Monday 8 May 2017

चेतना की शिखर यात्रा भाग-२

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=105 राष्ट की आजादी के बाद एक बहुत बड़ा वर्ग तो उसका आनन्द लेने में लग गया किन्तु एक महामानव ऐसा था जिसने भारत के सांस्कृतिक आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु अपना सब कुछ नियोजित कर देने का संकल्प लिया। यह महानायक थे श्रीराम शर्मा आचार्य। उनने धर्म को विज्ञान सम्मत बनाकर उसे पुष्ट आधार देने का प्रयास किया। साथ ही युग के नवनिर्माण की योजना बनाकर अगणित देव मानव को उसमें नियोजित कर दिया। चेतना की शिखर यात्रा का यह दूसरा भाग आचार्य श्री 1947 से 1971 तक की मथुरा से चली पर देश भर में फैली संघर्ष यात्रा पर केन्द्रित है।हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है। समस्त ऋषिगण यहीं से विश्वसुधा की व्यवस्था का सूक्ष्म जगत् से नियंत्रण करते हैं। इसी हिमालय को स्थूल रूप में जब देखते हैं, तो यह बहुरंगी-बहुआयामी दिखायी पड़ता है। उसमें भी हिमालय का ह्रदय-उत्तराखण्ड देवतात्मा-देवात्मा हिमालय है। हिमालय की तरह उद्दाम, विराट्-बहुआयामी जीवन रहा है, हमारे कथानायक श्रीराम शर्मा आचार्य का, जो बाद में पं. वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ कहलाये, लाखों ह्रदय के सम्राट बन गए। तभी तक अप्रकाशित कई अविज्ञात विवरण लिये उनकी जीवन यात्रा उज्जवल भविष्य को देखने जन्मी इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी को-इसी आस से जी रही मानवजाति को समर्पित है।


स्वामी रामतीर्थ

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जिस समय स्वामी रामतीर्थ जापान होकर अमेरिका पहुँचे तो जहाज पर आपको बिना किसी तरह के सामान के देखकर एक अमेरिकन सज्जन को बड़ा आश्चर्य हुआ । तपस्या की ज्योति और प्रेम की भावना से परिपूर्ण ऐसा चेहरा उसने पहले कभी नहीं देखा था। वह उनके पास आकर पूछने लगा-
प्रश्न-आपका सामान है?
उत्तर-मेरे पास इतना ही सामान है - जो मेरें शरीर पर है ।
प्रश्न-तो फिर आप अपना रुपया-पैसा कहीं रखते है ?
उत्तर मेरे लिए रुपया-पैंसो अपने पास रखना मना है ।
प्रश्न-आप कहाँ जायेंगे? क्या आप अमेरिका में किसी को जानते है? आपका कोई मित्र नहीं है ?
उत्तर-हाँ, मैं आपको जानता हूँ आप ही मेरे मित्र हैं ।
स्वामी जी के इस आंतरिक आत्म-भाव को देखकर वह अमेरिकन सज्जन, जिसका नाम मि० हिल्लर था, चकित रह गया । वह उसी क्षण उनका भक्त बन गया और उन्हें अपने साथ घर ले गया । स्वामीजी को उसने दो वर्ष तक अपने यहाँ रखा ।
अमेरिका में ही एक महिला स्वामी राम से मिलने आई । वह बड़ी दुःखी थी, क्योंकि उसका बच्चा मर गया था । वह चाहती थी राम करके सुखी होने का उपाय बता दें ।
स्वामी जी ने कहा-
राम खुशी बेचता है, पर तुम्हें उसकी कीमत देनी होगी ।
स्त्री-आप जो कुछ माँगे, मैं देने को तैयार हूँ ।
स्वामी जी-सुख के राज्य का सिक्का दूसरा ही है और तुम्हें राम के देश का ही सिक्का देना पड़ेगा ।

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Tuesday 2 May 2017

हम बदलें तो युग बदले

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आज युग-परिवर्तन की चर्चा प्राय: सर्वत्र सुनने में आती है । संसार की राजनैतिक और आर्थिक स्थिति में बहुत अधिक अंतर पड़ जाने से उसका प्रभाव सामाजिक और धार्मिक परंपराओं पर भी दिखलाई दे रहा है । पर ये दोनों ही क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें मनुष्य जल्दी से बदलाव करने को तैयार नहीं होता । खासकर हमारे देश में तो सामान्य सामाजिक प्रथाओं को भी धर्म का अंग मान लिया जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि प्रत्यक्ष में हानिकारक परपराओं को त्यागने या बदलने में लोग आनाकानी करने लगते हैं । वे यह नहीं समझते कि सामाजिक प्रथाएँ मुख्यत: देश-काल पर आधारित होती हैं । उनके लिए यह हठ करना कि वे पूर्व समय से चली आयी हैं और आगे भी ज्यों की त्यों चलती रहनी चाहिए, नासमझी का परिचय देना है ।


इस पुस्तक में बतलाया गया है कि आज सामयिक परिस्थितियों के कारण युग-परिवर्तन की जो विचारधारा जोर पकड़ रही है, उसको देखते हुए हमको अपनी सामाजिक प्रथाओं की अच्छी तरह जाँच करके, उनमें समयानुकूल परिवर्तन करने चाहिए । विशेष रूप से हमारे यहाँ की विवाह और मरणोपरांत की प्रथाएँ इतनी लंबी-चौड़ी और खर्चीली बना दी गई है कि अधिकांश लोगों को वे असह्य भार स्वरूप अनुभव होती हैं, पर जातीय बंधनों के कारण लोग रोते-झींकते, मरते-जीते उनको आगे ढकलते जा रहे है । यह स्थिति शीघ्र से शीघ्र बदलनी चाहिए । तभी हम सुख-शांति के दर्शन कर सकेंगे ।

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संस्कृति की सीता की वापसी


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=748मित्रो ! संस्कृति की सीता का रावण ने अपहरण कर लिया था, तब भगवान् रामचन्द्र जी राक्षसों समेत रावण को मारकर सीता को वापस लाने में सफल हुए थे। इतिहास की वह पुनरावृत्ति फिर से होनी है। मध्यकाल में हमारी संस्कृति की सीता को वनवास हो गया। साम्प्रदायिकता इस कदर फैली, मत- मतान्तर इस कदर फैले, बाबाजियों ने अपने- अपने नाम के इतने मजहब इस कदर खड़े कर लिए कि हिन्दू समाज का एक रूप ही नहीं रहा। संस्कृति के साथ में अनाचार शामिल हो गया। बुद्ध के जमाने में ऐसा भयंकर समय था कि हमारी संस्कृति उपहास का कारण बन गयी थी। घिनौने उद्देश्यों को संस्कृति के साथ में शामिल कर दिया गया था। पाँच काम बड़े घिनौने माने जाते हैं और इन पाँचों कामों को भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया था और संस्कृति को कलंकित कर दिया गया था। ये पाँचों हैं—‘‘मद्यं मांसं तथा मत्स्यो मुद्रा मैथुनमेव च। पञ्चतत्त्वमिदं देवि! निर्वाण मुक्ति हेतवे ॥ ’’ ये पाँचों घिनौने काम संस्कृति के साथ शामिल हो गये।

और मित्रो ! यज्ञ का रूप कैसा घिनौना हो गया था? आपको मालूम नहीं है, तब मनुष्यों को मारकर होम दिया जाता था घोड़ों और गौवों तक को होम दिया जाता था। वह क्या था? वह संस्कृति का वनवास काल था और अब क्या हो गया ? अब बेटे, संस्कृति की सीता रावण के मुँह में (अपसंस्कृति के कब्जे में) चली गयी, जहाँ बेचारी की जान निकल जाने की उम्मीद है और जहाँ से वापस आने का ढंग दिखाई नहीं पड़ता। सीता राक्षसों के मुँह में से कैसे निकलेगी? चारों ओर समुद्र घिरा हुआ है। उस (मूढ़ मान्यताओं अनगढ़ परम्पराओं रूपी) समुद्र को कौन पार करेगा ? रावण कितना जबरदस्त है ? राक्षस (मनुष्य में व्याप्त आसुरी प्रवृत्तियाँ) कितने जबरदस्त हैं? इनसे लोहा कौन लेगा?

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विश्व की महान नारियां -२

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नारियों में अपरिमित शक्ति एवं क्षमताएँ सन्निहित हैं ।। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए हैं, अपने अदम्य साहस, अथक संघर्षशीलता, दूरदर्शी बुद्धिमत्ता आदि विविध गुणों का परिचय दिया है ।। मानवीय संवेदना, करुणा, ममत्व और वात्सल्य तो नारी की सामान्य विशेषताएँ हैं ही, परंतु जिन क्षेत्रों में सदियों से पुरुषों ने अपना आधिपत्य जमा रखा था, उनमें भी प्रवेश कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है, यदि वे चाह लें- एक बार संकल्प कर लें, तो उन क्षेत्रों में भी वे अपनी श्रेष्ठता एवं विशिष्टता सिद्ध कर सकती है ।। 

प्रस्तुत संकलन में हम "युग निर्माण योजना" में प्रकाशित विश्व की ऐसी महान नारियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जिनसे प्रेरणा लेकर भारतीय नारियों अपने जीवन को सँवार- सजा सकती हैं ।। 

अब समय आ गया है जबकि भारतीय नारियों को घर की चहार दिवारी से बाहर निकलना ही होगा ।। खुले आकाश के तले एक सद्संकल्प लेकर विचरना होगा ।। राष्ट्र निर्माण एवं विश्वशांति के क्षेत्र में अपनी- अपनी भूमिका निश्चित कर अपनी अंतर्निहित शक्तियों एवं क्षमताओं का परिचय देना ही होगा ।। 

परम वंदनीया माता भगवती देवी शर्मा का जीवन आदर्श हमारे सामने है ।। भारतीय नारियाँ उनसे प्रेरणा लेकर उनके स्वप्नों को साकार करने में तन- मन से जुट जाएँ- यही उन दिव्य महिमा मंडित शक्तिस्वरूपा के प्रति महिला जगत की सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।। 

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विचारो की सृजनात्मक शक्ति

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जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यत: कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान है । विचारणा की शुरुआत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है या वे पढ़ने, सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती हैं । अपनी अभिरुचि के अनुरूप विचारों को मानव मस्तिष्क में प्रविष्ट होने देता है जबकि जिन्हें पसंद नहीं करता उन्हें निरस्त भी कर सकता है । जिन विचारों का वह चयन करता है उन्हीं के अनुरूप चिंतन की प्रक्रिया भी चलती है । चयन किए गए विचारों के अनुरूप ही दृष्टिकोण का विकास होता है । जो विश्वास को जन्म देता है, वह परिपक्व होकर पूर्वधारणा बन जाता है । व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य-मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अंतर पाया जाता है । चिंतन पद्धति में अर्जित की गई भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है । स्वभाव-चिंतन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है । स्वस्थ और उपयोगी चिंतन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है अथवा आत्मविकास में बाधक है ।

प्राय: अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं । अभ्यास द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए संभव है । परिस्थिति विशेष में लोग प्राय: जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिंतन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है । मानसिक विकास के लिए, अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है । 

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Monday 1 May 2017

वातावरण के परिवर्तन का आध्यात्मिक प्रयोग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=550युग- परिवर्तन को घड़ी सन्निकट है ।। व्यक्ति में दुष्टता और समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय- समय पर सुधारने संभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज को संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है ।।

यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है- इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है ।। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख- शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उददंडता बरतता है- चिंतन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानों अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है। 

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युग परिवर्तन क्यों ? किसलिए

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प्रज्ञावतार का लीला- संदोह एवं परिवर्तन की वेला

इन दिनों प्रगति और चमक- दमक का माहौल है, पर उसकी पन्नी उघाड़ते हो सड़न भरा विषघट प्रकट होता है। विज्ञान, शिक्षा और आर्थिक क्षेत्र की प्रगति सभी के सामने अपनी चकाचौंध प्रस्तुत करती है। आशा की गई थी कि इस उपलब्धि के आधार पर मनुष्य को अधिक, सुखी ,समुन्नत प्रगतिशील, सुसंपन्न सभ्य, सुसंस्कृत बनने का अवसर मिलेगा ।। हुआ ठीक उलटा। मनुष्य के दृष्टिकोण चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता घुस पड़ने से संकीर्ण स्वार्थपरता और मत्स्य- न्याय जैसी अतिक्रमाणता यह प्रवाह चल पड़ा। मानवी गरिमा के अनुरूप उत्कृष्ट आदर्शवादिता की उपेक्षा अवमानना और विलास, संचय, पक्षपात, तथा अहंकार का दौर चल पड़ा लोभ, मोह और अहंकार को कभी शत्रु मानने, बचने, छोड़ने की शालीनता अपनाई जाती थी अब उसका अता- पता नहीं दीखता और हर व्यक्ति उन्हें के लिए मरता दीखता है। परंपरा उलटी तो परिणति भी विघातक होनी चाहिए थी, हो भी रही है। शक्ति संपन्नता पक ओर- विनाश दूसरी ओर देखकर हैरानी तो अवश्य होती है, पर यह समझने में भी देर नहीं लगती कि भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण अपनाने पर भौतिक समृद्धि से अपना ही गला कटता है, अपनी ही माचिस से आत्मदाह जैसा उपक्रम बनता है। 

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युग निर्माण क्या संभव है

महाक्रान्ति का शंखनाद

भावी महाभारत

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अविवेक, अज्ञान और अन्याय जो सारे समाज पर छाए हुए है, उसे जड़-मूल से हटा करके ही छोड़े ऐसा एक अंतिम युद्ध होगा, जिसको हम भावी महाभारत कहेंगे । भारत छोटा नहीं रह जायेगा बल्कि एक विश्वव्यापी भारत होगा जिसको हम महान भारत कह सकते हैं ।







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Thursday 27 April 2017

स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=178मानवीय अंतराल में प्रसुप्त पड़ा विभूतियों का सम्मिश्रण जिस किसी में सघन- विस्तृत रूप में दिखाई पड़ता है, उसे प्रतिभा कहते हैं। जब इसे सदुद्देश्यों के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो यह देवस्तर की बन जाती है और अपना परिचय महामानवों जैसा देती है। इसके विपरीत यदि मनुष्य इस संपदा का दुरुपयोग अनुचित कार्यों में करने लगे तो वह दैत्यों जैसा व्यवहार करने लगती है। जो व्यक्ति अपनी प्रतिभा को जगाकर लोकमंगल में लगा देता है, वह दूरदर्शी और विवेकवान् कहलाता है।

आज कुसमय ही है कि चारों तरफ दुर्बुद्धि का साम्राज्य छाया दिखाई देता है। इसी ने मनुष्य को वर्जनाओं को तोड़ने के लिये उद्धत स्वभाव वाला वनमानुष बनाकर रख दिया है। दुर्बुद्धि ने अनास्था को जन्म दिया है एवं ईश्वरीय सत्ता के संबंध में भी नाना प्रकार की भ्रांतियाँ समाज में फैल गई हैं। हम जिस युग में आज रह रहे हैं, वह भारी परिवर्तनों की एक शृंखला से भरा है। इसमें परिष्कृत प्रतिभाओं के उभर आने व आत्मबल उपार्जित कर लोकमानस की भ्रांतियों को मिटाने की प्रक्रिया द्रुतगति से चलेगी। यह सुनिश्चित है कि युग परिवर्तन प्रतिभा ही करेगी। मनस्वी- आत्मबल संपन्न ही अपनी भी औरों की भी नैया खेते देखे जाते हैं। इस तरह सद्बुद्धि का उभार जब होगा तो जन- जन के मन- मस्तिष्क पर छाई दुर्भावनाओं का निराकरण होता चला जाएगा। स्रष्टा की दिव्यचेतना का अवतरण हर परिष्कृत अंत:करण में होगा एवं देखते- देखते युग बदलता जाएगा। यही है प्रखर प्रज्ञारूपी परम प्रसाद जो स्रष्टा- नियंता अगले दिनों सुपात्रों पर लुटाने जा रहे हैं। 

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ध्वंस और सृजन की सुस्पष्ट संभावना

देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी

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देव संस्कृति व्यापक बनेगी सीमित न रहेगी

भारतीय संस्कृति- देव संस्कृति- भारत मात्र एक राष्ट्र नहीं, मानवी उत्कृष्टता एवं संस्कृति का उद्गम केंद्र है ।। हिमालय के शिखरों पर जमी बरफ जलधारा बनकर बहती है और सुविस्तृत धरातल को सरसता एवं हरीतिमा से भरती है ।। भारत धर्म और अध्यात्म का उदयाचल है,जहाँ से सूर्य उगता और समस्त भूमंडल को आलोक से भरता है ।। एक तरह से यह आलोक- प्रकाश ही जीवन है, जिसके सहारे वनस्पतियाँ उगतीं, घटाएँ बरसतीं और प्राणियों में सजीव हलचलें होती हैं ।।

बीज में वृक्ष की समस्त विशेषताएँ सूक्ष्म रूप में छिपी पड़ी होती हैं ।। परंतु ये स्वत: विकसित नहीं हो पातीं ।। उन्हें अंकुरित, विकसित करके विशाल बनाने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं ।। ठीक यही बात मनुष्य के संबंध में है ।। स्रष्टा ने उसे सृजा तो अपने हाथों से है और उसे असीम संवेदनाओं से परिपूर्ण भी बनाया है, पर साथ ही इतनी कमी भी छोड़ी है कि विकास के प्रयत्न बन पड़े तो ही उसे ऊँचा उठाने का अवसर मिलेगा ।। स्पष्ट है कि जिन्हें सुसंस्कारिता का वातावरण मिला, वे प्रगति पथ पर अग्रसर होते चले गए ।। जिन्हें उससे वंचित रहना पड़ा वे अभी भी वन्य प्राणियों की तरह रहते और गयी- बीती परिस्थितियों में समय गुजारते हैं ।। इस प्रगतिशीलता के युग में भी ऐसे वनमानुषों की कमी नहीं, जिन्हें बंदर की औलाद ही नहीं, उसकी प्रत्यक्ष प्रतिकृति भी कहा जा सकता है ।। यह पिछड़ापन और कुछ नहीं, प्रकारांतर से संस्कृति का प्रकाश न पहुँच सकने के कारण उत्पन्न हुआ अभिशाप भर है 

 

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इक्कीसवी सदी का संविधान

Preface

युग निर्माण जिसे लेकर गायत्री परिवार अपनी निष्ठा और तत्परतापूर्वक अग्रसर हो रहा है, उसका बीज सत्संकल्प है । उसी आधार पर हमारी सारी विचारणा, योजना, गतिविधियाँ एवं कार्यक्रम संचालित होते हैं, इसे अपना घोषणा-पत्र भी कहा जा सकता है । हम में से प्रत्येक को एक दैनिक धार्मिक कृत्य की तरह इसे नित्य प्रातःकाल पढ़ना चाहिए और सामूहिक शुभ अवसरों पर एक व्यक्ति उच्चारण करे और शेष लोगों को उसे दुहराने की शैली से पढा़ एवं दुहराया जाना चाहिए ।

संकल्प की शक्ति अपार है । यह विशाल ब्रह्मांड परमात्मा के एक छोटे संकल्प का ही प्रतिफल है । परमात्मा में इच्छा उठी एकोऽहं बहुस्याम मैं अकेला हूँ-बहुत हो जाऊँ, उस संकल्प के फलस्वरूप तीन गुण, पंचतत्त्व उपजे और सारा संसार बनकर तैयार हो गया । मनुष्य के संकल्प द्वारा इस ऊबड़- खाबड़ दुनियाँ को ऐसा सुव्यवस्थित रूप मिला है । यदि ऐसी आकांक्षा न जगी होती, आवश्यकता अनुभव न होती तो कदाचित् मानव प्राणी भी अन्य वन्य पशुओं की भाँति अपनी मौत के दिन पूरे कर रहा होता ।

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सामाजिक नैतिक बोद्धिक क्रान्ति कैसे-६५

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आज का मनुष्य अधिक सुविधा व साधन सम्पन्न है ।। इतना अधिक कि २०० वर्ष पूर्व का मनुष्य कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।। वैज्ञानिक क्रान्ति व आर्थिक क्रान्ति ने साधनों के अम्बार जुटा दिये हैं, फिर भी मनुष्य पहले की तुलना में स्वयं को अभावग्रस्त, रुग्ण, चिन्तित व एकाकी ही अनुभव कर रहा है ।। सुख- सन्तोष की दृष्टि से वह पहलें की अपेक्षा और अधिक दीन- दुर्बल हो गया है ।। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, नैतिक विकास, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक- सद्भाव, आर्थिक संतोष व आंतरिक उल्लास की दृष्टि से मनुष्य जाति समग्र विश्व में नई- नई समस्याओं से घिर गयी है ।। परमपूज्य गुरुदेव इन सभी समस्याओं के मूल में उलटी बुद्धि का नट नृत्य ही देखते हैं ।। दुर्गतिजन्य दुर्गति ही चारों ओर दिखाई देती है एवं यह दुर्बुद्धि भावनात्मक स्तर पर एक विचार क्रान्ति के बिना ठीक होगी नहीं, यह उनका वाड्मय के इस खण्ड में अभिमत है ।।

 

विचारों में अपार शक्ति छिपी पड़ी है ।। विचारशीलता एवं विवेकशीलता विकसित की जा सके तो तथाकथित शिक्षा में प्राण डाले जा सकते हैं एवं व्यक्ति को विद्या रूपी संजीवनी द्वारा मूर्च्छना से उबारा जा सकता है ।। गायत्री परिवार का यही लक्ष्य बताते हुए बारबार युगद्रष्टा आचार्यश्री ने लिखा है कि, बिना एक व्यापकस्तरीय विचार क्रान्ति के इस राष्ट्र का ही नहीं, सारी विश्व- वसुधा का सामाजिक, नैतिक व बौद्धिक स्तर पर नवनिर्माण सम्भव नहीं ।। गायत्री एवं यज्ञ के तत्वदर्शन को इसके लिए अनिवार्य बताते हुए उनने जन- जन तक सद्बुद्धि व सद्कर्म का संदेश पहुँचाने की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है ।। 

 

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भव्य समाज का अभिनव निर्माण - 46

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धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों के अवतरण में समाज व्यवस्था की प्रमुख भूमिका होती है । जनसमाज की मान्यताएँ, गतिविधियाँ, प्रथाएँ जिस स्तर की होती हैं, उसी प्रवाह में सामान्यजन बहते और ढलते जाते हैं । अनुकरणप्रिय मनुष्य का स्तर और रुझान प्राय: सामयिक प्रचलन एवं परिस्थितियों के अनुरूप बनता चला जाता है । यदि उनका स्तर उच्चस्तरीय हो तो व्यक्ति एवं समुदाय का चिन्तन भी उसी के अनुरूप ढलेगा और समाज में स्वर्गीय परिस्थितियाँ पैदा होंगी । जिस समाज में ऐसे लोगों का बाहुल्य होता है, जो परस्पर एक-दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, दु:खो को बँटाते, सुखों को बाँटते हैं और उदार सहयोग-सहकार का, स्नेह-सौजन्य का, त्याग का परिचय देकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे "देव समाज" कहते हैं । जब-जब जन-समूह इस प्रकार का सम्बन्ध बनाये रखता है तब -तब स्वर्गीय परिस्थितियाँ वहाँ विद्यमान रहती हैं । परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसे ही सभ्य, भव्य एवं अभिनव समाज की परिकल्पना की है और कहा है कि आने वाले दिनों में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया गतिशील होगी । संकीर्ण स्वार्थपरता-परमार्थ परायणता में बदलेगी और धरती पर स्वर्ग के दर्शन होंगे ।

परमपूज्य गुरुदेव का यह आशावादी चिंतन वाड्मय के इस खण्ड में स्थान-स्थान पर निर्झरित होता हुआ प्रकट हुआ है । "वसुधैव कुटुम्बकम्" के सिद्धान्त के आधार पर "नया संसार बसायेंगे-नया इंसान बनायेंगे!" का उद्घोष करने वाले युग प्रवर्तक एवं महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के सूत्रधार परमपूज्य गुरुदेव ने अन्यान्य अध्यात्मवादी तत्वदर्शकों, चिंतक मनीषियों की तुलना में सशक्त समाज के निर्माण की आवश्यकता को एवं श्रेष्ठ मानकों की भूमिका को स्थान-स्थान पर दुहराया है ।


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गायत्री की युगांतरीय चेतना

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यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थ्यों की कमी नहीं है और उनका सदुपयोग करके वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ करता है, किन्तु उसकी असीम सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा ।। व्यक्ति की महिमा को बाहर भी देखा जा सकता है पर गरिमा का पता लगाना हो तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा ।। इस अन्तरंग को समझने उसे परिष्कृत एवं समर्थ बनाने, जागृत अन्तःसमता का सदुपयोग कर सकने के विज्ञान को ही ब्रह्मविद्या कहते हैं ।। ब्रह्मविद्या के कलेवर का बीज- सूत्र गायत्री को समझा जा सकता है ।। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के अन्तराल में प्रवेश पा सकने वाली और वहाँ जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में उखाड़ लाने की सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं ।। नवयुग के सृजन में सर्वोपरि उपयोग इसी दिव्य शक्ति का होगा ।। मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त है पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी ।। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता शिक्षा, प्रतिभा, पदवी अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं ।। इतने पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है ।। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जाती वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है ।।

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Listen To Mahakal Call

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The expectation of this eras rishi Read my thoughts" and spread their dynamic sparks among the people. Understand the principles of the realities of life. Come out of imaginary life. Spread my thinking among the near ones. My thoughts are very sharp. My claim that I will turn the world around is not made on the basis of magic powers but on the basis of my powerful thoughts. The whole world is my field of work. For the development of individuals, society, country and the spread of religion and culture and for world-peace, you should make every person read these thoughts. If you do this, then it is my claim that the era will be definitely transformed.


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समयदान ही युग धर्म

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=184—दान अर्थात् देना; ईश्वर प्रदत्त क्षमताओं को जागृत विकसित करना और उससे औरों को भी लाभ पहुँचाना। यही है पुण्य परमार्थ- सेवा स्वर्गीय परिस्थितियाँ इसी आधार पर बनती हैं।

लेना- बटोरना के अधिकार का अपहरण करना, यही पाप है, इसी की प्रतिक्रिया का अलंकारिक प्रतिपादन है नर्क।

— यहाँ समस्त महामानव मात्र एक ही अवलंबन अपनाकर उत्कृष्टता के प्रणेता बन सके हैं, कि उन्होंने संसार में जो पाया, उसे प्रतिफल स्वरूप अनेक गुना करके देने का व्रत निबाहा।

धनदान तो एक प्रतीक मात्र है। उसका तो दुरुपयोग भी हो सकता है, प्रभाव विपरीत भी पड़ सकता है। वास्तविक दान प्रतिभा का है, धन साधन उसी से उपजते हैं। प्रतिभादान- समयदान से ही संभव है। यह ईश्वर प्रदत्त संपदा सबके पास समान रूप से विद्यमान है।

— वस्तुतः: समयदान तभी बन पड़ता है, जब अंतराल की गहराई में, आदर्शों पर चलने के लिए बेचैन करने वाली टीस उठती हो।

— यह असाधारण समय है। तत्काल निर्णय और तीव्र क्रियाशीलता उसी प्रकार आवश्यक है जैसी कि आग बुझाने या ट्रेन छूटने के समय होते है। हनुमान, बुद्ध, समर्थ गुरु रामदास, विवेकानन्द आदि ने समय आने पर शीघ्र निर्णय न लिए होते, तो ये उस गौरव से वंचित ही रह जाते, जो उन्हें प्राप्त हो गया।

— महात्मा ईसा ने ठीक ही कहा है, ‘‘शीघ्र कार्य यदि बाएँ हाथ की पकड़ में आता है तो भी तुरंत पकड़ो। बाएँ से दाएँ का संतुलन बनाने जितने थोड़े- से समय में ही कहीं शैतान बहका न ले ..........। ’’


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युग परिवर्तन इस्लामी दृष्टिकोण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=103यह युग परिवर्तन का अति महत्वपूर्ण समय है ।। युग परिवर्तन का अर्थ है- ईश्वरीय योजना के अन्तर्गत मनुष्य मात्र के लिये उज्वल भविष्य का निर्माण ।। ऐसा युग जिसे सनातन धर्म में ' सतयुग ' की संज्ञा दी जाती रही है ।। इस सम्बन्ध में सैकड़ों साल पहले महात्मा, सूरदास, फ्रांस के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता नेस्ट्राडेमस, महात्मा वहाउल्ला, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द आदि ने महत्वपूर्ण संकेत दिए हैं ।। उक्त महापुरुषों के कथन को सार्थक करते हुए युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने इसकी समग्र और व्यवस्थित कार्य योजना घोषित करके इस हेतु एक विश्वव्यापी अभियान ' युग निर्माण ' के नाम से प्रारंभ कर दिया ।। इसमें उन्होंने विश्व समाज के सभी पक्षों की भागीदारी आवश्यक बतलाई


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Wednesday 26 April 2017

युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=169बड़े कामों को बड़े शक्ति केंद्र ही संपन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान् हाथी ही खींचकर पार करा पाते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में नाव खेना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। आज के समाज व संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए स्रष्टा को भी वरिष्ठ स्तर की परिष्कृत प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिभाएँ ऐसी संपदाएँ हैं, जिनसे न केवल वे स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र- समुदाय और देश की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में वे सफल होते हैं। इसी कारण इन्हें देवदूत- देवमानव कहा जाता है।

इन दिनों असंतुलन में बदलने के लिए महाकाल की एक बड़ी योजना बन रही है। यह कार्य आदर्शवादी सहायकों में उमंगों को उभारकर उन्हें एक सूत्र में आबद्ध करने से लेकर नियमित सृजनात्मक गतिविधियों- सत्प्रवृत्तियों का मोरचा अनीति- दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध खड़े करने के रूप में आरंभ हो चुका है। इससे वह महाजागरण की प्रक्रिया होगी जो प्रतिभाओं की मूर्च्छना हटाएगी, उन्हें एकाकी आगे बढ़ाकर अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण देने हेतु प्रेरित करेगी। नवयुग का अरुणोदय निकट है। सतयुग की सुनिश्चित संभावनाएँ बन रही हैं। प्रतिभा के धनी ही इस लक्ष्य को पूरा कर दिखाएँगे। 

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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=168भगवत्सत्ता का निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है, अंतराल में विद्यमान प्राणाग्नि। उसी को जानने- उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे धारण करने की क्षमता मनुष्य के पास है। प्राणवान् प्रतिभा संपन्नों में उस प्राणाग्नि का अनुपात सामान्यों से अधिक होता है। उसी को आत्मबल- संकल्पबल भी कहा गया है।

पारस को छूकर लोहा सोना बनता भी है या नहीं ? इसमें किसी को संदेह हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि महाप्रतापी- आत्मबल संपन्न व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी- सहयोगी बना लेते हैं। इन्हीं प्रतिभावानों ने सदा से जमाने को बदला है- परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाई है। प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह तो अंदर से जागती है। सवर्णों को छोड़कर वह कबीर और रैदास को भी वरण कर सकती है। बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर वाले व चाणक्य जैसे कुरूपों का वरण करती है। जिस किसी में वह जाग जाती है, साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त- अनुशासित कर लिया जाता है, सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल जाता है। प्रतिभा- परिष्कार -तेजस्विता का निखार आज की अपरिहार्य आवश्यकता है एवं इसी आधार पर नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी। 

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नवसृजन के निमित्त महाकाल की तैयारी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=175अशुभ समय संसार के इतिहास में अनेक बार आते रहे हैं, पर स्रष्टा का यह नियम है कि वह अनौचित्य को सीमा से बाहर बढ़ने नहीं देता। स्रष्टा का आक्रोश तब उभरता है, जब अनाचारी अपनी गतिविधियाँ नहीं छोड़ते और पीडित व्यक्ति उसे रोकने के लिए कटिबद्ध नहीं होते। यदा- यदा हि धर्मस्य वाली प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए स्रष्टा वचनबद्ध है।

युगसंधि के दस वर्ष दोहरी भूमिकाओं से भरे हुए हैं। प्रसव जैसी स्थिति होगी। प्रसवकाल में जहाँ एक ओर प्रसूता को असह्य कष्ट सहना पड़ता है, वहाँ दूसरी ओर संतानप्राप्ति की सुंदर संभावनाएँ भी मन- ही पुलकन उत्पन्न करती रहती हैं। जिसमें मनुष्य शांति और सौजन्य के मार्ग पर चलना सीखे, कर्मफल की सुनिश्चित प्रक्रिया से अवगत हो और वह करे, जो करना चाहिए, उस राह पर चले, जिस पर कि बुद्धिमान को चलना चाहिए।

शान्तिकुञ्ज से उभर रहे एक छोटे प्रवाह ने नवयुग के अनुरूप प्रशिक्षण की ऐसी व्यवस्था बनाई है, जो कि उसके साधनों को देखते हुए संभव नहीं थी। ऐसी सिद्धान्त शैली और तर्क प्रक्रिया शान्तिकुञ्ज ने प्रस्तुत की है, जिससे लोकमान्यता में असाधारण परिवर्तन देखे जा सकते हैं। इन दिनों मानव- शरीर में प्रतिभावान देवदूत प्रकट होने जा रहे हैं। लोकमानस का परिष्कार कर वे नवयुग की संभावना सुनिश्चित करेंगे- निश्चित ही बड़भागी बनेंगे। 

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नवयुग का मत्स्यावतार

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ब्रह्मा जी प्रात:काल संध्या-वन्दन के लिए बैठे। चुल्लू में आचमन के लिए पानी लिया। उसमें छोटा सा कीड़ा विचरते देखा। ब्रह्माजी ने सहज उदारतावश उसे जल भरे क मण्डल में छोड़ दिया और अपने क्रिया-कृत्य में लग गए। थोड़े ही समय में वह कीड़ा बढ़कर इतना बड़ा हो गया कि सारा क मण्डल ही उससे भर गया। अब उसे अन्यत्र भेजना आवश्यक हो गया। उसे समीपवर्ती तालाब में छोड़ा गया। देखा गया कि वह तालाब भी उस छोटे से कीड़े के विस्तार से भर गया। इतनी तेज प्रगति और विस्तार को देखकर वे स्वयं आश्चर्यचकित हुए और एक दो बार इधर-उधर उठक-पटक करने के बाद उसे समुद्र में पहुँचा आए। आश्चर्य यह कि संसार भर का जल थल क्षेत्र उसी छोटे कीड़े के रूप में उत्पन्न हुई मछली ने घेर लिया।

इतना विस्तार आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व, समझ में न आने योग्य था। जीवधारियों की कुछ सीमाएँ, मर्यादाएँ होती है, वे उसी के अनुरूप गति पकड़ते हैं, पर यहाँ तो सब कुछ अनुपम था। ब्रह्माजी जिनने उस मछली की जीवन-रक्षा और सहायता की थी, आश्चर्यचकित रह गए। बुद्धि के काम न देने पर वे उस महामत्स्य से पूछ ही बैठे कि यह सब क्या हो रहा है? मत्स्यावतार ने कहा-मैं जीवधारी दीखता भर हूँ, वस्तुत: परब्रह्म हूँ। इस अनगढ़ संसार को जब भी सुव्यवस्थित करना होता है, तो उस सुविस्तृत कार्य को सम्पन्न करने के लिए अपनी सत्ता को नियोजित करता हूँ। तभी अवतार प्रयोजन की सिद्धि बन पड़ती है।

ब्रह्मा जी और महामत्स्य आपस में वार्तालाप करते रहे। सृष्टि को नई साज-सज्जा के साथ सुन्दर-समुन्नत करने की योजना बनाकर, उस निर्धारण की जिम्मेदारी ब्रह्मा जी को सौंपकर, वे अन्तर्ध्यान हो गए और वचन दे गए कि जब कभी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलने की आवश्यकता पड़ेगी, उसे सम्पन्न करने के लिए मैं तुम्हारी सहायता करने के लिए अदृश्य रूप में आता रहूँगा।

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A GLIMPSE OF THE GOLDEN FUTURE

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As a futurologist, Acharyashri has demonstrated unique ability to predict the future. During the last decade, when the cold war was at its zenith, he had accurately presaged about the impossibility of a third world war, nuclear non-proliferation and failure of the star-war program. Some of his predictions of global importance that have come true are highlighted in the Chapter 1 of this booklet. Chapters 2 and 3 present translations of some of his published works pertaining to the changes in the world map, socio-economic order and advent of a Golden Era in the 21st Century. 

 

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Tuesday 25 April 2017

युग निर्माण योजना- दर्शन ,स्वरुप व कार्यक्रम -66

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सूक्ष्मजगत की दिव्य-प्रेरणा से उद्भूत संकल्प ही युग निर्माण योजना के रूप में जाना जाता है । व्यक्ति के चिंतन-चरित्र-व्यवहार में बदलाव, व्यक्ति से परिवार एवं परिवार से समाज का नवनिर्माण तथा समस्त विश्व-वसुधा एवं इस जमाने का, युग का, एक एरा का नवनिर्माण स्वयं में एक अनूठा अभूतपूर्व कार्यक्रम है, जिसकी संकल्पना परमपूज्य गुरुदेव द्वारा की गई एवं अमली जामा पहनाया गया । यही युग निर्माण की प्रक्रिया परमपूज्य गुरुदेव के नवयुग के समाज, भावी सतयुग के आगमन की घोषणा का मूल आधार बनी । इसी का विवेचन विस्तार से प्रस्तुत वाङ्मय में हुआ है ।

परमपूज्य गुरुदेव इसका शुभारंभ मथुरा में आयोजित १९५८ के सहस्रकुंडी गायत्री महायज्ञ से हुआ बताते हैं, जिसमें धर्म-तंत्र के माध्यम से लोकमानस को विचार-क्रांति प्रक्रिया के प्रवाह में ढालने की घोषणा कर विधिवत् गायत्री परिवार अथवा युग निर्माण मिशन की स्थापना कर दी गई थी । इसका स्वरूप उनने इस प्रकार बनाया कि इस विचारधारा का समर्थन करने वाले सहायक सदस्य, प्रतिदिन एक घंटा व दस पैसा (बाद में बीस पैसा अथवा एक दिन की आजीविका) नित्य देने वाले सक्रिय सदस्य, प्रतिदिन चार घंटे युग परिवर्तन आंदोलन के लिए समर्पण करने वाले कर्मठ कार्यकर्त्ता एवं आजीवन अपना समय लोक-सेवा के निमित्त लगाने वाले लोकसेवी-वानप्रस्थ-परिव्राजक कहलाएँगे । आत्म-निर्माण, परिवार-निर्माण, समाज-निर्माण की त्रिविध कार्यपद्धति इस मिशन की बनाई गई । स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज की अभिनव रचना की धुरी पर सारे प्रयासों को नियोजित किया गया । बौद्धिक नैतिक सामाजिक क्रांति की आधारशिला पर तथा प्रचारात्मक रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रमों की सुव्यवस्थित नीति पर युग निर्माण का सारा ढाँचा बनाया गया । 

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युग -परिर्वतन कैसे और कब ? -27

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=279सभी एक स्वर से यह कह रहे हैं कि प्रस्तुत वेला युग परिवर्तन की है। इन दिनों जो अनीति व आराजकता का साम्राज्य दिखाई पड़ रहा है, इन्हीं का व्यापक बोलबाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है। ऐसे ही समय में भगवान ‘‘यदा-यदा हि धर्मस्य’’ की प्रतिज्ञा के अनुसार असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध हो ‘‘संभवामि युगे युगे’’ की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए आते रहे हैं। ज्योतिर्विज्ञान प्रस्तुत समय को जो 1850 ईसवीं सदी से आरम्भ होकर 2005 ईसवी सदी में समाप्त होगा—संधि काल, परिवर्तन काल, कलियुग के अंत तथा सतयुग के आरम्भ का काल मानता चला आया है।


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Revival Of Satyug



http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=206In His vast creation, God has bestowed the human species with some unique privileges. Amongst the innumerable creatures, man is the only one capable of having instinctive compassion for the fellow beings. Barring a few self centred human beings, for whom besides their own existence, no matter or event is of any consequence; a normal man is instinctively moved by human miseries like floods, earthquakes and famines etc. On such occasions, empathy implores some individuals to contribute their best to alleviate the situation and a super human is born. History abounds in such examples. The well known first ever Sanskrit poet, Valmiki was inspired to his first verse by an injured wailing curlew bird. Heaps of carcasses of the brutally annihilated sages compelled Lord Ram to take a pledge for. deliverance of the earth from the marauders.


The climax of human evolution may be considered as the stage where the field of empathy becomes so pervasive as to encompass the entire biological kingdom.

The human race has failed to utilise its prudence, caution and intelligence in fruitful utilisation of the gains.

The big question is, "Are we heading towards a total extinction ?" Certainly not. There is a ray of hope.

Nature has not gifted man with higher status for wasting his superior calibre.... for accumulation and utilisation of resources. He has been assigned some higher goals by the Almighty.

The period preceeding the golden age of twenty-first century expects everyone to contribute earnestly towards inculcating sentient consciousness and empathy in fellow beings. There is little doubt that through the efforts of all dedicated persons humanity will regain its happiness and lost virtues. 

 

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Change Of Thoughts Change Of Era

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=320Apparently, what a man seems doing, what the society appears as a whole is only the reflection of contemporary ideologies embedded in that. Beliefs and recognitions originate in the inner self in the shape of motivation, desire and all the activities are their repercussion. Everything a man seems doing is simply the outcome of those beliefs deeply seated in his conscience. The different life styles and activities among different persons and societies, is the result of diversity embedded in their beliefs. Virtues and values, that one is adhered to, control every persons activities. 

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21st Century The Dawn Of The Era Of Divine Descent On Earth

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=334The past three centuries have been witness to miraculous discoveries in material sciences and application thereof in improving the physical quality of life. Unfortunately, because of their improper applications, many of these scientific achievements have proved to be disastrous for humanity, Consequently, modem man finds himself living in much more distressful and stress-phone environment than his less affluent ancestors. Universal problems like environmental pollution, increasing radioactivity, global warming, nuclear and chemical proliferation of armaments are creating an environment in which the very existence of human race is at stake. Who would then appreciate science and technology which lead to the melting of polar Icelands, disastrous upheavals in the oceans of the world, return of the ice-ages and destruction of this beautiful planet by the ultraviolet radiations penetrating through the holes in the ozone layers protecting the earth? It is too enormous a price to pay for the life debasing comforts and capabilities provided by the advancement in science and technology?

Is not it the devilish misuse of scientific advancement and scores of local and regional conflicts which has resulted in two world wars causing enormous loss of life and resources in this very century? Man is today mercilessly exploiting the mineral resources of the earth. He is per-paring for star-wars which would obliterate all life on the earth. 

 

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Monday 24 April 2017

सरस-सफल जीवन का केंद्रबिन्दु उत्कृष्ट चिंतन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1229मनुष्य के हृदय भंडार का द्वार खोलने वाली, निम्नता से उच्चता की ओर ले जाने वाली, गुणों का विकास करने वाली, यदि कोई वस्तु है तो प्रसन्नता ही है ।। यही वह साँचा है जिसमें ढलकर मनुष्य अपने जीवन का सर्वतोमुखी विकास कर सकता है ।। जीवन यापन के लिए जहाँ उसे धन, वस्त्र, भोजन एवं जल की आवश्यकता पड़ती है वहाँ उसे हल्का- फुल्का एवं प्रगतिशील बनाने के लिए प्रसन्नता भी आवश्यक है ।। प्रसन्नता मरते हुए मनुष्य में प्राण फूँकने के समान है ।। प्रसन्न और संतुष्ट रहने वाले व्यक्तियों का ही जीवन किरण बनकर दूसरों का मार्ग दर्शन करने में सक्षम होता है ।।

प्रसिद्ध दार्शनिक इमर्सन ने कहा है “ वस्तुत: हास्य एक चतुर किसान है जो मानव जीवन पथ के कांटों, झाड़- झंखाड़ों को उखाड़ कर अलग करता है और सदगुणों के सुरभित वृक्ष लगा देता है जिसमें जीवन यात्रा एक पर्वोत्सव बन जाती है ।। "

जीवन यात्रा के समय में मनुष्य को अनेक कठिनाइयों एवं समस्याओं का सामना करना पड़ता है, किंतु इसी का अमृत का पान कर मनुष्य जीवन संग्राम में हँसते- हँसते विजय प्राप्त कर सकता है ।। इतिहास के पृष्ठों पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि महान व्यक्तियों के संघर्षपूर्ण जीवन की सफलता का रहस्य प्रसन्नता रूपी रसायन का अनवरत सेवन करते रहना ही है ।। 

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सभ्य समाज की अभिनव संरचना में जुटें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=711जिस समाज में लोग एक -दूसरे के दु:ख -दर्द में सम्मिलित रहते हैं , सुख- संपति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुए स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं उसे देव समाज कहते हैं। जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक संबंध बनाए रहता है तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी रहती हैं ।। पर जब कभी लोग न्याय -अन्याय का, उचित- अनुचित का , कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य का विचार छोड़कर उपलब्ध सुविधा या सत्ता का अधिकाधिक प्रयोग स्वार्थ में करने लगते हैं तब क्लेश ,द्वेश और असंतोष की प्रबलता बढ़ ने लगती है। शोषण और उत्पीड़न का बाहुल्य होने से वैमनस्य और संघर्ष के दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं।


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संस्कृति पुरुष हमारे गुरुदेव


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1281देवसंस्कृति का पुण्य-प्रवाह इन दिनों सारे विश्व को आप्लावित कर रहा है । सभी को लगता है कि यदि कहीं कोई समाधान आज के उपभोक्ता प्रधान युग में जन्मी समस्याओं का है, तो वह मात्र एक ही है-संवेदना मूलक संस्कृति-भारतीय संस्कृति के दिग-दिगन्त तक विस्तार में । यह संस्कृति देवत्व का विस्तार करती रही है, इसीलिए इसे देव संस्कृति कहा गया । इस संस्कृति को एक महामानव ने अपने जीवन में जिया-हर सास में उसे धारण कर जन-जन के समक्ष एक नमूने के रूप में प्रस्तुत किया । वह महापुरुष थे-परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी । गायत्री परिवार के संस्थापक-अधिष्ठाता-युग की दिशा को एक नया मोड़ देने वाले इस प्रज्ञा पुरुष का जीवन बहुआयामी रहा है । उनने न केवल एक संत-मनीषी-ज्ञानी का जीवन जिया, स्नेह संवेदना की प्रतिमूर्त्ति बनकर एक विराट परिवार का संगठन कर उसके अभिभावक भी वे बने । आज के इस भौतिकता प्रधान युग में यदि कहीं कोई शंखनिनाद-घडियाल के स्वर, मंत्रों की ऋचाएँ-यज्ञ धूम्र के साथ उठते समवेत सामगान सुनाई पड़ते हैं, लोगों को अंधेरे में भी कहीं पूर्व की सूर्योदय की उषा लालिमा दिखाई पड़ रही है, तो उसके मूल में हमारे संस्कृति पुरुष ही हैं । 

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वैभव नही महानता का वरण करें

विचार क्रांति के द्रष्टा एवं स्त्रष्टा

Friday 21 April 2017

विचार क्रांति की आवश्यकता एवं उसका स्वरूप

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=948मनुष्य को आज इतनी अधिक सुविधाएँ और साधन- संपदाएँ प्राप्त हैं कि २०० वर्ष पूर्व का मनुष्य इनकी कल्पना भी नहीं कर सकता था ।। पहले की अपेक्षा उसके साधनों और सुविधाओं में निरंतर वृद्धि ही होती जा रही है ।। इसके उपरांत भी मनुष्य अपने को पहले की तुलना में अभावग्रस्त, रुग्ण, चिंतित और एकाकी ही अनुभव कर रहा है ।। भौतिक सुविधा- साधनों में अभिवृद्धि होने के बाद होना तो यह चाहिए था कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक सुखी और अधिक संतुष्ट रहता, किंतु हुआ इसके विपरीत ही है ।। यदि गंभीरतापूर्वक मनुष्य की आंतरिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो प्रतीत होगा कि वह पहले की तुलना में सुख- संतोष की दृष्टि से और अधिक दीन- दुर्बल हो गया है ।। शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक संतुलन, पारिवारिक सौजन्य, सामाजिक सद्भाव, आर्थिक संतोष और आंतरिक उल्लास की से सभी क्षेत्रों में मनुष्य जाति नई- नई समस्याओं व संकटों से घिर गई है ।।

आज की सुविधा, संपन्नता की प्राचीनकाल की परिस्थितियों से तुलना की जाए और मनुष्य के सुख- संतोष को भी दृष्टिगत रखा जाए तो पिछले जमाने की असुविधा भरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट जान पड़ेंगे ।। इन पंक्तियों में भौतिक प्रगति तथा साधन- सुविधाओं की अभिवृद्धि को व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न उनकी निंदा की जा रही है ।। कहने का आशय इतना भर है कि परिस्थितियाँ कितनी ही अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्य के आंतरिक स्तर में कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख- शांति किसी भी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती है ।।

वर्तमान युग की समस्याओं और संकटों के लिए परिस्थितियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता ।। परिस्थितियाँ तो पहले की अपेक्षा अब कहीं अधिक अच्छी, अनुकूल और सहायक हैं ।। 

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विचार परिवर्तन से व्यक्तित्व निर्माण

 

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यह संसार विचारों का ही प्रतिरूप है ।। विचार सूक्ष्म होते हैं ।। संसार की स्थूल वस्तुओं की रचना पहले किए गए विचार के अनुसार ही होती है ।। दर्शनशास्त्र के अनुसार यह समस्त जगत परमात्मा के एक विचार का ही परिणाम है ।। वह विचार था- "एकोऽहं बहुस्यामि" ।। कोई विचार तब ही फलित होता है, जब उसके प्रति सच्ची निष्ठा हो और दृढ़ संकल्प हो ।। संसार में जो उन्नति प्रगति और नए- नए परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं, वे सब विचारों के ही परिणाम हैं ।। मनुष्य यदि झूठी कल्पनाएँ करने के स्थान पर गंभीरतापूर्वक विचार करे और उसे पूरा करने के लिए सच्चे हृदय से प्रयत्न करे तो वह जैसे चाहे, वैसी उन्नति कर सकता है, जितना चाहे ऊँचा उठ सकता है, बड़े- बड़े काम करके दिखा सकता है ।। भिखारियों को सम्राट और साधारण मजदूरों को धन कुबेर बनते विचारों के बल पर ही देखा जा सकता है ।। दृढ़ विचार और हार्दिक संकल्प करके हम अपने व्यक्तित्व को जैसा चाहें बना सकते हैं; आवश्यकता है विचारों के प्रति सच्ची और दृढ़ निष्ठा की ।। 

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वातावरण के परिवर्तन का आध्यात्मिक प्रयोग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=550युग- परिवर्तन को घड़ी सन्निकट है ।। व्यक्ति में दुष्टता और समाज में भ्रष्टता जिस तूफानी गति से बढ़ रही है, उसे देखते हुए सर्वनाश की विभीषिका सामने खड़ी प्रतीत होती है। किंतु ऐसे ही विषम असंतुलन को समय- समय पर सुधारने संभालने के लिए स्रष्टा की प्रतिज्ञा भी तो है। अपनी इस अनुपम कलाकृति, विश्व वसुधा को नियंता ने बड़े अरमानों के साथ बनाया है। संकटों की घड़ी आने पर उसका अवतरण होता है और असंतुलन फिर संतुलन में बदल जाता है। अधर्म को निरस्त और धर्म को आश्वस्त करने वाली ईश्वरीय सत्ता आज को संकटापन्न विषम वेला में उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अपनी अवतरण प्रक्रिया को फिर संपन्न करने वाली है ।।

यह आवश्यकता क्यों उत्पन्न हुई ? प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उत्तर एक ही है- इन दिनों व्यापक क्षेत्रों में जो असंतुलन उत्पन्न हो रहा है, वह इतना बढ़ गया है कि अब स्रष्टा ही उसे संतुलन में साध और ढाल सकता है ।। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर है कि धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है। साथ ही उसे इतना समर्थ शरीरतंत्र दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख- शांति बनाए रहे वरन ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने उस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार और उददंडता बरतता है- चिंतन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का संतुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानों अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है। 

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रानी दुर्गावती

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स्वतंत्रता के लिए प्राण अर्पण करने वाली- रानी दुर्गावती

मानव- सभ्यता के आदिकाल से नारी का कार्यक्षेत्र घर माना गया है ।। वही संतान की जननी, पालन करने वाली और संरक्षिका है ।। पुरुष को वह जैसा बनाती है, वह प्राय: वैसा ही बन जाता है ।। इस दृष्टि से यदि उसे मानव जाति की निर्माणकर्त्री कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है ।। वैसे प्रकृति ने नारी को सब प्रकार की शक्तियाँ और प्रतिभाएँ पूर्ण मात्रा में प्रदान की हैं, पर गृह- संचालन की जिम्मेदारी के कारण उसमें मातृत्व और पत्नीत्व के गुणों का ही विकास सर्वाधिक होता है ।। उसको अपने इस क्षेत्र से बाहर निकलने की आवश्यकता बहुत कम पड़ती है, पर जब आवश्यकता पड़ती है तो वह अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे महानता के कार्य कर दिखाती है कि दुनिया चकित रह जाती है ।।

यद्यपि वर्तमान समय में परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने के कारण स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के पेशों में प्रवेश कर रही हैं और शिक्षा, व्यवसाय, कला, उद्योग- धंधे, सार्वजनिक सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में स्त्रियाँ दिखाई पड़ने लगी हैं ।। यद्यपि हमारे देश में अभी यह प्रकृति आरंभिक दशा में है, पर विदेशों में तो करोड़ों स्त्रियाँ सब प्रकार के जीवन- निर्वाह के पेशों में भाग ले रही हैं ।। यदि यह कहा जाए कि इंग्लैंड, अमेरिका, रूस आदि देशों की तीन चौथाई से अधिक स्त्रियाँ गृह- व्यवस्था के अतिरिक्त अर्थोपार्जन और समाज- संचालन के अन्य कार्यो में भी संलग्न हैं, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता।।

पर एक क्षेत्र ऐसा अवश्य है, जिसमें हमारे देश तथा अन्य देशों की स्त्रियों ने बहुत कम भाग लिया है, वह है, सेना और युद्ध का विभाग ।। 

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युगऋषि चिंतन १

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ऋषि चिंतन के सान्निध्य में परम पूज्य गुरुदेव के मौलिक विचारों का प्रस्तुतीकरण है सद्विचारों के माध्यम से महामानव कैसे किसी समय विशेष में जन समुदाय को एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर मोड़ देते हैं इसका परिचय इन छोटे छोटे विचार सार रूपी संदेशों द्वारा मिलता है । अखंड ज्योति पत्रिका के सन १९४० से सन १९६६ तक के प्रकाशित लेखों में से महत्वपूर्ण चिंतनपरक विचारों का संकलन इस ग्रन्थ में किया गया है ।

इस ग्रन्थ के स्वाध्याय से हम अपना, अपने परिवारीजनों का जीवन सफल बनाएं। अपने परिचितों, स्नेहीजनों, रिश्तेदारों एवं अथितियों को सभा सम्मेलनों, विवाह संस्कार, जन्मदिवस किसी पर्व त्यौहार पर भेंट किया जाय, ताकि अपने परिकर में भी समान विचारधारा फैले । हमारा आत्मीय पाठक बंधुओं से निवेदन है कि इस ग्रन्थ की अधिकाधिक प्रतियाँ समाज में फैलाने में अपना हर संभव सहयोग करें । 

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Thursday 20 April 2017

युग सृजन की दिशा प्रगतिशील लेखन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=920कला-कौशलों में अधिकांश ऐसे हैं, जो आजीविका उपार्जन, सम्मान अर्जित करने में काम आते हैं, कुछ विनोद-मनोरंजन की आवश्यकता पूर्ण करते हैं । कुछ से निजी प्रतिभा को उभारने का प्रयोजन सधता है । आमतौर से कलाकृतियाँ इसी परिधि में परिभ्रमण करती रहती हैं, पर उनमें से कुछ ऐसी हैं जो उपर्युक्त प्रयोजनों की तो न्यूनाधिक मात्रा में पूर्ति करती ही हैं, बड़ी बात यह है कि यदि सदुपयोग बन पड़े तो विश्वमानव की असाधारण सेवा-साधना करने में भी वे उच्चस्तरीय योगदान देती हैं ।

इस स्तर की कलाओं में दो मूर्द्धन्य हैं-(१) भाषण कला, (२) लेखन कला । संगीत को चाहें तो तीसरे नंबर का कह सकते हैं अथवा उसे वाणी प्रधान होने के कारण भाषण का ही एक अंश भी कह सकते हैं । अभिनय संगीत का सहोदर है । इस प्रकार वाणी के माध्यम से व्यक्त होने वाली कलाकारिता को भाषण, संगीत और अभिनय का समुच्चय भी कह सकते हैं । वर्गीकरण पृथक-पृथक भी हो सकता है । यहाँ प्रसंग एकीकरण या पृथक्करण का नहीं-यह है कि व्यक्ति की गरिमा बढ़ाने वाली और विश्व मानव की सेवा-साधना में उनके सदुपयोग की महती भूमिका होने की जानकारी सभी को है । सभी उसे स्वीकार भी करते हैं । शिक्षितों की तरह वह अशिक्षितों को भी ज्ञान गरिमा के आलोक से लाभान्वित करती है ।

युगांतरीय चेतना को अग्रगामी बनाने में मूर्द्धन्य भूमिका निभाने वाली भाषण कला का व्यापक शिक्षण प्रज्ञा-अभियान के द्वारा अत्यंत उत्साहपूर्वक सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है । 

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युग निर्माण का शत सूत्री कार्यक्रम

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=553युग निर्माण योजना का शत- सूत्री कार्यक्रम

युग की वह पुकार जिसे पूरा होना ही है- आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण का उद्देश्य लेकर युग निर्माण योजना नामक एक आध्यात्मिक प्रक्रिया अखण्ड ज्योति के सदस्यों द्वारा जून ११६३ से आरंभ की गई है ।। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की अभिनव रचना का लक्ष्य पूरा करने के लिए तभी से यह आंदोलन सफलतापूर्वक चल और द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है ।।

आंदोलन के आरंभ में जनसाधारण को उसका स्वरूप समझाने के लिए जो सूत्र दिये गये थे, उनका समग्र स्वरूप इस पुस्तक में है ।। इसलिए पाठकों को ऐसा प्रतीत होगा, मानो यह कोई विचाराधीन योजना या किसी भावी कार्यक्रम की कल्पना है, पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं ।। विगत कई वर्षो से शत सूत्री योजना के यह सभी कार्यक्रम देश- विदेश के लाखों सदस्यों द्वारा बड़े उत्साहपूर्वक कार्यान्वित किए जा रहे हैं ।। प्रगति जिस आशाजनक और उत्साहपूर्ण ढंग से हो रही है, उसे देखते हुए प्रतीत होता है कि किसी समय का यह स्वप्न अगले कुछ ही समय में एक विशाल वृक्ष का रूप धारण करने जा रहा है और युग निर्माण की बात जो अत्युक्ति जैसी लगती थी, अगले दिनों एक सुनिश्चित तथ्य के रूप में मूर्तिमान् होने वाली है ।।

नवनिर्माण का यह अभिनव आंदोलन समय की एक अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण पुकार है ।। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति के लिए यह योजना अपनाये जाने योग्य है ।। कारण, आज जिस स्थिति में होकर मनुष्य जाति को गुजरना पड़ रहा है, वह बाहर से उत्थान जैसी दीखते हुए भी वस्तुत: पतन की है ।। दिखावा, शोभा, श्रृंगार का आवरण बढ़ रहा है, पर भीतर ही भीतर सब कुछ खोखला हुआ जा रहा है ।। 

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युग की पुकार अनसुनी न करें

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=910हमारे सामने एक नया युग चला आ रहा है, इसमें अब संदेह की कुछ भी गुंजाइश नहीं रह गई है।। संसार में जैसी घोर हलचल मची हुई है, संपत्ति, साधनों और भौतिक ज्ञान की असीम वृद्धि के होते हुए मानव- जीवन जिस प्रकार अधिक अशांत और असंतुष्ट बनता जाता है, “मानव मात्र एक है" के तथ्य को समझते हुए विभिन्न राष्ट्रों और जातियों के मतभेद जिस प्रकार तीव्र होते जाते हैं, उससे विदित होता है कि हमारे भीतर, मनुष्य- समाज के भीतर कोई ऐसी गहरी खराबी पैदा हो गई है, जो हमारे सहयोग- सामंजस्य को एक सूत्र बनने के प्रयत्नों को सफल नहीं होने देती और अनेक विषयों में आश्चर्यजनक प्रगति होते हुए हमें सर्वनाश की विभीषिका के निकट घसीटे लिए जा रही है।।

इस परस्पर विरोधी स्थिति का प्रधान कारण यही है कि हमने भौतिक ज्ञान- विज्ञान में जितनी प्रगति की है, उसके मुकाबले में अध्यात्म- ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में हम कुछ भी आगे नहीं बढ़े, इतना ही नहीं उलटा पीछे हट गये है ।। इससे हमारे भीतर व्यक्तिगत स्वार्थ की भावना पूर्वापेक्षा बलवती होती जाती है और नवीन वैज्ञानिक उन्नति से लाभ उठाने के लिए जिस सामूहिक भावना की, भ्रातृत्व की, मनोवृत्ति की आवश्यकता है; उसका उदय होने नहीं पाता ।। यही कारण है कि जिन वैज्ञानिक आविष्कारों से यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी, वे ही मानव- सभ्यता को जड़- मूल से नष्ट करने की आशंका उत्पन्न कर रहे हैं ।। 

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यह बोल रहा है महाकाल

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आप अपना लक्ष्य स्थिर कीजिए।। किस आदर्श के लिए अपना जीवन लगाना चाहते हैं, यह निश्चित कीजिए ।। तत्पश्चात उसी की पूर्ति में मन, वचन औंर कर्म से लग जाइए ।। लक्ष्य के प्रति तन्मय रहना मनुष्य की इतनी बड़ी विशेषता, प्रतिष्ठा, सफलता औंर महानता हैं कि उसकी तुलना में अनेकों प्रकार के आकर्षक गुणों को तुच्छ ही कहा जाएगा ।। 

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महाशक्ति की लोकयात्रा (Sanskrit Kavya)

 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1280"महाशक्ति की लोकयात्रा" परम वन्दनीया माताजी के दिव्य जीवन की अमृत कथा है । परात्पर प्रभु जब "सम्भवामि युगे-युगे" के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए मानव कल्याण हेतु धराधाम में अवतरित होते हैं, तब उनके साथ उनकी लीला शक्ति का भी नारी रूप में प्राकट्य होता है । इतिहास-पुराण के अनेक पृष्ठ भगवत्कथा के ऐसे दिव्य प्रसंगों से भरे पड़े हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के साथ माता सीता आईं । भगवान् बुद्ध के साथ यशोधरा, चैतन्य महाप्रभु के साथ देवी विष्णुप्रिया, भगवान् श्रीरामकृष्ण देव के साथ माता शारदा ने अवतार लेकर उनके ईश्वरीय कार्य में सहायता की ।

वर्तमान युग में उसी महाशक्ति ने माता भगवती के रूप में अपनी समस्त कलाओं के साथ इस धरालोक पर अवतार लिया । अपनी इस लोकयात्रा में महाशक्ति ने अपने आराध्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के ईश्वरीय कार्य में सहायता करने के साथ हम सबके सामने अनेक जीवनादर्श प्रस्तुत किए । आदर्श गृहिणी, आदर्श माता, आदर्श तपस्विनी, आदर्श योग साधिका के साथ उन्होंने योग की उच्चतम दिव्य विभूतियों से सम्पन्न आदर्श गुरु का स्वरूप हम सबके समक्ष प्रकट किया । यही नहीं उन्होंने अपने पवित्र और साधना सम्पन्न जीवन के द्वारा भारतीय नारी की गरिमा को भव्य अभिव्यक्ति दी । 

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Tuesday 18 April 2017

महाकाल की चेतावनी

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=911यह आत्मावलोकन का समय

वर्तमान समय में क्षेत्रों मे एवं हम सभी कार्यकर्ताओं की अंतरात्मा में उथल- पुथल, आपसी मनोमालिन्य बढ़ते जा रहे हैं ।। गुरुदेव की आकांक्षा के अनुसार मिशन के कार्यक्रम आपसी सामंजस्य से युद्ध स्तर पर मिशन के पाँच संस्थानों से एक रूपता के साथ चलना आवश्यक है ताकि क्षेत्रीय कार्यकर्ता असमंजस में न रहें और युग परिवर्तन की संधि बेला में हम सभी पूज्य गुरुदेव के द्वारा सौंपे गए महान उत्तरदायित्वों का पालन करने में सफल हो सकें ।। इसके लिए हम सभी को पूज्य गुरुदेव के निम्नलिखित विचारों का गंभीरता से आत्म चिंतन करके आचरण में लाने का हर संभव प्रयास करना चाहिए ।। जहाँ अपनी गलतियाँ हों उन्हें दूर करके समर्पण भाव से, आपसी प्यार- सहकार से कर्तव्य पालन में जुट जाना चाहिए ।। तभी हम सभी पूज्य “गुरुदेव की कृपा से अपने जीवन को सार्थक बनाने में सफल हो सकेंगे एवं युग परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेंगे ।। 

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