Saturday 29 October 2016

Road To Progress

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1200Stories have always been very useful for overall development of children. Short Stories sow the seeds of knowledge and moral ideas in their mind. Through these stories children learn to differentiate between good and bad, friend and foe. Stories are considered to be most effective medium for personality development of children and for giving them good sanskars. Previously, grandmothers (dadi & nani) used to tell inspiring stories to children. But these days this important art is being neglected. Yug Nirman Yojna has published Picture Books containing short stories which will entertain, guide and inspire the children and elders both. 

 

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Rely On Prudence

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Pearls Of Ocean

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Inspiring Stories

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Fruits Of Contentment

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Firm Endeavour

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बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=95पुस्तिका में विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र- छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि। विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग- व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं। पढ़ी- लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे। 

 

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Tuesday 25 October 2016

खाते समय इन बातों का ध्यान रखें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=138अध्यात्म विद्या के वैज्ञानिक ऋषियों ने आहार के सूक्ष्म गुणों का अत्यंत गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया था और यह पाया था कि प्रत्येक खाद्य- पदार्थ अपने में सात्विक, राजसिक, तामसिक गुण धारण किए हुए है और उनके खाने से मनोभूमि का निर्माण भी वैसा ही होता है । साथ ही यह भी शोध की गई थी कि आहार में निकटवर्ती स्थिति का प्रभाव ग्रहण करने का भी एक विशेष गुण है । दुष्ट, दुराचारी, दुर्भावनायुक्त या हीन मनोवृत्ति के लोग यदि भोजन पकावें या परसे, तो उनके वे दुर्गुण आहार के साथ सम्मिश्रित होकर खाने वाले पर अपना प्रभाव अवश्य डालेंगे । न्याय और अन्याय से, पाप और पुण्य से कमाए हुए पैसे से जो आहार खरीदा गया है उससे भी वह प्रभावित रहेगा । अनीति की कमाई से जो आहार बनेगा वह भी अवश्य ही उसके उपभोक्ता को अपनी बुरी प्रकृति से प्रभावित करेगा ।

इन बातों पर भली प्रकार विचार करके उपनिषदों के ऋषियों ने साधक को सतोगुणी आहार ही अपनाने पर बहुत जोर दिया है । मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ, बासी, बुसे, तमोगुणी प्रकृति के पदार्थ त्याग देने ही योग्य हैं । इसी प्रकार दुष्ट प्रकृति के लोगों द्वारा बनाया हुआ अथवा अनीति से कमाया हुआ आहार भी सर्वथा त्याज्य है । इन बातों का ध्यान रखते हुए स्वाद के लिए या जीवन रक्षा के लिए जो अन्न औषधि रूप समझकर, भगवान का प्रसाद मानकर ग्रहण किया जाएगा 

 

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समाज - सुधार और जनसेवा मे संलग्न जानकी मैया

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=451शहरों में रहने वाले और विशेषतया वे व्यक्ति जिनके घरों में नल लगे हैं, इस बात को जल्दी नहीं समझ सकते कि पानी के अभाव से भी करोड़ों लोगों को कितना कष्ट सहन करना पड़ता है । अमेरिका आदि आधुनिक देशों में तो जिन स्थानों में पानी की कमी होती है, सरकार समुद्र के पानी को मीठा बनाकर बाहर से पानी लाकर नागरिकों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । पर भारत के लाखों गाँवों में जहाँ कुएँ बहुत कम और गहरे हैं, अथवा गर्मी में जिनका पानी सूख जाता है, वहाँ के निवासियों को थोड़े से पानी के लिए भी कितना परिश्रम और प्रयत्न करना पड़ता है, इसको भुक्त-भोगी ही जानते हैं । जहाँ मुनुष्यों को भी पीने के लिए जल-कष्ट सहन करना पड़ता है, वहाँ गाय, बैल, घोड़ा आदि पशुओं की क्या दशा होती होगी, इसकी कल्पना से भी मन दुःख से भर जाता है ।

ऐसा ही दृश्य जब "जानकी मैया" ने महापुरुष विनोबा के साथ बिहार के गाँवों की पद-यात्रा करते समय देखा, तो उसका हृदय करुणा से ओत-प्रोत हो गया । वह विचार करने लगी कि कैसे खेद की बात है कि ये गरीब लोग पूरा पानी भी नहीं पाते, अथवा दो-दो, चार-चार मील से लाकर अपनी प्यास बुझाते हैं जबकि नगरों में लाखों व्यक्तियों के यहाँ चाय, शर्बत, कोको-कोला की ही भरमार होती रहती है । उन्होंने यह बात विनोबा जी के सम्मुख प्रकट की । उन्होंने भी इसकी गंभीरता स्वीकार की और वे इस संबंध में किसी उपाय पर विचार करने लगे । 

 

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वीर दुर्गादास

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=450धर्म और जाति की रक्षा के लिए समय-समय पर जिन वीरों ने भारत माता की गोद में जन्म लिया और अपने पावन कर्तव्य का पालन करने में सर्वस्व के साथ जीवन तक बलिदान कर दिया, उनमें वीर दुर्गादास का बहुत ऊँचा स्थान है । इतिहास में जो तलवार के धनी योद्धा, नायक आगे दिखलाई देते हैं, उनमें वह संख्या उन्हीं की है, जो या तो राजा थे या राजकुमार, और ये अधिकतर अपने ही भू-खंड की रक्षा-स्वतंत्रता अथवा आन-बान-शान यश, गौरव और अभिमान के लिए मैदान में आये और अपना जौहर दिखलाकर अस्त हो गये । उनके बलिदान अथवा वीरता की निष्पक्ष विवेचना की जाए, तो उनके कर्तृत्व के पीछे उनका आत्म-व्यक्तित्व किसी न किसी अंश में सक्रिय रहा दिखलाई पड़ेगा ।

वीर दुर्गादास एक ऐसे नायक थे, जिनका सारा कर्तृत्व, कर्तव्य और संपूर्ण जीवन परस्वार्थ, परसेवा और परोपकार की पवित्र वेदी पर बलिदान होता रहा । वे न राजा थे और न राजकुमार । न उनका कोई पैतृक राज्य था और न बाद में ही उन्होंने कोई भू-खंड अपने अधिकार में करके उस पर अपना राजतिलक कराया । जबकि उन्होंने अपने बाहुबल और बुद्धिबल से मारवाड़ को स्वतंत्र कराया, मुगलों से तमाम जागीरें छीन ली, दिल्ली के बादशाह औरंगजेब को नीचा दिखाकर आर्य धर्म की पताका ऊँची कर दी । आगामी मुगल बादशाहों के होश इस सीमा तक ठिकाने कर दिये कि भारत में धार्मिक अथवा जातीय अत्याचार का चक्र बंद हो गया और हिंदू-मुसलमानों के बीच समान गौरव की स्थापना हो गई।

वीर दुर्गादास एक साधारण सेनानायक के पुत्र थे और आजीवन, बड़ी-बड़ी विजय पाकर भी सिपाही बने रहे । न उन्होंने कभी राज्य का लोभ किया और न राजपद का । वे योद्धा होकर भी जन सेवक और नायक होकर भी अपने को नगण्य बनाये रहे ।



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Monday 24 October 2016

राजा राम मोहन राय

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=448उन्नीसवीं सदी का समय भारतवर्ष के इतिहास में महान् परिवर्तनों का था ।। मुसलमानों का भारतव्यापी शासन- कटकर लगभग निर्जीव हो चुका था और उसका स्थान दूरवर्ती इंग्लैण्ड ग्रहण कर रहा था ।। अंग्रेज शासक अपनी सेना और तोप के साथ अपनी सभ्यता, संस्कृति और धर्म को भी लाये थे इस बात के प्रयत्न में थे कि यहाँ के निवासियों में इनका प्रचार करके अपनी जड़ मजबूत की जाये ।। मुसलमानों ने भी हिंदुओं को अपने धर्म में दीक्षित करने की चेष्टा की थी, पर उनके साधन मुख्यतः: तलवार और तरह- तरह के उत्पीड़न थे ।। इसके विपरीत अंग्रेजों ने अपने धर्म को शस्त्र- बल से थोपने की नीति से काम नहीं लिया, वरन युक्ति, तर्क और प्रमाणों से ईसाई- धर्म की श्रेष्ठता और हिन्दू की हीनता सिद्ध करने का प्रयत्न किया और उनको अपने इस प्रयत्न में सफलता भी मिली ।।

इसका कारण यह नहीं था कि ईसाई- धर्म के सिद्धांत अथवा उसका तत्त्वज्ञान हिंदू- धर्म की अपेक्षा उच्च कोटि का था ।। जो धर्म हजारों वर्ष पहले वेदांत सिद्धांत के रूप में रचना के एकमात्र कारण परब्रह्म की विवेचना कर चुका था इस अखिल विश्व के अनादि और अनंत होने की घोषणा कर चुका था, उसकी तुलना ईसाई धर्म से कैसे की जा सकती थी ?? जो एक शरीरधारी द्वारा पाँच हजार वर्ष पहले सात दिन के भीतर इस दुनिया का निर्माण किए जाने पर विश्वास रखता था ।। भारतीय मनीषियों ने संसार को वेद और उपनिषदों का जो गंभीर ज्ञान दिया, उसकी समता बाईबिल की कथाओं से, जिनमें ईसा के थोड़े से चमत्कार और राजाओं के किस्से ही पाये जाते हैं, कैसे की जा सकती थी?? 

 

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बृहत भारत के विश्वकर्मा श्री विश्वेश्वरैया

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=447श्री विश्वेश्वरैया जिन दिनों मैसूर के दीवान थे, एक दिन सरकारी काम से कहीं दौरे पर जा रहे थे।। यह सूचना किसी प्रकार मार्ग में एक स्कूल में पहुँच गई।। मास्टर इस अवसर को उत्तम समझकर सड़क पर पहुँचकर खड़ा हो गया और जब श्री विश्वेश्वरैया की कार आई तो उसे रोककर उसने प्रार्थना की कि वे स्कूल के बच्चों को दर्शन दें ।। यद्यपि उनको जाने की जल्दी थी, पर छोटे बच्चों के आग्रह को वे टाल न सके और गाड़ी से उतरकर पाँच- सात मिनट के लिये स्कूल के कमरे में चले गये ।। मास्टर ने कहा- "कृपया बच्चों के दो शब्द कह दीजिये ।" विश्वेश्वरैया बिना पहले से सोचे- समझे और तैयारी किये कसी सार्वजनिक संस्था में नहीं बोलते थे, पर बच्चों के प्रेमवश उन्होंने यों ही दो- चार बातें कह दी ।। बच्चे खुश हो गये और उनको बारंबार धन्यवाद देने लगे ।। पर विश्वेश्वरैया ने अनुभव किया कि उनका भाषण छात्रों के उपयुक्त न था ।। इसलिये वे मास्टर को सूचना देकर दो- चार दिन बाद फिर उस स्कूल में पहुँचे और लड़कों के सामने एक सारगर्भित और शिक्षाप्रद भाषण दिया, जिससे छात्रवृंद ही नहीं, अपितु समस्त ग्रामवासी बहुत प्रभावित हुये ।। अगर वे यह सोचकर रह जाते कि छोटे लड़के अच्छे या साधारण भाषण के अंतर को नहीं समझ सकते तो उनसे कोई कुछ कहने वाला नहीं था।। पर उनका आरंभ से ही यह सिद्धांत था कि कोई भी काम कभी घटिया ढंग से नहीं करना चाहिए ।। हल्के ढंग से उस समय काम भले ही चल जाय पर उसमें स्थायित्व नहीं आ सकता ।। इसलिये कैसा भी अवसर क्यों न हो, मनुष्य को अपना स्तर नहीं घटाना चाहिये ।। ऊँचा स्तर रखने से उसका प्रभाव अच्छा ही पड़ता है और आज नहीं तो कल लोग उसकी तरफ आकर्षित होते ही हैं ।।


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दादा भाई नौरोजी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=449स्वाधीनता के मंत्र- द्रष्टा- दादाभाई नौरोजी

नौरोजी पालन जी दोर्दी ने जिस समय संसार से विदा ली उस समय उनके एकमात्र पुत्र दादाभाई की आयु केवल चार वर्ष की थी। परिवार कि आर्थिक स्थिति अच्छी न थी ।। दादाभाई के पिता बंबई के खदक नामक स्थान में एक छोटे से मकान में रहते थे और पुरोहिताई करते थे।

यद्यपि पारसियों में विधवा- विवाह की व्यवस्था है तथापि दादाभाई की माता माणिकबाई ने पुनर्विवाह करना पसंद न किया ।। उन्होंने आजीवन वैधव्य में रहकर और अपने परिश्रम के बल पर अपनी एकमात्र संतान दादाभाई को लिखा- पढ़ा कर योग्य बनाने में ही जीवन की सार्थकता समझी ।। संतानवती होने पर भी सांसारिक- लिप्साओं के होकर, जो विधवायें के बंधन में फँस जाती हैं ।। और उनकी संतानों किन- किन कठिनाइयों और बंधनों में जीवन चलाना पड़ता है उससे वे अनभिज्ञ न थी ।। वे जानती थी कि पुनर्विवाह कर लेने पर उनके पुत्र दादाभाई का विकास रुक जायेगा, जो उन्हें किसी प्रकार सह्य न था ।। अपनी कतिपय दुर्बलताओं के लालच में अबोध संतान का जीवन बरबाद कर देना उनकी दृष्टि में महापातक था ।। इसलिए आजीवन विधवा रहकर उन्होंने अपने पुत्र को शिक्षा- दीक्षा के साथ एक सुयोग्य नागरिक बनाने का निश्चय कर लिया ।।

दादाभाई की माता भारतीय माता का एक जीता-जागता उदाहरण थी । यद्यपि उन्हें अक्षर-ज्ञान तक न था, तथापि के संस्कारों के अधीन वे शिक्षा के महत्त्व को न केवल ही थी उनमें पूर्ण विश्वास रखती थी । दादाभाई की शिक्षा के लिए जिस तप, त्याग और परिश्रम का परिचय दिया, उसे जानकर भारतीय माताओं के पावन आदर्श के प्रति मस्तक नत हुए बिना नही


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सागर के मोती

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बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है । 

 

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संतो की बोध कथाएँ

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=439बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है । 

 

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Saturday 22 October 2016

मूल्यवान जीवन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=70बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समयाभाव के कारण इस विधा की ओर लोगोंने ध्यान देना बंद कर दिया है । युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है ।


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बाल निर्माण की कहानियाँ-10


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=196बच्चों के मन में अध्यात्म एवं जीवन कला के विभिन्न सूत्र कथाओं के माध्यम से सरलता से स्थापित किये जा सकते हैं। इसी अवधि में मस्तिष्क का सर्वाधिक विकास होता है। भला-बुरा जो भी प्रभाव होता है, वे ग्रहण करते व तदनुसार अपना व्यक्तित्व विनिर्मित करते हैं। यह अभिभावकों व परिवार के संपर्क में आने वाले माध्यमों पर निर्भर है कि बालक-मन को वह किस प्रकार गढ़ते हैं। बाल निर्माण की कहानियों के भाग पिछले दिनों युग निर्माण योजना द्वारा प्रकाशित किए गए। प्रसन्नता की बात है कि विदेशी अथवा फूहड़ कॉमिक्स के सामने ये कहानियाँ सुरुचि, श्रेष्ठ ठहरी एवं परिजनों ने इन कथा पुस्तकों की भूरि-भूरि सराहना की। इनके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। सोचा यह गया कि बालकों के लिए तो साहित्य लिखा गया और पसंद भी किया गया। उठती वय के किशोरों के लिए ऐसे साहित्य का सृजन अभी नहीं हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक माला इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। इसमें मूलतः किशोरों की दृष्टि में रखते हुए कथा साहित्य रचा गया है। लेखिका ने बाल मनोविज्ञान का बड़ी गहराई से अध्ययन किया है, वही अध्ययन अनुभव इन कथानकों के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं।


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कल्याण पथ

बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है । 

 

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अमृत कण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=444बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा से रही है ।। छोटी -छोटी कहानियाँ, बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीज बोती हैं तथा बालकों को अच्छे- बुरे, अपने -पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है ।। बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है ।। पहले ये कार्य दादी- नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समयाभाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है।। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल- कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है ।। 

 

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Thursday 20 October 2016

संतोष का फल

बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा सेरही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीजबोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समया भाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है। युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल-कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है । 

 

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श्रेष्ठ कमाई

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श्रम का मूल्य

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विवेक का आश्रय

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विद्या की संपदा

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प्रेरक कहानियाँ

बच्चों के चहुँमुखी विकास के लिए कहानियों की उपयोगिता सदा से रही है । छोटी-छोटी कहानियाँ बच्चों में ज्ञान और नीतियों के बीज बोती हैं तथा बालकों को अच्छे-बुरे, अपने-पराए का बोध कहानियों के माध्यम से हो जाता है । बच्चों के व्यक्तित्व विकास एवं संस्कारों के बीजारोपण का सबसे सशक्त माध्यम कहानियों को माना जाता है । पहले ये कार्य दादी-नानी के द्वारा सहज होता रहता था, परंतु पाश्चात्य प्रभाव और समयाभाव के कारण इस विधा की ओर लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है । युग निर्माण योजना ने सचित्र बाल- कहानियाँ प्रकाशित कर बच्चों को भरपूर मनोरंजन, मार्गदर्शन एवं प्रेरणा देने का कार्य अपने हाथ में लिया है ।



 






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Tuesday 18 October 2016

हारिए न हिम्मत

 http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=291दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्रों को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहले यह देख लो कि हम में तो कोई बुराई नहीं है। यदि हो तो पहले उसे दूर क रो। दूसरों की निन्दा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ। तब स्वयं इससे सहमत होंगे कि परनिंदा से बढऩे वाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो।  

संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यों! पहले अपने केा जीतने की चेष्टा करो। यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा। तुम अपने जितेंद्रिय रूप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे। संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा। 


 

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परिवार और उसका निर्माण

जिस प्रकार हाथ-पाँव, सिर, धड़ आदि से मिलकर एक पूरा शरीर बनता है, उसी प्रकार परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्मिलित स्वरूप से ही मानव-जीवन का समग्र ढाँचा खड़ा होता है । परस्पर मिल-जुल कर रहने और एक दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्तियों के आधार पर ही मानव-जीवन की समस्त प्रगतियाँ संभव होती हैं और इन प्रवृत्तियों के अभ्यास का अवसर पारिवारिक-जीवन में ही सहज उपलब्ध हो जाता है । 


एकाकी मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है । इस प्रकार जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा विकसित होने के स्थान पर कुंठित ही होती है । योग-साधन के लिए कुछ समय एकांत सेवन करना पड़े तो वह एक सामयिक व्यवस्था है, पर मूलत: तो जीवन-विकास और सामूहिक उत्कर्ष के लिए मिल-जुल कर ही रहना पड़ता है । 

परिवार लौकिक सुविधाओं की दृष्टि से ही नहीं, आत्मिक सद्गुणों को अभ्यास में लाने के लिए भी आवश्यक है । ईश्वर ने जितनी समाज-सेवा अनिवार्य रूप से हमें सौंपी हैं वह परिवार ही है । किसी भी व्यक्ति की आध्यात्मिक एवं सामाजिक जिम्मेदारी उसके पारिवारिक कर्तव्यों के साथ मजबूती के साथ बँधी हुई है । परिवार को सुविकसित करने के लिए निरंतर सचेष्ट रहना मानवता की सेवा की दृष्टि से नितांत आवश्यक है । 
प्रस्तुत पुस्तक में परिवार के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है और बताया गया है कि राष्ट्र-रचना के इस महान कार्य को कितनी पवित्रता, तत्परता और श्रद्धापूर्वक सम्पन्न किया जाना चाहिए । समाज का छोटा स्वरूप परिवार है । छोटे-छोटे परिवारों से मिलकर ही राष्ट्र या विश्व बनता है । समाज या संसार में जैसा भी कुछ हम बनना चाहते है उसका प्रबंध घर से ही हम सब करने लगें तो नवयुग के निर्माण की विश्वव्यापी सुख-शांति की समस्या सहज ही हल हो सकती है ।  

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मरकर भी अमर हो गये-४४

Preface

रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई एवं लक्ष्मीबाई हमारे भारतवर्ष के इतिहास में ऐसा स्थान प्राप्त कर चुकी हैं कि हर स्त्री को अपने स्त्री होने पर गौरव हो सकता है । आज जब नारी को पददलित- अपमानित-लज्जाहीन किया जा रहा है, इन तीनों के पराक्रम से-एकाकी पुरुषार्थ, बड़े-चढ़े मनोबल से किए गए कर्त्तत्त्व हर नारी को प्रेरणा देते हैं अन्याय से लड़ने के लिए । मात्र विगत डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास है इनका, किंतु ये सभी अमर हो, प्रेरणा का स्रोत बन गईं । अवंतिका बाई गोखले, सरोजिनी नायडू कस्तुरबा गांधी, जानकी मैया भी इसी तरह हमारे लिए सदा प्रेरणा का स्रोत रहेंगी । समाज सेवा-राष्ट्र की सेवा-परतंत्रता से मुक्ति में भागीदारी में गृहस्थ जीवन किसी भी तरह बाधक नहीं, ये इसका प्रमाण है । श्रीमती एनी बेसेंट एवं भगिनी निवेदिता (कुमारी नोबुल) मूलत: तन से विदेशी थीं, किंतु इनका अंतरंग भारतीयता के रंग में रँगा था । दोनों ने ही अपना पूरा जीवन तत्कालीन परतंत्र भारत में परिस्थितियों को अपने- अपने मंच से, अध्यात्म के माध्यम से सुधारने में नियोजित कर दिया । जहाँ एनी बेसेंट "थियोसेफी" के रूप में, सर्वधर्म समभाव के प्रतीक के आदोलन के सर्वेसर्वा के रूप में उभरीं, वहाँ स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता ने अपनी गुरु- आराध्यसत्ता के कार्यों को-नारी जागरण के कार्यों को संपादित करने में अभावग्रस्त परिस्थितियों में रहकर स्वयं को खपा दिया । फ्लोरेंस नाइटिंगेल नर्सिंग आदोलन की प्रणेता हैं । सेवा एक ऐसा धर्म है, जो नारी अपनी संवेदना का स्पर्श देकर भली भांति संपन्न कर सकती हैं, इसका उदाहरण बनीं नाइटिंगेल । 


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Friday 14 October 2016

घरेलू चिकित्सा

हमारे देश की साधारण जनता अशिक्षित तथा गरीब हें । शहरोंसे बहुत दूरी पर फैले हुए ग्रामीण क्षेत्रों की जनता के लिए चिकित्साका प्रश्न बड़ा ही टेड़ा प्रश्न है । स्वास्थ्य विज्ञान में उनकी निजकी जानकारी प्राय: नहीं के बराबर होती है । वहाँ जो चिकित्सक पाए जाते हैं, उनका चिकित्सा क्रम भी बड़ा दोषपूर्ग हाता है, ऐसी दशा में ऐसे अनेक रोगी जो साधारण चिकित्सा से ही अच्छे होसकते हैं-साधन न मिलने के कारण अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं ।ऐसे लोगों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए ही यह पुस्तक लिखी गई है, इसमें गिने-चुने प्रसिद्ध रोगों पर कुछ सरलतासे उपलब्ध हो सकने वाली सीधी-सादी औषधियाँ लिखी हैं, जोकम मूल्य की, बनाने में सुगम और हानि रहित हैं । विष, रस, भस्म तथा ऐसी चीजें, जिनके सेवन में कुछ असावधानी हो जाए तोखतरा उत्पन्न हो जाए इस पुस्तक में नहीं लिखी गई हैं । इस पुस्तककी सहायता से साधारण पड़े-लिखे लोगों को और अल्पशिक्षित स्त्रियों को तो अपने निकटस्थ लोगों की बीमारियाँ दूर करने में बहुतहद तक सफलता प्राप्त हो सकती है ।रोगों के लक्षण, पथ्य, मात्रा, सेवन-विधि आदि बहुत सी बातेंइस छोटी पुस्तिका में नहीं लिखी जा सकी हैं । इसके लिए अपनी स्वाभाविक बुद्धि से काम लेना चाहिए या किसी निकटवर्ती जानकार वैद्य से सलाह लेनी चाहिए । नुसखों में कोई एकाध चीज प्राप्त न हो,तो उसे छोड़ा भी जा सकता है । हमारा विश्वास है कि जिन देहाती क्षेत्रों में प्राकृतिक चिकित्साका ज्ञान और साधन पहुँचने अभी कठिन हैं, उन क्षेत्रों में यह पुस्तक लाभप्रद सिद्ध होगी ।



गायत्री से संकट निवारण

परमाद्या, परांबा, श्री गायत्री की साधना बड़ी चमत्कारी और सर्वोपरि साधना है। इसके द्वारा मनुष्य को साधारणत: लौकिक और पारलौकिक लाभ तो प्राप्त होते ही हैं, और अनेक मनोकामनाओं की पूर्ति भी होती है; पर अनेक समय इसके प्रभाव से मनुष्य की इस प्रकार रक्षा हो जाती है कि उसे दैवी चमत्कार के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता। कारण यही है कि इस साधना के कारण साधक में कुछ दैवी तत्वों का विकास हो जाता है जो ऐसी आकस्मिक आवश्यकता अथवा संकट के समय अदृष्य रूप से उसके सहायक बनते हैं। प्राय: यह भी देखा गया है कि जो व्यक्ति साधना करके अपने मन और अन्तर को शुद्ध तथा निर्मल बना लेते हैं और ईर्ष्या-द्वेष के भावों को त्याग कर दूसरों के प्रति कल्याण की भावना रखते हैं, उनकी रक्षा दैवी शक्तियाँ स्वयं भी करती हैं। इस पुस्तक में अनेक गायत्री उपासकों के जो अनुभव दिए गए हैं, उनसे यह भली भाँति प्रमाणित होता है कि जिन लोगों ने गायत्री माता के आदेशानुसार आत्मशुद्धि और जगत के मंगल की भावना को अपना लिया है, उनकी रक्षा बड़ी-बड़ी आपत्तियों से सहज में हो जाती है। 

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आसन, प्राणायाम, बन्ध,मुद्रा, पंचकोश ध्यान

युगऋषि ने अपने चौथे हिमालय प्रवास से लौटकर युगतीर्थ शांतिकुञ्ज में प्राण प्रत्यावर्तन साधना के सत्र चलाये थे ।। अन्त: ऊर्जा जागरण साधना सत्रों की साधनाएँ प्राण प्रत्यावर्तन सत्रों की साधनाओं के आधार पर ही निश्चित की गई हैं ।। सत्र में भाग लेने वालों को स्वीकृति के साथ उन साधनाओं के विधि- विधान की मार्गदर्शिका भेज दी जाती है ।। वह मार्गदर्शिका ऐसे साधकों को लक्ष्य करके तैयार को गई है जो साधना में सहयोगी आसन- प्राणायाम आदि के बारे में समझते हैं ।। 

सत्रों की समीक्षा से यह पता चला कि बहुत से साधक उन आधारभूत साधनाओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं रखते ।। इससे उन्हें साधनाओं का समुचित लाम उठाने में कठिनाई होती है ।। यह पुस्तिका ऐसे ही साधकों को लक्ष्य करके सहायक मार्गदर्शका के रूप में तैयार की गई है ।। वैसे रोग साधना के सभी साधकों के लिए यह पुस्तिका उपयोगी सिद्ध होगी ।। 

इसमें महर्षि पतजलिकृत अष्टांगयोग के संक्षिप्त विवरण के साथ सामान्य साधना में सहयोगी आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा आदि के अतिरिक्त युगऋषि द्वारा निर्देशित पंचकोशीय ध्यान धारणा का भी संक्षिप्त विवेचन दे दिया गया है ।। साधना में कायागत पंचतत्वों के सन्तुलन के लिए प्रयुक्त को जाने वाली उँगलियों और हथेलियों के माध्यम से बनाई जाने वाली उपयोगी मुद्राओँ को भी सचित्र है दिया गया है ।। इनके प्रयोग से साधकों को स्वस्थ शरीर और स्वच्छ मन के विकास में पर्याप्त निदान मिलता है ।। 

आशा की जाती है कि शान्तिकुञ्ज में चलाये जाने वाले अन्त: ऊर्जा सत्रों के साथ शक्तिपीठों पर चलाये जाने वाले सामान्य साधना सत्रों के साधकों को इस पुस्तिका से अच्छा सहयोग तो मिलेगा ही साधना के प्रति रुचि रखने वाले अन्य साधक भी इससे पर्याप्त साथ उठा सकेंगे ।। 

Saturday 8 October 2016

Gayatri Mantra Led -Simple

Gayatri Mantra Led -Simple



Mantra Lekhan Pustika (1000 Mantra)

गायत्री मंत्र लेखन से लाभ- 

१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है। 
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है। 
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है। 
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है। 
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है। 
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है। 
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है। 
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है। 
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http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Gayatri_upasana/mantra_lekhan.1




भारतीय संस्कृति जीवन दर्शन

Preface

जब कोई समाज कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने व्यक्तिगत मान-अपमानों की परवाह किए बिना अपने राष्ट्र, अपनी मातृभूमि के अस्तित्व पर आए संकट या संघर्ष में अपने प्राणों की बाजी लगाता है या फिर बलिदान हो जाता है, तो वह व्यक्तिगत रूप से उस राष्ट्र और समाज की संस्कृति की ही रक्षा करता है और बलिदान होना ही, उस बलिदानी वीर पुरूष की संस्कृति है । 

यह संस्कृति ही है, जो राष्ट्र पर मर मिटने के लिए प्रेरित करती है और मर कर भी जब संतोष नहीं होता है, तो बलिदानी वीर पुरूष अगले जन्म में भी अपनी उसी मातृभूमि पर पैदा होकर अपने प्राणों को अपनी मातृभूमि के लिए अर्पित करने की ईश्वर से कामना करता है । 

कहते हैं कि किसी भी राष्ट्र और उसके नागरिकों के अस्तित्व के लिए संस्कृति उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना कि उनके लिए भोजन, हवा और पानी । जिस प्रकार भोजन, हवा और पानी के बिना कोई राष्ट्र और उसके नागरिक जीवित नहीं रह सकते उसी प्रकार बिना संस्कृति के राष्ट्र और नागरिकों का कोई अस्तित्व नहीं रह सकता है । इसलिए यह सत्यता हैं कि संस्कृति किसी व्यक्ति के प्राणों की रक्षा भले ही न करती हो, पर राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा अवश्य करती है । इसलिए प्रत्येक राष्ट्र और जाति की अपनी अलग-अलग संस्कृति होती है, उसी के अनुरूप उस समाज, उस राष्ट्र और उस जाति की पहचान होती है ।

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वेशभूषा शालीन ही रखिए

Preface

हमारा स्वास्थ्य जिस प्रकार आहार पर निर्भर है, उसी प्रकारवस्त्रों-पोशाकों का भी उस पर काफी प्रभाव पड़ता है पर लोगों नेइस समय इस दृष्टिकोण को बिल्कुल भुला रखा है । वे पोशाक का उद्देश्य लज्जा निवारण या शान-शौक मात्र समझते हैं । अब तोधीरे-धीरे यह मानव-जीवन का ऐसा अविच्छिन्न अंग बन गई है कि हमवस्त्रहीन मनुष्य की कल्पना भी नहीं कर सकते । अधिकांश लोग तोइसे इतना ज्यादा महत्व देते हैं और ऐसा अनिवार्य समझते हैं मानो मनुष्य वस्त्रों सहित ही पैदा हुआ है और उनके बिना उसका अस्तित्वही नहीं रह सकता । 

पर सच तो यह है कि मनुष्य नंगा ही पैदा हुआ है और हजारों वर्ष तक यह उसी दशा में प्रकृति माता की गोद में निवास कर चुकाहै । उस समय उसका चमड़ा भी कुछ कड़ा था । बहुत अधिक ठण्डे स्थानों के निवासी चाहे शीत के प्रकोप से बचने के लिए भालू आदि जैसे किसी पशु के चर्म का उपयोग भले ही कर लेते हों, अन्यथा उस युगमें सभी मनुष्य दिगम्बर अवस्था में ही जीवन यापन करते थे । फिर जैसे-जैसे रहन-सहन के परिवर्तन से शारीरिक अवस्था में अन्तर पड़ता गया और लिंग-भेद (सैक्स) सम्बन्धी मनोवृत्तियाँ वृद्धि पाती गयीं, मनुष्य लँगोटी, कटि-वस्त्र आदि पहनने लग गये । जब जीवन-निर्वाह के साधन बढ़ गये और अनेक लोग अपेक्षाकृत आलस्य का जीवन व्यतीत करने लगे तो ठण्डे देशों में उनको देह कीरक्षा के लिए किसी प्रकार के वस्त्र पहिनने की आवश्यकता जान पड़नेलगी । धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती गई और आज पोशाक ने सजावट और शौक का ही नहीं, मान-मर्यादा का रूप भी ग्रहण कर लिया है । वस्त्रों से मनुष्य के छोटे बड़े गरीब-अमीर होने का पता लगता है ।

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Gayatri A Unique Solutions For Problems

Preface

It is absolutely easy to be liberated from sins by Gayatri worship. The specialty of Gayatri worship is that when the resonance of the innate powers within its 24 letters occurs within the heart, the sattogun (virtue) within thoughts increases day-by-day and as a result changes occur in the nature and programme of the person. One in whose heart virtuous thoughts increase, the same excellence will also be there in his deeds. 

A persons nature is not any definite or permanent thing. It keeps on changing according to situations and sentiments. It is not necessary that a person who is sinful to-day will remain sinful throughout life. Similarly it cannot also be said that a person who is a gentleman with good conduct to-day, will remain so in future also. 

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चिकित्सा उपचार के विविध आयाम-४०

Preface

परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के प्रारंभ में ही स्वास्थ्य रक्षा के चौबीस स्वर्णिम सूत्र देते हुए लिखा है कि बिना प्राकृतिक संतुलन से भरा जीवन अपनाए मनःस्थिति ठीक किए व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता । औषधियाँ-सर्जरी आदि बाह्योपचार व्यर्थ हैं, यदि मूल जड़ को नष्ट नहीं किया गया । इसमें उनने आठ आहार संबंधी दस विहार संबंधी छह मनःसंतुलन संबंधी अनुशासन दिए हैं व लिखा है कि इनका अनुपालन करने वाला कभी बीमार हो ही नहीं सकता । आरोग्य को स्वाभाविक व दुर्बलता-रुग्णता को अस्वाभाविक मानते हुए उनने स्वास्थ्य-रक्षा हेतु अनेकानेक निर्देशों द्वारा बहुमूल्य मार्गदर्शन किया है । 

आज के व्यक्ति का जीवन आरामतलबी का है । उपकरणों-मशीनों, घर-घर में उपलब्ध संसाधनों ने व्यक्ति को मशीनों का गुलाम बना दिया है । ऐसे में स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनने शरीर पर बहुत अधिक दबाव डालने या थकाने वाले व्यायामों की तुलना शरीर की सूक्ष्म चक्र-उपत्यिकाओं को प्रभावित, उत्तेजित कर स्कूर्ति लाने वाले आसनों को अपनाने पर जोर दिया है । आसन अनेकानेक हैं, किंतु विभिन्न आयु वर्गों के लिए जिन्हें चुना जाए-कौन सा किस रोग की रक्षा के लिए किन अंगों के सूक्ष्म संचालन हेतु प्रयुक्त होता है, उसका सरल मार्गदर्शन इस खंड में है । इसी तरह प्राणायाम को विभिन्न मनोरोगों को दूर करने, तनाव मिटाने, चिरस्थायी प्राणशक्ति का स्रोत बनाए रखने के लिए कैसे प्रयुक्त किया जा सकता है, यह वर्णन विस्तार से इसमें है । प्राणों का व्यायाम-प्राणों के आयाम में प्रवेश ही प्राणायाम है । प्राणतत्त्व की अभिवृद्धि, कौन-कौन से प्राणायाम व्याधि-निवारण हेतु उपयुक्त हैं, उन सभी का दिग्दर्शन इसमें है ।


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गायत्री महाविज्ञान संयुक्त

Preface

गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है। मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट है कि जिसकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते हैं और कार्यों के परिणाम सुख- दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिसके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम होंगे, उसके चरणों तले सुख- शान्ति लोटती रहेगी। गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े- बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे परामर्श एवं पथ- प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं, हमने अपनी आँखों देखे हैं।



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What am I?

Preface

There are several things worth knowing in this world. There are various fields of knowledge and many paths needing exploration. There are several branches of science which come within the normal purview of mans curiosity. Why, How, Where, When, are the questions in every field. This inquisitive tendency of knowing is mainly responsible for such rich store of knowledge. In reality, knowledge is the light house of life.The question about knowledge of self is most important amongst various objects of inquiry. We know several superficial things or make efforts to know them but we forget What we are in ourselves. Without knowing the Self the life becomes agitated, uncertain and prickly. In the absence of this knowledge regarding his real self, a person spends his time in deliberating about insignificant things and indulges in unbelievable acts. The only path to true happiness and comfort is Knowledge of Self.This book contains instructions about the knowledge of Self. What am I?. The answer to this question has not been given in words, but an effort has been made to impart it through austerity and practice.It is hoped that this book will prove useful to the aspirants of spiritualism.

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