देने वाले लोग चाहे किसी को कितने ही बुरे लगें पर वे ईश्वर और आत्मा के आगे अपराधी नहीं ठहरते ।

जो आत्मा पर असत्य का आवरण चढ़ाते हैं वे एक प्रकार के आत्म हत्यारे हैं । "कोई व्यक्ति" यदि अधिक रहस्यवादी हो अधिक अपराधी कार्य करता हो तो भी उसके अपने कुछ ऐसे विश्वासी मित्र अवश्य होने चाहिए जिनके आगे अपने रहस्य प्रकट करके मन को हल्का कर लिया करे और उनकी सलाह से अपनी बुराइयों का निवारण कर सके । 

 

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सभ्यता का शुभारंभ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1223आध्यात्मिक और भौतिक उभय पक्षीय प्रगति का बीज तत्व है- "सभ्यता" ।। यह बहिरंग है ।। शिष्टाचार के रूप में यही प्रकट होती है ।। शिष्टाचार से कुछ ऊँची स्थिति है- सदाचार ।। सभ्यता के सूत्र समयानुसार जब अंत: क्षेत्र में उतरते हैं, तो क्रमश: सदाचार और सुसंस्कार के रूप में विकसित होते हैं ।।

सिद्धांत रूप में तो यह भी कहा जा सकता है कि सुसंस्कारिता को हृदयंगम करने के उपरांत सदाचार एवं सभ्यता की रीति- नीति भी व्यवहार में दीखने लगती है, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव यह बतलाता है कि सुसंस्कारिता के प्रति उमंग पैदा करने के लिए जन सामान्य को सभ्यता के बहिरंग सूत्रों को ही माध्यम बनाना पड़ता है ।।

सभ्यता प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान है ।। क्रिया से चेतना विकसित होती है ।। इसी से संयम जैसे आध्यात्मिक निर्धारणों को अभ्यास में उतारा जाता है ।। संस्कृति के सूत्रों के आधार पर आत्मनिर्माण करने वाला सांसारिक सहयोग और दैवी अनुदानों का सच्चा अधिकारी बन जाता है ।। सभ्यता का अनुसरण करते- करते साधक संस्कृति के भावनात्मक उच्चस्तर तक पहुँच जाता है ।। 

 

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सफल जीवन की दिशा धारा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=737 विद्यार्थी जीवन

(छात्र अपना भविष्य निर्माण आप करें)

विद्यार्थी जीवन, जीवन का सुनहरा काल है ।। Student life is the golden period of life. कुछ सीखने, कुछ जानने, कुछ बनने का सतत सार्थक प्रयास इसी समय में होता है ।। एक विद्यार्थी के क्या लक्षण होते हैं, वह नीचे श्लोक में दिए हुए हैं ।।

 

काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ।।

अल्पाहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पंचलक्षणम् ।।

 (१) काक (कौआ) चेष्टा- कौआ दूर आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरते हुए भी अपनी तीव्र दृष्टि द्वारा जमीन पर पड़े किसी खाद्य पदार्थ को देख चपलतापूर्वक वहाँ पहुँच जाता है तथा अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेता है ।। उसी प्रकार विद्यार्थी भी ज्ञान की प्राप्ति हेतु तीव्र जिज्ञासा रखे तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त करता चले।

(२) वकोध्यानम्- बगुला तालाब या नदी के किनारे एक पैर पर खड़ा रहकर ध्यान मग्न रहता है ।। मछली आने पर तुरंत उन्हें अपना ग्रास बनाकर पुन: ध्यानस्थ हो जाता है।। विद्यार्थी भी विद्या अध्ययन में लगा रहे तथा ज्ञान- विज्ञान की बातों को ग्रहण करते हुए निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ता रहे ।।

(३) श्वान (कुत्ता) निद्रा- जैसे सोए हुए कुत्ते के पास से धीरे- से गुजरने पर भी वह जग जाता है, उसी प्रकार विद्यार्थी भी अपने जीवन- लक्ष्य को प्राप्त करने में सदैव सावधान व जागरूक रहे ।। उसकी नींद सात्विक है ।। 

 

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सद्भाव और सहकार पर ही परिवार संस्था निर्भर

 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=983दांपत्य जीवन की शुरुआत करते समय भारतीय वर- वधू परस्पर प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं कि हम एक- दूसरे के प्रति कर्त्तव्य- निष्ठ रहेंगे, उदार रहेंगे, सहयोग करेंगे और प्रगति पथ पर साथ- साथ आगे बढ़ेंगे ।। यह प्रतिज्ञा यदि निष्ठापूर्वक दोनों ओर से निभाई जाए तो निश्चय ही दंपत्ति एक सुदृढ़ सम्मिलित इकाई के रूप में सक्रिय रहते हैं और उनका जीवन आनंद प्रकाश तथा प्रगति की सुरभि से महक उठता है ।। ऐसे दंपति जिस समाज में रहते हैं, वह समाज एक सुरभित उद्यान बना रहता है ।।

दांपत्य जीवन की सफलता के लिए इन दिनों शारीरिक स्वास्थ्य, आर्थिक समृद्धि, शिक्षा और सौंदर्य को आधार मानने की रीति है ।। निस्संदेह, सांसारिक जीवन को चलाने के लिए ये सभी आवश्यक हैं, पर भौतिक उपकरणों से भी पहले गहन आत्मीयता और सघन संवेदना की उपस्थिति दांपत्य जीवन की आरंभिक शर्त है ।। यदि भावनाओं से पति- पत्नी एक- दूसरे से अर्द्धांग रूप से जुड़े रहते हैं, उनमें प्रेम एवं आत्मीयता भरी रहती तो भौतिक साधन उन्हें सर्वोपरि नहीं प्रतीत होंगे, बाह्य आकर्षण उन्हें उतने आवश्यक नहीं लगेंगे ।।

प्रेम और आकर्षण दो भिन्न तत्व हैं ।। शारीरिक गठन व स्वास्थ्य और सौंदर्य के अनुपात से घटती- बढ़ती रहने वाली राग वृत्ति को आकर्षण कहते हैं, जबकि प्रेम इससे भिन्न एक आध्यात्मिक तत्व है जो दांपत्य जीवन में मधुरता का, कठिन परिस्थितियों में भी सघन आत्मीयता और कर्त्तव्य निष्ठा का, आनंद- प्रमोद तथा आहाद का संचार करता रहता है।। अंतःकरण का संतोष ही उसे पालता है ।। 

 

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सदाचरण और मर्यादा पालन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1224परमात्मा ने हर मनुष्य की अन्तरात्मा में एक मार्गदर्शक चेतना की प्रतिष्ठा की है, जो उसे उचित कर्म करने की प्रेरणा देती एवं अनुचित करने पर भर्त्सना करती रहती है ।। सदाचरण, कर्तव्यपालन के कार्य धर्म या पुण्य कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता एवं शांति का अनुभव होता है ।। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया है, तो अन्तरात्मा में लज्जा, संकोच, पश्चात्ताप, भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा ।। भीतर अशांति रहेगी और ऐसा लगेगा मानों अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कार रही है ।। 

 

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सत्य को पूर्वाग्राहों में न बाँधें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1227सूरज इतना छोटा नहीं है कि उसे एक छोटे कमरे में बंद किया जा सके ।। समग्र सत्य इतना तुच्छ नहीं है कि किन्हीं मनुष्यों का नगण्य- सा मस्तिष्क उसे पूरी तरह अपने में समाविष्ट कर सके ।। समुद्र बहुत बड़ा है, उसे चुल्लू में लेकर हममें से कोई भी उदरस्थ नहीं कर सकता ।। सत्य को जितना हमने जाना है, हमारी समझ और दृष्टि के अनुसार वह सत्य हो सकता है- उस पर श्रद्धा रखने का हर एक को अधिकार है किंतु इससे आगे बढ़कर यदि ऐसा सोचा जाने लगा कि अन्य लोग जो सोचते हैं, वह सब कुछ मात्र असत्य ही है, तो यह पूर्वाग्रहपूर्ण मान्यता सत्य की अवमानना ही होगी ।। 

 

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सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव का संगम

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=967संकल्प सक्रियता और साहस को जब सही दिशा में नियोजित किया जाता है तो वे सत्कर्म का आधार बनते हैं । इसीलिए जीवट, साहस, सक्रियता के साथ ही सद्भाव और सद्ज्ञान भी जरूरी है ताकि सही दिशा का चुनाव किया जा सके और निष्ठा पूर्वक उसी ओर बढ़ते रहा जाए। सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव का संगम ही श्रेष्ठ जीवन की सुनिश्चित रीति-नीति है ।




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संयम-हमारी एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता

 

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राम- रावण का युद्ध का प्रथम दौर आरंभ हुआ ।। रावण ने अपने सर्वोच्च सेनापति मेघनाद को ही सबसे पहले लड़ने भेजा ।। वह मेघनाद जिस पर रावण के युद्ध का, उसकी विजय का पूरा- पूरा दारोमदार था ।। मेघनाद को आता देख राम पीछे हट गए और बोले, लक्ष्मण, तुम्हें ही मेघनाद से युद्ध करना है ।

कैसी विचित्र बात थी! अपार शक्तिशाली राम को पीछे क्यों हटना पड़ा मेघनाद से और अकेले लक्ष्मण को ही क्यों उसका सामना करने भेजा ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए राम ने ही कहा है, "लक्ष्मण, मेघनाद बारह वर्ष से तप कर रहा है, ब्रह्मचारी है और तुमने चौदह वर्षों से स्त्री का मुँह तक नहीं देखा ।। मेरे साथ रहकर तपस्वी, संयमी जीवन बिताया ।। इसलिए तुम ही मेघनाद को हरा सकते हो ।। मैं तो गृहस्थ हूँ ।" और सचमुच लक्ष्मण ही उसे हरा सके ।। मेघनाद को इंद्रजीत कहा जाता है ।। इसका तात्पर्य वस्तुत: अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से है ।।

पितामह भीष्म के बारे में कौन हिंदू जानता न होगा ।। महाभारत का वह घनघोर युद्ध जिसमें श्रीकृष्ण को भी अपनी प्रतिज्ञा भंग करनी पड़ी, उनके समक्ष ।। हनुमान से लेकर महर्षि दयानंद, विवेकानंद तथा बहुत से महापुरुष संसार में जो कुछ कार्य कर सके, उसका मूल आधार उनका संयमी ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन ही था ।। स्वयं महात्मा गांधी का जीवन उस समय से प्रकाश में आया, जब से उन्होंने अखंड संयम, ब्रह्मचर्य की धारणा की ।। 

 

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संपदाएँ बढा़एँ पर शालीनता न खोयें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=975अमेरिका आज संसार का सबसे धनी देश है ।। उसके पास अपार धनराशि है ।। धन के साथ- साथ यहाँ शिक्षा, विज्ञान एवं सुख- साधनों का प्रचुर मात्रा में अभिवर्द्धन हुआ है ।। उपार्जन की तरह उन लोगों ने उपभोग की कला भी सीखी है।। इसलिए वहाँ के निवासी हमें धनाधिप देवपुरुषों की तरह साधन संपन्न और आकर्षक दिखाई पड़ते हैं ।। हर तीन में से एक के पीछे एक कार है ।। इसका अर्थ यह हुआ कि जिस परिवार में स्त्री, पुरुष और एक बच्चा होगा, वहाँ एक कार का औसत आ जाएगा ।। टेलीविजन, रेफ्रीजरेटर, हीटर, कूलर, टेलीफोन तथा दूसरे सुविधाजनक घरेलू यंत्र प्राय: हर घर में पाए जाते हैं ।। विलासिता के इतने अधिक साधन मौजूद हैं, जिनके लिए भारत जैसे गरीब देशों के नागरिक तो कल्पना और लालसा ही कर सकते हैं ।।

विद्वान रेन एल्टिन ने अपने देशवासियों की मनःस्थिति का विश्लेषण करते हुए कहा है -

"बेचैनी उनकी एक विशेषता बन गई है ।। शांति और संतोष की हलकी- फुलकी जिंदगी जीने वाले बहुत थोड़े लोग मिलेंगे ।। अधिकांश को तो भारी तनाव और उद्वेग के बीच अपने दिन पूरे करने पड़ते हैं ।"

यह उद्वेग निर्धन और अशिक्षित देशों की अपेक्षा धनी और शिक्षितों में अधिक है ।। इस ऊब से पिंड छुड़ाने के लिए लोगों को आत्महत्या ही सरल प्रतीत होती है और उस अपेक्षाकृत कम कष्टदायक दुस्साहस को कर बैठते हैं ।। 

 

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संतान के प्रति कर्तव्य

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=867गायत्री मंत्र का चौबीसवाँ अक्षर "या" हमको संतान के प्रति हमारी जिम्मेदारी का ज्ञान कराता है ।

या यात्स्वोत्तर दायित्वं निवहन जीवने पिता ।

कुपितापि तथा पाप: कुपुत्रोऽस्ति यथा तत: । ।

अर्थात- “पिता संतान के प्रति अपने उत्तरदायित्व को ठीक प्रकार से निवाहे । कुपिता भी वैसा ही पापी होता है जैसा कि कुपुत्र ।"

जो अधिक समझदार, बुद्धिमान होता है उसका उत्तरदायित्व भी अधिक होता है । कर्तव्य पालन में किसी प्रकार की ढील, उपेक्षा एवं असावधानी करना भी अन्य बुराइयों के समान ही दोष की बात है । इसका परिणाम बड़ा घातक होता है । अक्सर पुत्र, शिष्य, स्त्री, सेवक आदि के बिगड़ जाने, बुरे होने, अवज्ञाकारी एवं अनुशासन हीन होने की बहुत शिकायतें सुनी जाती हैं। इन बुराइयों का बहुत कुछ उत्तरदायित्व पिता, गुरु, पति, शासक और संरक्षकों पर भी होता है । व्यवस्था में शिथिलता करने, बुरे मार्ग पर चलने का अवसर देने, नियत्रंण में सावधानी न रखने से अनेक निर्दोष व्यक्ति भी बिगड़ जाते हैं। 

 

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Wednesday 22 February 2017

शिष्ट बने सज्जन कहलाएँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1225सभ्यता और शिष्टाचार का पारस्परिक संबंध इतना घनिष्ठ है कि एक के बिना दूसरे को प्राप्त कर सकने का ख्याल निरर्थक है ।। जो सभ्य होगा वह अवश्य ही शिष्ट होगा और जो शिष्टाचार का पालन करता है उसे सब कोई सभ्य बतलाएँगे ।। ऐसा व्यक्ति सदैव ऐसी बातों से बचकर रहता है जिनसे किसी के मन को कष्ट पहुँचे या किसी प्रकार के अपमान का बोध हो ।। वह अपने से मत भेद रखने वाले और विरोध करने वालों के साथ भी कभी अपमानजनक भाषा का प्रयोग नहीं करता ।। वह अपने विचारों को नम्रतापूर्वक प्रकट करता है और दूसरों के कथन को भी आदर के साथ सुनता है ।। ऐसा व्यक्ति आत्म प्रशंसा के दुर्गुणों से दूर रहता है और दूसरों के गुण की यथोचित प्रशंसा करता है ।। वह अच्छी तरह जानता है कि अपने मुख से अपनी तारीफ करना ओछे व्यक्तियों का लक्षण है ।। सभ्य और शिष्ट व्यक्ति को तो अपना व्यवहार बोल- चाल कथोपकथन ही ऐसा रखना चाहिए कि उसके सम्पर्क में आने वाले स्वयं उसकी प्रशंसा करें ।। 

 

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व्यवस्था बुद्धि की गरिमा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=787मनुष्य को स्वतंत्र चिंतन स्वतंत्र आचरण की क्षमता प्राप्त है। यह सुविधा किसी अन्य प्राणी को प्राप्त नहीं है। ऐसी दशा में उसका यह निजी दायित्व बनता है कि अपने को स्वमेव नियति के अनुशासन में बाँधे रहें। संयम इसी का नाम है। धर्मधारणा के आधार पर मनुष्य को अपना चिंतन, चरित्र, व्यवहार, शालीनता के अनुबन्धों में बाँधे रहने के लिए कहा गया है।

प्रगति हेतु निर्धारित अनुबन्धों के चयन के लिए मनुष्य को‌ विवेक बुद्धि मिली है और उसके अनुरूप चलने चलाने के लिए व्यवस्था बुद्धि। पशु ढर्रे का जीवन इसलिए जीते हैं कि उनमें व्यवस्था बुद्धि नहीं है। जो मनुष्य अपनी व्यवस्था बुद्धि का विकास और उपयोग नहीं कर पाते, उन्हें भी पशुवत ढर्रे का जीवन जीना पड़ता है।

शरीर के आहार-विहार, श्रम-विश्राम का व्यवस्थित क्रम चला सकने वाला आरोग्य और शक्ति का लाभ पाता है। मन की शक्ति का व्यवस्थित उपयोग व्यक्ति को महात्मा बना देता है। विचार शक्ति व्यवस्थित होने पर विचारक-मनीषी बनकर वह अनेकों का भाग्यविधाता बनता है। श्रम और पदार्थ की व्यवस्था बना सकने वाले फैक्टरियाँ बनाते-चलाते हैं। हर उत्कर्ष के पीछे व्यवस्था बुद्धि की अनिवार्य भूमिका रहती ही है। मनुष्य मात्र से इसकी गरिमा समझने, इसे विकसित और प्रयुक्त करने की अपेक्षा की जाती है।

मनुष्य साधारण प्राणियों के बीच रहते हुए उन्हीं के जैसा व्यवहार न अपना ले, इसलिए तत्वदर्शियों ने उसके लिए अतिरिक्त प्रकाश-प्रेरणा का निर्धारण किया है। इसी को आत्मबोध, दिशा निर्धारण एवं कर्तव्य पालन की दिशाधारा अपनाने वाला, उत्कृष्टता बनाए रखने वाला, तत्वज्ञान कहा गया है। उसी को अध्यात्म कहते हैं। धर्मधारणा भी यही‌ है। 

 

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वाक् शक्ति और उसका नियोजन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=966मनोभावों को अभिव्यक्त करने के सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में परमात्मा ने मनुष्य को वाणी की क्षमता दी है । यह वह माध्यम है जिसके द्वारा हम संसार को अपना मित्र बना सकते हैं अथवा शत्रु । बोलना तो सभी जानते हैं किंतु कहाँ और क्या बोलना चाहिए यह कला कम ही व्यक्तियों को आती है । सांसारिक सफलताओं में बहुत बड़ा योगदान वाक्शक्ति का होता है । तत्त्ववेत्ताओं ने शब्द को शिव और वाणी को शक्ति कहा है । इनका अनुग्रह जिस पर हो उसे अमृतत्व उपभोक्ता ही कहना चाहिए ।

किस प्रयोजन के साथ, किस मनःस्थिति में, किस विधि व्यवस्था के साथ, किस शब्द का उच्चारण करने से उसकी प्रतिक्रिया भौतिक पदार्थों पर, व्यक्ति पर क्या होती है, इस "शब्द विज्ञान" का सूक्ष्म अवगाहन करके ऋषियों ने मंत्र विद्या का आविष्कार किया । इसे वाणी का श्रेष्ठतम प्रयोग ही कह सकते हैं । जो वाणी का स्वरूप और उसका उपयोग जान सका, वह बहिरंग में सुख और अंतरंग में शांति उपलब्ध करने में सफल होकर ही रहा है । 

 

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रामायण में पारिवारिक आदर्श

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=878रामायण सत् शिक्षाओं का भंडार है एक प्राचीन कथा के माध्यम से रचयिता ने दिखलाया है कि परिवार के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार कैसा होना चाहिए ?? पिता- पुत्र के कर्त्तव्य माता की ममता सास- बहू का मधुर संबंध भाइयों का निस्वार्थ प्रेम ससुराल वालों का सद्भाव पति- पत्नी की पारस्परिक निष्ठा नारी जाति की मान्यता और सम्मान आदि सभी समाजनिर्माण और व्यक्ति निर्माण से संबंधित विषयों को ऐसे सरल और प्रभावशाली प्रसंगों के द्वारा समझाया गया है कि छोटे- बड़े सभी पर हितकारी प्रभाव पड़ सकता है।

भारतवर्ष का समाजतंत्र इस: समय परिस्थितियों के बदल जाने से बहुत विकारग्रस्त हो गया है। विशेष रूप से पारिवारिक जीवन में ऐसी विषमताएँ उत्पन्न हो गई हैं जिनके कारण १५ प्रतिशत परिवारों में बाह्य और आंतरिक वैमनस्य की घटनाएँ होती रहती है, जो अनेक बार मारकाट और हत्याकांडो में भी परिणत हो जाती हैं ऐसे लोगों के लिए " रामचरितमानस " की शिक्षाएँ निस्संदेह अनमोल सिद्ध होगी इस पुस्तक में राम्- लक्ष्मण के अनुपम सहयोग भरत की निस्वार्थ निष्ठा और कर्त्तव्य पालन कौशल्या की, हनुमान का सेवा धर्म पालन सीता की पतिनिष्ठा निषादराज गुह का शुद्ध मैत्री- भाव आदि के जो प्रसंग उठाए गए हैं वे पाठक की पर निश्चय ही अनुकूल प्रभाव डालने वाले हैं उनसे शिक्षा ग्रहण करके अपनी परिस्थितियों में सुधार करना सबके लिए कल्याणकारी होगा। 

 

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मानव जीवन एक बहुमूल्य उपहार

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1021"क्यों न आप एक बरफ बनाने का कारखाना चालू करें ? इसमें आजकल बड़ा लाभ है ।। पानी के रुपए बनते हैं ।"

श्यामबाबू को उनके मित्र निरंजन ने उपर्युक्त सलाह दी।। श्यामबाबू अमीर पिता के बिगड़े हुए पुत्र हैं ।। उनके पास पिता की पूँजी है ।। किसी काम की तलाश में है ।। उनके चारों ओर मित्रों का ऐसा ही जमघट रहता है, जैसे गुड़ के चारों ओर मक्खियाँ ।।

श्यामबाबू निरंजन को अपना परम हितैषी समझते थे ।। वह उनके साथ रहता था ।। वे जहाँ कहीं मनोरंजन को जाते, सिनेमा, होटल या क्लब में निरंजन उनके पीछे चिपका रहता ।। लेकिन आखिर कुछ काम तो करना ही था ।। श्यामबाबू ने काफी पूँजी लगाकर बरफ का कारखाना चालू कर दिया ।।

"मैनेजर का काम मैं सँभालूँगा ।। इसमें हिसाब- किताब तथा हर बात में विशेष ध्यान देने की जरूरत है ।। हमें कारखाने को सफल बनाना है ।" निरंजन ने प्रस्ताव उपस्थित किया ।।

" हाँ हाँ तुम पर मेरा पूरा विश्वास है ।। तुमने समाज के नाना पहलू देखे हैं ।। सब कंट्रोल तुम्हारे हाथ में छोड़ता हूँ ।" 

 

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मानव जीवन एक बहुमूल्य उपहार

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=970जो स्वयं बदल सकेगा वही युग को बदलने की भूमिका भी संपादित करेगा जो स्वयं कीचड़ में डूबा हुआ खडा है वह किसी अन्य को स्वच्छ कैसे करेगा ? यदि हमने अपने को नहीं बदला और दूसरों को उपदेश करने का पाण्डित्य दिखाना जारी रखा तो यह एक उपहासास्पद विडंबना होगी अपनी गतिविधियाँ सुधारें और संसार हित नियोजित करें तो सत्परिणाम निश्चित रूप से सामने आएगा ।



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मर्यादाओं का उल्लंघन न करें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=995किसी भी मनुष्य अथवा समाज की उन्नति का लक्षण है- सुख, शांति और संपन्नता ।। ये तीनों बातें एक - दूसरे पर उसी प्रकार निर्भर हैं जिस प्रकार किरणें सूर्य पर और सूर्य किरणों पर निर्भर है ।। जिस प्रकार किरणों के अभाव में सूर्य का अस्तित्व नहीं और सूर्य के अभाव में किरणों का अस्तित्व नहीं, उसी प्रकार बिना सुख- शांति के संपन्नता की संभावना नहीं और बिना संपन्नता के सुख- शांति का अभाव रहता है ।।

यदि गंभीर दृष्टि से देखा जाए तो पता चलेगा कि आरामदेह जीवन की सुविधाएँ सुख- शांति का कारण नहीं हैं बल्कि निर्विघ्न तथा निर्द्वन्द्व जीवन प्रवाह की स्निग्ध गति ही सुख- शांति का हेतु है ।। जिसका जीवन एक स्निग्ध तथा स्वाभाविक गति से ही बहता चला जा रहा है, सुख- शांति उसी को प्राप्त होती है ।। इसके विपरीत जो अस्वाभाविक एवं उद्वेगपूर्ण जीवनयापन करता है, वह दुखी तथा अशांत रहता है ।। विविध प्रकार के कष्ट और क्लेश उसे घेरे रहते हैं ।। ऐसा व्यक्ति एक क्षण को भी सुख- चैन के लिए कलपता रहता है ।। कभी उसे शारीरिक व्याधियाँ त्रस्त करती हैं तो कभी वह मानसिक यातनाओं से पीड़ित होता है ।। 

 

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प्रेमोपहार

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=578आपका अगला जन्मदिन निकट ही आ रहा है ।। उस मंगलमय अवसर पर हम अपने परिवार के समस्त परिजनों की ओर से हार्दिक शुभकामना भेजते हैं ।।

आप अपना जन्मदिन उत्साहपूर्वक वातावरण में मनाने की अभी से तैयारी करें।। निर्माण शाखा के सदस्यों तथा अपने निजी मित्र परिजनों की अभी से आमंत्रित करें और एक छोटा धर्मोत्सव निर्धारित विधि- विधान के साथ नियोजित करें।। जन्मदिन मनाने की परंपरा आपके प्रियजनों में चल पड़े, इसके लिए आपको विशेष रूप से संगठित प्रयत्न करना चाहिए ।। ये आयोजन व्यक्ति निर्माण के उद्देश्य को पूर्ण करने में महत्त्वपूर्ण करेंगे ।।

आप हमारे परिवार के अति निकटवर्ती सदस्य हैं ।। आपके जन्मदिन पर हम अपने पूजा कक्ष में आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए विशेष रूप से प्रार्थना करेंगे ।। अत: आप से यह आशा की जाएगी कि आप अपने जीवनोद्देश्य पर विशेष रूप से मनन करेंगे और शेष जीवन के लिए एक ऐसी कार्य- पद्धति निर्धारित करेंगे जो आपके लिए समस्त समाज के लिए और हमारे लिए गर्व, गौरव एवं संतोष- उल्लास का कारण बने ।।

इस प्रेमोपहार पुस्तिका को ऋषि सत्ता का विशेष संदेश एवं हमारा अनुरोध समझें ।। जन्मदिन आने से पूर्व इसे कई बार पढ़ें और उस दिन तो एकांत में बैठकर प्रत्येक पंक्ति का विशेष रूप से चिंतन- मनन करें और प्रस्तुत प्रेरणा के अनुरूप भावी गतिविधियों निर्धारित करने का प्रयत्न करें ।। यह पुस्तक अपने पास अधिक संख्या में मँगाकर रखें और अपने इष्ट- मित्रों, परिचितों एवं स्नेहीजनों को उनके जन्मदिन पर उपहार स्वरूप भेंट करें ।।

इस शुभ अवसर पर आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए पुन: पुन: हमारी भावभरी हार्दिक शुभकामनाएँ 

 

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प्रेम ही परमेश्वर है

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=564संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक वह जौ शक्तिशाली होते हैं, जिनमें अहंकार की प्रबलता होती है ।। शक्ति के बल पर वे किसी को भी डरा- धमकाकर वश में कर लेते हैं ।। कम साहस के लोग अनायास ही उनकी खुशामद करते रहते हैं किंतु भीतर- भीतर उन पर सभी आक्रोश और घृणा ही रखते हैं ।। थोडी सी गुँजाइश दिखाई देने पर लोग उससे दूर भागते हैं, यहीं नहीं कई बार अहंभावना वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार भी होता है और वह अंत में बुरे परिणाम भुगतकर नष्ट हो जाता है ।। इसलिए शक्ति का अहंकार करने वाला व्यक्ति अंततः बड़ा ही दीन और दुर्बल सिद्ध होता है ।।

एक दूसरा व्यक्ति भी होता है- भावुक और करुणाशील ।। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ाएँ देखकर उसके नेत्र तुरंत छलक उठते हैं ।। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है, वहीं जा पहुँचता है और कहता है लो मैं आ गया- और कोई हो न हो, तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम्हारे पास जो कुछ नहीं है, वह मैं दूँगा ।। उस प्रेमी अंत:करण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है, इसलिए वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है ।। प्रेम वह रचनात्मक भाव है, जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है ।। इसीलिए विश्व- प्रेम को ही भगवान की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है ।। 

 

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Sunday 19 February 2017

प्रेम योग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=590आज भी जिसने एक बड़े काठ को काट कर छेद कर डाला था, वह भ्रमर सायंकाल तक एक कमल के फूल पर जा बैठा।। कमल के सौंदर्य और सुवास में भ्रमर का मन कुछ ऐसा विभोर हुआ कि रात हो गई, फूल की बिखरी हुई पंखुडियां सिमटकर कली के आकार में आ गई ।। भौंरा भीतर हो ही बंद होकर रह गया ।। रात भर प्रतीक्षा की,भ्रमर चाहता तो उस कली को कई और से छेद करके रात भर में कई बार बाहर आता और फिर अंदर चला जाता है पर वह तो स्वयं भी कली की एक पंखुडी को गया ।। प्रात:काल सूर्य की किरणे उस पुष्प पर पड़ी तो पंखुडियां फिर खिली और वह भौंरा वैसे ही रसमग्न अवस्था में बाहर निकल आया ।।

यह देखकर संत ज्ञानेश्वर ने अपने शिष्यों से कहा- देखा तुमने ।। प्रेम का यह स्वरूप समझने योग्य है ।। भक्ति कोई नया गुण नहीं, वह प्रेम का ही एक स्वरूप है ।। जब हम परमात्मा से प्रेम करने लगते हैं तो द्रवीभूत अंतःकरण सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता में सविकल्प तदाकार रूप धारण कर लेता है, इसी को भक्ति कहते हैं ।। भगवान निर्विकल्प और प्रेमी सविकल्प दोनों एक हो जाते हैं, द्वैत भाव भी अद्वैत हो जाता है ।। इसी बात को शास्त्रकार ने इस प्रकार कहा है- द्रवी भाव पूर्विका मनसो भगवदेकात्मा रूपा सविकल्प वृत्तिर्भक्तिरिती ।। 

 

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प्रकृति का अनुसरण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=755प्रकृति का अनुसरण

गायत्री मंत्र का आठवाँ अक्षर "ण्य" प्रकृति के साहचर्य में रह कर तदनुकूल जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है-

न्यस्यन्ते ये नरा पादान प्रकृत्याज्ञानुसारतः ।।

स्वस्थाः सन्तुस्तु ते नूनं रोगमुक्ता हि ।। ।।

अर्थात्- "जो मनुष्य प्रकृति के नियमानुसार आहार- विहार रखते हैं वे रोगों से मुक्त रहकर स्वस्थ जीवन बिताते हैं ।"

स्वास्थ्य को ठीक रखने और बढा़ने का राजमार्ग प्रकृति के आदेशानुसार चलना, प्राकृतिक आहार- विहार को अपनाना प्राकृतिक जीवन व्यतीत करना है ।। अप्राकृतिक, अस्वाभाविक, कृत्रिम, आडम्बर और विलासितापूर्ण जीवन बिताने से लोग बीमार बनते हैं और अल्पायु में ही काल के ग्रास बन जाते हैं ।।

मनुष्य के सिवाय सभी जीव- जन्तु पशु- पक्षी प्रकृति के नियमों का आचरण करते हैं ।। फलस्वरूप न उन्हें तरह- तरह की बीमारियाँ होती हैं और न वैद्य- डाक्टरों की जरूरत पड़ती है ।। जो पशु- पक्षी मनुष्यों द्वारा पाले जाते हैं और अप्राकृतिक आहार- विहार के लिए विवश होते हैं वे भी बीमार पड़ जाते हैं और उनके लिए पशु चिकित्सालय खोले गये हैं ।। परन्तु स्वतंत्र रूप से जंगलों और मैदानों में रहने वाले पशु- पक्षियों में कहीं बीमारी और कमजोरी का नाम नहीं दिखाई पड़ता ।। इतना हो नहीं किसी दुर्घटना अथवा आपस को लड़ाई में घायल और अधमरे हो जाने पर भी वे स्वयं ही चंगे हो जाते हैं ।। प्रकृति की आज्ञा का पालन स्वास्थ्य का सर्वोत्तम नियम है ।। 

 

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पवित्र जीवन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=771गायत्री मंत्र का बारहवाँ अक्षर ' व ' मनुष्य को पवित्र जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देता है-

व- वस नित्यं पवित्र: सन् बाह्याध्भ्यन्तरतस्तथा ।।

यत: पवित्रतायां हि राजतेऽतिप्रसनता ।।

अर्थात- 'मनुष्य को बाहर और भीतर से पवित्र रहना चाहिए क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है ।। '

पवित्रता में चित्त की प्रसन्नता, शीतलता, शांति, निश्चितता, प्रतिष्ठा और सचाई छिपी रहती है ।। कूड़ा- करकट, मैल- विकार, पाप, गंदगी, दुर्गंध, सड़न, अव्यवस्था और घिचपिच से मनुष्य की आतंरिक निकृष्टता प्रकट होती है ।।

आलस्य और दरीद्र, पाप और पतन जहाँ रहते हैं, वहीं मलिनता या गंदगी का निवास रहता है ।। जो ऐसी प्रकृति के हैं, उनके वस्त्र, घर, सामान, शरीर, मन, व्यवहार, वचन, लेन- देन सबमें गंदगी और अव्यवस्था भरी रहती है ।। इसके विपरीत जहाँ चैतन्यता, जागस्कता, सुरुचि, सात्विकता होगी, वहाँ सबसे पहले स्वच्छता की ओर ध्यान जाएगा।। सफाई, सादगी और सुव्यवस्था में ही सौंदर्य है, इसी को पवित्रता कहते है ।।

गंदे खाद से गुलाब के सुंदर फूल पैदा होते है, जिसे मलिनता को साफ करने में हिचक न होगी, वही सौंदर्य का सच्चा उपासक कहा जाएगा ।। मलिनता से घृणा होनी चाहिए, पर उसे हटाने या दूर करने में तत्परता होनी चाहिए ।। आलसी अथवा गंदगी की आदत वाले प्राय :: फुरसत न मिलने का बहाना करके अपनी कुरुचि पर परदा डाला करते हैं।।

पवित्रता एक आध्यात्मिक गुण है ।। आत्मा स्वभावत पवित्र और सुंदर है, इसलिए आत्मपरायण व्यक्ति के विचार, व्यवहार तथा वस्तुएँ भी सदा स्वच्छ एवं सुंदर रहते हैं ।। गंदगी उसे किसी भी रूप में नहीं सुहाती, गंदे वातावरण में उसकी साँस घुटती है, इसलिए वह सफाई के लिए दूसरों का आसरा नहीं टटोलता, अपनी समस्त वस्तुओं को स्वच्छ बनाने के लिए वह सबसे पहले अवकाश निकालता है ।। 

 

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परिष्कृत अध्यात्म हमारे जीवन में उतरे

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=601देवियो, भाइयो! मध्यकालीन परंपरा में भौतिक आधार पर भगवान को प्राप्त करने की कोशिश की जाने लगी और भगवान को भौतिक बना दिया गया । भगवान को भौतिक बनाने से क्या मतलब है ? भौतिक से मतलब यह है कि एक इनसान एक आदमी जैसा होता है, भगवान का स्वरूप भी एक आदमी जैसा बना दिया गया । एक आदमी जैसे मिट्टी, पानी, हवा का बना हुआ होता है, लगभग वही स्वरूप भगवान का बना दिया गया । और भगवान की इच्छाएँ ? इच्छाएँ वही बना दी गईं, जो कि एक आदमी की होती हैं । आदमी खाना माँगता है और भगवान प्रसाद माँगता है । लाइए सवा रुपये का प्रसाद, हनुमान जी को लड्डू खिलाइए । हनुमान जी का पेट भर दीजिए और काम हो जाएगा । भगवान जी को कपड़ा पहनाइए । क्यों ? आपको कपड़े पहनने चाहिए न, इसलिए भगवान जी को भी कपड़े पहनाइए । गायत्री माता पर साड़ी चढाइए । और क्या-क्या दें ? जो कुछ भी, हमको खुशामद की जरूरत हैं । आप हमारी निंदा करेंगे तो हम आपको गालियाँ सुनाएँगे । आपको हमसे कुछ काम निकालना है तो आप हमारी चापलूसी कीजिए खुशामद कीजिए पंखा झलिए हाथ जोडिए पाँव छूइए और पैर धोइए । हम व्यक्ति हैं, मनुष्य हैं इसलिए हमारे लिए भेंट लेकर के आइए । पान खिलाइए सुपारी खिलाइए इलायची दीजिए पैसा दीजिए । कुछ दीजिए हमको तो हम आपसे प्रसन्न हो सकते हैं । 

 

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परदोष दर्शन और अहंकार से बचें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1016यह सारा संसार गुण- दोषमय है।। संसार की कोई भी वस्तु तथा वाणी सर्वथा गुणसंपन्न अथवा दोषमुक्त नहीं है ।। सभी में कुछ न कुछ गुण और कुछ न कुछ दोष मिलेगा ।। परमात्मा ही अकेला पूर्ण और दोषरहित है ।। अन्य सब कुछ गुण- दोषमय एवं अपूर्ण है ।।

सामान्यत: मनुष्यों में दोष- दर्शन का भाव रहा करता है ।। इसी दोष के कारण वे अच्छी से अच्छी वस्तु में, यहाँ तक कि परमात्मा में भी दोष निकाल लेते हैं ।। दोष- दर्शन करते रहने वाला व्यक्ति संसार में किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता ।। उसकी सारी शक्ति और सारा समय दूसरों के दोष देखने तथा उनकी खोज करने में लगे रहते हैं ।। दूसरों की आलोचना करना, उनके कार्यों तथा व्यक्तित्व पर टीका- टिप्पणी करना, उनके दोषों की गणना करना, उसका एक व्यसन बन जाता है ।। दोषदर्शी व्यक्ति निस्संदेह बड़े घाटे में रहता है ।।

छिद्रान्वेषक व्यक्ति को संसार में कुरूपता के सिवाय और कुछ दीखता ही नहीं ।। किसी बात में सौंदर्य देख सकना उनके भाग्य में होता ही नहीं ।। उसे अच्छी से अच्छी पुस्तक पढ़ने को दीजिए और उसके बारे में पूछिए तो वह बड़े अनमने मन से यही कहेगा- हाँ पुस्तक को अच्छा कह लीजिए किंतु वास्तव में वह श्रेष्ठ पुस्तकों की सूची में रखने योग्य नहीं है ।। इसकी भाषा अच्छी है पर विचार निम्न कोटि के हैं ।। विचार अच्छे हैं तो भाषा शिथिल है ।। भाषा तथा विचार दोनों अच्छे हैं तो विषय योग्य नहीं है और यदि ये तीनों बातें अच्छी हैं, तो पुस्तक बड़ी है उसका मेकअप, गेटअप अच्छा नहीं है ।। 

 

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Saturday 18 February 2017

धर्मरक्षा से ही आत्मरक्षा होगी

 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=765धर्म का पालन करने में ही कल्याण है

यतोऽभ्यूदय नि:श्रेयससिद्धि: स धर्म: ।।

अर्थात " है धर्म वह है, जिसमें इस लोक में अभ्युदय हो और अंत में मोक्ष की प्राप्ति हो ।।

इस न्याय के अनुसार जिसने धर्म का पालन किया, वही अपने जीवन को सार्थक बना सका ।। मनुष्य, पशु पक्षी आदि सभी अपने- अपने स्वाभाविक धर्म का निर्वाह करते हैं ।। धर्म ही इस लोक और परलोक का निर्माता है ।। यही एक ऐसा सुगम मार्ग है, जो जीवननैया को पार लगाने में सहायक होता है ।।

धर्म उस सर्वव्यापक परमात्मा का श्रेष्ठ विधान है ।। वही संपूर्ण जात को धारण करने वाला है। उसी के सहारे पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं ।। समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, यह उसका धर्म है ।। जलवृष्टि करना मेघ का धर्म है ।। दग्ध करना अग्नि का धर्म है ।। इस प्रकार सब अपने- अपने धर्म पर अटल हैं ।।

एक बार एक राजा ने अपराधी के तर्क का उत्तर देते हुए कहा- " सर्प का धर्म काटना है, वह मनुष्य को काट खाए तो उसका कुछ अपराध नहीं है ।। अपराध उस मनुष्य का है, जिसने सर्प के बिल में हाथ डालकर अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य किया ।"

ईश्वर जैसे अनादि और सनातन है, वैसे ही धर्म भी सनातन है ।। जिसने धर्म के विरुद्ध कार्य किया, वही नष्ट हो गया ।। रावण, कंस, दुर्योधन आदि अनेक महाबलवानों का उदाहरण दिया जा सकता है, जो धर्म के विपरीत चलकर नष्ट हो गए ।। उनके कुलों में कोई रोने वाला भी उस समय शेष नहीं बचा ।।

 

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जीवन-साधना प्रयोग और सिद्धियाँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1219झाड़ियों की काट-छाँट करके एक सुंदर उपवन बनाया जा सकता है और पत्थरों को तराशकर बढ़िया मूर्ति निर्मित की मनुष्य एवं अन्य प्राणियों में कोई तात्त्विक भेद नहीं है, परंतु बुद्धि और समुन्नत चेतना के रूप में मनुष्य को ईश्वर का जो उपहार मिला है, उसकी सार्थकता अपना स्तर ऊँचा उठाते चलने और समाज के उत्कर्ष में योगदान देते रहने में ही है । इस सार्थकता की सिद्धि के लिये अपनायी जाने वाली रीति-नीति का नाम ही जीवन साधना है ।

इस पुस्तक में निर्दिष्ट सूत्रों के अनुरूप अपने व्यक्तित्वों को सुसंस्कृत बनाने का प्रयास किया जाय, तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में सुख-शांति तथा सुव्यवस्था लायी जा सकती है । 

 

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जीवन साधना के सोपान्

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=609अपने जीवन को सार्थक बनाने की दृष्टि से भी और विश्वहित साधना का पुण्य-परमार्थ करने की दृष्टि से भी हमें सबसे पहले यह प्रयत्न करना चाहिए कि अपना व्यक्तित्व निर्दोष, निर्मल एवं निष्पाप हो । दोष, पाप और मल ही हमारी प्रगति में सबसे बड़े बाधक हैं । उन्हें जितना ही हटाया या मिटाया जावेगा, उतनी ही अन्तर्ज्योति प्रदीप्त होती चलेगी और उसके प्रकाश में जीवन का प्रत्येक वस्तु प्रकाशवान् बनता चलेगा । इस प्रकाश में भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की सभी समस्याएँ अपने आप ही सुलझती चलेंगी ।

प्रस्तुत संग्रह में जीवन साधना के सोपान विषय पर आधारित प्रेरक सद्वाक्यों का संकलन परम पूज्य गुरुदेव के साहित्य में से किया गया है । इस आदर्श वाक्यों का उपयोग गाँव-शहर के सभी गली, मुहल्लों, घरों, चौराहों, पार्किंग स्थलों, शक्तिपीठों, प्रज्ञामण्डलों, महिला मण्डलों, सार्वजनिक स्थानों, नारी केन्द्रों अथवा उन-उपयुक्त स्थानों में किया जाना चाहिए जहाँ से जनसामान्य प्रेरणाप्रद विचारों से शिक्षा ग्रहण करें । 

 

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जीवन साधना की ऊर्जा - रश्मियाँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=623कौन कितना सौभाग्यशाली है ? इसके उत्तर में उसके वैभव,पद,प्रभाव आदि की नाप - जोख की जाती है ।। सुविधा -साधनों के सहारे इस प्रकार का मूल्यांकन किया जाता है, जबकि देखा यह जाना चाहिए कि गुण,कर्म,स्वभाव ,चिंतन और चरित्र की दृष्टि से कौन किस स्तर पर रह रहा है।

वस्तुत: व्यक्तित्व की पवित्रता एवं प्रखरता के आधार पर बनने वाली प्रतिभा वह सम्पदा है,, जिसके सहारे उच्चस्तरीय प्रगति के पथ पर दूर तक जा पहुँचने का अवसर किसी को भी मिल पाता है ।। आंतरिक प्रफुल्लता लोकश्रद्धा एवं दैवी अनुकम्पा को सफल जीवन की महान उपलब्धियाँ माना गया है।

इन्हें अर्जित करने में समर्थ, परिष्कृत व्यक्तित्व गढ़ने के लिए जो साधना आवश्यक है , उसके महत्त्वपूर्ण सूत्र यहाँ संकलित किए गए हैं ।सफल जीवन जीने की कला के सर्वश्रेष्ठ प्रयोक्ता ( परम पूज्य गुरुदेव ) के ये सूत्र किसी को भी जीवन लक्ष्य के चरम शिखर पर पहुँचा देने में सक्षम हैं ।। आवश्यकता है , इन्हें जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की।। 

 

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जीवन पथ के प्रदीप

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=548जीवन पथ के प्रदीप आपको उजियारे की सौगात सौंपने के लिए आए हैं । जीवन के लिए उजियारा बहुत जरूरी है । पथ पर उजियारा न हो तो अनायास ही भय, भ्रम और भटकन घेर लेते हैं । अँधेरे में, मन में अचानक ही अवसाद, विषाद का कुहाँसा छा जाता है । खिन्नता-विपन्नता ऐसे में जीवन का जैसे अविभाज्य अंग बन जाती है ।

आज की दशा कुछ ऐसी ही हो गयी है । मनुष्य के जीवन पथ, उसकी चेतना को अंधियारी ने घेर लिया है । वह भयभीत है, भ्रमित है, विषादग्रस्त है । अपने ही भ्रम में उसने स्वयं की छाया को भूत समझ लिया है और भयक्रान्त हो गया है । इसी भय और भ्रम में फँस कर उसने अपने से, अपनों से यद्ध छेड़ दिया है । लगातार चोटिल होने के बावजूद वह लड़े जा रहा है और उसके घाव बड़े जा रहे हैं ।

अंधियारे के कारण न तो किसी को सूझ रहा है और न समझ में आ रहा है कि वह किसी और से नहीं बल्कि अपने से और अपनों से लड़े जा रहा है । चोटें बढ़ रही हैं, घाव रिस रहे, पर इन्सान का उन्माद व उसका अवसाद कम नहीं हो रहा है । इनमें कमी तभी आ सकती है, जबकि जीवन पथ का अंधियारा घटे, हटे और मिटे । 

 

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Friday 17 February 2017

जीवन देवता की आराधना करें व्यक्तित्व सम्पन्न बनें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1018स्वर्ग एक उपलब्धि मानी गई है, जिसे प्राप्त करने की इच्छा प्राय: हर मनुष्य को रहती है ।। कई लोग उसे संसार से अलग भी मानते हैं और विश्वास करते हैं कि मरने के बाद वहाँ पहुँचा जाता है या पहुँचा जा सकता है।। इस मान्यता के अनुसार लोक स्वर्ग प्राप्त करने के लिए जप, तप, पूजा, पाठ, पुण्य, परमार्थ और साधना उपासना भी करते हैं ।। इस पृथ्वी से अलग लोक- विशेष में स्वर्ग जैसे किसी स्थान का अस्तित्व है, अथवा नहीं, यह विवाद का विषय है ।। पर उसे प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य के आगे बढ़ने की आकांक्षा का द्योतक है, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता ।।

मनुष्य की यह इच्छा स्वाभाविक ही है कि जिस स्थान पर वह है, उससे आगे बढे़ ।। वह उन वस्तुओं को प्राप्त करे, जो उसके पास नहीं हैं ।। मनुष्य जन्म के रूप में उसे संसार तो मिल चुका, जहाँ सुख भी है और दुःख भी, अनुकूलताएँ भी हैं तथा प्रतिकूलताएँ भी।। लेकिन मनुष्य की इच्छा रहती है कि दुःख- कष्टों और प्रतिकूलताओं से उसका कोई संबंध नहीं रहे ।। वह अधिकाधिक सुखी, संतुष्ट और सुविधा- संपन्न स्थिति को प्राप्त करे ।। यह स्थिति जीते- जी प्राप्त की जाए अथवा मरने के बाद, यह अलग विषय है।। 

 

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जीवन जीने की कला

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1012बाइबिल कहती है, "मनुष्य ईश्वर की महानतम कृति है ।" किंतु इसके विपरीत हम देखते हैं कि सामान्य से असामान्य बनना तो दूर, व्यक्ति साधारण स्तर का भी नहीं रह पाता है । इसका मूल करण है अपनी सामर्थ्य का बोध न होना । हनुमान को यदि अपनी सामर्थ्य का बोध रहा होता तो जाम्बवंत के उपदेश की उन्हें आवश्यकता न पड़ती । राम का आदेश पाते ही वह चल पड़ते । जैसे ही सागर किनारे साधारण से वानर हनुमान को अपनी आत्म-गरिमा का बोध हुआ, वह एक ही छलांग में असंभव पुरुषार्थ करने में सफल हो गए । अंगारों पर रखी राख अग्नि की तीव्रता को छुपाए रहती है । जैसे ही उसे हटाया जाता है, वह अपने मूल रूप में देदीप्यमान्, तापयुक्त हो उठती है । सूर्य पर बादल छाए हों तो कुछ देर के लिए वातावरण में ठंडक छा जाती है । बादलों के छँटते ही सूर्य का प्रकाश व गर्मी उस क्षेत्र के हर भाग तक पहुँचने लगती है । अपना आपा भी ऐसा ही प्रकाशवान्, जाज्वल्यमान् है । मात्र कषाय-कल्मषों ने, विस्मृति की माया ने, जन्म-जन्मांतरों के संचित कुसंस्कारों ने उसकी इस आभा को ढँक रखा है । यदि इस मायाजाल का आवरण हटाया जा सके तो असामान्य स्थिति में पहुँच सकना संभव है । 

 

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जीवन की श्रेष्ठता और सदुपयोग्

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1. जीवन की श्रेष्ठता और उसका सदुपयोग
2. कल्याण का मार्ग तो यह एक ही है
3. दृष्टिकोण में सुधार आवश्यक
4. अपनी महानता में विश्वास रखें
5. पात्रता के अनुरूप पुरस्कार मिलेगा
6. हमारी भावी पात्रता और उसका स्पष्टीकरण
7. न किसी को कैद करें, न किसी के कैदी बनें
8. सेवा की साधना आवश्यक
9. सेवा भावना बिना मन मरघट
10. कृपणता सृष्टि परम्परा का व्यतिरेक
11. पृथकता छोड़े सामूहिकता अपनाएँ
12. आत्म तुष्टि ही नहीं परोपकार भी
13. सम्पदाएँ नहीं-विभूतियाँ कमाएँ
14. मिल जुलकर आगे बढ़िए
15. जीवन को सेवामय बनाइए
16. प्रेमयोग ही भक्ति साधना
17. निष्काम भक्ति में दुहरा लाभ
18. जीवन की रिक्तता प्रेम प्रवृत्ति से ही भरेगी
19. विरानों से प्यार-स्वयं का तिरस्कार ऐसा क्यों ?
20. हम अपने को प्यार करें, ताकि ईश्वर का प्यार पा सकें
21. रामायण की प्रेम परिभाषा
22. प्रेम का अमरत्व और उसकी व्यापकता
23. प्रेम की सृजनात्मक शक्ति
24. प्रेम रूपी अमृत और उसका रसास्वादन
25. प्रेम का प्रयोग उच्च स्तर पर


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जीवन और मृत्यु

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1231मृत्यु से डरने की कोई बात नहीं क्योंकि कपड़ा बदलने के समान यह एक स्वाभाविक एवं साधारण बात है । परन्तु मृत्यु को ध्यान में रखना आवश्यक है। मार्ग के विश्रामगृह में ठहरे हुए यात्री को जैसे रातभर ठहर कर कूच की तैयारी करनी पड़ती है और फिर दूसरी रात किसी अन्य विश्रामगृह में ठहरना पड़ता है उसी प्रकार जीव भी एक जीवन को छोड़ कर दूसरे जीवनों में प्रवेश करता रहता है ।

क्षणिक जीवन में कोई ऐसा कार्य न करना चाहिए जिससे आगे की प्रगति में बाधा पड़े । विश्रामगृह के अनावश्यक झगड़ों में उलझ कर जैसे कोई मूर्ख यात्री मुकदमा जेल में फँस जाता है और अपनी यात्रा का उद्देश्य बिगाड़ लेता है वैसे ही जो लोग वर्तमान जीवन के तुच्छ लाभों के लिए अपना परम् लक्ष्य नष्ट कर लेते हैं वे निश्चय ही अज्ञानी हैं ।

जीवन एक नाटक की तरह है । इस अभिनय को हमें इस प्रकार खेलना चाहिए कि दूसरों को प्रसन्नता हो और अपनी प्रशंसा हो । नाटक खेलते समय सुख और दुःख के अनेक प्रसंग आते हैं पर अभिनय करने वाला पात्र उस अवसर पर वस्तुत:सुखी या दुःखी नहीं होता । इसी प्रकार हम को जीवन रूपी खेल में बिना किसी उद्वेग के अभिनय का कौशल प्रदर्शित करना चाहिए । पर साथ ही अपने लक्ष्य को भूलना न चाहिए । 

 

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जिन्दगी हँसते-खेलते जियें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1014अँगरेजी में किसी विद्वान का कथन है- "मैन इज ए लाफिंग एनीमल" अर्थात मनुष्य एक हँसने वाला प्राणी है ।। मनुष्य और अन्य पशुओं के बीच भिन्नता सूचित करने वाले- बुद्धि, विवेक तथा सामाजिकता आदि जहाँ अनेक लक्षण हैं, वहाँ एक हास्य भी है ।। पशुओं को कभी हँसते नहीं देखा गया है ।। यह सौभाग्य, यह नैसर्गिक अधिकार एकमात्र मनुष्य को ही प्राप्त हुआ है ।। जिस मनुष्य में हँसने का स्वभाव नहीं, उसमें पशुओं का एक बड़ा लक्षण मौजूद है, ऐसा मानना होगा ।।

संसार में असंख्यों प्रकार के मनुष्य हैं ।। उनके रहन- सहन, आहार- विहार, विश्वास- आस्था, आचार- विचार, प्रथा- परंपरा, भाषा- भाव एवं स्वभावगत विशेषताओं में भिन्नता पाई जा सकती है, किंतु एक विशेषता में संसार के सारे मनुष्य एक हैं ।। वह विशेषता है- "हास्य" काले- गोरे, लाल- पीले, पढ़े- बेपढ़े, नाटे- लंबे, सुंदर- असुंदर का भेद होने पर भी उनकी भिन्नता के बीच हँसी की वृत्ति सबमें समभाव से विद्यमान है ।।

प्रसिद्ध विद्वान मैलकम ने एक स्थान पर दुःख प्रकट करते हुए कहा है- "संसार में आज हँसी की सबसे अधिक आवश्यकता है, किंतु दुःख है कि दुनिया में उसका अभाव होता जा रहा है ।" कहना न होगा कि श्री मैलकम का यह कथन बहुत महत्त्व रखता है और उनका हँसी के अभाव पर दुःखी होना उचित ही है ।। देखने को तो देखा जाता है कि आज भी लोग हँसते हैं, वह उनकी व्यक्तिगत हँसी होती है, किंतु सामाजिक तथा सामूहिक हँसी दुनिया से उठती चली जा रही है ।। उसके स्थान पर एक अनावश्यक एक कृत्रिम गंभीरता लोगों में बढ़ती जा रही है ।। 

 

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