Wednesday 31 August 2016

मरें तो सही पर बुद्धिमत्ता के साथ

Preface

यों कहने को तो सभी कहते हैं कि जो जन्मा है सो मरेगा । इसलिए किसी की मृत्यु पर दुःख मनाते हुए भी यह नहीं कहा जाता है कि यह अनहोनी घटना घट गई । देर-सबेर मेंआगे-पीछे मरना तो सभी को है, यह मान्यता रहने के कारण रोते-धोते अंतत: संतोष कर ही लेते हैं । जब सभी को मरना है तो अपने स्वजन-संबंधी ही उस काल-चक्र से कैसे बच सकते हैं ? 

लोक मान्यताओं की बात दूसरी है, पर विज्ञान के लिए यह प्रश्न काफी जटिल है । परमाणुओं की तरह जीवाणु भी अमरता के सन्निकट ही माने जाते हैं । जीवाणुओं की सरचना ऐसी है, जो अपना प्रजनन और परिवर्तन क्रम चलाते हुए मूलसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रहती है । जब मूल इकाई अमर है तो उसका समुदाय-शरीर क्यों मर जाता है? उलट-पुलटकर वह जीवित स्थिति में ही क्यों नहीं बना रहता ? उनके बीच जब परस्पर सघनता बनाए रहनेवाली चुंबकीय क्षमता का अविरल स्रोत विद्यमान है, तो कोशाओं के विसंगठित होने और बिखरने का क्या कारण है? थकान से गहरी नींद आने और नींद पूरी होने पर फिर जग पड़ने की तरह ही मरना और मरने के बाद फिर जी उठना क्यों संभव नहीं हो सकता ? 

बैक्टीरिया से लेकर अमीबा तक के दृश्यमान और अदृश्य जीवधारी अपने ही शरीर की उत्क्रांति करते हुए अपनी ही परिधिमें जन्म-मरण का चक्र चलाते हुए प्रत्यक्षत: अपने अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रहते हैं । फिर बड़े प्राणी ही क्यों मरते हैं ? मनुष्यको ही क्यों मौत के मुँह में जाने के लिए विवश होना पड़ता है ?



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मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई

Preface

घास-पात की तरह मनुष्य भी माता के पेट से जन्म लेता है,पेडू-पौधों की तरह बढ़ता है और पतझड़ के पीले पत्तों की तरहजरा-जीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है । देखने में तो मानवी सत्ता का यही आदि-अंत है । प्रत्यक्षवाद की सचाई वहीं तक सीमितहै, जहाँ तक इंद्रियों या उपकरणों से किसी पदार्थ को देखा-नापा जासके । इसलिए पदार्थ विज्ञानी जीवन का प्रारंभ व समाप्ति रासायनिक संयोगों एवं वियोगों के साथ जोड़ते हैं और कहते हैं कि मनुष्य एक चलता-फिरता पेड़-पादप भर है । लोक-परलोक उतना ही है जितना कि काया का अस्तित्व । मरण के साथ ही आत्मा अथवा कायासदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाती है । बात दार्शनिक प्रतिपादन या वैज्ञानिक विवेचन भर की होती तो उसे भी अन्यान्य उलझनों की तरह पहेली, बुझौवल समझा जासकता था और समय आने पर उसके सुलझने की प्रतीक्षा की जासकती थी । किंतु प्रसंग ऐसा है जिसका मानवी दृष्टिकोण औरसमाज के गठन, विधान और अनुशासन पर सीधा प्रभाव पड़ता है ।यदि जीवन का आदि- अंत-जन्म-मरण तक ही सीमित है, तो फिर इस अवधि में जिस भी प्रकार जितना भी मौज-मजा उड़ाया जा सकता हो, क्यों न उड़ाया जाए ? दुष्कृत्यों के फल से यदि चतुरता पूर्वक बचा जा सकता है, तो पीछे कभी उसका दंड भुगतना पड़ेगा, ऐसा क्यों सोचा जाए ? अनास्था की इस मनोदशा में पुण्य-परमार्थ का, स्नेह-सहयोग का भी कोई आधार नहीं रह जाता ।






मरणोत्तर श्राद्ध कर्म-विधान


गायत्री तीर्थ शान्तिकु्ज्ञ्ज में भारतीय संस्कृति के अनुरूप हर प्रकार के संस्कार कराने की व्यवस्था लम्बे समय से चली आ रही है। तीर्थ श्राद्ध परम्परा प्रारम्भ करने के बाद एक नया अनुभव हुआ। ऐसा लगा कि लोगों के मन में रुकी-घुटी श्रद्धा की अभिव्यक्ति को नया मार्ग मिल गया है, जिनके तप, पुरुषार्थ और अनुदान पर हमारा वर्तमान जीवन टिका है, उन पितरों के प्रति श्राद्ध व्यक्ति करने की उमंग हर नर-नारि में उमड़ती दिखती है।

 






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Sunday 28 August 2016

सफल दांपत्य जीवन के मौलिक सिद्धांत


Preface

सुखी दाम्पत्य का आधार है- पति-पत्नी का शुद्ध सात्विक प्रेम ।। जब दोनों एक- दूसरे के लिए अपनी स्वार्थ- भावना का परित्याग कर देते हैं तब हृदय परस्पर मिल जाते हैं ।। प्रेम में अहंकार का भाव नहीं होता है ।। त्याग ही त्याग चाहिए ।। जितने गहन तल से समर्पण की भावना होगी उतना ही प्रगाढ़ प्रेम होगा ।।

Table of content

1. परिवार का मूल: दाम्पत्य जीवन 
2. सफल दांपत्य के व्यावहारिक सत्य 
3. अहंकार और दाम्पत्य-प्रेम में एक रह सकता है, दोनों नहीं 
4. महापुरुषों का दाम्पत्य जीवन 


             सफल दांपत्य जीवन के मौलिक सिद्धांत



Complete Yagya Set

Description

1 Janaiv (Yagyopaveet) 
2 Devsthapan-Asni 
3 Upavashra - Gayatri Mantra Dupatta (Cotton) 
4 Kasta Patra Set 
5 Hawan Kund 
6 Hawan Samagri 
7 Dhoti Cotton 
8 यज्ञ कर्मकाण्ड (MP3 CD) 
9 सरल सर्वोपयोगी हवन विधि (Book) 
10. देवस्थापना (5x7 Inch) (Photo Freams) 


                                Complete Yagya Set



आकृति देखकर मनुष्य की पहचान

आकृति देखकर मनुष्य की पहचान

Preface
चेहरा मनुष्य के भीतरी भागों का दर्पण है । मन में जैसे भाव होते है, उन्हें कुछ अत्यन्त सिद्ध हस्त लोगों को छोड़कर कोई आसानी से नहीं छिपा सकता । मनोगत भाव आमतौर से चेहरे पर अंकित हो जाते हैं । मुखाकृति को देखकर मन की भीतरी बातों का बहुत कुछ पता लगालिया जाता है । परन्तु जब कोई भाव अधिक समय तक मन में मजबूती के साथ बैठ जाता है तो उसका प्रभाव आकृति पर स्थाई रूप से पड़ता है और अंगों की बनावट वैसी ही हो जाती है । स्वभाव के परिवर्तन के साथ-साथ चेहरे की बनावट में कितने ही सूक्ष्म अन्तर आ जाते है । 

जब कोई मनोवृत्ति बहुत पुरानी एवं अभ्यस्त होकर मनुष्य के अन्तःकरण में संस्कार रूप से जम जाती है तो वह कई जन्मों तक जीवका पीछा करती है । इस स्वभाव संस्कार के अनुसार माता के गर्भ मेंउस जीव आकृति का निर्माण होता है । बालक के पैदा होने पर जानकार लोग जान लेते है कि किन स्वभावों और संस्कारों की इसके अन्तःकरणपर छाया है और उन संस्कारों के कारण उसे जीवन में किस प्रकार की परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ेगा । 

आकृति विज्ञान का यही आधार है । प्राचीन काल में इस विद्या की सहायता से बालकों के संस्कारों को समझ कर उनकी प्रवृत्तियो को सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न किया जाता था । अब भी इसका यही उपयोग होना चाहिए । इसके चिह्न बुरे हैं इसलिए यह अभागा है इससे घृणा करे, इसके चिह्न अच्छे हैं, यह भाग्यवान है, इसे अधिक आदर दें, यह भावना इसविद्या का दुरूपयोग है ।



साधना पद्धतियों का ज्ञान विज्ञान-4

Preface

भारतीय संस्कृति का कोश अनेकानेक रत्नों से भरा पड़ा है। योगदर्शन उनमें से एक है जो व्यक्ति को उच्च से उच्चतर-उच्चतम सोपानों पर चढ़ाने की विधा का प्रशिक्षण देता है। साधना जो योगदर्शन के अन्तर्गत विभिन्न पद्धतियों के माध्यम से सिखाई जाती हैं कोई जादू-चमत्कार नहीं वरन् विशुद्घ विज्ञान है। मानवीसत्ता के कण-कण में दिव्यता भरी पड़ी है जो कि अद्भुत है, अनन्त है। उसी को परमस्तर तक पहुँचा देने के लिए जो प्राप्ति का पुरुषार्थ किया जाता है- आकांक्षा, साहसिकता, सक्रियता और तत्परता जुटायी जाती है, उसी को साधना कहते हैं। साधना का अर्थ अपने आपको को साधना-अपने कर्म को कुशलतापूर्वक संपादित कर लेना तथा विच्छृंखलित, अस्तव्यस्त स्थिति से सुव्यवस्थित, सुरुचिपूर्ण स्थिति में अपने व्यक्तित्व को पहुँचाना। 


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आहार-चिकित्सा

Preface

संसार में दिखलाई देने वाले शारीरिक एवं मानसिक दोषों में अधिकांश का कारण आहार संबंधी अज्ञान एवं असंयम ही है ।। जो भोजन शरीर को शक्ति और मन बुद्धि को प्रखरता प्रदान करता है ।। वहीं असंयमित अथवा अनुपयुक्त होने पर उन्हें रोगी एवं निस्तेज भी बना देता है ।। शारीरिक अथवा मानसिक विकृतियों को भोजन विषयक भूलों का ही परिणाम मानना चाहिए ।। अन्न दोष संसार के समस्त दोषों की जड़ है- " जैसा खाए अन्न वैसा बने मन "वाली कहावत से यही प्रतिध्वनित होता है कि मनुष्य की अच्छी बुरी प्रवृत्तियों का जन्म एवं पालन अच्छे बुरे आहार पर ही निर्भर है ।। नि :संदेह मनुष्य जिस प्रकार का राजसी, तामसी अथवा सात्त्विकी भोजन करता है उसी प्रकार उसके गुणों एवं स्वभाव का निर्माण होता है ।।


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The Astonishing Power Of Bio-Physical And Subtle Energies Of Human Body



Preface

Human body is a wonderful creation of the supreme natural power. It is endowed with all the physical and conscious energy forms existing in the universe. The living system of human body can be identified as a grand magnet or as a moving electric powerhouse. The human-magnet through its vital energy can affect and get affected by others. An in-depth study and controlled utilization of such effects at (bio)physical and subtle levels offers challenging and important research problems in advanced science. The source of biomagnetism in our body gains energy from the earths gravitation similar to what the latter gains from the Sun. All the universal magnetic forces affect the biomagnetism of the human body. Vital energy levels of a person vary according to the biomagnetism of his/her body. The visible effects of reduction in this magnetic power are: dullness in eyes, spiritless face, dry skin and lethargic body. Feelings of oblivion, illusion and fatigue are common in people with weak biomagnetism. Elevated levels of biomagnetism on the other hand, give rise to corresponding increase in the general activeness, charm, enthusiasm, sound memory and intellect. Persons having more powerful biomagnetism naturally attract and influence the weaker ones. The reception of cosmic radiations by human-psyche is also characterized by the latters biomagnetic quality. The north pole of the human magnet is said to reside in the human brain. The formation of an aura (halo of light) around this vital organ is a result of an upward bioelectric flow near the subtle pole. The south pole of the human-magnet is situated near the genital organs. The sexual activities are controlled by the vital energy through this pole. Excessive stimulation of this pole results in severe loss of the vital energy


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समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान -35

Preface

भारत जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी "स्वर्गादपि गरीयसी" कहा जाता था, एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है, जिसके अनुदानों से विश्व- वसुधा का चप्पा- चप्पा लाभान्वित हुआ है ।। भारत ने ही अनादि काल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है ।। ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ, पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा- यह यहाँ से सारे विश्व में फैल गया ।। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष, जिसकी परिधि कभी सारी विश्व- वसुधा थी, आज अपने दो सहस्रवर्षीय अंधकारयुग के बाद पुन: उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है ।। परमपूज्य गुरुदेव ने जन- जन को उसी गौरव की जानकारी कराने के लिए यह शोधप्रबंध १९७३ -७४ में अपने विदेश प्रवास से लौटकर लिखाया एवं यह प्रतिपादित किया कि देव संस्कृति ही सारे विश्व को पुन: वह गौरव दिला सकती है, जिसके आधार पर सतयुगी संभावनाएँ साकार हो सकें ।। उसी शोधप्रबंध को सितंबर १११० में पुन: दो खंडों में प्रकाशित किया गया था ।। इस वाङ्मय में उस शोधप्रबंध के अतिरिक्त देव संस्कृति की गौरव- गरिमा परक अनेकानेक निबंध संकलित कर उन्हें एक जिल्द में बाँधकर प्रस्तुत किया गया है ।। 

"सा प्रथमा संस्कृति: विश्ववारा ।" यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति- हिंदू संस्कृति- देव संस्कृति ही सर्वप्रथम वह संस्कृति थी, जो विश्वभर में फैल गई ।। अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हें होना चाहिए वे ही भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उमुख होने लगें तो इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा ।।

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Friday 26 August 2016

स्वामी विवेकानन्द

कलकत्ता नगर में महामारी (प्लेग) का प्रकोप था । प्रतिदिन सैंकड़ों व्यक्तियों पर उसका आक्रमण होता था । हालत बिगड़ती देखकर सरकार ने स्थिति का नियंत्रण करने के लिए कड़े नियम बनाए । पर जब नगर निवासी अनुशासन की कमी से उनका पालन करने में ढीलढाल करने लगे तो शहर के भीतर और चारों तरफ फौज तैनात कर दी गई । इससे नगरवासियों में बड़ा आतंक फैल गया और उपद्रव हो जाने की आशंका होने लगी । 

स्वामी विवेकानंद उस समय विदेशों में हिन्दू धर्म की ध्वजा फहराकर और भारतवर्ष का दौरा करके कलकत्ता आए ही थे । वे अपने देशी-विदेशी सहकारियों के साथ बेलूड़ में रामकृष्ण परमहंस मठ की स्थापना की योजना में संलग्न थे । लोगों पर इस घोर विपत्ति को आया देखकर वे सब काम छोड़कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई को एक बड़ी योजना बना डाली । 

गुरु - भाई ने पूछा-स्वामीजी ? इतनी बड़ी योजना के लिए फंड कहाँ से आएगा ? 

स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया- आवश्यकता पड़ेगी तो इस मठ के लिए जो जमीन खरीदी है उसे बेच डालेंगे । सच्चा मठ तो सेवा कार्य ही है । हमें तो सदैव संन्यासियों के नियमानुसार भिक्षा माँगकर खाने तथा पेड़ के नीचे निवास करने को तैयार रहना चाहिए । 

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A GLIMPSE OF THE GOLDEN FUTURE

Preface

As a futurologist, Acharyashri has demonstrated unique ability to predict the future. During the last decade, when the cold war was at its zenith, he had accurately presaged about the impossibility of a third world war, nuclear non-proliferation and failure of the star-war program. Some of his predictions of global importance that have come true are highlighted in the Chapter 1 of this booklet. Chapters 2 and 3 present translations of some of his published works pertaining to the changes in the world map, socio-economic order and advent of a Golden Era in the 21st Century.



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Vedas Set - (8 Books)

1. ऋग्वेद-1 
2. ऋग्वेद-2 
3. ऋग्वेद-3 
4. ऋग्वेद-4
5. अथर्ववेद-01 
6. अथर्ववेद-02 
7. यजुर्वेद 
8. सामवेद 


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गृहस्थ में प्रवेश के पूर्व जिम्मेदारी समझें


Preface

गृहस्थ जीवन के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक 

पाश्चात्य देशों में विवाह के पूर्व ही युवक- युवतियों को यौन विषयक जानकारी दी जानी आवश्यक समझी जाती है ।। हमारे यहाँ इस विषय को गोपनीय मानकर बच्चों को नहीं बताया जाता ।। यह कहना कि बच्चों के वयस्क होते- होते उन्हें यौन विषयक जानकारी दे देनी आवश्यक होती है ।। उचित मानें भी तो भी यह मत एकांगी ही ठहरता है ।। यौन विषयक जानकारी युवक- युवतियों के लिए उतनी आवश्यक नहीं है जितनी कि उन्हें विवाह के पूर्व वैवाहिक दायित्वों, विवाह की महत्ता और उसकी सफलता के तथ्यों का ज्ञान कराना आवश्यक है ।। इनका समुचित ज्ञान न होने के कारण या तो वे विवाहोत्तर जीवन की ऐसी काल्पनिक तस्वीर अपने मन- मस्तिष्क में लेकर चलते हैं कि जीवन के नग्न यथार्थ तो टकरा कर जब वह टूटती है तो है स्वयं भी बहुत कुछ टूट जाते हैं। ऐसी काल्पनिक तस्वीर दे न भी बनाएँ तो भी है शारीरिक व मानसिक तोर से उन बातों के लिए तैयार नहीं रह पाते जो उनके सामने आती हैं ।। विवाह जैसे महत्वपूर्ण दायित्व और व्यवस्था का न स्वयं पूरा लाभ उठा सकते हैं न समाज को और परिवार को ही उसका लाम है सकते हैं ।। 

आज तक अधिकांश माता- पिता विवाह को अनिवार्य तो मानते हैं ,, लड़के- लड़कियों के हाथ पीले करके गंगा नहाने की बात तो करते हैं, किन्तु उनका यह गंगा नहाना कितना अधूरा रहता है जब बच्चे विवाहोत्तर जीवन भार को उठा पाने में असमर्थ रहते हैं या बेगार की तरह गृहस्थी की गाड़ी खींचते रहते हैं ।। विवाह की अनिवार्यता को स्वीकारने के साथ ही उसकी सफलता के लिए बच्चों को शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक रूप से तैयार व समर्थ बनाना भी उतना ही महत्व रखता है, जितना कि विवाह करवा देना ।। "

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Saturday 13 August 2016

अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय

Preface

पदार्थों और प्राणियों के परमाणुओं-जीवकोषों में मध्यवर्ती नाभिक ‘‘न्यूक्लियस’’ होते हैं। उन्हीं को शक्ति स्रोत्र कहा गया है और घिरे हुए परिकर को उसी उद्गम से सामर्थ्य मिलती है तथा अवयवों की सक्रियता बनी रहती है। यह घिरा हुआ परिकर गोल भी हो सकता है और चपटा अण्डाकार भी। यह संरचना और परिस्थितियों पर निर्भर है।

पृथ्वी का नाभिक उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव की परिधि में मध्य स्थान पर है। उनके दोनों सिरे अनेकानेक विचित्रताओं का परिचय देते हैं। उत्तरी ध्रुव लोक-लोकान्तरों से कास्मिक-ब्रह्माण्डीय किरणों को खींचता है। जितनी पृथ्वी को आवश्यकता है उतनी ही अवशोषित करती है और शेष को यह नाभिक दक्षिणी ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष में नि:सृत कर देता है। इन दोनों छिद्रों का आवरण मोटी हिम परत से घिरा रहता है। उन सिरों को सुदृढ़ रक्षाकवच एवं भण्डारण में प्रयुक्त होने वाली तिजोरी की उपमा दी जा सकती है। प्राणियों के शरीरों और पदार्थ परमाणुओं में भी यही व्यवस्था देखी जाती है। अपने सौरमण्डल का ‘‘नाभिक’’ सूर्य है, अन्य ग्रह उसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर अपनी-अपनी धुरियों और कक्षाओं में भ्रमण करते हैं।

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अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय 

 

ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि विद्या

Preface

साधना के सिद्धांत को अत्युक्तिपूर्ण और अतिरंजित तभी कहा जा सकता है, जब उसमें से आत्म- परिष्कार के तथ्य को हटा दिया जाए और मात्र क्रिया- कृत्यों के सहारे चमत्कारी उपलब्धियों का सपना देखा जाए ।।

मानवी सत्ता में परमात्म सत्ता की सभी विशिष्टताएँ बीज रूप में विद्यमान हैं ।। इस अनुदान में स्रष्टा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अपने अनुग्रह का अंत कर दिया ।। इतने पर भी उसने इतना रखा है कि पात्रता के अनुरूप उन विशिष्टताओं से लाभान्वित होने का अवसर मिले ।। जिस पात्रता का परिचय देने पर सिद्धियों का द्वार खुलता है वह और कुछ नहीं जीवन परिष्कार के निमित्त प्रस्तुत की गई पुरुषार्थपरायणता भर है ।।

साधना विधानों में प्रयुक्त होने वाले क्रिया- कृत्य अगणित हैं ।। पर उन सबका मूल उद्देश्य एक है- जीवन के अंतरंग पक्ष को सुसंस्कृत और बहिरंग पक्ष को समुन्नत बनाना ।। जो साधना अपने विधि- विधानों के सहारे साधक को सुसंस्कारिता की दिशा में जितना अग्रसर कर पाती है वह उतनी ही सफल होती है ।।

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ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि विद्या



Inspiring Stories

Preface

Stories have always been very useful for overall development of children. Short Stories sow the seeds of knowledge and moral ideas in their mind. Through these stories children learn to differentiate between good and bad, friend and foe. Stories are considered to be most effective medium for personality development of children and for giving them good sanskars. Previously, grandmothers (dadi & nani) used to tell inspiring stories to children. But these days this important art is being neglected. Yug Nirman Yojna has published Picture Books containing short stories which will entertain, guide and inspire the children and elders both.

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Awake O Talented And Come Forward

Preface

Awake! O Talented and Come Forward

Talents are God given. These are given to certain special persons for the reason that these will be considered God"s reserve for peoples welfare and that these special skills will not be employed for gratifying one"s lust or desire or ego, but for people"s welfare. Had the talented people understood this truth and kept in mind the special task imposed with the special skills, then the situation of the world would have been different today.

Hitler, the Supreme of fascist Germany, fully utilized the power of cinema for making the German people desirous of war. He used his vast propaganda machinery according to his likes and needs. The result was as desired every citizen of Germany had started dreaming of world conquest and every German citizen was willing to sacrifice everything to make his country a jewel in the crown of the world. By giving a proper direction to the propaganda machinery of cinema, the mind of the people can be changed to any desired direction. Today, when most film producers, singers, music directors and actors are…

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बुद्धि बढ़ाने की वैज्ञानिक विधि

Preface

पूर्णत: बुद्धिहीन मनुष्य शायद कोई भी न होगा । जिसे हम मूर्ख या बुद्धिहीन कहते हैं, उसमें बुद्धि का बिलकुल अभाव नहीं होता । एक अध्यापक की दृष्टि में किसान मूर्ख है, क्योंकि वह साहित्य के विषय में कुछ नहीं जानता, किंतु परीक्षा करने परमालूम होगा कि किसान को खेती के संबंध में पर्याप्त होशियारी, सूझ और योग्यता है । एक वकील की दृष्टि में अध्यापक मूर्ख है, क्योंकि कानून की पेचीदगियों के बारे में कुछ नहीं जानता । इसी प्रकार एक डाक्टर की दृष्टि में वकील मूर्ख ठहरेगा, क्योंकि वह यह भी नहीं जानता कि जुकाम हो जाने पर उसकी क्या चिकित्सा करनी चाहिए ? सेठ जी की दृष्टि में पंडित भिख मंगे हैं, तो महात्मा जी की दृष्टि में सेठ जी चौकीदार हैं । इन सब बातों परविचार करते हुए ऐसा मनुष्य मिलना कठिन है, जो सर्वथा निर्बुद्धि कहा जा सके । दो मनुष्य यदि आपस में एक समान विषय काज्ञान रखते हैं, तो वे एक-दूसरे की दृष्टि में बुद्धिमान् हैं । यदि दोनों की योग्यताएँ अलग-अलग विषयों में हैं, तो वे प्राय:एक्-दूसरे को बुद्धिमान् न कहेंगे ।

यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते है -

( १) क्या बुद्धि का विकास बचपन में ही संभव है ?
(२) क्या सभी मनुष्य बुद्धिमान् हैं ? पहले प्रश्न के उत्तर में कहना चाहिए कि आरंभिक काल की शिक्षा अवश्य ही महत्वपूर्ण एवं सरल है । इनमें बीस वर्ष की आयु तकजो संस्कार जम जाते हैं, वे अगले चार-पाँच वर्षों में पुष्ट होकर जीवन भर बने रहते हैं ।

 
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Wednesday 10 August 2016

The Secret Of A Healthy Life

Preface

Good health and ability for proper understanding—both these are the best blessings in life.

Good health is closely related to proper understanding. It is said that a stable mind resides in a healthy body. The mind, thoughts and understanding of a person having indifferent health will never be mature. One can judge a man from the status of his health. People with good moral conduct are healthy, strong and free from diseases. They always have a smiling face. These people have some sort of a magnetism so that everyone wishes to talk to them, make friends with them and always be with them.

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SUPER SCIENCE OF GAYATRI

Preface

The effect of sincere and steadfast Gayatri Sadhana is swift and miraculous in purifying, harmonizing and steadying the mind and thus establishing unshakable inner peace and a sense of joy-filled calm even in the face of grave trials and tribulations in the outer life of the Sadhak.

A comprehensive treatise on the super-science of Gayatri was written by Acharyashri in Hindi and was published in three volumes (now available in one single volume). An English translation of important chapters of these books was published under the title " The Great Science and Philosophy of Gayatri" The present volume - " Super Science of Gayatri" is a thoroughly revised, edited and expanded version of the former book with appropriate additions and corrections. The earlier edition " The Great Science and Philosophy of Gayatrr contained some errors and omissions as also de¬fects as regards printing and get-up. This book "The Super-Science of Gayatri" contains all which is worth knowing about Gayatri Mantra, Gayatri Sadhana and Gayatri. Yagya and it is hoped that by logically establishing co-relationship of sci¬ence with spirituality in the modem age, it will provide to the aspirant readers unambiguous guidelines, deep inspiration and firm faith in Gayatri Sadhana and fulfill the true purpose of human life.

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युग गीता भाग-१

Preface

इस युग परिवर्त्तन की वेला में जीवन जाने की कला का मार्गदर्शन मिले, जीवन के हर मोड़ पर जहाँ कुटिल दाँवपेंच भरे पड़े हैं-यह शिक्षण मिले कि इसे एक योगी की तरह कैसे हल करना व आगे-निरन्तर आगे ही बढ़ते जाना है- यही उद्देश्य रहा है । मन्वन्तर- कल्प बदलते रहते हैं, युग आते हैं, जाते हैं, पर कुछ शिक्षण ऐसा होता है, जो युगधर्म- तत्कालीन परिस्थितियों के लिये उस अवधि में जीने वालों के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है। ऐसा ही कुछ युगगीता को पढ़ने से पाठकों को लगेगा। इसमें जो भी कुछ व्याख्या दी गयी है, वह युगानुकूल है। शास्त्रोक्त अर्थों को भी समझाने का प्रयास किया गया है एवं प्रयास यह भी किया गया है कि यदि उसी बात को हम अन्य महामानवों के नजरिये से समझने का प्रयास करें, तो कैसा ज्ञान हमें मिलता है- यह भी हम जानें। परम पूज्य गुरुदेव के चिन्तन की सर्वांगपूर्णता इसी में है कि उनकी लेखनी, अमृतवाणी, सभी हर शब्द- वाक्य में गीता के शिक्षण को ही मानो प्रतिपादित- परिभाषित करती चली जा रही है। यही वह विलक्षणता है, जो इस ग्रंथ को अन्य सामान्य भाष्यों से अलग स्थापित करता है।

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Monday 8 August 2016

Prepare Yourself To Excel

Preface

Every particle in the world is a motion; everything moves ahead, develops and continues its journey. This movement is the nature of creation. Induced by this nature, every inanimate and live element of nature has to continue its journey. Man is also bound by this rule. He goes ahead with the developments in his life from birth till death. Even after this the evolution continues.

It is essential for every wise man and woman to know the science of how to progress and complete this mandatory journey with grace and excellence. Just as it is necessary for a blacksmith to know the work of smithy, for a confectioner to know how to prepare sweets and for a farmer to know farm-work, so it is necessary for a person undertaking a journey to have substantial details associated with it, know its goal and know the optimal path. Planning, preparation and organization are essential before execution of every great task. Great tasks are accomplished only when they are properly planned ahead of starting Journey of life is also a very big project and there is no alternative to preparation beforehand to complete its successfully.

Our life is moving ahead. It is essential to make preparations so that this journey moves adeptly in an organized way in the right direction. This books is written to fulfill this need. I hope that is would prove helpful to the reader in rightly organizing and augmenting his physical, metal and spiritual resources.
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Four Pillars Of Self Development

Preface

(Translation of a discourse by Poojya Gurudev Pandit Shriram Sharma Acharya on Atmonnati Ke Char Adhara delivered in 1980)
Let us begin with the collective chanting of the Gayatri Mantra:
Om Bhur Buvah Swah, Tatsaviturvarenyath Bhargo Devasya Dhimahi, Dhiyo Yonah Prachodayat !

Sisters and Brothers,
Our Yug Nirman mission has been organized as a laboratory. In a laboratory of chemistry, new chemicals and compounds are invented and presented to the world with a demonstration of their properties and use. Our mission is experimenting on the formulae, on the workable and viable plans for spiritual ascent and reconstruction of the world. Our Yug Nirman mission is a man-making odyssey. It is developed like a nursery to nurture good qualities, to produce enlightened talents. As you know, saplings of a variety of plants and trees are grown in a nursery and supplied to different gardens where they blossom with beautiful flowers and nutritious fruits.


                         Four Pillars Of Self Development @


Gayatri Mantra The Genesis Of Divine Culture

Preface

Let us begin with the collective chanting of the Gayatri Mantra:
"Om Bhar Buvah Swah, Tatsaviturvarenyam, Bhargo Devasya Dhimahi, Dhiyo Yonah Prachodayat II"

Sisters and Brothers,

A mother is the highest manifestation of God in human form. Our scriptures say "Matri Devobhav, Pitri Devobhav, Acharya Devobhav" Indeed there is no one greater than a mother. We all know that each one of us is born and is surviving because of mothers grace. She bears the offspring for nine months, nourishes the embryo in the womb by her own blood and continues to do so after the


Jivan Sadhana

Preface

Svayam vajimstanvam kalpayasva
svayam yajasva svayam jusasva
Mahima tenyena na sannase.

Yajurveda 23 /15

"0 mighty yajna purusa (sacrificer)! Make your own body strong and capable. Perform the yajna yourself. Engage personally in religious pursuits. No one else can attain the glory that belongs you."

Dear reader! The spring breeze charged with the subtle vital energy of Yugdevata (Time Spirit) has come in the form of these printed exhortations to fill you with new life, new spur and new hope. This breeze will blow off all the dust which the passing time may have deposited over the smouldering embers in you and rekindle it into leaping flames. You will experience the upsurge of a radiant glow, energy, warmth and ardour inside you that will propel you vigorously in the direction of jivana sadhana - the way of leading a healthy, vibrant, enlightened, happy and balanced life.

If you are sensing the stir of these feelings inside you, surely the Yugdevatas subtle pranic force has touched you somewhere. Otherwise, you would not have felt this new alertness and enthusiasm. Do not quibble about who is outwardly penning the words or framing the sentences.


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गुरु गीता

 गुरु गीता

 Preface

गुरुगीता शिष्यों का हृदय गीत है ।। गीतों की गूँज हमेशा हृदय के आँगन में ही अंकुरित होती है ।। मस्तिष्क में तो सदा तर्कों के संजाल रचे जाते हैं ।। मस्तिष्क की सीमा बुद्धि की चहार दीवारी तक है, पर हृदय की श्रद्धा सदा विराट् और असीम है ।। मस्तिष्क तो बस गणितीय समीकरणों की उलझनों तक सिमटा रहता है ।। इसे अदृश्य, असम्भव, असीम एवं अनन्त का पता नहीं है ।। मस्तिष्क मनुष्य में शारीरिक- मानसिक संरचना क्रिया की वैज्ञानिक पडताल कर सकता है, परन्तु मनुष्य में गुरु को ढूँढ लेना और गुरु में परमात्मा को पहचान लेना हृदय की श्रद्धा का चमत्कार है ।।

गुरुगीता के महामंत्र इसी चमत्कारी श्रद्धा से सने हैं ।। इसकी अनोखी - अनूठी सामर्थ्य का अनुभव श्रद्धावान् कभी भी कर सकते हैं ।। योगेश्वर श्रीकृष्ण के वचन हैं- "श्रद्धावान् लभते ज्ञानं" जो श्रद्धावान् हैं, वही ज्ञान पाते हैं ।। यह श्रद्धा बडे दुस्साहस की बात है ।। कमजोर के बस की बात नहीं है, बलवान् की बात है ।। श्रद्धा ऐसी दीवानगी है कि जब चारों तरफ मरुस्थल हो और कहीं हरियाली का नाम न दिखाई पड़ता हो, तब भी श्रद्धा भरोसा करती है कि हरियाली है, फूल खिलते हैं ।। जब जल का कहीं कण भी न दिखाई देता हो, तब भी श्रद्धा मानती है कि जल के झरने हैं, प्यास तृप्त होती है ।। जब चारों तरफ पतझड हो तब भी श्रद्धा में वसन्त ही होता है ।।

जो शिष्य हैं, उनकृा अनुभव यही कहता है कि श्रद्धा में वसन्त का मौसम सदा ही होता है ।। श्रद्धा एक ही मौसम जानती है- वसन्त ।। बाहर होता रहे पतझड़, पतझड़ के सारे प्रमाण मिलते रहें, लेकिन श्रद्धा वसन्त को मानती है ।। इस वसन्त में भक्ति के गीत गूँजते हैं ।।

 
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प्रज्ञापुराण कथामृत (बडा़ संस्करण) Part -1

प्रज्ञापुराण कथामृत (बडा़ संस्करण) Part -1

 

Preface

भारतीय संस्कृति के उपासक आचार्य पं. श्रीराम शर्मा जी द्वारा रचित प्रज्ञा पुराण को उनके समस्त साहित्य सागर का सार कहा जा सकता है । कथा साहित्य की लोकप्रियता को देखते हुए आचार्य श्री ने प्रज्ञा पुराण की रचना की, जिसमें आधुनिक परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुरूप कथाओं के माध्यम से मानव के अचिंत्य चिंतन को बदलने के उद्देश्य से दैनंदिन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है । प्रज्ञा पुराण ग्रंथ रामायण तथा गीता के समान ही प्रेरणा प्रद है ।

आधुनिक युग की इस प्रेरक कृति प्रज्ञा पुराण को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य को लेकर इस पुस्तक की रचना की गई है । प्रज्ञा पुराण का मूल ग्रंथ संस्कृत में है, उन श्लोकों की हिन्दी में व्याख्या कर कथाओं के द्वारा युग चेतना जगाने का प्रयत्न किया गया है । संगीत की लोकप्रियता सर्वविदित है, उसमें हृदय तंत्री को झंकृत करने की अपूर्व क्षमता है, अत: मनोरंजन के साथ साथ जन कल्याण की भावना को ध्यान में रखकर प्रज्ञा पुराण कथामृतम् ( भाग दो) पुस्तक में श्लोकों की व्याख्या को राधेश्यामी तर्ज पर गेय पदों में प्रस्तुत किया गया है, जिससे प्रज्ञा पुराण का संदेश घर-घर, ग्राम-ग्राम, नगर- नगर तक पहुँच सके । लोक रंजन के साथ लोक मंगल का यह सर्व सुलभ मार्ग है ।

 

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Saturday 6 August 2016

आत्मा वा अरे ज्ञातव्य:

शरीर का ही नहीं - आत्मा का भी ध्यान रखें

इस बात से जा भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मानव जीवन में शरीर का महत्त्व कम नहीं है ।। शरीर की सहायता से ही संसार यात्रा संभव होती है ।। शरीर द्वारा की हम उपार्जन करते हैं और उसी के द्वारा हम सारी क्रियाएँ सम्पन्न करते हैं ।। यदि मनुष्य को शरीर प्राप्त न हो, तो वह तत्व रूप से कुछ भी करने में समर्थ न हो ।।

यदि एक बार मानव- शरीर के इस महत्व को गौण भी मान लिया जाये, तब भी शरीर का यह महत्त्व तो प्रमुख है ही कि आत्मा का निवास उसी में होता है ।। उसे पाने के लिए किए जाने वाले सब प्रयत्न उसी के द्वारा सम्पादित होते हैं ।। सारे आध्यात्मिक कर्म जो आत्मा को पाने, उसे विकसित करने और बन्धन से मुक्त करने के लिए अपेक्षित  होते हैं, शरीर को सहायता से ही सम्पन्न होते हैं ।। अत: शरीर का महत्त्व बहुत है ।। तथापि जब इसको आवश्यकता से अधिक महत्त्व दे दिया जाता है, तब यही शरीर जो संसार बन्धन से मुक्त होने में हमारी एक मित्र को तरह सहायता करता है, हमारा शत्रु बन जाता है ।। अधिकार से अधिक शरीर को परवाह करने और उसकी इन्दियों की सेवा करते रहने से, शरीर और उसके विषयों के सिवाय और कुछ भी याद न रखने से वह हमें हर ओर से विभोर बनाकर अपना दास बना लेता है और दिन- रात अपनी ही सेवा में तत्पर रखने के लिए दबाव में आ जाने वाला व्यक्ति कमाने- खाने और विषयों को भोगने के सिवाय- इससे आगे की कोई बात सोच ही नहीं पाता ।। उसका सारा ध्यान शरीर और उसकी आवश्यकताओं तक ही केन्द्रित हो जाता है ।। वह शरीर और इन्दियों की क्षमता में बँधकर अपनी सारी शक्ति जिसका उपयोग महत्तर कार्यों में
किया जा सकता है, शरीर को सेवा में समाप्त कर देता है ।


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अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य

Preface

पिता एक ऐसा शब्द है, जिसका उच्चारण करते ही निश्चिन्ततापूर्ण संरक्षण की अनुभूति होती है। पूज्य आचार्यश्री एक वृहद् परिवार के पिता थे। एक ऐसा परिवार, जिसके सदस्यों को उन्होंने एक खास मकसद के लिए दुनिया के कोने-कोने से तलाशा व तराशा था। वह उनके संरक्षण और विकास के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। वह बहुत दूर बैठकर भी अपने एक-एक बच्चे का ध्यान रखते थे। उनका हर शिष्य आज भी सदैव उनके स्नेहिल संरक्षण में होने की स्पष्ट अनुभूति करता है और अपने शिष्यों के साथ उनके अलग-अलग रूपों में होने के प्रमाण हमें आये दिन मिलते रहते हैं। दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से संतप्त इस संसार में पूज्यवर ने अपने मानसपुत्रों को कई बार आसन्न संकटों से बचाया। गायत्री परिवार का इतिहास ऐसी अनेकानेक घटनाओं से भरा पड़ा है।

आचार्यवर द्वारा स्थापित गायत्री परिवार के सहस्रों कार्यकर्ता, लाखों-लाख उनके पुत्र व पुत्रियाँ ऐसी कई घटनाओं के स्वयं साक्षी हैं। इन अद्भुत् घटनाओं की गिनती करना, इन्हें किसी पुस्तक में बाँध पाना असंभव-सा काम है। फिर भी, कदम-कदम पर प्राप्त होते रहे युगऋषि के अद्भुत् अनुदानों को लेकर जन्मशताब्दी वर्ष में रोम-रोम से कृतज्ञता व्यक्त करते हुए श्रद्धासुमन के रूप में प्रस्तुत हैं- पूज्यवर के वरदपुत्रों द्वारा अभिव्यक्त कुछ अविस्मरणीय अनुभूतियाँ।




अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान भाग-२

Preface

परम पूज्य गुरुदेव एवं महर्षि पतंजलि में अद्भुत साम्य है । अध्यात्म जगत् में इन दोनों की उपस्थिति अत्यन्त विरल है । ये दोनों ही अध्यात्म के शिखर पुरुष हैं, परन्तु वैज्ञानिक हैं । वे प्रबुद्ध हैं- बुद्ध, कृष्ण, महावीर एवं नानक की भांति लेकिन इन सबसे पूरी तरह से अलग एवं मौलिक हैं । बुद्ध, कृष्ण महावीर एवं नानक-ये सभी महान् धर्म प्रवर्तक हैँ इन्होंने मानव मन और इसकी संरचना को बिल्कुल बदल दिया है, लेकिन उनकी पहुँच, उनका तरीका वैसा सूक्ष्मतम स्तर पर प्रमाणित नहीं है । जैसा कि पतंजलि का है ।

जबकि महर्षि पतंजलि एवं वेदमूर्ति गुरुदेव अध्यात्मवेत्ताओं की दुनिया के आइंस्टीन हैं । वे अदभुत घटना हैं । वे बड़ी सरलता से आइंस्टीन, बोर, मैक्स प्लैंक या हाइज़ेनबर्ग की श्रेणी में खड़े हो सकते हैं । उनकी अभिवृत्ति और दृष्टि ठीक वही है, जो एकदम विशुद्ध वैज्ञानिक मन की होती है । कृष्ण कवि हैं, कवित्व पतंजलि एवं गुरुदेव में भी है । किन्तु इनका कवित्व कृष्ण की भांति बरबस उमड़ता व बिखरता नहीं, बल्कि वैज्ञानिक प्रयोगों में लीन हो जाता है । पतंजलि एवं गुरुदेव वैसे रहस्यवादी भी नहीं हैं जैसे कि कबीर हैं । ये दोनी ही बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक हैं जो नियमों की भाषा में सोचते-विचारते हैं । अपने निष्कर्षों को रहस्यमय संकेतों के स्वर में नहीं, वैज्ञानिक सूत्रों के रूप में प्रकट करते हैं ।

अदभुत है इन दोनों महापुरुषों का विज्ञान । ये दोनों गहन वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं, परन्तु उनकी प्रयोगशाला पदार्थ जगत् में नहीं, अपितु चेतना जगत् में है । वे अन्तर्जगत् के वैज्ञानिक हैं और इस ढंग से वे बहुत ही विरल एवं विलक्षण हैं ।
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Fruits Of Contentment

Preface

Stories have always been very useful for overall development of children. Short Stories sow the seeds of knowledge and moral ideas in their mind. Through these stories children learn to differentiate between good and bad, friend and foe. Stories are considered to be most effective medium for personality development of children and for giving them good sanskars. Previously, grandmothers (dadi & nani) used to tell inspiring stories to children. But these days this important art is being neglected. Yug Nirman Yojna has published Picture Books containing short stories which will entertain, guide and inspire the children and elders both.


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चेतना का सहज-स्वभाव, स्नेह-सहयोग

Preface

प्रकृति का प्रत्येक घटक अपने एक निश्चित नियम के अनुसार जन्म लेता और विकास करता है । यह नियम-व्यवस्था किन्हीं विशिष्ट क्षेत्रों के लिए ही लागू नहीं होती, बल्कि जहाँ कहीं भी प्रगति, विकास और गतिशीलता दिखाई देती है, वहाँ यही नियम काम करते दिखाई देते हैं ।

समझा जाता है कि मनुष्य ने इस प्रकृति में अन्य सभी प्राणियों से अधिक उन्नति तथा विकास किया है । उस उन्नति और विकास का श्रेय उसकी बुद्धिमत्ता को दिया जाता है । मनुष्य की बुद्धिमत्ता को उसकी प्रगति का आधार मानने में कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि उसने बुद्धिबल से ही अन्य प्राणियों की तुलना में इतनी अधिक उन्नति की है, जिससे सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने का श्रेय उसे प्राप्त हो सका । इस मान्यता में यदि कुछ तथ्य है तो उसमें एक संशोधन यह और करना पड़ेगा कि बुद्धिमत्ता उसे सहकारिता के आधार पर ही उपलब्ध हुई है । क्या मनुष्य ने उन्नति अपनी मस्तिष्कीय विशेषता के कारण की है ? मोटी बुद्धि ही इस मान्यता का अंधा समर्थन कर सकती है । सूक्ष्म चिंतन का निष्कर्ष यही होता है कि कोई-न-कोई आत्मिक सद्गुण ही उसके मस्तिष्क समेत अनेक क्षमताओं को विकसित करने का आधार हो सकता है । महत्त्वपूर्ण प्रगति न तो शरीर की संरचना के आधार पर संभव होती है और न मस्तिष्कीय तीक्ष्याता पर अवतरित रहती है । उसका प्रधान कारण अंतःकरण के कुछ भावनात्मक तत्त्व ही होते हैं ।

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