Sunday 29 January 2017

Applied Science Of Yagya For Health And Environment

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=316Yagya-therapy is an ancient method of herbal/plant medicinal treatment derived from the. Vedic texts. In yagya natural herbal/plant products are processed in fire and medicinal vapors, gases and photo chemicals are released. It is basically an inhalation therapy that promises wider healing applications without any risk, of side effects or drug-resistance. It is cost effective and natural and provides added benefits of purifying the environment and balancing the Eco-system.

This book aims to introduce the readers to the ancient knowledge and modern scientific findings on yagya (fire-ritual) with special focus on preventive and therapeutic applications for holistic healthcare. It also presents detailed information and guidelines for yagya-threapy of several diseases and disorders — including the dreaded ones like Cancer and AIDS — that have challenged the world today.

Yagya Therapy –The key to Holistic Health

Yagya Therapy is an ethno-botanical inhalation therapy derived from the ancient Medical Science of India, The multiple benefits of yagya experiments include purification of atmospheric environment and healthy fertilization of the soil. Scientific validity and technical evaluation of this Vedic ritual in recent times indicate its enormous potential for reducing air-water pollution and for agricultural and therapeutic applications. 

 

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चेतन ,अचेतन एवं सुपर चेतन मन

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=186मानवी काया एक विलक्षणताओं का समुच्चय है । यदि इस रहस्यमय अद्भुत कायपिंजर को समझा जा सके व तदनुसार जीवन-साधना सम्पन्न करते हुए अपने जीवन की रीति-नीति बनायी जा सके तो व्यक्तित्त्व सम्पन्न, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बना जा सकता है । इसके लिए अपने स्वयं के मन को ही साधने की व्यवस्था बनानी पड़ेगी । यदि यह सम्भव हो सके कि व्यक्ति अपने चेतन, अचेतन व सुपरचेतन मस्तिष्कीय परतों की एनाटॉमी समझकर तदनुसार अपना व्यक्तित्त्व विकसित करने की व्यवस्था बना ले तो उसके लिए सब कुछ हस्तगत करना सम्भव है । यह एक विज्ञान सम्मत तथ्य है, यह मानवी मनोविज्ञान को समझाते हुए पूज्यवर बडे़ विस्तार से इस गूढ़ विषय को विवेचन करते इसमें पाठकों को नजर आयेंगे । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी अन्त: करण चतुष्टय की सत्ता से हमारा निर्माण हुआ है । यदि विचारों की व्यापकता और सशक्तता का स्वरूप समझा जा सके व तदनुसार अपने व्यक्तित्त्व के निर्माण का सूत्र समझा जा सके तो इस अन्त करण चतुष्टय को प्रखर, समर्थ और बलवान बनाया जा सकता है ।

यदि अचेतन का परिष्कार किया जा सके, आत्महीनता की महाव्याधि से मुक्त हुआ जा सके, तो हर व्यक्ति अपने विकास का पथ स्वयं प्रशस्त कर सकता है । उत्कृष्टता से ओतप्रोत मानवी सत्ता ही मनुष्य के वैचारिक विकास की अन्तिम नियति है । यदि चिन्तन उत्कृष्ट स्तर का होगा तो कार्य भी वैसे बन पड़ेंगे एवं मानव से महामानव, चेतन से सुपरचेतन के विकास की, अतिचेतन के विकास की आधारशिला रखी जा सकेगी। 

 

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योग के वैज्ञानिक प्रयोग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=141कुल मिलाकर रास्ता सिर्फ एक बचता है। योग को वैज्ञानिक पैमाने पर खरा सिद्ध किया जाए। विज्ञान के प्रयोगों के आधार पर जो प्राचीन यौगिक पद्धतियाँ उपयोगिता सिद्ध करती है, उन्हे सहर्ष स्वीकार किया जाए,शेष को आज की जरुरत के अनुसार ढाला जाए।इससे जहाँ देश के आम आदमी को शारीरिक-मानसिक और आध्यात्मिक रुप से सशक्त कर स्वस्थ और समर्थ राष्ट की नींव रखी जा सकेगी, वहीं दुनिया के सामने भी अपने पारम्परिक ज्ञान की महत्ता सिद्ध की जा सकेगी। संभवत:सुनहरा कल इसी रास्ते से सामने आयेगा।

मानवीय मन के विशेषज्ञ कार्ल रोजर्स दीर्घकालीन अनुसंधान प्रकिया का निष्कर्ष बताते हुए कहते है कि स्वास्थ्य संकट के प्रश्न कंटक को निकालने के लिए मानवीय प्रकृति की संरचना व उसकी क्रियाविधि का समग्र ज्ञान चाहिए। तभी उसमें आयी विकृति की पहचान व निदान सम्भव है।यह समस्त विज्ञान योग शास्त्रों में पहले से ही उपलब्ध है। 

 

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जीवन शरद शतम-४१

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=379स्वस्थ रहना मनुष्य का अधिकार है, एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । इसी आधार पर हमारे ऋषिगणों ने मनुष्य के लिए “जीवेम शरद: शतम्”-व्यक्ति सौ वर्ष तक जिए नीरोग जीवन जीकर सौ वर्षों की आयुष्य का आनंद ले, सूत्र दिया था । सौ वर्ष से भी अधिक जीने वाले, स्वास्थ्य के मौलिक सिद्धांतों को जीवन में उतारने वाले अनेकानेक व्यक्ति कभी वसुधा पर थे एवं इसे एक सामान्य सी बात माना जाता था । स्वस्थवृत्त को जीवन में उतारने वाला सौ वर्ष तक जीकर ही अपना सारा जीवन-व्यापार पूरा कर ही मोक्ष को प्राप्त होगा, यह हमारी संस्कृति का कभी जीवनदर्शन था । किंतु आज यह सब एक विलक्षणता मानी जाती है, जब सुनने में आता है कि किसी ने सौ वर्ष पार कर लिए व अभी भी नीरोग है । परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के इस खंड में जहाँ बिना औषधि के कायाकल्प की बात कही है, वहीं जडी़-बूटियों द्वारा स्वास्थ्य-संरक्षण, कल्प के विभिन्न शरीरपरक बार्धक्य कभी न लाने वाले सुगम प्रयोग भी दिए हैं, जो आज भी परीक्षित करने पर कसौटी पर खरे सिद्ध हो सकते हैं ।

रोग क्यों होते हैं, उनका कारण क्या है व कौन-कौन से घटक इसके लिए जिम्मेदार होते हैं ? यहाँ से यह खंड आरंभ होता है । रोगों की उत्पत्ति की जड़ हमारी जीवनशैली का त्रुटिपूर्ण होना है तथा कब्ज से लेकर आहार के असंयम रहन-सहन से लेकर मानसिक तनाव तथा दैवी प्रतिकूलताओं से लेकर बैक्टीरिया-वायरस के कारण होने की व्याख्या के पीछे पूज्यवर का मंतव्य एक ही है कि हमारी जीवनीशक्ति-प्राणशक्ति यदि अक्षुण्ण रहे व जीवनशैली सही रहे तो हमें कभी रोग-शोक सता नहीं सकते । पंचभूतों से बनी इस काया को जिसे अंत में मिट्टी में ही मिल जाना है, क्या हम पंचतत्त्वों-आकाश, वायु जल, मिट्टी, अग्नि के माध्यम से स्वस्थ बना सकते हैं, इसका समग्र विवेचन इस खंड में विस्तार से हुआ है । 

 

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निरोग जीवन के महत्वपूर्ण सूत्र-३९

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=396नीरोग जीवन एक ऐसी विभूति है, जो हर किसी को अभीष्ट है। कौन नहीं चाहता कि उसे चिकित्सालयों-चिकित्सकों का दरवाजा बार-बार न खटखटाना पड़े । उन्हीं का, औषधियों का मोहताज होकर न जीना पड़े, पर कितने ऐसे हैं, जो सब कुछ जानते हुए भी रोगमुक्त नहीं रह पाते ? यह इस कारण कि आपकी जीवनशैली ही त्रुटिपूर्ण है । मनुष्य क्या खाए कैसे खाए; यह उसी को निर्णय करना है । आहार में क्या हो यह हमारे ऋषिगण निर्धारित कर गए हैं । वे एक ऐसी व्यवस्था बना गए हैं, जिसका अनुपालन करने पर व्यक्ति को कभी कोई रोग सता नहीं सकता । आहार के साथ विहार के संबंध में भी हमारी संस्कृति स्पष्ट चिंतन देती है, इसके बावजूद भी व्यक्ति का रहन-सहन, गड़बड़ाता चला जा रहा है । परमपूज्य गुरुदेव ने इन सब पर स्पष्ट संकेत करते हुए प्रत्येक के लिए जीवनदर्शक कुछ सूत्र दिए हैं, जिनका मनन, अनुशीलन करने पर निश्चित ही स्वस्थ, नीरोग और शतायु बना जा सकता है ।

परमपूज्य गुरुदेव ने व्यावहारिक अध्यात्म के ऐसे पहलुओं पर सदा से ही जोर दिया जिनकी सामान्यतया मनुष्य उपेक्षा करता आया है और लोग अध्यात्म को जप-चमत्कार, ऋद्धि-सिद्धियों से जोड़ते हैं, किंतु पूज्यवर ने स्पष्ट लिखा है कि जिसने जीवन जीना सही अर्थों में सीख लिया, उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया । जीवन जीने की कला का पहला ककहरा ही सही आहार है । इस संबंध में अनेकानेक भ्रांतियाँ हैं कि क्या खाने योग्य है, क्या नहीं ? ऐसी अनेकों भ्रांतियां यथा-नमक जरूरी है, पौष्टिकता संवर्द्धन हेतु वसाप्रधान भोजन होना चाहिए शाकाहार से नहीं, मांसाहार से स्वास्थ्य बनता है, को पूज्यवर ने विज्ञानसम्मत तर्क प्रस्तुत करते हुए नकारा है । 

 

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Saturday 28 January 2017

Health, Wealth And Spirituality

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• Healthcare and Spirituality
• Wealth and Spirituality
• References




















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स्वस्थ रहने की कला

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=91मनुष्य की काय संरचना ऐसी है, जिसे यदि तोड़ा-मरोड़ा न जाए, सहज गति से चलने दिया जाए तो वह लंबे समय तक बिना लड़खड़ाए कारगर बनी रह सकती है ।आरोग्य स्वाभाविक है और रोग प्रयत्न पूर्वक आमंत्रित । सृष्टि के सभी प्राणी अपनी सहज आयु का उपभोग करते हैं । मरण तो सभी का निश्चित है, पर वह जीर्णता के चरम बिंदु पर पहुँचनेके उपरांत ही होता है । मात्र दुर्घटनाएँ ही कभी-कभी उसमें व्यवधान उत्पन्न करती हैं । रुग्णता का अस्तित्व उन प्राणियोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता, जो प्रकृति की प्रेरणा अपनाकर सहज सरल जीवन जीते हैं । मनुष्य ही इसका अपवाद है । इसी जीवधारी को आए दिन बीमारियों का सामना करना पड़ताहै । बेमौत मरते भी वही देखा जाता है । दुर्बलता, रुग्णता और असामयिक मृत्यु कोई दैवी विपत्तिनहीं है । मनुष्य द्वारा अपनाई गई रहन-सहन संबंधी प्रतिक्रिया मात्र है । आहार-विहार में संयम बरता जा सके और मस्तिष्कको अनावश्यक उत्तेजनाओं से बचाए रखा जा सके, तो लंबी अवधि तक सुखपूर्वक निरोगी जीवन जिया जा सकता है ।आरोग्य की उपलब्धि के लिए बहुमूल्य टॉनिकों या औषध-रसायनों को खोजने की तनिक भी आवश्यकता नहींहै । जो उपलब्ध है उसे बरबाद न करने की सावधानी भरबरती जाए, तो न बीमार पड़ना पड़े, न दुर्बल रहना पड़े औरन असमय बेमौत मरने की आवश्यकता पड़े । चिकित्सकों का द्वार खटखटाने की अपेक्षा आरोग्यार्थी यदि रहन-सहन में सम्मिलित कुचेष्टाओं को निरस्त कर सकें, तो यह उपाय उनकी मनोकामना सहज ही पूरी कर सकता है । 

 

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स्वस्थ और सुंदर बनने की विद्या

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=139यह अच्छी तरह अनुभव कर लिया गया है कि खिलखिलाकर हँसने से अच्छी भूख लगती है, पाचनशक्ति बढ़ती है और रक्त का संचार ठीक गति से होता है ।। क्षय जैसे भयंकर रोगों में हँसना अमृत- तुल्य गुणकारी सिद्ध हुआ है ।। खिल- खिलाकर हँसने से मुँह, गरदन, छाती और उदर के बहुत उपयोगी स्नायुओं को आवश्यकीय कसरत करनी पड़ती है, जिससे वे प्रफुल्लित और दृढ़ बनते हैं ।। इसी तरह मांसपेशियों, ज्ञानतंतुओं और दूसरी आवश्यक नाड़ियों को हँसने से बहुत दृढ़ता मिलती है ।। हँसने का मुँह, गाल और जबड़े पर बड़ा अच्छा असर पड़ता है ।। मुँह की मांसपेशियों और नसों का यह सबसे अच्छा व्यायाम है ।। जिन्हें हँसने की आदत होती है, उनके गाल सुंदर, गोल और चमकीले रहते हैं ।। फेफड़ों के छोटे- छोटे भागों में अकसर पुरानी हवा भरी रहती है, आराम की साँस लेने से बहुत- थोड़ी वायु फेफड़ों में जाती है और प्रमुख भागों में ही हवा का आदान- प्रदान होता है, शेष भाग यों ही सुस्त और निकम्मा पड़ा रहता है, जिससे फेफड़े संबंधी कई रोग होने की आशंका रहती है, किंतु जिस समय मनुष्य खिल- खिलाकर हँसता है, उस समय फेफड़ों में भरी हुई पहले की हवा पूरी तरह बाहर निकल जाती है और उसके स्थान पर नई हवा पहुँचती है ।। मुँह की रसवाहिनी गिलटियाँ हँसने से चैतन्य होकर पूरी मात्रा में लार बहाने लगती हैं।। पाठक यह जानते ही होंगे कि भोजन में पूरी मात्रा में लार मिल जाने पर उसका पचना कितना आसान होता है? जो आदमी स्वस्थ रहना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि हँसने की आदत डालें । 

 

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शरीर रचना एवं क्रिया विज्ञान



http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=135आयुर्वद अथवा किसी भी चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन के लिए शरीर रचना का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। चिकित्सा में निपुणता प्राप्त करने के लिए प्रथम और आवश्यक सोपान शरीर विज्ञान है। इस ज्ञान के बिना चिकित्सा, शल्य, शालाक्य, कौमारभृत्य आदि किसी भी आयुर्वेद के अंग का अध्ययन संभव नहीं। चिकित्सा के प्रमुख दो वर्ग है-


(१) काय चिकित्सा और (२) शल्य चिकित्सा वर्ग। सर्वप्रथम चिकित्सकों को शरीर विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होना आवश्यक है। इसी आशय से महर्षि आत्रेय का यह कथन सर्वथा सत्य है कि-

शरीरं सर्व सर्वदा वेद यो भिषक्।

आयुर्वेद सकात्स्येन वेद लोक सुखप्रदम्॥

संसार के रोग रुपी दु:ख को हरण करने वाला आयुर्वेदीय हर्त चिकित्सक वही बन सकता है, जिसने शरीर के अंग -प्रत्यगों की स्थिति, उनकी परिभाषा, अंग-प्रत्यगों के परस्पर संबंध, क्रियात्मक शरीर एवं दोषात्मक शरीर आदि शरीर(शरीर संबंधी) का प्रत्यक्ष कर्माभ्यास द्वारा अध्ययन किया है। 

 

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Friday 27 January 2017

Hamsa Yoga - The Elixir Of Self Realisation

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=333The hamsa yoga or sooham sadhana is crowned in the Indian scriptures as the paramount spiritual endeavor that enables natural conjunction of the individual consciousness and the Brahth. Despite being superior in terms of its culminated effects, this sadhana is easiest and free from the ascetic disciplines and difficult practices of yoga that are associated with other higher level spiritual sadhanas. The treatise of Sabda Brahm — Nada Brahm (volume 19 of "Pt. Shriram Sharma Acharya Vangmaya" Series) devotes one full chapter to this important topic. The present book is compiled from the English translation of this invaluable text.

Meditation on the sounds of "soo " and "ham" — produced continuously by the harmonized inhalation and exhalation in each breathing cycle during a pranayama — is practiced in the initial phase of the hamsa yoga. The hakara (sound of "ha") is regarded as a manifestation of God Shiva in the cosmic energy currents of prana and sakara (the sound of "sa") represents the existence of the eternal power of thy super consciousness in the spiritual impulse of prana. The surya swara (through the solar nerve) is awakened by hakara and the candra swara (through the lunar nerve) by sakara. These swaras are harmonized in the higher level pranayama of the hamsa yoga. The contemplation phase of this sadhana involves total sacrifice of the ego and dissolution of the identity of the "Self" in the supreme consciousness — expression of the Brahm.

The sooham sadhana enables realization of the Nada Yoga through Prana Yoga. The science and philosophy of this sadhana is also discussed here in the special context of the ajapa japa of the Gayatri Mantra and the Kundalini Sadhana. The author has been through, yet lucid in discussing this esoteric field of the science of spirituality and yoga. He also provides trenchant guidance for practicing this prana yoga in day-to-day life. 

 

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आसन-प्राणायाम से आधि-व्याधि निवारण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=890यह एक निर्विवाद तथ्य है कि आज की सभ्यता की घुड़दौड़ में मानव समुदाय शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से जर्जर, दिनोंदिन दुर्बल होता चला जा रहा है इतना ही नहीं उसका दिन का चैन एवं रात की नींद भी प्रभावित होते चले जाने से तनाव जन्य रोगों एवं मनोविकारों में बड़ी तेजी से अभिवृद्धि हुई है ।। सभ्यता की दिशा में प्रगति से आधुनिक विज्ञान ने अनेकानेक- साधन मनुष्य को उपलब्ध कराए हैं ।। द्रुतगामी वाहन, ऐशो- आराम के साधन जहाँ एक समुदाय को अकर्मण्य आलसी बनाते चले जा रहे हैं, वहाँ दूसरी ओर स्वास्थ्य के आहार- विहार संबंधी नियमों की जानकारी के अभाव में एक बहुसंख्यक समुदाय जो ग्रामों या कस्बों में निवास करता है अपेक्षाकृत अधिक जल्दी रोगी एवं बूढ़ा होता चला जा रहा है ।। 

 

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प्रसुप्ति से जागृति कि ओर-७

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=410प्रस्तुत वाङ़्मय एक प्रयास है, इस युग के व्यास परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवन-दर्शन को जन-जन तक पहुँचाने का। आज से 85 वर्ष पूर्व आगरा के आँवलखेड़ा ग्राम में जन्मा वेदमूर्ति तपोनिष्ठ की उपाधि प्राप्त भारतीय संस्कृति के उन्नयन को समर्पित एवं सच्चे अर्थों में ब्राह्मणत्व को जीवन में उतारने वाला यह राष्ट्र -सन्त अपने अस्सी वर्ष के आयुष्य में (1911-1990) आठ सौ से अधिक का कार्य कर गया। सादगी की प्रतिमूर्ति, ममत्व, स्नेह से लबालब अंतःकरण एवं समाज की हर पीड़ा जिनकी निज की निज की पीड़ा थी, ऐसा जीवन जीने वाले युगदृष्टा ने जीवन भर जो लिखा, अपनी वाणी से कहा, औरों को प्रेरित कर उनसे जो संपन्न करा लिया, उस सबको विषयानुसार इस वाङ़्मय के खण्डों में बाँधना एक नितान्त असम्भव कार्य है। यदि यह सफल बन पड़ा है तो मात्र उस गुरुसत्ता के आशीष से ही, जिनकी हर श्वाँस गायत्री यज्ञमय थी एवं समिधा की तरह जिनने अपने को संस्कृति -यज्ञ में होम कर डाला। 

 

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अपरिमित सम्भावना मानवीय व्यक्तित्व-२१

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=412मनुष्य पूज्यवर के शब्दों में एक भटका हुआ देवता है, जिसे यदि सच्ची राह दिखाई जा सके, उसके देवत्त्व को उभारा जा सके जो आज प्रसुप्त पड़ा हुआ है, तो उसके व्यक्तित्त्व रूपी समुच्चय में इतनी शक्ति भरी पड़ी है कि वह जो चाहे वह कर सकता है, असंभव से भी असंभव दीख पड़ने वाले पुरुषार्थ संपन्न कर सकता है । विडम्बना यही है कि मनुष्य इस प्रसुप्त पड़े भाण्डागार को जिसमें अपरिमित संभावनाएँ हैं, पहचान नहीं पाता एवं विषम परिस्थितियों में पड़ ज्यों त्यों कर जिन्दगी गुजारता देखा जाता है । पाश्चात्य वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य मूलत: पशु है व वहाँ से उठकर बंदर की योनि से मनुष्य बना है । पूज्यवर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की कसौटी पर कसे गए आध्यात्मिक विकासवाद की दुहाई देते हुए कहते हैं यह नितान्त एक कल्पना है । मनुष्य मूलत: देवता है, पथ से भटक गया है, यह योनि उसे इसलिए दी है कि वह देवत्त्व की दिशा में अग्रगमन कर सके । यदि यह संभव हो सका तो वह देवत्त्व को अर्जित कर स्वयं को क्षमता संपन्न विभूतिवान बना सकता है ।

मानवी व्यक्तित्व को एक कल्पवृक्ष बताते हुए उससे मनोवांछित उपलब्धियाँ पाने की बात कहते हुए गुरुदेव कहते हैं कि यदि मनुष्य चाहे तो अपने को सर्वशक्तिमान बना सकता है। विचारों की शक्ति बड़ी प्रचण्ड है । आत्मसत्ता को जिन विचारों से सम्प्रेषित- अनुप्राणित किया गया है उसी आधार पर इसका बहिरंग का ढाँचा विनिर्मित होगा । अपूर्णता से पूर्णता की ओर चलते चलना व सतत विधेयात्मक चिन्तन बनाए रखना ही मनुष्य के हित में है । 

 

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प्राण शक्ति एक दिव्य विभूति-१७

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=411प्राण शक्ति को एक प्रकार की सजीव शक्ति कहा जा सकता है जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर,-प्लाज्मा की तरह समायी हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है। वह उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी, साहसी दिखाई पड़ता है। शरीर में संव्यास इसी तत्त्व को जीवनीशक्ति अथवा ‘ओजस’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर ही तत्त्व प्रतिभा ‘तेजस्’ कहलाता है। अपनी शक्ति क्षरण के द्वारा बंद कर लेने के कारण शारीरिक एवं मानसिक ब्रह्मचर्य साधने वाले साधकों को मनस्वी एवं तेजस्वी इसी कारण कहा जाता है। यह प्राणशक्ति ही है जो कहीं बहिरंग के सौंदर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता व प्रखरता में, कहीं प्रतिभा के रूप में, कहीं कला-कौशल व कहीं भक्ति भाव के रूप में देखी जाती है। वस्तुतः प्राणशक्ति एक बहुमूल्य विभूति है। यदि इसे संरक्षित करने का मर्म समझा जा सके तो स्वयं को ऋद्धि-सिद्धि संपन्न-अतीन्द्रिय सामर्थ्यों का स्वामी बनाया जा सकता है। 

 

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ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=66संसार में प्रत्येक व्यक्ति आरोग्य और दीर्घ जीवन की इच्छा रखता है । चाहे किसी के पास कितना ही सांसारिक वैभव और सुख-सामग्रियाँ क्यों न हों, पर यदि वह स्वस्थ नहीं है, तो उसके लिए वे सब साधन-सामग्री व्यर्थ ही हैं । हम अपने ही युग के रॉकफेलर जैसे व्यक्तियों को जानते हैं, जो संसार के सबसे बड़े धनी कहलाते हुए भी अस्वस्थता के कारण दो रोटी खाने को भीतरसते थे । इसलिए एक विद्वान के इस कथन को सत्य ही मानना चाहिए धन संसार में बहुत बड़ी चीज नहीं है, स्वास्थ्य का महत्त्व उससे कहीं ज्यादा है । आरोग्यशास्त्र के आचार्यों ने स्वास्थ्य-साधन की मूल चार बातें बतलाई हैं- आहार, श्रम, विश्राम और संयम । आहार द्वारा प्राणियों की देह का निर्माण और पोषण होता है । अत: उसका उपयुक्त होना सबसे पहली बात है । दूसरा स्थान श्रम का है, क्योंकि उसके बिना न तो आहार प्राप्त होता है और न वह खाने के पश्चात देह में आत्मसात् हो सकता है । विश्राम भी स्वास्थ्य-रक्षका आवश्यक अंग है, क्योंकि उसके द्वारा शक्ति संग्रह किए बिना कोई लगातार श्रम करते रहने में समर्थ नहीं हो सकता चौथा संयम है, जो अन्य प्राणियों में तो प्राकृतिक रूप से पाया जाताहै, पर अपनी बुद्धि द्वारा प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेने का अभिमान रखने वाले मनुष्य के लिए जिसके उपदेश की नितांत आवश्यकता है । 

 

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Thursday 26 January 2017

उपासना समर्पण योग-३

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=409परमपूज्य गुरुदेव ने उपासना, जो परमात्मा की की जाती है, को आत्मा की एक अनिवार्य खुराक बताया है । दैनंदिन जीवन की अन्यान्य आवश्यकताओं की तरह उपासना भी एक ऐसा पुरुषार्थ है जो नित्य की जानी चाहिए । रोजमर्रा के जीवन में हमारी आत्मसत्ता पर सूक्ष्मजगत से आ रही प्रदूषणों की कालिमा का आवरण छाता रहता है । इस कालिमा की नित्य सफाई ही उपासनात्मक पुरुषार्थ है । श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे-"अपने लोटे को रोज माँजो अर्थात अपनी आत्मसत्ता की सफाई नित्य नियमित रूप से करते रहें । उसमें कभी आलस्य या प्रमाद न बरतें । परमपूज्य गुरुदेव ने अनेकानेक उदाहरण देकर उपासना की महत्ता बताई है । गरम वस्तु के पास रखे पदार्थ गरम हो जाने, पारस के संपर्क में आकर अनगढ़ लोहे के स्वर्ण बन जाने, वृक्ष का संपर्क पाकर पाँवों से कुचल जाने वाली बेल के ऊपर आकाश चूमने तथा गंदे नाले के गंगा में मिलकर गंगा नदी ही कहलाने की उपमाएँ देकर पूज्यवर ने व्याख्या की है कि यही चमत्कार उपासना से मिल सकता है, यदि व्यक्ति उसका तत्त्वदर्शन विज्ञान समझकर करें । अनेकानेक भ्रांतियों के शिकार व्यक्ति मर्म न समझकर बाह्योपचार, बहिरंग के कर्मकांड को ही सब कुछ मान बैठते हैं । उपासना के साथ जुड़ा हुआ शब्द है समर्पण योग । समर्पण-तादात्म्यता तद्रूपता लाए बिना उपासना में प्राण कहाँ ? इसीलिए उपासना अधिकांश की सफल नहीं होती क्योंकि उसमें करुण स्तर की परमात्मसत्ता से एकाकार होने की समर्पण भावना का अभाव रहता है । जिस दिन यह हो जाता है, उस दिन परमात्मा का, महानता का, श्रेष्ठता का जीवन में वास्तविक प्रवेश हो जाता है एवं व्यक्तित्त्व आमूलचूल बदल जाता है । 

 

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प्राण चिकित्सा विज्ञान

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=110प्राण मनुष्य शरीर की सार वस्तु है । इसके द्वारा न केवल हमजीवन धारण किए हुए हैं, वरन बाहरी प्रभावों से अपनी रक्षा भी करते हैं और दूसरों पर असर भी डालते हैं । ये दोनों ही कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । डॉक्टर पिच के मतानुसार इस कार्य में एकछोटे-मोटे बिजली घर के बराबर विद्युत शक्ति खरच होती रहती है ।हम अपनी इस शक्ति के बारे में कुछ अधिक जानकारी नहीं रखते इसलिए इन बातों को सुनकर आश्चर्य करते हैं । वह शक्ति हमारे जानने, न जानने की परवाह नहीं करती और जन्म से मृत्यु पर्यंत कम-बढ़ मात्रा में सदैव बनी रहती है । प्राणशक्ति का एक-एक परमाणु अपने अंदर अनंत शक्ति का भंडार छिपाए बैठा है । इसका उपयोग करके मनुष्य देवताओंजैसे अद्भुत कार्य कर सकता है । प्राण की रोग निवारक शक्ति प्रसिद्ध है, यदि उसके अंदर यह गुण न होता, तो इतने विकारों सेभरे हुए संसार में एक क्षण भी नीरोग रहना कठिन होता । उस शक्तिको यदि ठीक प्रकार से काम में लाने की विधि जान ली जाए तो नकेवल स्वयं नीरोग रहें, वरन दूसरों को भी रोग मुक्त कर सकते हैं । इस पुस्तक में कुछ ऐसी ही विधियाँ बताई गई हैं, जिनके द्वारा तुम अपने पीड़ित भाइयों को रोग मुक्त करके उनकी सेवा-सहायता करते हुए अपने जीवन को सफल बना सकते हो । जब तुम इनका प्रयोग करोगे, तो हमारी ही तरह इनकी अव्यर्थता पर श्रद्धा करने लगोगे । 

 

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The Secret Of A Healthy Life

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=204Good health and ability for proper understanding—both these are the best blessings in life.

Good health is closely related to proper understanding. It is said that a stable mind resides in a healthy body. The mind, thoughts and understanding of a person having indifferent health will never be mature. One can judge a man from the status of his health. People with good moral conduct are healthy, strong and free from diseases. They always have a smiling face. These people have some sort of a magnetism so that everyone wishes to talk to them, make friends with them and always be with them. 

 

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Pragya Yoga For Happy And Healthy Life

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=235Our sagacious ancestors of the Vedic Age had gifted with precious heritage of the yoga-science of well-being. However, with changing civilizations and attitudes towards life, in the course of time, people largely became materialistic and ignored the ancient sciences. Subsequent single-tracked commercialized civilization and inclination towards bodily comforts and sensual pressures has raised several problems in the present times. One is so busy making money and seeking more and more comforts that one tends to neglect the fact that the mind-body system is also like a machine, which needs careful maintenance and "re-charging" of its components and power units. As a result, one is facing unprecedented threats and challenges on the health front. Preventive measures and augmentation of stamina and resistance are crucial if one wants to sustain a healthy and hearty life. Revival of sound practice of yoga therefore assumes greater relevance and importance today than ever before. This book introduces the real meaning and scope of yoga and presents a new method of practicing it for strengthening and rejuvenation of body and mind. The method named "Pragya Yoga" is fast and feasible, yet, comprehensive-in-effect. It can be practiced by people of all age groups without any cost or time constraints. 

 

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Wednesday 25 January 2017

मसाला वाटिका से घरेलू उपचार

• मसाला वाटिका से घरेलू उपचार
http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=546• राई
• हल्दी
• अदरक
• सौंफ
• मेथी
• जीरा
• मिर्च
• पुदीना
• पिप्पली
• गिलोय
• तुलसी
• अजवायन
• धनिया
• टमाटर
• लहसुन
• ग्वारपाठा (घृतकुमारी)
• प्याज
• आँवला
• सुहागा
• हींग
• काला नमक
• लौंग
• तेजपत्रक
• दालचीनी


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बिना औषधियों के कायाकल्प

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=544• पीछे की ओर लौटो
• उत्तम स्वास्थ्य के चार सूत्र
• कमजोरी और बीमारी का कारण
• कलपुर्जों की सफाई
• शरीर शुद्धि और कायाकल्प


















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प्रायोगिक वनौषधि-विज्ञान

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=871जिस भोगवादी युग में आज हम जी रहे हैं, मनुष्य का रोगी होना स्वाभाविक है ।। कभी व्यक्ति नैसर्गिक जीवन जीता था, प्रकृति के साहचर्य में परिश्रम से युक्त जीवनचर्या अपनाता था, रोगमुक्त जीवन एक सामान्य बात मानी जाती थी ।। रोजमर्रा की जिन्दगी में तब ऐसे तत्त्वों का समावेश था, जिनसे व्यक्ति के जीवन का उल्लास सहज ही अभिव्यक्त होता था ।। हमारी संस्कृति में प्रत्येक दिन एक पर्व- त्यौहार के रूप में माना जाता रहा है ।। इसी कारण आनंद हर क्षण झरता रहता था ।। यही कारण था कि मानव तनाव ग्रस्त भी नहीं होता था ।। आज की जीवन पद्धति दूषित, असांस्कृतिक कृत्रिम एवं यांत्रिकता से युक्त है ।। जीने की शैली आधुनिकता के साधनों के बाहुल्य के कारण कुछ ऐसी हो गयी है कि उसमें शरीर को श्रम अधिक नहीं करना पड़ता- मन कुछ जरूरत से ज्यादा ही तनाव से युक्त रहता है एवं यह एक वास्तविकता है कि बहुत से व्यक्ति जीवन जीने की कला से परिचित नहीं हैं ।। यही कारण है कि ये अनगढ़ की तरह जीवन जीते देखे जाते हैं एवं अकारण रोगों के शिकार हो संश्लेषित पद्धति पर आधारित आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के शिकार हो कर धन तो गँवाते ही हैं, साथ ही स्वास्थ्य जैसी अमूल्य निधि भी गँवा बैठते हैं ।।

परम पूज्य गुरुदेव ने " आयुर्वेद " को अपने मूल रूप में पुनर्जीवित कर इसे सार्वजनीन - सर्वसुलभ बनाया है ।। आयुर्वेद आयुष्य को नीरोग रूप में दीर्घ बनाए रखने का विज्ञान है।। यह आहार- विहार के नियमों- उपनियमों से लेकर अपनी प्राकृतिक रूप में पायी जाने वाली वनौषधियों द्वारा रोगों के मूल तक पहुँचकर उनकी चिकित्सा करना सिखाता है ।। 

 

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जडी़-बूटियों की व्यवसायिक खेती

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=882युग निर्माण अभियान के जनक वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने किसी संदर्भ में कहा था- “जड़ी-बूटियाँ देश को स्वास्थ्य और सम्पन्नता दोनों दे सकती हैं ।“ उस समय उनके कथन की गहराई भले ही समझ में न आयी हो, वर्तमान परिस्थितियों की समीक्षा करने से यह बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ में आने लगी है ।

जैसे-

1.लगता है प्रकृति ने जड़ी-बूटियों के गुणों को नये सिरे से उकेरना-उभारना शुरू कर दिया है । एलोपैथी जैसी स्थापित उपचार पद्धतियों के मुकाबले भी जड़ी-बूटी चिकित्सा अपना महत्त्व स्थापित करती जा रही है ।

2.जन सामान्य से लेकर प्रबुद्धों और सम्पन्नों में जड़ीबूटी आधारित उत्पादों के प्रति अभिरुचि बढ़ रही है । विशेषज्ञ और चिकित्सक वर्ग भी अनेकों शोध-प्रयोग करके जड़ी-बूटी आधारित नये-नये उत्पाद उपलब्ध करा रहा है ।

3.जडी़-बूटियों की बढ़ती निर्विवाद उपयोगिता के कारण उनकी कीमतें राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में काफी ऊँची हो गयी है । 

 

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जडी-बूटियो द्वारा स्वास्थ्य संरक्षण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=529जड़ी- बूटी चिकित्सा

युग की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता

आज सभ्यता की घुड़दौड़- आपाधापी ने मनुष्य को स्वास्थ्य के विषय में इस सीमा तक परावलंबी बना दिया है कि वह प्राकृतिक जीवनक्रम ही भुला बैठा है ।। फलत: आए दिन रोग- शोकों के विग्रह खड़े होते रहते हैं व छोटी- छोटी व्याधियों के नाम पर अनाप- शनाप धन नष्ट होता रहता है ।। मनुष्य अंदर से खोखला होता चला जा रहा है ।। जीवनीशक्ति का चारों ओर अभाव नजर आता है ।। मौसम में आए दिन होते रहने वाले परिवर्तन उसे व्याधिग्रस्त कर देते हैं, जबकि यही मनुष्य २५ वर्ष पूर्व तक इन्हीं का सामना भलीभाति कर लेता था ।। आज शताधिकों की संख्या उंगलियों पर गिनने योग्य है ।। जबकि हमारे पूर्वज कई वर्षो तक जीवित रहते थे, उनके पराक्रमों की गाथाएँ सुनकर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं ।।

आहार- विहार में समाविष्ट कृत्रिमता ने जिस प्रकार जिस सीमा तक शरीर के अंग- अवयवों को अपंग- असमर्थ बनाया, उसी प्रकार चिकित्सा क्रम भी बनते चले गए ।। पूर्वकाल में आयुर्वेद ही स्वास्थ्य संरक्षण का एकमात्र माध्यम था ।। धीरे- धीरे वृहत्तर भारत में समाविष्ट अन्य संस्कृतियों के साथ यहाँ अन्य पैथियां भी आई और आज चिकित्सा के नाम पर ढेरों पद्धतियाँ प्रयुक्त होती हैं ।। 

 

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Monday 23 January 2017

जडी बूटी चिकित्सा एक संदर्शिका

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=530प्रकृति ने मनुष्य के लिए हर वस्तु उत्पन्न की है । औषधि उपचार के लिए जड़ी-बूटियों भी प्रदान की हैं । इस आधार पर चिकित्सा को सर्वसुलभ, प्रतिक्रियाहीन तथा सस्ता बनाया जा सकता है । जड़ी-बूटी चिकित्सा बदनाम इसलिए हुई कि उसकी पहचान भुला दी गई-विज्ञान झुठला दिया गया । सही जड़ी-बूटी उपयुक्त क्षेत्र से, उपयुक्त मौसम में एकत्र की जाए उसे सही ढंग सें रखा और प्रयुक्त किया जाए तो, आज भी उनका चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है ।

युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के आशीर्वाद से, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने इस दिशा में सफल शोध-प्रयोग किए हैं । गिनी-चुनी जड़ी-बूटियों से लगभग ८० प्रतिशत रोगों का उपचार सहज ही किया जा सकता है । ऐसी सरल, सुगम, सस्ती परंतु प्रभावशाली चिकित्सा-पद्धति जन-जन तक पहुँचाने के लिए यह पुस्तक प्रकाशित की गई है । जड़ी-बूटियों की पहचान, गुण, उपयोग- विधि सभी स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया गया है ।

इस पुस्तक में ऐसी जडी़-बूटियों को प्राथमिकता दी गई है, जो भारत में अधिकांश क्षेत्रों में पाई जाती हैं अथवा उगाई जा सकती हैं । आचार्यवर की इच्छा है कि यह विधा विकसित हो और रोग निवारण के साथ-साथ जन-जन को प्राण शक्ति संवर्द्धन का लाभ भी प्राप्त हो । ऋषियों द्वारा विकसित इस विधा का लाभ पुन: जन-जन को मिले । 

 

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आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

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जीवन रोगों के भार और मार से बुरी तरह टूट गया है ।। जब तन के साथ मन भी रोगी हो गया हो, तो इन दोनों के योगफल के रूप में जीवन का यह बुरा हाल भला क्यों न होगा ? ऐसा नहीं है कि चिकित्सा की कोशिशें नहीं हो रही ।। चिकित्सा तंत्र का विस्तार भी बहुत है और चिकित्सकों की भीड़ भी भारी है ।। पर समझ सही नहीं है ।। जो तन को समझते हैं, वे मन के दर्द को दरकिनार करते हैं ।। और जो मन की बात सुनते हैं, उन्हें तन की पीड़ा समझ नहीं आती ।। चिकित्सकों के इसी द्वन्द्व के कारण तन और मन को जोड़ने वाली प्राणों की डोर कमजोर पड़ गयी है ।।

पीड़ा बढ़ती जा रही है, पर कारगर दवा नहीं जुट रही ।। जो दवा ढूँढी जाती है, वही नया दर्द बढ़ा देती है ।। प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में से प्राय: हर एक का यही हाल है ।। यही वजह है कि चिकित्सा की वैकल्पिक विधियों की ओर सभी का ध्यान गया है ।। लेकिन एक बात जिसे चिकित्सा विशेषज्ञों को समझना चाहिए उसे नहीं समझा गया ।। समझदारों की यही नासमझी सारी आफतो- मुसीबतों की जड़ है ।। यह नासमझी की बात सिर्फ इतनी है कि जब तक जिन्दगी को सही तरह से नहीं समझा जाता, तब तक उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा भी नहीं की जा सकती ।। 


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स्वस्थ रहना है तो ये खाइए!

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=94हमारे जीवन का आधार जिन बातों पर है, उनमें आहार का स्थान प्रमुख है ।। वैसे हम वायु के बिना पाँच मिनट भी नहीं जी सकते; जल के बिना भी दो- चार दिन तक जीवन धारण कर सकना कठिन हो जाता है, तो भी इनकी प्राप्ति में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता न होने से उनके महत्त्व की तरफ हमारा ध्यान प्राय: नहीं जाता ।। पर आहार की स्थिति इससे भिन्न है  ।। यदि यह कहें कि अनेक मनुष्यों का जीवनोद्देश्य केवल आहार प्राप्त करना ही होता है और उनकी समस्त गतिविधियाँ केवल भोजन की व्यवस्था पर ही केंद्रित रहती हैं, तो इसमें कुछ भी गलती नहीं ।। सामान्य मनुष्य के लिए संसार में सबसे प्रथम और सबसे बड़ी आवश्यकता आहार की ही जान पड़ती है और महान से महान व्यक्ति को भी उसकी तरफ कुछ ध्यान देना ही पड़ता है ।। इस प्रकार आहार समस्या से हमारा संबंध बड़ा घनिष्ठ है ।। पर ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय में भी सर्वसाधारण की जानकारी अत्यंत कम है ।। लोग अपनी रुचि का भोजन पा जाने से संतुष्ट हो जाते हैं अथवा परिस्थितिवश जो कुछ खाद्य पदार्थ मिल जाए उसी से काम चलाने का प्रयत्न करते हैं ।। पर वह भोजन हमारे लिए वास्तव में कितना अनुकूल और उपयोगी है? उससे जीवन- तत्त्वों की कहाँ तक उपलब्धि हो सकती है? हमारे देह और मन के विकास के लिए वह कितना लाभदायक है? 

 

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स्वस्थ और सुंदर बनने की विद्या

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=139यह अच्छी तरह अनुभव कर लिया गया है कि खिलखिलाकर हँसने से अच्छी भूख लगती है, पाचनशक्ति बढ़ती है और रक्त का संचार ठीक गति से होता है ।। क्षय जैसे भयंकर रोगों में हँसना अमृत- तुल्य गुणकारी सिद्ध हुआ है ।। खिल- खिलाकर हँसने से मुँह, गरदन, छाती और उदर के बहुत उपयोगी स्नायुओं को आवश्यकीय कसरत करनी पड़ती है, जिससे वे प्रफुल्लित और दृढ़ बनते हैं ।। इसी तरह मांसपेशियों, ज्ञानतंतुओं और दूसरी आवश्यक नाड़ियों को हँसने से बहुत दृढ़ता मिलती है ।। हँसने का मुँह, गाल और जबड़े पर बड़ा अच्छा असर पड़ता है ।। मुँह की मांसपेशियों और नसों का यह सबसे अच्छा व्यायाम है ।। जिन्हें हँसने की आदत होती है, उनके गाल सुंदर, गोल और चमकीले रहते हैं ।। फेफड़ों के छोटे- छोटे भागों में अकसर पुरानी हवा भरी रहती है, आराम की साँस लेने से बहुत- थोड़ी वायु फेफड़ों में जाती है और प्रमुख भागों में ही हवा का आदान- प्रदान होता है, शेष भाग यों ही सुस्त और निकम्मा पड़ा रहता है, जिससे फेफड़े संबंधी कई रोग होने की आशंका रहती है, किंतु जिस समय मनुष्य खिल- खिलाकर हँसता है, उस समय फेफड़ों में भरी हुई पहले की हवा पूरी तरह बाहर निकल जाती है और उसके स्थान पर नई हवा पहुँचती है ।। मुँह की रसवाहिनी गिलटियाँ हँसने से चैतन्य होकर पूरी मात्रा में लार बहाने लगती हैं।। पाठक यह जानते ही होंगे कि भोजन में पूरी मात्रा में लार मिल जाने पर उसका पचना कितना आसान होता है? जो आदमी स्वस्थ रहना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि हँसने की आदत डालें । 

 

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दीर्घ जीवन की प्राप्ति

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=131प्रगति करें, समृद्धि प्राप्त करें किंतु मानसिक शांति, प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता गँवाकर, इसे कैसे बुद्धिमत्ता प्रगतिशीलता कहा जाएगा? साधनों को अत्यधिक महत्त्व देकर साध्य को भुला दिया जाए यह दृष्टिकोण विवेकयुक्त नहीं कहा जा सकता। मन की सुख- शांति प्रगति का वास्तविक लक्ष्य है । यह न पूरा हुआ तो समृद्धि का प्रयोजन क्या रहा? निस्संदेह इसे एक दिशाविहीन अंधी दौड़ कहना ही अधिक उपयुक्त होगा।

इन दिनों वैज्ञानिक एवं आर्थिक क्षेत्रों की प्रगति पर सभी का ध्यान है और उनमें उत्साहवर्द्धक प्रगति भी हो रही है । सभ्यता की भी बहुत चर्चा है । जीवन स्तर बढ़ रहा है । इस बढ़ोत्तरी का तात्पर्य है अधिक सज- धज और सुख- सुविधा के साधनों का विस्तार । विलासी साधनों के नए- नए उपकरण बनते और बढ़ते जा रहे हैं ।

इस प्रगतिशीलता के साथ जुड़ा हुआ एक दु:खदायी पक्ष भी है, जिसे आधि-व्याधियों की अभिवृद्धि कहा जा सकता है। लोग शारीरिक दृष्टि से अस्वस्थ और मानसिक दृष्टि से असंतुलित होते चले जा रहे है और इस दिशा मे प्रगति उन सब क्षेत्रों की तुलना मे कहीं अधिक द्रुतगति से हो रही है, जिन्है अपने समय की सफलताएँ कहकर गर्व किया जाता है। 

 

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श्वास-प्रश्वास-विज्ञान

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=134श्वास सही तरीके से लीजिए

हमारा शरीर पंचतत्त्वों से मिलकर बना है ।। साधारण दृष्टि से देखने पर मिट्टी, जल, वायु आदि तत्त्व सर्वथा जड़ पदार्थ प्रतीत होते हैं, पर इन्हीं के विधिपूर्वक मिला दिए जाने से मानव देह जैसे अद्भुत क्रियाशील और क्षमतायुक्त यंत्र का निर्माण हो जाता है ।। सामान्य रीति से देखने पर हमें लाखों मन मिट्टी के ढेर चारों तरफ पड़े दिखलाई देते हैं, जल की अनंत राशि भी कुएँ तालाब, नदी, समुद्र आदि में भरी हुई है ।। वायु रात- दिन हमारे इर्द- गिर्द छोटे से छोटे स्थान में भी व्याप्त रहती ही है ।। बाह्य रूप में हमको इनमें कोई ऐसी विशेषता या शक्ति नहीं दिखलाई पड़ती कि जिससे यह अनुमान किया जा सके कि हमारा यह महान शक्तियों से संपन्न अस्थि, मांस, रक्त, नाडियाँं, स्नायु पाचनसंस्थान, श्वास यंत्र, मस्तिष्क आदि से युक्त शरीर इन तुच्छ- सा मालूम देने वाले पदार्थों के संयोग से निर्मित हुआ होगा ।। पर वास्तविकता यही है कि मानव शरीर ही नहीं, हाथी जैसे विशाल प्राणी से लेकर चींटी तक की देह की रचना पंचतत्त्वों के संयोग से ही हुई है और जब तक वह जीवित रहते हैं तब तक इन्हीं तत्त्वों से पोषण और शक्ति प्राप्त होती रहती है ।। 

 

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स्वस्थ रहने की कला

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=91मनुष्य की काय संरचना ऐसी है, जिसे यदि तोड़ा-मरोड़ा न जाए, सहज गति से चलने दिया जाए तो वह लंबे समय तक बिना लड़खड़ाए कारगर बनी रह सकती है ।आरोग्य स्वाभाविक है और रोग प्रयत्न पूर्वक आमंत्रित । सृष्टि के सभी प्राणी अपनी सहज आयु का उपभोग करते हैं । मरण तो सभी का निश्चित है, पर वह जीर्णता के चरम बिंदु पर पहुँचनेके उपरांत ही होता है । मात्र दुर्घटनाएँ ही कभी-कभी उसमें व्यवधान उत्पन्न करती हैं । रुग्णता का अस्तित्व उन प्राणियोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता, जो प्रकृति की प्रेरणा अपनाकर सहज सरल जीवन जीते हैं । मनुष्य ही इसका अपवाद है । इसी जीवधारी को आए दिन बीमारियों का सामना करना पड़ताहै । बेमौत मरते भी वही देखा जाता है । दुर्बलता, रुग्णता और असामयिक मृत्यु कोई दैवी विपत्तिनहीं है । मनुष्य द्वारा अपनाई गई रहन-सहन संबंधी प्रतिक्रिया मात्र है । आहार-विहार में संयम बरता जा सके और मस्तिष्कको अनावश्यक उत्तेजनाओं से बचाए रखा जा सके, तो लंबी अवधि तक सुखपूर्वक निरोगी जीवन जिया जा सकता है ।आरोग्य की उपलब्धि के लिए बहुमूल्य टॉनिकों या औषध-रसायनों को खोजने की तनिक भी आवश्यकता नहींहै । जो उपलब्ध है उसे बरबाद न करने की सावधानी भरबरती जाए, तो न बीमार पड़ना पड़े, न दुर्बल रहना पड़े औरन असमय बेमौत मरने की आवश्यकता पड़े । चिकित्सकों का द्वार खटखटाने की अपेक्षा आरोग्यार्थी यदि रहन-सहन में सम्मिलित कुचेष्टाओं को निरस्त कर सकें, तो यह उपाय उनकी मनोकामना सहज ही पूरी कर सकता है । 

 

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सूर्य चिकित्सा विज्ञान

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=252इस पुस्तक में सूर्य- किरणों की महत्ता बताई है और सूर्य- सेवन से स्वस्थ रहने पर जोर दिया गया है। साथ ही क्रोमोपैथिक साइंस के आधार पर रंगीन कांचों की सहायता से किरणों में से आवश्यक रंगों का प्रभाव लेकर उनके द्वारा रोग निवारण की विधि बताई गई है। इस चिकित्सा विधि से योरोप तथा अमेरिका में विगत ५० वर्षों से चिकित्सा हो रही है। वहाँ इस चिकित्सा विज्ञान में असाधारण सफलता प्राप्त हुई है। अब इसका प्रचार भारतवर्ष में भी हुआ है। जहँ- जहाँ इस पद्धति के अनुसार चिकित्सा की गई है। आशाजनक लाभ हुआ है।

सूर्यआत्मा जगस्तस्थुषश्च ।। यजु०७/४२

सूर्य संसार की आत्मा है। संसार का संपूर्ण भौतिक विकास सूर्य की सत्ता पर निर्भर है। सूर्य की शक्ति के बिना पौधे उग नहीं सकते, अण्डे नहीं बढ़ सकते, वायु का शोधन नहीं हो सकता, जल की उपलब्धि नहीं हो सकती अर्थात कुछ भी नहीं हो सकता। सूर्य की शक्ति के बिना हमारा जन्म होना तो दूर, इस पृथ्वी का जन्म भी न हुआ होता।

स्वस्थ जीवन बिताने के लिए सूर्य की सहायता लेने की हमें बड़ी आवश्यकता है। इस महत्व को समझ कर हमारे प्राचीन आचार्यों ने सूर्य प्राणायाम, सूर्य नमस्कार, सूर्य उपासना, सूर्य योग, सूर्य चक्रवेधन, सूर्य यज्ञ आदि अनेक क्रियाओं को धार्मिक स्थान दिया था। डा० सोले कहते हैं कि सूर्य में जितनी रोग नाशक शक्ति मौजूद है, उतनी संसार की किसी वस्तु में नहीं है। कैन्सर,नासूर और भगन्दर जैसे दुस्साध्य रोग जो बिजली और रेडियम के प्रयोग से भी ठीक नहीं किए जा सकते थे, वे सूर्य किरणों का प्रयोग करने से अच्छे हो गए। तपेदिक के डाक्टर हरनिच का कथन है कि पिछले तीस वर्षों में मैने करीब- करीब सभी प्रसिद्ध औषधियों को अपने चिकित्सालय में आए हुए प्राय: २२ हज़ार रोगियों पर अजमा डाला, पर मुझे उनमें से किसी पर भी पूर्ण संतोष न हुआ। 

 

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रोग - औषधि आहार- विहार एवं उपवास

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=140प्राकृतिक आहार- विहार के नियमों का पालन ठीक प्रकार किया जाए तो शरीर को निरोग एवं स्वस्थ बनाए रखा जा सकता है ।। आरोग्य को डगमगाने वाली छोटी- मोटी विकृतियों आती भी हैं तो भी शरीर के विभिन्न तंत्र उनके निष्कासन में समर्थ होते हैं ।। कभी- कभी तो वातावरण में हुए हेर- फेर से शरीर संस्थान में भी शोधन एवं बदली हुई परिस्थितियों से सामंजस्य का क्रम चलता है ।। ऐसे अवसरों पर उभरी हर छोटी- मोटी बीमारी के लिए एलोपैथिक दवाओं की शरण में जाना स्वास्थ्य के लिए अहितकर होता है ।। प्रकट हुए रोग दवाओं के सेवन से दब तो जाते हैं किंतु दूसरे नए प्रकार के रोग प्रतिक्रियास्वरूप परिलक्षित होने लगते हैं ।।

न्यूजीलैंड के एक प्रसिद्ध प्राकृतिक चिकित्सक उलरिक विलियम ने लिखा है- आधुनिक चिकित्सा विज्ञान और कुछ नहीं, केवल नई बीमारी को पुरानी में बदल देने का, एक को दूसरी में परिणत कर देने का गोरखधंधा है ।। नासमझी के कारण भोले लोग इस जाल में फँस जाते हैं और क्षणिक लाभ का चमत्कार पाने के लालच में चिरस्थायी बीमारियों के शिकार बन जाते हैं ।। 

 

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Sunday 22 January 2017

निदान चिकित्सा

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=136योग्य द्रव्यों और योग्य क्रमों को अपनाकर चिकित्सा देने पर रोगी रोगमुक्त हो स्वस्थ हो जाता है, अर्थात् चिकित्सा का उद्देश्य पूर्ण हो पाता है ।

चिकित्सक को निदान शास्त्र एवं चिकित्सा विज्ञान का आयुर्वेद परख ज्ञान हो तो आयुर्वेदिक चिकित्सा देने में सरलता हो जाती है । इस उद्देश्य की आंशिक पूर्ति हो सके इस हेतु से, उपर्युक्त सूत्रों को ध्यान में रखते हुए, प्रस्तुत पुस्तक में शरीरस्थं विविध संस्थानों की रचना, क्रिया तथा तज्जन्य मुख्य रोगों का परिचय देते हुए, उनकी चिकित्सा का समयानुरूप संक्षिप्त विवरण देने का प्रयास किया गया है ।

निदान से चिकित्सा के शिखर तक पहुँचाने में यह पुस्तक प्रथम सोपान का काम कर सकेगी, जिससे आगे बढ़ते हुए, भविष्य में चिकित्सा का अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में जिज्ञासु सफल हो सकें ।

इसी आशा और विश्वास से इसका अनुशीलन करने वाले अवश्य लाभान्वित होंगे । योग्य परामर्श की अपेक्षा रखते हुए उन सभी लेखकों का हृदय से आभारी हूँ जिनकी पुस्तकों या लेखों से इन पुस्तक के लेखन कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ है ।

 

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तुलसी के चमत्कारी गुण

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=92जब से संसार में सभ्यता का उदय हुआ है, मनुष्य रोग और औषधि इन दोनों शब्दों को सुनते आए हैं । जब हम किसी शारीरिक कष्ट का अनुभव करते हैं तभी हम को औषधि की याद आ जातीहै, पर आजकल औषधि को हम जिस प्रकार टेबलेट , मिक्चर , इंजेक्शन , कैप्सूल आदि नए-नए रूपों में देखते हैं, वैसी बातपुराने समय में न थी । उस समय सामान्य वनस्पतियाँ और कुछ जड़ी-बूटियाँ ही स्वाभाविक रूप में औषधि का काम देती थीं औरउन्हीं से बड़े-बड़े रोग शीघ्र निर्मूल हो जाते थे, तुलसी भी उसी प्रकार की औषधियों में से एक थी ।

जब तुलसी के निरंतर प्रयोग से ऋषियों ने यह अनुभव किया कि यह वनस्पति एक नहीं सैकड़ों छोटे -बड़े रोगों मेंलाभ पहुँचाती है और इसके द्वारा आस पास का वातावरण भी शुद्ध और स्वास्थ्यप्रद रहता है तो उन्होंने विभिन्न प्रकार से इसके प्रचारका प्रयत्न किया। उन्होंने प्रत्येक घर में तुलसी का कम से कमएक पौधा लगाना और अच्छी तरह से देखभाल करते रहना धर्म कर्त्तव्य बतलाया । खास-खास धार्मिक स्थानों पर तुलसी कानन बनाने की भी उन्होंने सलाह दी, जिसका प्रभाव दूर तक के वातावरण पर पड़े ।

धीरे- धीरे तुलसी के स्वास्थ्य प्रदायक गुणों और सात्विक प्रभाव के कारण उसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग उसेभक्ति भाव की दृष्टि से देखने लगे, उसे पूज्य माना जाने लगा । 

 

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Old And New Herbal Remedies

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=323Yoga and Herbal Therapy have become subject matters of common curiosity and pursuit for those caring for sustenance of good health by inexpensive and natural means and also for those who have suffered side-effects of antibiotics or in general, the lacunae of modern science of medicine. While a lot of training courses and dedicated schools on yoga are helping people across the globe, the scientific testing and implementation of herbal therapies are still confined to research labs and few pharmaceutical companies. Ayurveda is known to be the origin of herbal therapeutic science. Most importantly, the fact that its prescription is risk-free and does not generate any negative or suppressive effects on other kinds of medicaments or modes of treatments that might be used simultaneously makes it an excellent complementary mode of healing.

More and more people are getting interested these days in knowing about easy but effective modes of herbal remedies these days. Our major objective in presenting this new book on herbal remedies is to provide useful, authentic and innovative information in this direction. The main focus is laid on the use of Himalayan herbal medicines based on first of its land research carried out at the Brahmvarchas Research Center, Shantikunj, Hardwar (India). Thousands of people have been benefited from this therapy and got rid of diseases of different types and severity. Rare knowledge from the scriptures will be presented here. 

 

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Friday 20 January 2017

स्वस्थ रहने के सरल उपाय

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=132हम खाना क्यों खाते है?

जब से हम जन्म लेते हैं शरीर को शक्ति की आवश्यकता होती है ।। शक्ति के दो प्रमुख स्रोत हैं- १ .नींद २. भोजन

 नींद तो अनिवार्यत: सब को लेनी ही पड़ती है ।। एक दो दिन भी कम हो गई तो शरीर हाथ के हाथ उसको पूरा करने को मजबुर होता है ।।

भोजन हम दो कारणों से करते हैं- १. शक्ति के लिये २. स्वाद के लिये

आरम्भ से ही शक्ति और स्वाद में कुश्ती चलती है और देखा यह गया है कि इस कुश्ती में स्वाद जीतता है और शक्ति पीछे रह जाती है ।। कई चीजें तो हम -केवल इसीलिये खा- पी लेते हैं कि वे स्वादिष्ट लगती हैं चाहे उनमें शक्ति है या नहीं या चाहे वे अंतत: नुकसान ही करें ।

कहने को तो कहते हैं कि ' हम जीने के लिये खाते हैं ' पर वस्तुत: यह पाया जाता है कि ' हम खाने के लिये जीते हैं '।

हम खाना पका कर क्यों खाते हैं?

यों तो हम कहते हैं कि खाने की वस्तुओं में कई कीड़े इत्यादि रहने हैं अत: हम पकाकर खाते हैं, पर मुख्यत: स्वाद के लिए ही पकाकर खाते हैं ।। यद्यपि हम जानते हैं कि पकाने से भोजन की पौष्टिकता निश्चित रूप से कम हो जाती है, फिर भी स्वाद व सुविधा के लिए हम पका कर ही खाना खाते हैं ।। 

 

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सम्रग स्वास्थ्य संवर्द्धन कैसे ?


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=88अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी समझ जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं ।। संसार के सारे कार्य स्वास्थ्य पर निर्भर हैं ।। जिस काम के करने में किसी प्रकार की तकलीफ न हो, श्रम से जी न उकताए, मन में काम करने के प्रति उत्साह बना रहे और मन प्रसन्न रहे और मुख पर आशा की झलक हो, यही शरीर के स्वाभाविक स्वास्थ्य की पहचान है ।। स्वाभाविक दशा में बिना किसी प्रकार की कठिनाई के साँस ले सके, आँख की ज्योति और श्रवण शक्ति ठीक हो, फेफड़े ठीक- ठीक आँक्सीजन को लेकर कार्बन डाइआक्साइड को बाहर निकालते हों, आदमी के सभी निकास के मार्ग- त्वचा, गुदा, फेफड़े ठीक अपने कार्य को करते हों, वह व्यक्ति पूर्णतया स्वस्थ है ।। हम सभी लोग जानते हैं कि ऐसा आदमी ही बीमार पड़ता है जिसका जीवन नियमित नहीं है और प्रकृति के साथ पूरा- पूरा सहयोग नहीं कर रहा है ।। हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है ।। ये चौबीस घंटे सोते- जागते हमारे लिए काम करता है ।। वफादार सेवक को समर्थ निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्त्तव्य है ।। केवल स्वस्थ व्यक्ति ही धनोपार्जन, सामाजिक, नैतिक, वैयक्तिक सब कर्त्तव्यों का पालन कर सकता है ।। जिसका स्वास्थ्य अच्छा है उसमें प्राण शक्ति अधिक होती है जिसके कारण सुख- शांति का अक्षय भंडार उसे प्राप्त होता है ।। स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना आवश्यक होता है ।। आदतों और दिनचर्या का स्वास्थ्य से घनिष्ठ संबंध है ।।


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यज्ञ एक समग्र उपचार प्रक्रिया- 26

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=264यज्ञ- प्रक्रिया को अपने संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित कर वाड्मय के इस खण्ड में परमपूज्य गुरुदेव ने बड़े विस्तार से यज्ञोपचार की प्रक्रिया की व्याख्या की है ।। यज्ञ एक सर्वांगपूर्ण उपचार पद्धति है- पर्यावरण संशोधन के लिए, सूक्ष्म जगत में संव्याप्त प्रदूषण मिटाने के लिए तथा मानव की स्थूल- सूक्ष्म हर स्तर पर चिकित्सा करने के लिए ।। सविता देवता की उपासना गायत्री महामंत्र का प्राण है एवं उसी सविता को समर्पित आहुतियाँ किस प्रकार अपनी मंत्र शक्ति एवं यज्ञ ऊर्जा के समन्वित स्वरूप के माध्यम से होता को लाभ पहुँचाती है, यही यज्ञोपचार प्रक्रिया है ।। आत्मसत्ता पर छाये कषाय- कल्मषों की सफाई से लेकर- गुणसूत्रों, क्रोमोसोम्स जीन्स तक पर यज्ञ प्रक्रिया प्रभाव डालती है एवं इसमें किस प्रकार यज्ञ कुण्ड एक यंत्र की भूमिका निभाकर वृहत सोम के अवतरण द्वारा सोम की- पर्जन्य की वर्षा में एक महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, इसका वैज्ञानिक आधार क्या है, ज्यामिती किस प्रकार यज्ञधूम्रों की बहुलीकरण प्रक्रिया को प्रभावित करती है, यह सारा प्रतिपादन इस खण्ड में हुआ है ।।

यज्ञाग्नि व सामान्य अग्नि में अन्तर है ।। परमपूज्य गुरुदेव ने "यज्ञोपैथी" के नाम से एक नूतन चिकित्सा पद्धति जो भविष्य की उपचार पद्धति बनने जा रही है, को जन्म देकर वस्तुत: वैदिक विज्ञान के मूल आधार को पुनर्जीवित किया है ।। यज्ञों से रोग निवारण में समिधाओं, शाकल्य तथा मंत्रों का चयन कैसे किया जाता है, यह पूरी प्रक्रिया अपने में एक समग्र विज्ञान है ।। परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि पृथ्वी तत्त्व का पंचभूतों से बनी इस काया में प्राधान्य है तथा पृथ्वी सदा वायु से गंधों का शोषण करती रहती है ।। 

 

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Diagnose, Cure And Empower Yourself By Currents Of Breath

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=325Swara Yoga refers to an Independent and complete in Itself branch of yoga. It deals with the physiological, psychological and spiritual aspects of the rhythmic notes of breathing and the associated flow of bio-electrical currents and prana (vital spiritual energy). The preeminent science (swara-vijnana) of this powerful yoga was derived by the Vedic Sages, whose enlightened acumen had a reach into the deepest depths of perceivable and sublime components of Nature and the diverse forms of life manifested in it…..

 

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Applied Science Of Yagya For Health And Environment

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=316Yagya-therapy is an ancient method of herbal/plant medicinal treatment derived from the. Vedic texts. In yagya natural herbal/plant products are processed in fire and medicinal vapors, gases and photo chemicals are released. It is basically an inhalation therapy that promises wider healing applications without any risk, of side effects or drug-resistance. It is cost effective and natural and provides added benefits of purifying the environment and balancing the Eco-system.

This book aims to introduce the readers to the ancient knowledge and modern scientific findings on yagya (fire-ritual) with special focus on preventive and therapeutic applications for holistic healthcare. It also presents detailed information and guidelines for yagya-threapy of several diseases and disorders — including the dreaded ones like Cancer and AIDS — that have challenged the world today.

Yagya Therapy –The key to Holistic Health

Yagya Therapy is an ethno-botanical inhalation therapy derived from the ancient Medical Science of India, The multiple benefits of yagya experiments include purification of atmospheric environment and healthy fertilization of the soil. Scientific validity and technical evaluation of this Vedic ritual in recent times indicate its enormous potential for reducing air-water pollution and for agricultural and therapeutic applications. 

 

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योग चिकित्सा संदर्शिका

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=137प्रस्तुत पुस्तक को सरल व व्यावहारिक बनाने के लिए दो खण्डों में विभक्त किया गया है । पहला खण्ड विभिन्न व्याधियों के निवारण एवं भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के लिए लाभदायी अभ्यासों का संकलन प्रस्तुत करता है । दूसरे खण्ड में योगाभ्यास की संक्षिप्त जानकारी, क्रिया-विधि एवं सामान्य दिशा-निर्देश है ।

 

 

 

 

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चिकित्सा उपचार के विविध आयाम-४०

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=401परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के प्रारंभ में ही स्वास्थ्य रक्षा के चौबीस स्वर्णिम सूत्र देते हुए लिखा है कि बिना प्राकृतिक संतुलन से भरा जीवन अपनाए मनःस्थिति ठीक किए व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता । औषधियाँ-सर्जरी आदि बाह्योपचार व्यर्थ हैं, यदि मूल जड़ को नष्ट नहीं किया गया । इसमें उनने आठ आहार संबंधी दस विहार संबंधी छह मनःसंतुलन संबंधी अनुशासन दिए हैं व लिखा है कि इनका अनुपालन करने वाला कभी बीमार हो ही नहीं सकता । आरोग्य को स्वाभाविक व दुर्बलता-रुग्णता को अस्वाभाविक मानते हुए उनने स्वास्थ्य-रक्षा हेतु अनेकानेक निर्देशों द्वारा बहुमूल्य मार्गदर्शन किया है ।


आज के व्यक्ति का जीवन आरामतलबी का है । उपकरणों-मशीनों, घर-घर में उपलब्ध संसाधनों ने व्यक्ति को मशीनों का गुलाम बना दिया है । ऐसे में स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनने शरीर पर बहुत अधिक दबाव डालने या थकाने वाले व्यायामों की तुलना शरीर की सूक्ष्म चक्र-उपत्यिकाओं को प्रभावित, उत्तेजित कर स्कूर्ति लाने वाले आसनों को अपनाने पर जोर दिया है । आसन अनेकानेक हैं, किंतु विभिन्न आयु वर्गों के लिए जिन्हें चुना जाए-कौन सा किस रोग की रक्षा के लिए किन अंगों के सूक्ष्म संचालन हेतु प्रयुक्त होता है, उसका सरल मार्गदर्शन इस खंड में है । इसी तरह प्राणायाम को विभिन्न मनोरोगों को दूर करने, तनाव मिटाने, चिरस्थायी प्राणशक्ति का स्रोत बनाए रखने के लिए कैसे प्रयुक्त किया जा सकता है, यह वर्णन विस्तार से इसमें है । प्राणों का व्यायाम-प्राणों के आयाम में प्रवेश ही प्राणायाम है । प्राणतत्त्व की अभिवृद्धि, कौन-कौन से प्राणायाम व्याधि-निवारण हेतु उपयुक्त हैं, उन सभी का दिग्दर्शन इसमें है । 


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निरोग जीवन का राजमार्ग

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=89प्रकृति के विशाल प्रांगण में नाना जीव-जंतु, जलचर, थलचर और नभचर हैं । प्रत्येक का शरीर जटिलताओं से परिपूर्ण है, उसमें अपनी-अपनी विशेषताएँ और योग्यताएँ हैं, जिनके बल पर वे पुष्पित एव फलित होते हैं, यौवन और बुढ़ापा पाते हैं, जीवन का पूर्ण सुख प्राप्त करते हैं । पृथ्वी पर रहने वाले पशुओं का अध्ययन कीजिए । गाय, भैंस, बकरी, भेड़, घोडा, कुत्ता, बिल्ली, ऊँट इत्यादि जानवर अधिकतर प्रकृति के साहचर्य में रहते है, उनका भोजन सरल और स्वाभाविक रहता है, खानपान तथा विहार में संयम रहता है । घास या पेड- पौधों की हरी, ताजी पत्तियाँ या फल इत्यादि उनकी सुधा निवारण करते हैं । सरिताओं और तालाबों के जल से वे अपनी तृषा का निवारण करते हैं, ऋतुकाल में विहार करते हैं । प्रकृति स्वयं उन्हें काल और ऋतु के अनुसार कुछ गुप्त आदेश दिया करती है, उनकी स्वयं की वृत्तियाँ स्वयं उन्हें आरोग्य की ओर अग्रसर करती रहती हैं । उन्हें ठीक मार्ग पर रखने वाली प्रकृति माता ही है । यदि कभी किसी कारण से वे अस्वस्थ हो भी जाय तो प्रकृति स्वयं अपने आप उनका उपचार भी करने लगती है । कभी पेट के विश्राम द्वारा, कभी धूप, मालिश, रगड़, मिट्टी के प्रयोग, उपवास द्वारा, कभी ब्रह्मचर्य द्वारा, किसी न किसी प्रकार जीव- जंतु स्वयं ही स्वास्थ्य की ओर जाया करते हैं । पक्षियों को देखिये । ससांर में असंख्य पक्षी हैं । 

 

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