Wednesday 29 March 2017

ऋषि चितंन के सान्निध्य में -1

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उठो! हिम्मत करो स्मरण रखिए रुकावटें और कठिनाइयाँ आपकी हितचिंतक हैं । वे आपकी शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग सिखाने के लिए हैं । वे मार्ग के कंटक हटाने के लिए हैं । वे आपके जीवन को आनंदमय बनाने के लिए हैं । जिनके रास्ते में रुकावटें नहीं पड़ी, वे जीवन का आनंद ही नहीं जानते । उनको जिंदगी का स्वाद ही नहीं आया । जीवन का रस उन्होंने ही चखा है, जिनके रास्ते में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आई हैं । वे ही महान् आत्मा कहलाए हैं, उन्हीं का जीवन, जीवन कहला सकता है । 

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Reviving The Vedic Culture Of Yagya

व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=362मनुष्य शरीर परमात्मा का सर्वोपरि अनुग्रह माना गया है, पर यह उस खजाने की तरह है, जो गड़ा तो अपने घर में हो, पर जानकारी रत्ती भर न हो। यदि किसी के मन में अध्यात्म साधनाओं के प्रति श्रद्धा और जिज्ञासा का अंकुर फूट पड़े, तो उस परमात्मा के छिपे खजाने की जानकारी दे देने जैसा प्रत्यक्ष वरदान समझना चाहिए। ऐसे अवसर जीवन में बड़े सौभाग्य से आते हैं। इस पुस्तिका को आप अपने लिए परम पूज्य गुरुदेव का ‘परा संदेश’’ समझकर पढ़ें और निष्ठापूर्वक अनुपालन करें।

व्यक्तिगत रूप से साधनायें अन्तःकरण की प्रसुप्त शक्तियों का जागरण करती हैं। उनका जागरण जिस अभ्यास से होता है, उसे साधना-विज्ञान कहते हैं। इस क्षेत्र में जितना आगे बढ़ा जाये, उतने दुर्लभ मणिमुक्तक करतलगत होते चले जाते हैं। पर इस तरह की साधनायें समय-साध्य भी होती है, तितीक्षा साध्य भी। परम पू. गुरुदेव ने आत्म शक्ति से उनका ऐसा सरल स्वरूप विनिर्मित कर दिया है, जो बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के लिए सरल और सुलभ है, लाभ की दृष्टि से भी ये अभ्यास असाधारण है। 

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युग परिवर्तन इस्लामी दृष्टिकोण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=103यह युग परिवर्तन का अति महत्वपूर्ण समय है ।। युग परिवर्तन का अर्थ है- ईश्वरीय योजना के अन्तर्गत मनुष्य मात्र के लिये उज्वल भविष्य का निर्माण ।। ऐसा युग जिसे सनातन धर्म में ' सतयुग ' की संज्ञा दी जाती रही है ।। इस सम्बन्ध में सैकड़ों साल पहले महात्मा, सूरदास, फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नेस्ट्राडेमस, महात्मा वहाउल्ला, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द आदि ने महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं ।। उक्त महापुरुषों के कथन को सार्थक करते हुए युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने इसकी समग्र और व्यवस्थित कार्य योजना घोषित करके इस हेतु एक विश्वव्यापी अभियान ' युग निर्माण ' के नाम से प्रारंभ कर दिया ।। इसमें उन्होंने विश्व समाज के सभी पक्षों की भागीदारी आवश्यक बतलाई 

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मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

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संसार में चिरकाल से दो प्रचण्ड-धाराओं का संघर्ष होता चला आया है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की बहुलता से ही प्रसन्नता और प्रगति सम्भव है। इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। उसके आधार पर ही साधनों का आवश्यक उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग बन पड़ता है। वह न हो, तो इच्छित वस्तु पर्याप्त मात्रा में रहने पर भी अभाव और असन्तोष पनपता दीख पड़ता है।

एक विचारधारा कहती है कि यदि मन को साध सँभाल लिया जाये, तो निर्वाह के आवश्यक साधनों में कमी कभी नहीं पड़ सकती। कदाचित् पड़े भी, तो उस अभाव के साथ संयम, सहानुभूति, सन्तोष जैसे सद्गुणों का समावेश कर लेने पर जो है, उतने में ही भली प्रकार काम चल सकता है। कोई अभाव नहीं अखरता। दूसरी का कहना है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। समर्थता और सम्पन्नता होने पर दूसरे दुर्बलों के उपार्जन-अधिकार को भी हड़प कर मन चाहा मौज-मजा किया जा सकता है।

दोनों के अपने अपने तर्क, आधार और प्रतिपादन हैं। प्रयोग भी दोनों का ही चिरकाल से होता चला आया है, पर अधिकांश लोग अपनी-अपनी पृथक मान्यतायें बनाये हुये चले आ रहे हैं। ऐसा सुयोग नहीं आया कि सभी लोग कोई सर्वसम्मत मान्यता अपना सकें। अपने अपने पक्ष के प्रति हठपूर्ण रवैया अपनाने के कारण, उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहते हैं। इसी को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। पदार्थ ही सब कुछ हैं-यह मान्यता दैत्य पक्ष की है। वह भावनाओं को भ्रान्ति और प्रत्यक्ष को प्रामाणिक मानता है। देव पक्ष, भावनाओं को प्रधान और पदार्थ को गौण मानता है। दर्शन की पृष्ठभूमि पर इसी को भौतिकता और आध्यात्मिकता नाम दिया जाता है। हठवाद ने दोनों ही पक्षों को अपनी ही बात पर अड़े रहने के लिए भड़काया है। 

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Donation Of Time The Supreme Charity

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=345Charity means Giving. It involves an endeavor to energize and develop natural capabilities provided by God to each human being and benefiting others there from. This is the basis for creating heavenly environment on this earth.

Taking ie. Hoarding, usurping tantamount to depriving others of their rights and advantages. This, in fact is an act of sin of which hell is a metaphorical expressionAll super person born in this world have used an exclusive methodology for promotion of excellence. They reciprocated by multiplying manifold whatever they received and gave it to the world Donation of money is only symbolical. It could as well be misused and create adverse reactions for the receiver. Real donation is that which one makes of ones talents, since out of talents only are generated wealth a. resources. Donation of time is charity in real sense since time is a natural gift of God available to everyone in equal measure.

However, one is not motivated to donate time for higher objectives unless there emerges in the heart of the person an insensible urge to follow ideals in life.

We are passing, through an unusual phase in human history. The emergency necessitates immediate decision and fast action, like the one required when fie house is on fire or the train is about to leave the station. Had Hanuman, Buddha, Samarth Guru Ramdas, Vivekanand and other super persons not taken a timely decision and action, they would have missed the glorious opportunity, which later made them famous.

Jesus Christ has rightly said that an opportunity for a virtuous deed must be grabbed even if it is within the reach of left hand, lest one is misguided by Satan in the short time taken by bringing the right hand the right place. 

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स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=178मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन- विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।

आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी। यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी- आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन- जन के मन- मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते- देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा- नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं। 

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Thought Revolution

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=203The subject of this discourse is the root cause and the solution of the crisis of our times. Because the results of our actions will match the level of our desires, we must conclude that it is the level of our consciousness that created the unfavorability of the circumstances within which we now live.

-Acharya Shriram Sharma

Part of what it means to be alive at the beginning of the 21st Century is bearing the burden of the awareness that the ecosystem of our planet, the web of life upon which we depend, is in jeopardy. To live in an authentic way today, we are required to integrate the reality of global crisis, not only into our consciousness and understanding, but also into our lifestyles, economies and social structures. Needless¬to-say, this integration will not be easy.

Coming to terms with the state of our global health is not easy due to the force of our momentum towards a lifestyle that willfully denies it. 

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Change Of Thoughts Change Of Era

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Apparently, what a man seems doing, what the society appears as a whole is only the reflection of contemporary ideologies embedded in that. Beliefs and recognitions originate in the inner self in the shape of motivation, desire and all the activities are their repercussion. Everything a man seems doing is simply the outcome of those beliefs deeply seated in his conscience. The different life styles and activities among different persons and societies, is the result of diversity embedded in their beliefs. Virtues and values, that one is adhered to, control every persons activities.

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Tuesday 28 March 2017

हम सब एक दूसरे पर निर्भर है

संतुलन और गतिशीलता का एकमात्र आधार


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=719सृष्टि में चारों ओर, जिधर भी दृष्टि दौड़ाई जाए, एक ही बात दृष्टिगोचर होगी कि सब कुछ शांत, सुव्यवस्थित और योजनाबद्ध ढ़ंग से चल रहा है ।। इस सुव्यवस्था और क्रमबद्ध गतिशीलता का एक प्रमुख आधार है दूसरों के लिए अपनी सामर्थ्य और विशेषताओं का उपयोग- समर्पण ।। सृष्टि का कण- कण किस प्रकार अपनी विभूतियों का उपयोग दूसरों के लिए करने की छूट दिए हुए है यह पग- पग पर देखा जा सकता है ।। शरीर की व्यवस्था और जीवन चेतना किस प्रकार जीवित बनी रहती है- इसी का अध्ययन किया जाए तो प्रतीत होगा कि स्थूल शरीर के क्रियाकलाप स्वेच्छया संचालित नहीं होते, बल्कि कोई परमार्थ चेतना संपन्न दूसरों के लिए अपना उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति वाले कुछ विशिष्ट तत्त्व उसमें अपनी विशिष्ट भूमिका निबाहते हैं ।।

कुछ समय पूर्व यह समझा जाता था कि रक्त - मांस का पिंड शरीर आहार- विहार द्वारा संचालित होता है ।। यह तो पीछे मालूम पड़ा कि आहार शरीर रूपी इंजिन को गरम बनाए रहने के लिए ईंधन मात्र का काम करता है ।। उस आधार पर यह भी पाया गया कि पेट, हृदय और फेफड़ों को संचालक तत्त्व नहीं माना जा सकता ।। शरीर के समस्त क्रियाकलापों का संचालन मूलत: चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा होता है उन्हीं की प्रेरणा से विविध अंग अपना- अपना काम चलाते है ।। अस्तु स्वास्थ्य बल एवं बुद्धिबल को विकसित करने के लिए मस्तिष्क विद्या के गहरे पर्तों का अध्ययन आवश्यक समझा गया है और अभीष्ट परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए उसी क्षेत्र को प्रधानता दी गई ।। पिछले दिनों जीव विज्ञानियों ने शरीर शोध अन्वेषण की ओर से विरत होकर अपना मुँह मनशास्त्र की ऊहापोह पर केंद्रित किया है ।।

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समझदारों की नासमझी

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मनुष्य की प्रधान विशेषता उसकी विचारशीलता है ।। इसी आधार पर उसकी विचारणा, कल्पना, विवेचना, धारणा का विकास होता है ।। अन्य प्राणियों की विचार परिधि पेट प्रजनन, आत्मरक्षा जैसे प्रयोजनों तक सीमित रहती है ।। वे इसके आगे बढ़कर विश्व व्यवस्था, निजी जीवनचर्या, भावी संभावना आदि के संबंध में कुछ सोच नहीं पाते, अधिक सुविधा पाने और प्रतिस्पर्द्धा का आक्रमण करने जैसा आवेश भी यदाकदा उभरते रहते हैं ।। ज्यों- त्यों करके समय बिताते हैं और नियतिक्रम के अनुसार मृत्यु के मुख में चले जाते हैं ।।

मनुष्य को भगवान ने ऐसा विकसित मनःसंस्थान दिया है, जिसके सहारे वह बहुत कुछ सोच सकता है ।। भूतकालीन घटनाओं से अनुभव संपादित करता है, वर्तमान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भरसक प्रयत्न करता है ।। भविष्य को अधिक सुखद- समुन्नत बनाने के लिए भी प्रयत्न करता है, नीति, धर्म, समाज आदि के संबंध में मर्यादाओं एवं परंपराओं का भी यथा अवसर पालन करता है ।। सहयोग उसका विशेष गुण है, उसी आधार पर वह आदान प्रदान के आधार खड़े करता है और सुविधाएँ संजोने प्रगति के आधार खड़े करने के लिए जो कुछ बन पड़ता है सो करता है ।। इन्हीं मानसिक विशेषताओं के कारण उसमें संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति, साहसिकता, तत्परता आदि विशेषताओं का अभिवर्धन हुआ है वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक सुविकसित बन सका है ।।

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समग्र प्रगति सहकारिता पर निर्भर

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=700आप अकेले नहीं हैं, समाज की एक इकाई हैं ।।

सामाजिक सहयोग से ही मानवी प्रगति संभव हुई है ।। एकाकी श्रम प्रयासों से तो वह अन्न, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका जैसी दैनिक जीवन की आवश्यकता तक पूरी नहीं कर सकता ।। निर्वाह से लेकर उल्लास तक की सभी आवश्यकताएँ जिसे सामूहिक सहयोग से उपलब्ध होती हैं, उसमें मनुष्य का यह भी कर्त्तव्य- उत्तरदायित्व है कि समाज को सुखी बनाने वाले परमार्थ प्रयोजनों को भी जीवनक्रम में सम्मिलित रखे ।। परमार्थ की बात सोचे ।। लोक- कल्याण में रुचि ले और उपकारों का ऋण चुकाए ।। जब अपने को असंख्यों का सहयोग मिला है तो कृतज्ञता की अभिव्यक्ति भी आवश्यक है ।। इसके लिए दाँत निपोर देने या शब्द- जंजाल बुन देने से काम नहीं चलेगा, सक्रिय प्रयासों की आवश्यकता पड़ेगी ।। इन्हीं प्रयासों को लोग मंगल की साधना कहते हैं ।। धर्मशास्त्रों में इसी को पुण्य परमार्थ कहा गया है और स्वर्ग मुक्ति का, जीवनलक्ष्य की पूर्ति का आधारभूत कारण माना गया है ।। पूजा- पाठ, स्वाध्याय- सत्संग आदि कृत्यों का उद्देश्य इसी सत्प्रवृत्ति को प्रसुप्ति से उबारकर प्रखर बनाने की भूमिका निभाना है ।।

वस्तुत: भाग्य या किस्मत जैसी चीज न तो कोई मनुष्य लिखा कर आता है और न ही ऐसी कोई सत्ता है जो विधाता के रूप में प्रत्येक मानव- शिशु के कपाल पर उसके सारे जीवन की घटनाएँ लिखती हो ।। मनुष्य प्रयत्नों से ही सफल होता है और पुरुषार्थ के बल पर ही अपने भाग्य का निर्माण करता है ।। लेकिन अपनी मान्यताओं को यहीं तक रखकर दूसरों के हित की उपेक्षा करना या समाज का जरा भी ध्यान न रखना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।। 

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सभ्यता का शुभारंभ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1223आध्यात्मिक और भौतिक उभय पक्षीय प्रगति का बीज तत्व है- "सभ्यता" ।। यह बहिरंग है ।। शिष्टाचार के रूप में यही प्रकट होती है ।। शिष्टाचार से कुछ ऊँची स्थिति है- सदाचार ।। सभ्यता के सूत्र समयानुसार जब अंत: क्षेत्र में उतरते हैं, तो क्रमश: सदाचार और सुसंस्कार के रूप में विकसित होते हैं ।।

सिद्धांत रूप में तो यह भी कहा जा सकता है कि सुसंस्कारिता को हृदयंगम करने के उपरांत सदाचार एवं सभ्यता की रीति- नीति भी व्यवहार में दीखने लगती है, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव यह बतलाता है कि सुसंस्कारिता के प्रति उमंग पैदा करने के लिए जन सामान्य को सभ्यता के बहिरंग सूत्रों को ही माध्यम बनाना पड़ता है ।।

सभ्यता प्रत्यक्ष एवं दृश्यमान है ।। क्रिया से चेतना विकसित होती है ।। इसी से संयम जैसे आध्यात्मिक निर्धारणों को अभ्यास में उतारा जाता है ।। संस्कृति के सूत्रों के आधार पर आत्मनिर्माण करने वाला सांसारिक सहयोग और दैवी अनुदानों का सच्चा अधिकारी बन जाता है ।। सभ्यता का अनुसरण करते- करते साधक संस्कृति के भावनात्मक उच्चस्तर तक पहुँच जाता है ।। 

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Sunday 26 March 2017

सदाचरण और मर्यादा पालन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1224परमात्मा ने हर मनुष्य की अन्तरात्मा में एक मार्गदर्शक चेतना की प्रतिष्ठा की है, जो उसे उचित कर्म करने की प्रेरणा देती एवं अनुचित करने पर भर्त्सना करती रहती है ।। सदाचरण, कर्तव्यपालन के कार्य धर्म या पुण्य कहलाते हैं, उनके करते ही तत्क्षण करने वाले को प्रसन्नता एवं शांति का अनुभव होता है ।। इसके विपरीत यदि स्वेच्छाचार बरता गया है, धर्म मर्यादाओं को तोड़ा गया है, स्वार्थ के लिए अनीति का आचरण किया गया है, तो अन्तरात्मा में लज्जा, संकोच, पश्चात्ताप, भय और ग्लानि का भाव उत्पन्न होगा ।। भीतर अशांति रहेगी और ऐसा लगेगा मानों अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कार रही है ।। 

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मानव प्रगति एवं पर्यावरण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=636• भौतिकी प्रगति की दिशाधारा विहंगावलोकन
• प्रगति बनाम पर्यावरण से खिलवाड़
• भौतिक प्रगति, पर्यावरण की क्षति, मानव की दुर्गति
• वैज्ञानिक प्रगति का उपहार युग विभीषिका
• भोगवाद यानी विनाश की ओर बढ़ते कदम









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मानव जीवन की गरिमा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1239मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता- मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे श्रेष्ठ रचना है । लगता है भगवान ने अपनी सारी कारीगरी को समेटकर इसे बनाया है । जिन गुणों और विशेषताओं के साथ इसे भेजा गया है, वे अन्य किसी प्राणी को प्राप्त नहीं हैं । इस कथन में भगवान पर पक्षपाती होने का आरोप लग सकता है, किंतु बात ऐसी है नहीं । भगवान तो सबका पालनहार पिता है, उसे अपनी सभी संतानें एक समान प्रिय हैं और वह न्यायप्रिय है । सभी प्राणियों को उसने जीने लायक आवश्यक सुविधाओं को देकर भेजा है । स्वयं निराकार होने के कारण उसने मनुष्य को अपना मुख्य प्रतिनिधि बनाकर सृष्टि की देख-रेख के लिए भेजा है । उसे उसकी आवश्यकता से अधिक सुविधाएँ और शक्तियाँ इसलिए दी गई हैं, ताकि वह उसके विश्व-उद्यान को सुंदर, सभ्य और खुशहाल बनाने में अपनी जिम्मेदारी को ठीक ढंग से निभा सके ।

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य की स्थिति अन्य प्राणियों से बेहतर नहीं है । पक्षियों की तरह हवा में उड़ना, मछलियों की भाँति जल में तैरना उसे नहीं आता । बंदर के समान पेड़ पर उछल-कूद वह नहीं कर सकता, शेर की तरह अपना पराक्रम-बल भी नहीं दिखा सकता । हाथी के सामने वह बौना सा दिखता है । इंद्रिय क्षमताओं में भी अन्य प्राणी उससे श्रेष्ठ सिद्ध होते हैं । सूँघने की शक्ति में कुत्ता, सुनने में उल्लू और देखने में बाज मनुष्य से बहुत कुशल ही सिद्ध होते हैं । कुछ जीवधारी तो भूकंप, बारिश, तूफान आदि का पहले से ही अनुमान भी लगा लेते हैं और समय रहते अपना बचाव कर लेते हैं, किंतु मनुष्य अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ की क्षमता में सभी प्राणियों पर भारी पड़ता है । अपने से अधिक शक्ति शाली, खतरनाक और भारी भरकम शेर, चीता व हाथी जैसे वनप्राणियों को वह अपने बुद्धि कौशल और मानसिक बल से हरा देता है । 

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Friday 24 March 2017

मनुष्य गिरा हुआ देवता या उठा हुआ पशु ?

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=713प्रकृति का भंडार इतना विशाल है कि उसे जितना खोजा जा सके उतना ही कम है। भौतिक विज्ञान से बढ़कर चेतना विज्ञान है। जड़ शक्तियों की तुलना में चेतना शक्तियों की क्षमता एवं उत्कृष्टता का बाहुल्य स्वीकार करना ही पड़ेगा

मनुष्य का कर्तव्य उसकी सफलताओं का कारण है, यह तथ्य सर्वविदित है। पर मान्यता भी एक अंश तक ही सही है। इसके साथ एक काऱण और भी जुड़ा हुआ प्रतीत होता है-निर्धारित नियति। भले ही वह अपने ही पूर्व संचित कर्मों का फल ही हो, या उसका संचालन किसी अदृश्य से सम्बन्धित हो। प्रकृति के अद्भुत रहस्यों में से कुछ को मनुष्य ने एक सीमा तक ही जाना है। अभी बहुत बड़ा क्षेत्र अनजाना और अछूता पड़ा है। 

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मनुष्य की दुर्बुद्धि और भावी विनाश

हम बढ़ रहे हैं, मगर किस दिशा में ?

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=552प्रकृति की व्यवस्थाएँ इतनी सर्वांण पूर्ण हैं कि उसे ही परमात्मा के रूप में मान लिया जाए तो कुछ अनुचित नहीं होगा ।। शिशु जन्म से पूर्व ही माँ के स्तनों में ठीक उस नन्हें बालक की प्रकृति के अनुरूप दूध की व्यवस्था, हर प्राणी के अनुरूप खाद्य व्यवस्था बना कर जगत में सुव्यवस्था और संतुलन बनाए रखने वाली उसकी कठोर नियम व्यवस्था भी सुविदित है ।। इस व्यवस्था को जो कोई तोड़ता है, उसे दंड का भागी बनना पड़ता है ।।

इन दिनों मनुष्य ने अपनी बुद्धि का उपयोग कर अनेकानेक साधन सुविधाएँ विकसित और अर्जित कर ली हैं ।। वह निरंतर प्रगति करता जा रहा है, उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया है ।। मानवी रुचि में अधिकाधिक उपयोग की ललक उत्पन्न की जा रही है ताकि अनावश्यक किंतु आकर्षक वस्तुओं की खपत बड़े और उससे निहित स्वार्थों को अधिकाधिक लाभ कमाने का अवसर मिलता चला जाए ।। इसी एकांगी घुड़दौड़ ने यह भुला दिया है कि इस तथाकथित प्रगति और तथाकथित सभ्यता का सृष्टि संतुलन पर क्या असर पड़ेगा ।। इकलॉजिकल बेलेंस गँवा कर मनुष्य सुविधा और लाभ प्राप्त करने के स्थान पर ऐसी सर्प विभीषिका को गले में लपेट लेगा जो इसके लिए विनाश का संदेश ही सिद्ध होगी ।। 

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ब्राह्मण जागें साधु चेतें

ब्राह्मण जागे- साधु चेतें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=730ब्राह्मण को शारत्रों में "भू-सुर" कहा गया हैं ।। भूसुर का अर्थ है पृथ्वी का देवता ।। एक देवता वे होते हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं और अदृश्य रुप से मनुष्यों की सेवा सहायता करते है। उनका कृपा- पात्र बनने के लिए लोग तरह- तरह के पूजा उपचार करते हैं ताकि देवता प्रसन्न एवं परितुष्ट रहें और अपने अनुग्रह की वर्षा इस धरती के लोगों पर करते रहे ।। लगभग ऐसी ही स्थिति भूसुरों की भी हैं, इन पृथ्वी के देवता, ब्राहाणों की समुचित पूजा हिन्दू समाज में होती हैं ।। उन्हें अन्य वर्णो से ऊँचा माना जाता है ।। कम आयु के ब्राह्मण को भी बड़ी आयु के अन्य लोग प्रणाम करते हैं ।। यह इसलिए किया जाता हैं कि अन्तरिक्ष में रहने वाले अदृश्य देवताओं की तरह यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले, भू- लोक वासो ब्राह्मण देवता भी हमारी श्रद्धा, भावना, दान- दक्षिणा आदि से परितुष्ट होकर हमारे कल्याण का आयोजन करेंगे |

समाज- पुरुष का शीर्ष -ब्राह्मण ब्राह्मणों का स्वरुप ही ऐसा हैं ।। शासनों में उनके कर्तव्य ऐसे कठोर बताए गये है जिनका पालन करने वाले को देवता ही कहना पड़ेगा ।। जो ब्राह्मण की कसौटी पर खरा उतरता हैं, उसे देवता नहीं तो और क्या कहेंगे ? आस्तिकता के महान आदशों के प्रति निष्ठावान बने रहने के लिए भावनापूर्ण ईंश्वर उपासना, व्यक्तित्व को उत्कृष्ट स्तर का बनाने के लिए आत्म- निर्माण की कठोर जीवन साधना और जनमानस में सत्प्रवृत्तियों विकसित करने के लिए अनवरत- श्रम, यह तीन कार्यक्रम जिन्होंने अपने लिए निर्धारित कर लिए हैं और जो इसी राजमार्ग पर निरन्तर चलते रहकर अपना ही नहीं समस्त संसार का कल्याण करते हैं, उनके चरणों पर सभी का मस्तिष्क झुक जाना स्वाभाविक हैं ।। 

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परिष्कृत व्यक्तित्व एक सिद्धि एक उपलब्धि

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=994उच्चशिक्षा, चतुरता या शरीर सौष्ठव भर से कोई व्यक्ति न तो आत्म- संतोष पा सकता है और न लोक सम्मान ।। इन सबसे महत्त्वपूर्ण है परिष्कृत व्यक्तित्व।। प्रतिभाशील और उन्नतिशील बनने का अवसर इसी आधार पर मिलता है ।।

समग्र व्यक्तित्व के विकास को विज्ञान की भाषा में "बौडी इमेज" कहा जाता है ।। जिनने इस दिशा में अपने को विकसित कर लिया, उनने दूसरों को प्रभावित करने की विशिष्टता को उपलब्ध कर लिया ।। ऐसे ही व्यक्तित्व प्रामाणिक और क्रिया कुशल माने जाते हैं ।। उनकी माँग सर्वत्र रहती है ।। वे न तो हीन समझे जाते हैं और न अपने कामों में असफल रहते हैं ।। "बौडी इमेज" से तात्पर्य सौंदर्य, सज्जा या चतुरता से नहीं, वरन व्यक्तित्व की उस विशिष्टता से है जिसके आधार पर किसी की वरिष्ठता एवं विशिष्टता को स्वीकार किया जाता है ।। यह किसी के विश्वस्त, क्रियाकुशल एवं प्रामाणिक होने की स्थिति है ।। जिसके पास यह संचय है समझना चाहिए उसके पास बहुत कुछ है ।। जो इस क्षेत्र में पिछड़ गया, समझना चाहिए उसे तिरस्कार का भाजन बनना पड़ेगा ।। 

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धन बल से मनुष्यता रौंदी न जाए

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=565पैसे में रचनात्मक शक्ति है, उसके द्वारा कितने ही उपयोगी कार्य हो सकते हैं और सदुद्देश्यों की पूर्ति में सहायता मिल सकती है । पर साथ ही यह भी न भूल जाना चाहिए कि उसकी मारक शक्ति उससे भी बढ़ी-चढ़ी है ।

धन का महत्त्व तभी है जब वह नीतिपूर्वक कमाया गया हो और सदुद्देश्यों के लिए उचित मात्रा में खर्च किया गया हो । अनीति से कमाया तो जा सकता है, जिन लोगों के द्वारा वह कमाया गया है, जिनका शोषण या उत्पीड़न हुआ है, उनका विक्षोभ सारी मानव सभ्यता के लिए घातक परिणाम उत्पन्न करता है । शोषित एवं उत्पीड़ित व्यक्ति जब देखते हैं कि उन्हें ठगा या सताया गया है और जिसने सताया या ठगा है वह मौज कर रहा है तो उनका मन आस्तिकता एवं नैतिकता के प्रति विद्रोह भावना से भर जाता है ।

यह विक्षोभ धर्म और ईश्वर पर से विश्वास डिगा सकता है और उस स्थिति में पड़ा हुआ मनुष्य अपने ढंग से, अपने से छोटों के साथ दुर्व्यवहार आरंभ कर सकता है । इस प्रकार बुराई की बेल बढ़ती है और उसके विषैले फल संसार में अनेकों प्रकार के दुष्परिणाम पैदा करते हैं । इस प्रकार फली हुई दुष्प्रवृत्तियों का कोई परिणाम उस पर भी हो सकता है, जिसने अनीतिपूर्वक किसी का शोषण किया था । बुराई से केवल बुराई बढ़ती है । धन यदि बुरे माध्यम से कमाया गया है तो उसका खरच भी उचित रीति से नहीं हो सकता । 

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जीवन की श्रेष्ठता और सदुपयोग्

क्या मनुष्य सचमुच सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ?

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=702वह क्षण निश्चित ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा होगा जब मनुष्य ने अपने आपको सर्वश्रेष्ठ होने का अहंकार पाल लिया ।। क्योंकि इस स्थिति में मनुष्य ने विश्व- वसुधा के, सृष्टि- परिवार के अन्यान्य प्राणियों को हीन और हेय मान लिया ।। सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझने की अहमन्यता मनुष्य में किसी भी कारण से विकसित हुई हो, लेकिन यह सत्य है कि उसने अपने इस पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर निरीह प्राणियों का शोषण और मनचाहा उत्पीड़न किया ।। अपनी अहंमन्यता को उसने संसार के दूसरे प्राणियों पर जिस ढंग से थोपा उनकी प्रतिक्रिया- परिणति स्वय उसके लिये ही उलटा सिद्ध हुआ है।। जो दाँव उसने मनुष्येतर प्राणियों पर चलाया था, वह धीरे- धीरे उसके स्वभाव का अंग बन गया और अब वह यही प्रयोग अपनी जाति पर भी अपनाने लगा है ।। परिणाम यह हो रहा है कि मानवीय संवेदना धीरे- धीरे घटती जा रही है तथा वैयक्तिक सुख- स्वार्थ के लिए शोषण और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं ।। इस स्थिति को व्यक्ति- व्यक्ति के बीच परिवार- परिवार के बीच जातियों, समुदायों और विभिन्न राष्ट्रों के बीच खींचतान के रुप में स्पष्ट देखा जा सकता है ।।

होना यह चाहिए था कि मनुष्य अपनी सर्वश्रेष्ठता की अहंमन्यता नहीं पालता और सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता ।। उनकी अनंत क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता ।। कदाचित् ऐसा हुआ होता तो स्थिति कुछ और ही होती ।। वह अपने सहचर पशु पक्षियों को देखता, यह जानता कि प्रकृति ने उन्हें भी कितने लाड़- दुलार से सजाया संवारा है तो उसका हृदय और भी विशाल बनता तथा चेतना का स्तर और ऊँचा उठता ।। इस स्थिति में प्रतीत होता कि अभागे कहे जाने वाले इन जीवों को भी प्रकृति से कम नहीं, मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक ही उपहार मिले हैं ।। 

 

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वर्तमान चुनौतियाँ युवावर्ग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=99हमारे युवाओं में कभी भी प्रतिभा क्षमता कीकमी नहीं रही है । आज भी उनके समक्ष अपार संभावनाएँ हैं । कुछ भी असंभव नहीं है । समस्या केवल यही है कि उन्हें अनेकानेक विकट एवं विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है । समाज में अनेक केकड़ा प्रवृतिके लोग उनकी टांग खीच कर नीचे गिराने हर समय तत्पर रहते हैं । यदि वे अपने मानव जीवन के उद्देश्य को भलीभाँति पहचान कर उचित पुरुषार्थ करेंगे तो वे अवश्यही इस काजल की कोठरी से बेदाग बाहर निकलने में सफलहो जाएंगे । इस पुस्तक के द्वारा युवावर्ग को यही संदेश देने का प्रयास किया गया है । थोडी़ सी समझदारी उनके जीवनको सफलता की स्वर्णिम आभा से आलोकित कर देगी । इस प्रकाश को अधिक से अधिक युवाओं तक अवश्य पहुँचाएँ । 

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रामचरितमानस की प्रगतिशील प्रेरणा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=10भारतीय संस्कृति के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में मूर्तिमान करने वाले चौबीस अथवा दस अवतारों की श्रृंखला में भगवान राम और कृष्ण का विशिष्ट स्थान है। उन्हें भारतीय धर्म के आकाश में चमकने वाले सूर्य और चंद्र कहा जा सकता है। उन्होंने व्यक्ति और समाज के उत्कृष्ट स्वरूप को अक्षुण्ण रखने एवं विकसित करने के लिए क्या करना चाहिए, इसे अपने पुण्य-चरित्रों द्वारा जन साधारण के सामने प्रस्तुत किया है।ठोस शिक्षा की पद्धति भी यही है कि जो कहना हो, जो सिखाना हो, जो करना हो, उसे वाणी से कम और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आत्म-चरित्र द्वारा अधिक व्यक्त किया जाय। यों सभी अवतारों के अवतरण का प्रयोजन यही रहा है, पर भगवान राम और भगवान कृष्ण ने उसे अपने दिव्य चरित्रों द्वारा और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रखर रूप में बहुमुखी धाराओं सहित प्रस्तुत किया है।

राम और कृष्ण की लीलाओं का कथन तथा श्रवण पुण्य माना जाता है। रामायण के रूप में रामचरित्र और भागवत के रूप में कृष्ण चरित्र प्रख्यात है। यों इन ग्रंथों के अतिरिक्त भी अन्य पुराणों में उनकी कथाएँ आती हैं। उनके घटनाक्रमों में भिन्नता एवं विविधता भी भी है। इनमें से किसी कथानक का कौन सा प्रसंग आज की परिस्थिति में अधिक प्रेरक है यह शोध और विवेचन का विषय है। यहाँ तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि उपरोक्त दोनों ग्रंथ दोनों भगवानों के चरित्र की दृष्टि से अधिक प्रख्यात और लोकप्रिय हैं। उन्हीं में वर्णित कथाक्रम की लोगों को अधिक जानकारी है। 

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मरणोत्तर जीवन तथ्य एवं सत्य -16

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=273भारतीय संस्कृति में मानवीय काया को एक सराय की एवं आत्मा को एक पथिक की उपमा दी गयी है। यह पंचतत्त्वों से बनी काया तो क्षणभंगुर है, एक दिन इसे नष्ट ही होना है किन्तु आत्मा नश्वर है। यह कभी नष्ट नहीं होती। गीताकार ने बड़ा स्पष्ट इस सम्बन्ध में लिखते हुए जन-जन का मार्गदर्शन किया है-

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे।

अर्थात् ‘‘यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योकि यह अजन्मा, नित्य सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।’’ 

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Thursday 23 March 2017

The Astonishing Power Of Bio-Physical And Subtle Energies Of Human Body

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=187Human body is a wonderful creation of the supreme natural power. It is endowed with all the physical and conscious energy forms existing in the universe. The living system of human body can be identified as a grand magnet or as a moving electric powerhouse. The human-magnet through its vital energy can affect and get affected by others. An in-depth study and controlled utilization of such effects at (bio)physical and subtle levels offers challenging and important research problems in advanced science. The source of biomagnetism in our body gains energy from the earths gravitation similar to what the latter gains from the Sun. All the universal magnetic forces affect the biomagnetism of the human body. Vital energy levels of a person vary according to the biomagnetism of his/her body. The visible effects of reduction in this magnetic power are: dullness in eyes, spiritless face, dry skin and lethargic body. Feelings of oblivion, illusion and fatigue are common in people with weak biomagnetism. Elevated levels of biomagnetism on the other hand, give rise to corresponding increase in the general activeness, charm, enthusiasm, sound memory and intellect. Persons having more powerful biomagnetism naturally attract and influence the weaker ones. The reception of cosmic radiations by human-psyche is also characterized by the latters biomagnetic quality. The north pole of the human magnet is said to reside in the human brain. The formation of an aura (halo of light) around this vital organ is a result of an upward bioelectric flow near the subtle pole. The south pole of the human-magnet is situated near the genital organs. The sexual activities are controlled by the vital energy through this pole. Excessive stimulation of this pole results in severe loss of the vital energy 

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विश्व वसुधा जिनकि ऋणि रहेगी-५२

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=399परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से वाड्मय के इस खंड में इसी तरह के महामानवों के जीवन- प्रसंगों को लिया गया है ।। महामनीषी कल्लट, खलील जिब्रान, रवींद्रनाथ टैगोर, विष्णु शर्मा, दांते, बाबू गुलाब राय से लेकर शोपेन हॉवर, विलियम शेक्सपीयर, पियर्सन, रूसो, टॉल्स्टॉय आदि तक विश्व के मूर्द्धन्य दार्शनिक चिंतक मनीषी एवं विचार- क्रांति के द्रष्टा महामानवों के जीवन- चरित्रों को प्रथम अध्याय में स्थान दिया गया है ।। जन जागृति के प्रणेता युग मनीषियों को दूसरे अध्याय में लिया गया है ।। मानवी चिंतन चेतना को जाग्रत कर उसे निश्चित दिशा एवं गति प्रदान करने का कार्य जिन महामानवों ने किया है, उनमें से अधिकांश के हृदयोद्गार कविता की निर्झरिणी के रूप में प्रस्कुटित हुए हैं ।। महाकवि कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई आदि से लेकर दांते, चंदवरदायी एवं निराला तक समय के पृष्ठों पर अग्नि- काव्य लिखने वाले साहित्यसाधको के व्यक्तित्व एवं कृतित्व आज भी जनमानस में रचे बसे हैं और उन्हें अनुप्राणित- उद्देलित करते रहते हैं ।। अर्नेस्ट जोन्स, पुश्किन, जाइगेर, इलियट, पाब्लोनेरूदा जैसे पाश्चात्य सद्ज्ञान साधकों के जीवन- प्रसंग भी जन- जाग्रति के प्रणेताओं में अग्रणी हैं ।।

परमपूज्य गुरुदेव का सदैव यही उद्देश्य रहा है कि सार्वभौम एकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श साहित्य तक ही सीमित रहने से आगे बढ़कर जन- जन के व्यवहार में उतारा जाय और उसी एकता के आधार पर बाह्य एवं आंतरिक जीवन की सुख- शांति को उपलब्ध किया जाय ।। यही कारण है कि भारतीय समाज के प्राय समस्त धर्मग्रंथों- वेदों से लेकर पुराणों तक अंतकरण को झकझोरकर रख देने वाली मर्मस्पर्शी, सरल भाषा शैली में अनुवादित और प्रकाशित किए गए हैं ।। 

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मित्रभाव बढाने की कला

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=107मनुष्य सामाजिक प्राणी है । उसने इतना अधिक बौद्धिक एवं भौतिक विकास किया है, इसका कारण उसकी सामाजिकता ही है । साथ-साथ प्रेम पूर्वक रहने से आपस में सहयोग करने की भावना उत्पन्न होती है एवं मनुष्य अकेला के वल अपने बल-बूते पर कुछ अधिक उन्नति नहीं कर सकता, दूसरों का सहयोग मिलने से शक्ति की आश्चर्यजनक अभिवृद्धि होती है, जिसके सहारे उन्नति साधन बहुत ही प्रशस्त हो जाते हैं । मैत्री से मनुष्यों का बल बढ़ता है । आगे बढ़ने का, ऊँचेउठने का, क्षेत्र विस्तृत हो जाता है । आपत्तियों और आशंकाओं का मैत्री के द्वारा आसानी से निराकरण किया जा सकता है । आंतरिक उद्वेगों का समाधान करने में संधि-मित्रता से बढ़कर और कोई दवानहीं है । आत्मा का स्वाभाविक गुण प्रेम है, प्रेम को परमेश्वर कहा जाता है । प्रेम के बिना जीवन में सरसता नहीं आती । यह संभव है जहाँ सुदृढ़ मैत्री हो । स्वास्थ्य, धन और विद्या के समान मैत्री भी आवश्यक है । परंतु दुःख की बात है कि बहुत से मनुष्य न तो मैत्री का महत्व समझते है और न उसके जमाने, मजबूत करने एवं स्थायी रखने के नियम जानते है । उन्हें जीवन भर में एक भी सच्चा मित्र नही मिलता । यह पुस्तक इसी उद्देश्य को लेकर लिखी गई है कि लोग मैत्री के महत्त्व को समझें, उसे सुदृढ़ बनायें तथा स्थाई रखने की कला को जानें और मित्रता से प्राप्त होने वाले लाभों के द्वारा अपने को सुसंपन्न बनाएँ । हमारा विश्वास है कि इस पुस्तक से जनता को लाभ होगा । 

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मरकर भी अमर हो गये-४४

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=394रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई एवं लक्ष्मीबाई हमारे भारतवर्ष के इतिहास में ऐसा स्थान प्राप्त कर चुकी हैं कि हर स्त्री को अपने स्त्री होने पर गौरव हो सकता है । आज जब नारी को पददलित- अपमानित-लज्जाहीन किया जा रहा है, इन तीनों के पराक्रम से-एकाकी पुरुषार्थ, बड़े-चढ़े मनोबल से किए गए कर्त्तत्त्व हर नारी को प्रेरणा देते हैं अन्याय से लड़ने के लिए । मात्र विगत डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास है इनका, किंतु ये सभी अमर हो, प्रेरणा का स्रोत बन गईं । अवंतिका बाई गोखले, सरोजिनी नायडू कस्तुरबा गांधी, जानकी मैया भी इसी तरह हमारे लिए सदा प्रेरणा का स्रोत रहेंगी । समाज सेवा-राष्ट्र की सेवा-परतंत्रता से मुक्ति में भागीदारी में गृहस्थ जीवन किसी भी तरह बाधक नहीं, ये इसका प्रमाण है । श्रीमती एनी बेसेंट एवं भगिनी निवेदिता (कुमारी नोबुल) मूलत: तन से विदेशी थीं, किंतु इनका अंतरंग भारतीयता के रंग में रँगा था । दोनों ने ही अपना पूरा जीवन तत्कालीन परतंत्र भारत में परिस्थितियों को अपने- अपने मंच से, अध्यात्म के माध्यम से सुधारने में नियोजित कर दिया । जहाँ एनी बेसेंट "थियोसेफी" के रूप में, सर्वधर्म समभाव के प्रतीक के आदोलन के सर्वेसर्वा के रूप में उभरीं, वहाँ स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने अपनी गुरु- आराध्यसत्ता के कार्यों को-नारी जागरण के कार्यों को संपादित करने में अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहकर स्वयं को खपा दिया । फ्लोरेंस नाइटिंगेल नर्सिंग आदोलन की प्रणेता हैं । सेवा एक ऐसा धर्म है, जो नारी अपनी संवेदना का स्पर्श देकर भली भांति संपन्न कर सकती हैं, इसका उदाहरण बनीं नाइटिंगेल । 

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Wednesday 22 March 2017

मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=177संसार में चिरकाल से दो प्रचण्ड-धाराओं का संघर्ष होता चला आया है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की बहुलता से ही प्रसन्नता और प्रगति सम्भव है। इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। उसके आधार पर ही साधनों का आवश्यक उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग बन पड़ता है। वह न हो, तो इच्छित वस्तु पर्याप्त मात्रा में रहने पर भी अभाव और असन्तोष पनपता दीख पड़ता है।

एक विचारधारा कहती है कि यदि मन को साध सँभाल लिया जाये, तो निर्वाह के आवश्यक साधनों में कमी कभी नहीं पड़ सकती। कदाचित् पड़े भी, तो उस अभाव के साथ संयम, सहानुभूति, सन्तोष जैसे सद्गुणों का समावेश कर लेने पर जो है, उतने में ही भली प्रकार काम चल सकता है। कोई अभाव नहीं अखरता। दूसरी का कहना है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। समर्थता और सम्पन्नता होने पर दूसरे दुर्बलों के उपार्जन-अधिकार को भी हड़प कर मन चाहा मौज-मजा किया जा सकता है।

दोनों के अपने अपने तर्क, आधार और प्रतिपादन हैं। प्रयोग भी दोनों का ही चिरकाल से होता चला आया है, पर अधिकांश लोग अपनी-अपनी पृथक मान्यतायें बनाये हुये चले आ रहे हैं। ऐसा सुयोग नहीं आया कि सभी लोग कोई सर्वसम्मत मान्यता अपना सकें। अपने अपने पक्ष के प्रति हठपूर्ण रवैया अपनाने के कारण, उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहते हैं। इसी को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। पदार्थ ही सब कुछ हैं-यह मान्यता दैत्य पक्ष की है। वह भावनाओं को भ्रान्ति और प्रत्यक्ष को प्रामाणिक मानता है। देव पक्ष, भावनाओं को प्रधान और पदार्थ को गौण मानता है। दर्शन की पृष्ठभूमि पर इसी को भौतिकता और आध्यात्मिकता नाम दिया जाता है। हठवाद ने दोनों ही पक्षों को अपनी ही बात पर अड़े रहने के लिए भड़काया है। 

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जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=172मनुष्य को न तो अभागा बनाया गया है और न अपूर्ण। उसमें वे सभी क्षमताएँ बीज रूप से विद्यमान हैं, जिनके आधार पर अभीष्ट भौतिक एवं आत्मिक सफलताएँ प्रचुर मात्रा में प्राप्त की जा सकती हैं, आवश्यकता उनके समझने और उनके उपयोग करने की है। 

 

 

 

 

 

 

 

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आत्मिक प्रगती के लिए अवलंबन की आवशयकता


• श्रद्धा का आरोपण - गुरु तत्व का वरण
http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=361• समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
• इष्ट देव का निर्धारण
• दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
• देने की क्षमता और लेने की पात्रता
• तथ्य समझने के बाद ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
• गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान














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Paranormal Acheivements Through Self Discipline

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=344"Sadhana" or self-discipline means an endeavor to exercise a voluntary control over personal traits. The deities being invoked are in fact. Symbolical representations of ones own inherent divine attributes and ethical self. When these characteristics are in a dormant state, man suffers from unhappiness and deprivations. But as soon as they are recognized, accentuated and activated, the individual begins to sense his extra-ordinary potential of control over sensory and extra-sensory elements (Ridhi-Siddhi) of the world. A human being is basically omnipotent (a living Kalpavrikcha). God has bestowed him with many capabilities-with everything required by him. The human existence is in fact a repository of innumerable potentialities. Their number is infinite like the deposits of precious stones and minerals buried deep in the earth and lying in the abyssal depths of the ocean. However, not unlike the wealth of these deposits, the supra-normal talents of man are not within the reach of all and sundry. A persistent endeavor is required to unearth them. Those who are unable to gather sufficient enterprise do not gain anything. On the other hand, who make an effort, are rewarded in each and every field of life. This very endeavor is known as "sadhana" or self discipline. Evidently, invocation of a deity has only one objective, i.e. to activate ones inherent potentialities, make oneself adequately competent and imbibe a high level of morality in character. 

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हमारी भावी पीढी और उसका नवनिर्माण-६३

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=398आज के बालक ही कल के विश्व के, इक्कसवीं सदी के नागरिक होंगे। उनका निर्माण उनकी परिपक्व आयु उपलब्ध होने पर नहीं, बाल्यकाल में ही संभव है, जब उनमें संस्कारों का समावेश किया जाता है। संतानोत्पादन के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण उपक्रम है उन्हें बड़ा करना, उन्हें शिक्षा व विद्या दोनों देना तथा संस्कारों से अनुप्राणित कर उनके समग्र विकास को गतिशील बनाना। सद्गुणों की सम्पत्ति ही वह निधि है जो बालकों का सही निर्माण कर सकती है। इसी धुरी पर वाङ्मय का यह खण्ड केंद्रित है। 

 

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Tuesday 21 March 2017

सार्थक एवं आंनन्दमय वृद्धावस्था

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=246आप यदि आयु के पचास वर्ष पार करने जा रहे हैं, तो इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य करें। इस पर चिंतन-मनन से आपके भविष्य के जीवन की सार्थकता सुनिश्चित हो सकेगी ।

यदि आप अभी युवावस्था में ही हैं, गृहस्थ हैं, विद्यार्थी हैं, तब तो यह पुस्तक और अधिक उपयोगी सिद्ध होगी । वर्तमान जीवनचर्या में, आचार-विचार में, चिंतन और चरित्र में यदि किसी प्रकार की त्रुटि है, तो उसे दूर कर सकेंगे । भविष्य की समुचित तैयारी कर सकेंगे । अपने साथ-साथ परिवार एवं समाज का भी कल्याण कर सकेंगे ।

यदि आप एक समाज सेवक हैं, तब तो आपका दायित्व और भी अधिक बढ़ जाता है । समाज के अन्य विचारशील परिजनों को संगठित करके वृद्धजनों के कल्याण हेतु रचनात्मक पहल करने में यह पुस्तक बहुत ही सहायक होगी ।

वृद्धावस्था भगवान् का एक वरदान है । इसकी गरिमा को समझें एवं इसे उपयोगी और आनंदमय बनाएं । 

 

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व्यक्तित्व परिष्कार की साधना

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=362मनुष्य शरीर परमात्मा का सर्वोपरि अनुग्रह माना गया है, पर यह उस खजाने की तरह है, जो गड़ा तो अपने घर में हो, पर जानकारी रत्ती भर न हो। यदि किसी के मन में अध्यात्म साधनाओं के प्रति श्रद्धा और जिज्ञासा का अंकुर फूट पड़े, तो उस परमात्मा के छिपे खजाने की जानकारी दे देने जैसा प्रत्यक्ष वरदान समझना चाहिए। ऐसे अवसर जीवन में बड़े सौभाग्य से आते हैं। इस पुस्तिका को आप अपने लिए परम पूज्य गुरुदेव का ‘परा संदेश’’ समझकर पढ़ें और निष्ठापूर्वक अनुपालन करें।

व्यक्तिगत रूप से साधनायें अन्तःकरण की प्रसुप्त शक्तियों का जागरण करती हैं। उनका जागरण जिस अभ्यास से होता है, उसे साधना-विज्ञान कहते हैं। इस क्षेत्र में जितना आगे बढ़ा जाये, उतने दुर्लभ मणिमुक्तक करतलगत होते चले जाते हैं। पर इस तरह की साधनायें समय-साध्य भी होती है, तितीक्षा साध्य भी। परम पू. गुरुदेव ने आत्म शक्ति से उनका ऐसा सरल स्वरूप विनिर्मित कर दिया है, जो बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी के लिए सरल और सुलभ है, लाभ की दृष्टि से भी ये अभ्यास असाधारण है। 

 

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मांसाहार कितना उपयोगी, मनोशारीरिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=93मनुष्यता का लक्षण धर्म है और धर्म का मूल दया में निहित है । जिस मनुष्य के हृदय में दया नहीं, वह मनुष्यता के पूर्ण लक्षणोंसे युक्त नहीं कहा जा सकता । इस दया को मनुष्य की वह करुणा भावना ही माना जाएगा जो संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए बराबर हो । उन मनुष्यों को कदापि दयावान नहीं कहा जा सकता जोअपनों पर कष्ट अथवा आपत्ति आई देखकर तो दुःखित हो उठतेहैं किंतु दूसरों के कष्टों के प्रति जिनमें कोई सहानुभूति अथवा संवेदना नहीं होती । और वे मनुष्य तो कूर अथवा बर्बर की श्रेणी मेंही रखे जाएँगे जो अपने तुच्छ स्वार्थ के कारण दूसरों को असह्यपीड़ा देते हैं । करुणा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति तथा सौहार्द आदि गुणएक ही दया के ही अनेक रूप अथवा उसकी ही शाखा-प्रशाखाएँ हैं । जब तक जिसमें इन गुणों का अभाव है, मनुष्य योनि में उत्पन्न होने पर भी उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार मनुष्यता की परिभाषा करने पर मांसभोजियो परक्रूरता का आरोप आता है । क्रूरता मनुष्य का नहीं, पाशविकता का लक्षण है । फिर भला इस प्रकार की पाशविक प्रवृत्ति रखने वाला मनुष्य अपने को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी किस मुँह से कहता है! 

 

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जीवन देवता कि साधना आराधना-२

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=408मानव जीवन एक संपदा के रूप में हम सबको मिला है । शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक हर क्षेत्र में ऐसी-ऐसी अद्भुत क्षमताएँ छिपी पड़ी हैं कि सामान्य बुद्धि से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । यदि उन्हें विकसित करने की विद्या अपनाई जा सके तथा सदुपयोग की दृष्टि पाई जा सके तो जीवन में लौकिक एवं पारलौकिक संपदाओं एवं विभूतियों के ढेर लग सकते हैं।

परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि मनुष्य को मानवोचित ही नहीं, देवोपम जीवन जी सकने योग्य साधन प्राप्त होते हुए भी, वह पशुतुल्य दीन-हीन जीवन इसलिए जीता है कि वह जीवन को परिपूर्ण, सर्वांगपूर्ण बनाने के मूल तथ्यों पर न तो ध्यान देता है और न उनका अभ्यास करता है । जीवन को सही ढंग से जीने की कला जानना तथा कलात्मक ढंग से जीवन जीना ही जीवन जीने की कला कहलाती है व आध्यात्मिक वास्तविक एवं व्यावहारिक स्वरूप यही है । अपने को श्रेष्ठतम लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए सद्गुणों एवं सतवृत्तियों के विकास का जो अभ्यास किया जाता है, उसी को जीवन-साधना कहते हैं। उसी को जीवनरूपी देवता की साधना भी कह सकते हैं ।

जीवन-साधना नकद धर्म है । इसके प्रतिफल को प्राप्त करने के लिए किसी को लंबे समय की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती । "इस हाथ दे-उस हाथ ले" का नकद सौदा इस मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर फलित होता रहता है । जीवन- साधना यदि तथ्यपूर्ण, तर्कसंगत और विवेकपूर्ण स्तर पर की गई हो तो उसका प्रतिफल दो रूपों में हाथोहाथ मिलता चला जाता है । एक संचित पशु-प्रवृत्तियों से पीछा छूटता है, उनका अभ्यास छूट जाता है एवं दूसरा लाभ यह होता है कि नर-पशु से देवमानव बनने के लिए जो प्रगति करनी चाहिए उसकी व्यवस्था सही रूप से बन पड़ती है । स्वयं को अनुभव होने लगता है कि व्यक्तित्व निरंतर उच्चस्तरीय बन रहा है । 

 

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Jivan Sadhana

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=321Svayam vajimstanvam kalpayasva

svayam yajasva svayam jusasva

Mahima tenyena na sannase.

Yajurveda 23 /15

 

"0 mighty yajna purusa (sacrificer)! Make your own body strong and capable. Perform the yajna yourself. Engage personally in religious pursuits. No one else can attain the glory that belongs you."

 

Dear reader! The spring breeze charged with the subtle vital energy of Yugdevata (Time Spirit) has come in the form of these printed exhortations to fill you with new life, new spur and new hope. This breeze will blow off all the dust which the passing time may have deposited over the smouldering embers in you and rekindle it into leaping flames. You will experience the upsurge of a radiant glow, energy, warmth and ardour inside you that will propel you vigorously in the direction of jivana sadhana - the way of leading a healthy, vibrant, enlightened, happy and balanced life.

If you are sensing the stir of these feelings inside you, surely the Yugdevatas subtle pranic force has touched you somewhere. Otherwise, you would not have felt this new alertness and enthusiasm. Do not quibble about who is outwardly penning the words or framing the sentences. 

 

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Sunday 19 March 2017

Elite Should Come Forward To Manage The Religious Set Up

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=234Progress of an individual and the society depends on their right thinking and right way of working. A needy man can be offered some immediate help but such support does not bring about a permanent solution. Medicines alone cannot cure a patient unless he also exercises self-restraints in his overall way of living. If we follow only the treatment part of prescription and ignore the restrictions advised by the physician, the disease will continue to recur again and again. Therefore just offering doles to the poor is not the real solution of poverty. By giving food, we can, temporarily satisfy a poor mans hunger, but it is not at all possible to go on feeding such a man indefinitely. Poverty will vanish only when the poor become industrious and put an effort to cam their livelihood. This holds good for all problems. Self-help is the real help.

Mental sickness is the root cause of the miseries and deprivations in the life. The only remedy is to reform and refine the thinking process of man. In fact there cannot be a nobler task than purifying ones thinking and correcting ones erroneous beliefs and wrong notions. Acquiring knowledge and awareness of soul and God and imparting these to others are the noblest of boons. The Brahmins of old use to take a vow to do so throughout their life, were respected as God. 

 

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Awake O Talented And Come Forward

 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=336Awake! O Talented and Come Forward

Talents are God given. These are given to certain special persons for the reason that these will be considered God"s reserve for peoples welfare and that these special skills will not be employed for gratifying one"s lust or desire or ego, but for people"s welfare. Had the talented people understood this truth and kept in mind the special task imposed with the special skills, then the situation of the world would have been different today.

Hitler, the Supreme of fascist Germany, fully utilized the power of cinema for making the German people desirous of war. He used his vast propaganda machinery according to his likes and needs. The result was as desired every citizen of Germany had started dreaming of world conquest and every German citizen was willing to sacrifice everything to make his country a jewel in the crown of the world. By giving a proper direction to the propaganda machinery of cinema, the mind of the people can be changed to any desired direction. Today, when most film producers, singers, music directors and actors are… 

 

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वेशभूषा शालीन ही रखिए

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=63हमारा स्वास्थ्य जिस प्रकार आहार पर निर्भर है, उसी प्रकारवस्त्रों-पोशाकों का भी उस पर काफी प्रभाव पड़ता है पर लोगों नेइस समय इस दृष्टिकोण को बिल्कुल भुला रखा है । वे पोशाक का उद्देश्य लज्जा निवारण या शान-शौक मात्र समझते हैं । अब तोधीरे-धीरे यह मानव-जीवन का ऐसा अविच्छिन्न अंग बन गई है कि हमवस्त्रहीन मनुष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । अधिकांश लोग तोइसे इतना ज्यादा महत्व देते हैं और ऐसा अनिवार्य समझते हैं मानो मनुष्य वस्त्रों सहित ही पैदा हुआ है और उनके बिना उसका अस्तित्वही नहीं रह सकता ।

पर सच तो यह है कि मनुष्य नंगा ही पैदा हुआ है और हजारों वर्ष तक यह उसी दशा में प्रकृति माता की गोद में निवास कर चुकाहै । उस समय उसका चमड़ा भी कुछ कड़ा था। बहुत अधिक ठण्डे स्थानों के निवासी चाहे शीत के प्रकोप से बचने के लिए भालू आदि जैसे किसी पशु के चर्म का उपयोग भले ही कर लेते हों, अन्यथा उस युगमें सभी मनुष्य दिगम्बर अवस्था में ही जीवन यापन करते थे । फिर जैसे-जैसे रहन-सहन के परिवर्तन से शारीरिक अवस्था में अन्तर पड़ता गया और लिंग-भेद (सैक्स) सम्बन्धी मनोवृत्तियाँ वृद्धि पाती गयीं, मनुष्य लँगोटी, कटि-वस्त्र आदि पहनने लग गये । जब जीवन-निर्वाह के साधन बढ़ गये और अनेक लोग अपेक्षाकृत आलस्य का जीवन व्यतीत करने लगे तो ठण्डे देशों में उनको देह कीरक्षा के लिए किसी प्रकार के वस्त्र पहिनने की आवश्यकता जान पड़नेलगी । धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती गई और आज पोशाक ने सजावट और शौक का ही नहीं, मान-मर्यादा का रूप भी ग्रहण कर लिया है । वस्त्रों से मनुष्य के छोटे बड़े गरीब-अमीर होने का पता लगता है । 

 

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मनुष्य मे देवत्व का उदय -५४

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=387मनुष्य सर्वसमर्थ परमात्मा की सन्तान है। परमात्मा ने अपनी संतान को उन सभी विशेषताओं, विशिष्ट सामर्थों से अलंकृत कर दुनिया में भेजा है। जो विभूतियाँ स्वयं उसमें सन्निहित हैं, उसने मनुष्य के बीज रूप में वे सारी विशेषताएँ भर दी हैं। जिनके द्वारा इच्छानुसार प्रचंड समर्थता के आधार पर शारीरिक, मानसिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया सम्पन्न कर ले। वह अपने विकास के लिए न परिस्थितियों पर निर्भर है और न बाह्य साधनों पर अवलम्बित। अपनी इच्छाशक्ति और पुरुषार्थ के आधार पर वह स्वयं का इच्छित विकास करने और अभीष्ट उपलब्धियों को अर्जित करने में सर्वतः स्वतंत्र, स्वनिर्भर है। इस तथ्य को समझ लेने पर हर कोई देवत्य के विकासक्रम की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। 

 

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मनस्विता प्रखरता और तेजस्विता-५७

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=380परमपूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने सदैव विधेयात्मक चिंतन -सुदृढ़ मनोबल बढाने की दिशा में प्रेरणा देने वाला साहित्य सृजन किया एवं लिखा कि आदमी की प्रखरता व तेजस्विता जो बहिरंग में दृष्टिगोचर होती है इसी मनस्विता की, दृढ़ संकल्पशक्ति की ही एक फलश्रुति है । वे लिखते हैं कि जैसे किसान बीजों को रोपता है एवं अंकुर उगने से लेकर फसल की उत्पत्ति तक एक सुनियोजित क्रमबद्ध प्रयास करता है, उसी प्रकार संकल्प भी एक प्रकार का बीजारोपण है । किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए एक सुनिश्चित निर्धारण का नाम ही संकल्प है । अभीष्ट तत्परता बरती जाने पर यही संकल्प जब पूरा होता है तो उसकी चमत्कारी परिणति सामने दिखाई पड़ती है । उज्ज्वल भविष्य के प्रवक्ता परमपूज्य गुरुदेव नवयुग के उपासक के रूप में संकल्पशक्ति के अभिवर्द्धन से तेजस्वी-प्रतिभाशाली समुदाय के उभरने की चर्चा वाड्मय के इस खंड में करते हैं ।

संकल्पशीलता को व्रतशीलता भी कहा गया है । व्रतधारी ही तपस्वी और मनस्वी कहलाते हैं । मन:संस्थान का नूतन नव निर्माण कर पाना संकल्प का ही काम है । संकल्पवानों के प्राणवानों के संकल्प कभी अधूरे नहीं रहते । सृजनात्मक संकल्प ही व्यवहार में सक्रियता एवं प्रवृत्तियों में प्रखरता का समावेश कर पाते हैं । परमपूज्य गुरुदेव बार-बार संकल्पशीलता के इस पक्ष को अधिक महत्ता के साथ प्रतिपादित करते हुए एक ही तथ्य लिखते हैं कि आज यदि नवयुग की आधारशिला हमें रखनी है तो वह संकल्पशीलों के प्रखर पुरुषार्थ से उनकी तेजस्विता एवं मनस्विता के आधार पर ही संभव हो सकेगी । ऐसे व्यक्ति जितनी अधिक संख्या में समाज में बढ़ेंगे, परिवर्तन का चक्र उतना ही द्रुतगति से चल सकेगा । 

 

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