Tuesday 28 June 2016

ऋषि चितंन के सान्निध्य में -1

Preface

उठो! हिम्मत करो स्मरण रखिए रुकावटें और कठिनाइयाँ आपकी हितचिंतक हैं । वे आपकी शक्तियों का ठीक-ठीक उपयोग सिखाने के लिए हैं । वे मार्ग के कंटक हटाने के लिए हैं । वे आपके जीवन को आनंदमय बनाने के लिए हैं । जिनके रास्ते में रुकावटें नहीं पड़ी, वे जीवन का आनंद ही नहीं जानते । उनको जिंदगी का स्वाद ही नहीं आया । जीवन का रस उन्होंने ही चखा है, जिनके रास्ते में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आई हैं । वे ही महान् आत्मा कहलाए हैं, उन्हीं का जीवन, जीवन कहला सकता है ।
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गायत्री की प्रचंड प्राण ऊर्जा

Preface

गायत्री का देवता सविता है । सविता का भौतिक स्वरूप रोशनी और गर्मी देने वाले अग्नि पिण्ड के रूप में परिलक्षित होता है पर उसकी सूक्ष्म सत्ता प्राण शक्ति से ओत-प्रोत है । वनस्पति, कृमि, कीट, पशु-पक्षी,जलचर, थलचर और नभचर वर्गों के समस्त प्राणी सविता देवताद्वारा निरन्तर प्रसारित प्राण-शक्ति के द्वारा ही जीवन धारण करते है । वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि इस जगती पर जो भी जीवन के चिह्न हैं, वे सूक्ष्म विकिरण शीलता के ही प्रतिफल है । सावित्री उस प्राणवान सविता देवताकी अधिष्ठात्री है । उसकी स्थिति को अनन्त प्राण-शक्ति के रूप में आँकाजाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी । 

यह विश्वव्यापी प्राणशक्ति जहाँ जितनी अधिक मात्रा में एकत्रित होजाती है वहाँ उतनी ही सजीवता दिखाई देने लगती है । मनुष्य में इस प्राणतत्त्व का बाहुल्य ही उसे अन्य प्राणियों से अधिक विचारवान् बुद्धिमान्,गुणवान् सामर्थ्यवान् एवं सुसभ्य बना सका है । इस महान् शक्ति पुंज का प्रकृति प्रदत्त उपयोग करने तक ही सीमित रहा जाय तो केवल शरीर यात्राही संभव हो सकती है और अधिकांश नर पशुओं की तरह केवल सामान्य जीवन ही जिया जा सकता है, पर यदि और किसी प्रकार अधिक मात्रा मेंबढ़ाया जा सके तो गई गुजरी स्थिति से ऊँचे उठकर उन्नति के उच्चशिखरतक पहुँच सकना संभव हो सकता है । गायत्री महामन्त्र में वही प्रक्रिया या तत्त्वज्ञान सन्निहित है । जो विधिवत् उसका आश्रय ग्रहण करता है, उसे तत्काल अपनी समग्र जीवनी शक्ति का अभिवर्धन होता हुआ दृष्टिगोचर होता है । जितना ही प्रकाश बढ़ताहै, उतना ही अन्धकार दूर होता है, इसी प्रकार आन्तरिक समर्थता बढ़ने के साथ-साथ जीवन को दु:ख-दारिद्र का और घर व संसार को भवसागर के रूप में दिखाने वाले नाटकीय वातावरण से भी मुक्ति मिलती है ।
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ईश्वर का विराट रुप

Preface

गायत्री मंत्र का प्रथम पद ऊँ भूर्भुवः स्व: ईश्वर के विराट स्वरूप की झाँकी कराता है-भूर्भुव: स्वस्त्रयो लोका व्याप्त भोम्ब्रह्मतेषुहि । स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तद्वेति विचक्षण ।। अर्थात्- भू: भुव: स्व: ये तीन लोक हैं । इनमें ओ३म् ब्रह्म व्याप्त है । जो उस ब्रह्म को जानता है वास्तव में वही ज्ञानी है ।भू: ( पृथ्वी) भुव: ( पाताल) स्व: ( स्वर्ग) ये तीनों ही लोक परमात्मा से परिपूर्ण हैं । इसी प्रकार भू: ( शरीर) भुव: ( संसार)स्व: ( आत्मा) ये तीनों ही परमात्मा के क्रीड़ास्थल हैं । इन सभी स्थलोंको निखिल विश्व ब्रह्माण्ड को, भगवान का विराट रूप समझकर, उस उच्च आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो गीता के ११वें अध्याय में भगवान ने अपना विराट रूप बतलाकर अर्जुनको प्राप्त कराई थी । 

प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ में, प्रत्येक परमाणु में, भू: भुव: स्व: में सर्वत्र ओ३म् ब्रह्म को व्याप्त देखना, प्रत्येक वस्तु में विश्वव्यापी परमात्मा का दर्शन करना, एक ऐसी आत्मिक विचार पद्धति है जिसके द्वारा विश्व सेवा की भावना पैदा होती है । इस भावना के कारण संसारके प्रत्येक पदार्थ एवं जीव के सम्बन्ध में एक ऐसी श्रद्धा उत्पन्न होती है जिसके कारण अनुचित स्वार्थ-साधन का नहीं वरन् सेवा का ही कार्य-क्रम बन पड़ता है । ऐसा व्यक्ति प्रभु की इस सुरम्य वाटिका के किसी भी कण के साथ अनुचित अथवा अन्याय मूलक व्यवहार नहीं कर सकता । कर्तव्यशील पुलिस, न्यायाधीश, अथवा राजा को सामने खड़ा देखकर कोई पक्का चोर भी चोरी करने या कानून तोड़ने का साहस नहीं कर सकता ।
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मित्रता क्यों ? कैसे ? और किससे करें ?

Preface

मित्रता विशुद्ध हृदय की अभिव्यक्ति है । उसमें छल, कपट या मोह भावना नहीं, मैत्री कर्त्तव्यपालन की शिक्षा देने वाली उत्कृष्ट भावना है । अत: सामाजिक जीवन में उसकी विशेष प्रतिष्ठा है । मित्रता अपनी आत्मा को विकसित करने का पुण्य साधन है । जिसके हृदय में मैत्री भावना विराजमान रहती है उसके हृदय में प्रेम, दया, सहानुभूति, करुणा आदि दैवी गुणों का विकास होता रहता है और उस मनुष्य के जीवन में सुख-संपदाओं की कोई कमी नहीं रहती । 

जिसने मैत्री भावनाएँ प्राप्त कर लीं, उसके लिए संसार परिवार हो गया । स्वामी रामतीर्थ अमेरिका की यात्रा कर रहे थे । उनके पास अपने शरीर और उस पर पड़े हुए थोड़े से वस्त्रों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था । किसी सज्जन ने उनसे पूछा- "आपका अमेरिका में कोई संबंधी नहीं है, आपके पास धन भी नहीं है, वहाँ किस तरह निर्वाह करेंगे' “राम” ने आगंतुक की ओर देखकर कहा-"मेरा एक मित्र है ।' वह कौन है ? उस व्यक्ति ने फिर पूछा । आप हैं वह मित्र, जिनके यहाँ मुझे सारी सुविधाएँ मिल जाएँगी और सचमुच “राम” की वाणी, उनकी आत्मीयता का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह व्यक्ति स्वामी रामतीर्थ का घनिष्ठ मित्र बन गया । 
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ब्रह्मचर्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकता

Preface

संसार में प्रत्येक व्यक्ति आरोग्य और दीर्घ जीवन की इच्छा रखता है । चाहे किसी के पास कितना ही सांसारिक वैभव और सुख-सामग्रियाँ क्यों न हों, पर यदि वह स्वस्थ नहीं है, तो उसके लिए वे सब साधन-सामग्री व्यर्थ ही हैं । हम अपने ही युग के रॉकफेलर जैसे व्यक्तियों को जानते हैं, जो संसार के सबसे बड़े धनी कहलाते हुए भी अस्वस्थता के कारण दो रोटी खाने को भीतरसते थे । इसलिए एक विद्वान के इस कथन को सत्य ही मानना चाहिए धन संसार में बहुत बड़ी चीज नहीं है, स्वास्थ्य का महत्त्व उससे कहीं ज्यादा है । आरोग्यशास्त्र के आचार्यों ने स्वास्थ्य-साधन की मूल चार बातें बतलाई हैं- आहार, श्रम, विश्राम और संयम । आहार द्वारा प्राणियों की देह का निर्माण और पोषण होता है । अत: उसका उपयुक्त होना सबसे पहली बात है । दूसरा स्थान श्रम का है, क्योंकि उसके बिना न तो आहार प्राप्त होता है और न वह खाने के पश्चात देह में आत्मसात् हो सकता है । विश्राम भी स्वास्थ्य-रक्षका आवश्यक अंग है, क्योंकि उसके द्वारा शक्ति संग्रह किए बिना कोई लगातार श्रम करते रहने में समर्थ नहीं हो सकता चौथा संयम है, जो अन्य प्राणियों में तो प्राकृतिक रूप से पाया जाताहै, पर अपनी बुद्धि द्वारा प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेने का अभिमान रखने वाले मनुष्य के लिए जिसके उपदेश की नितांत आवश्यकता है ।
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चेतन ,अचेतन एवं सुपर चेतन मन

Preface



मानवी काया एक विलक्षणताओं का समुच्चय है । यदि इस रहस्यमय अद्भुत कायपिंजर को समझा जा सके व तदनुसार जीवन-साधना सम्पन्न करते हुए अपने जीवन की रीति-नीति बनायी जा सके तो व्यक्तित्त्व सम्पन्न, ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न बना जा सकता है । इसके लिए अपने स्वयं के मन को ही साधने की व्यवस्था बनानी पड़ेगी । यदि यह सम्भव हो सके कि व्यक्ति अपने चेतन, अचेतन व सुपरचेतन मस्तिष्कीय परतों की एनाटॉमी समझकर तदनुसार अपना व्यक्तित्त्व विकसित करने की व्यवस्था बना ले तो उसके लिए सब कुछ हस्तगत करना सम्भव है । यह एक विज्ञान सम्मत तथ्य है, यह मानवी मनोविज्ञान को समझाते हुए पूज्यवर बडे़ विस्तार से इस गूढ़ विषय को विवेचन करते इसमें पाठकों को नजर आयेंगे । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी अन्त: करण चतुष्टय की सत्ता से हमारा निर्माण हुआ है । यदि विचारों की व्यापकता और सशक्तता का स्वरूप समझा जा सके व तदनुसार अपने व्यक्तित्त्व के निर्माण का सूत्र समझा जा सके तो इस अन्त करण चतुष्टय को प्रखर, समर्थ और बलवान बनाया जा सकता है । 

यदि अचेतन का परिष्कार किया जा सके, आत्महीनता की महाव्याधि से मुक्त हुआ जा सके, तो हर व्यक्ति अपने विकास का पथ स्वयं प्रशस्त कर सकता है । उत्कृष्टता से ओतप्रोत मानवी सत्ता ही मनुष्य के वैचारिक विकास की अन्तिम नियति है । यदि चिन्तन उत्कृष्ट स्तर का होगा तो कार्य भी वैसे बन पड़ेंगे एवं मानव से महामानव, चेतन से सुपरचेतन के विकास की, अतिचेतन के विकास की आधारशिला रखी जा सकेगी । 
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Mental Balance

Preface

Brain is the center of mans power. Its strength is limitless. If it is possible to make the proper use of this strength, then the man goes on progressing and progressing along the desired path. The waves produced in the mind are so powerful that one can achieve plenty of material prosperity with their help. 

As much as the brain is powerful, so also it is extremely delicate. To protect it and maintain its activity, it is very essential to save it from unrequired heat. If we wish to take proper work from it, it is essential to create balanced conditions for it. The brain is subjected to severe heat from the sun, as well as by over hot water and chemicals, but it is also subjected to heat produced by excitement, and the damage to an organized mind is in direct proportion to the extent of such excitement.
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Extrasensory Potentials Of The Mind

Preface

The present book has brought in-depth details on the myths and realities of the extrasensory perceptions, supramental talents and supernormal experiences. It is compiled from the translation of the Chapter 6 of the Volume 18 of Pt. Shriram Sharma Acharya Vangmaya series. The author has thoroughly attended to multiple aspects of the cosmic evolution of consciousness in the human body, spiritual transmutation of hidden intellect and activation of the extrasensory power centers like the sahastrara cakra and the ajna cakra by different kinds of yoga sadhanas with adept guidance. He has also discussed — along with evidential examples — the possibilities of sudden arousal of supernatural faculties because of the intrinsic mental tendencies and spiritual assimilation since past live(s), and the use of hypnotism and yoganidra in psychic healing, understanding the complexities of human mind and awakening of latent talents. 

Several sections are devoted here to the riddles of Nature posed by the mysterious experiences ranging from —the recurrence of past events at specific places, sudden appearance of a ruined kingdom, etc, to — the esoteric existence of siddha pithas (aroused hermitages) in the impregnable domains of the Himalayas, journey of the other worlds through the black holes, etc. 
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स्वस्थ रहने के सरल उपाय

Preface

हम खाना क्यों खाते है? 

जब से हम जन्म लेते हैं शरीर को शक्ति की आवश्यकता होती है ।। शक्ति के दो प्रमुख स्रोत हैं- १ .नींद २. भोजन 

नींद तो अनिवार्यत: सब को लेनी ही पड़ती है ।। एक दो दिन भी कम हो गई तो शरीर हाथ के हाथ उसको पूरा करने को मजबुर होता है ।। 

भोजन हम दो कारणों से करते हैं- १. शक्ति के लिये २. स्वाद के लिये 

आरम्भ से ही शक्ति और स्वाद में कुश्ती चलती है और देखा यह गया है कि इस कुश्ती में स्वाद जीतता है और शक्ति पीछे रह जाती है ।। कई चीजें तो हम -केवल इसीलिये खा- पी लेते हैं कि वे स्वादिष्ट लगती हैं चाहे उनमें शक्ति है या नहीं या चाहे वे अंतत: नुकसान ही करें । 
कहने को तो कहते हैं कि ' हम जीने के लिये खाते हैं ' पर वस्तुत: यह पाया जाता है कि ' हम खाने के लिये जीते हैं '। 

हम खाना पका कर क्यों खाते हैं? 
यों तो हम कहते हैं कि खाने की वस्तुओं में कई कीड़े इत्यादि रहने हैं अत: हम पकाकर खाते हैं, पर मुख्यत: स्वाद के लिए ही पकाकर खाते हैं ।। यद्यपि हम जानते हैं कि पकाने से भोजन की पौष्टिकता निश्चित रूप से कम हो जाती है, फिर भी स्वाद व सुविधा के लिए हम पका कर ही खाना खाते हैं ।।
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स्वस्थ रहने की कला

Preface

मनुष्य की काय संरचना ऐसी है, जिसे यदि तोड़ा-मरोड़ा न जाए, सहज गति से चलने दिया जाए तो वह लंबे समय तक बिना लड़खड़ाए कारगर बनी रह सकती है ।आरोग्य स्वाभाविक है और रोग प्रयत्न पूर्वक आमंत्रित । सृष्टि के सभी प्राणी अपनी सहज आयु का उपभोग करते हैं । मरण तो सभी का निश्चित है, पर वह जीर्णता के चरम बिंदु पर पहुँचनेके उपरांत ही होता है । मात्र दुर्घटनाएँ ही कभी-कभी उसमें व्यवधान उत्पन्न करती हैं । रुग्णता का अस्तित्व उन प्राणियोंमें दृष्टिगोचर नहीं होता, जो प्रकृति की प्रेरणा अपनाकर सहज सरल जीवन जीते हैं । मनुष्य ही इसका अपवाद है । इसी जीवधारी को आए दिन बीमारियों का सामना करना पड़ताहै । बेमौत मरते भी वही देखा जाता है । दुर्बलता, रुग्णता और असामयिक मृत्यु कोई दैवी विपत्तिनहीं है । मनुष्य द्वारा अपनाई गई रहन-सहन संबंधी प्रतिक्रिया मात्र है । आहार-विहार में संयम बरता जा सके और मस्तिष्कको अनावश्यक उत्तेजनाओं से बचाए रखा जा सके, तो लंबी अवधि तक सुखपूर्वक निरोगी जीवन जिया जा सकता है ।आरोग्य की उपलब्धि के लिए बहुमूल्य टॉनिकों या औषध-रसायनों को खोजने की तनिक भी आवश्यकता नहींहै । जो उपलब्ध है उसे बरबाद न करने की सावधानी भरबरती जाए, तो न बीमार पड़ना पड़े, न दुर्बल रहना पड़े औरन असमय बेमौत मरने की आवश्यकता पड़े । चिकित्सकों का द्वार खटखटाने की अपेक्षा आरोग्यार्थी यदि रहन-सहन में सम्मिलित कुचेष्टाओं को निरस्त कर सकें, तो यह उपाय उनकी मनोकामना सहज ही पूरी कर सकता है ।
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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग २

Preface

बड़े कामों को बड़े शक्ति केंद्र ही संपन्न कर सकते हैं। दलदल में फँसे हाथी को बलवान् हाथी ही खींचकर पार करा पाते हैं। पटरी से उतरे इंजन को समर्थ क्रेन ही उठाकर यथास्थान रखती है। उफनते समुद्र में नाव खेना साहसी नाविकों से ही बन पड़ता है। आज के समाज व संसार की बड़ी समस्याओं को हल करने के लिए स्रष्टा को भी वरिष्ठ स्तर की परिष्कृत प्रतिभाओं की आवश्यकता पड़ती है। प्रतिभाएँ ऐसी संपदाएँ हैं, जिनसे न केवल वे स्वयं भरपूर श्रेय अर्जित करते हैं, वरन् अपने क्षेत्र- समुदाय और देश की अति विकट दीखने वाली उलझनों को भी सुलझाने में वे सफल होते हैं। इसी कारण इन्हें देवदूत- देवमानव कहा जाता है। 

इन दिनों असंतुलन में बदलने के लिए महाकाल की एक बड़ी योजना बन रही है। यह कार्य आदर्शवादी सहायकों में उमंगों को उभारकर उन्हें एक सूत्र में आबद्ध करने से लेकर नियमित सृजनात्मक गतिविधियों- सत्प्रवृत्तियों का मोरचा अनीति- दुष्प्रवृत्ति के विरुद्ध खड़े करने के रूप में आरंभ हो चुका है। इससे वह महाजागरण की प्रक्रिया होगी जो प्रतिभाओं की मूर्च्छना हटाएगी, उन्हें एकाकी आगे बढ़ाकर अग्रगमन की क्षमता का प्रमाण देने हेतु प्रेरित करेगी। नवयुग का अरुणोदय निकट है। सतयुग की सुनिश्चित संभावनाएँ बन रही हैं। प्रतिभा के धनी ही इस लक्ष्य को पूरा कर दिखाएँगे। 
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युग की माँग प्रतिभा परिष्कार-भाग १

Preface

भगवत्सत्ता का निकटतम और सुनिश्चित स्थान एक ही है, अंतराल में विद्यमान प्राणाग्नि। उसी को जानने- उभारने से वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे धारण करने की क्षमता मनुष्य के पास है। प्राणवान् प्रतिभा संपन्नों में उस प्राणाग्नि का अनुपात सामान्यों से अधिक होता है। उसी को आत्मबल- संकल्पबल भी कहा गया है। 

पारस को छूकर लोहा सोना बनता भी है या नहीं ? इसमें किसी को संदेह हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि महाप्रतापी- आत्मबल संपन्न व्यक्ति असंख्यों को अपना अनुयायी- सहयोगी बना लेते हैं। इन्हीं प्रतिभावानों ने सदा से जमाने को बदला है- परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाई है। प्रतिभा किसी पर आसमान से नहीं बरसती, वह तो अंदर से जागती है। सवर्णों को छोड़कर वह कबीर और रैदास को भी वरण कर सकती है। बलवानों, सुंदरों को छोड़कर गाँधी जैसे कमजोर शरीर वाले व चाणक्य जैसे कुरूपों का वरण करती है। जिस किसी में वह जाग जाती है, साहसिकता और सुव्यवस्था के दो गुणों में जिस किसी को भी अभ्यस्त- अनुशासित कर लिया जाता है, सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल जाता है। प्रतिभा- परिष्कार -तेजस्विता का निखार आज की अपरिहार्य आवश्यकता है एवं इसी आधार पर नवयुग की आधारशिला रखी जाएगी।
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मांसाहार कितना उपयोगी, मनोशारीरिक एवं वैज्ञानिक विश्लेषण

Preface

मनुष्यता का लक्षण धर्म है और धर्म का मूल दया में निहित है । जिस मनुष्य के हृदय में दया नहीं, वह मनुष्यता के पूर्ण लक्षणोंसे युक्त नहीं कहा जा सकता । इस दया को मनुष्य की वह करुणा भावना ही माना जाएगा जो संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए बराबर हो । उन मनुष्यों को कदापि दयावान नहीं कहा जा सकता जोअपनों पर कष्ट अथवा आपत्ति आई देखकर तो दुःखित हो उठतेहैं किंतु दूसरों के कष्टों के प्रति जिनमें कोई सहानुभूति अथवा संवेदना नहीं होती । और वे मनुष्य तो कूर अथवा बर्बर की श्रेणी मेंही रखे जाएँगे जो अपने तुच्छ स्वार्थ के कारण दूसरों को असह्यपीड़ा देते हैं । करुणा, दया, क्षमा, संवेदना, सहानुभूति तथा सौहार्द आदि गुणएक ही दया के ही अनेक रूप अथवा उसकी ही शाखा-प्रशाखाएँ हैं । जब तक जिसमें इन गुणों का अभाव है, मनुष्य योनि में उत्पन्न होने पर भी उसे मनुष्य नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार मनुष्यता की परिभाषा करने पर मांसभोजियो परक्रूरता का आरोप आता है । क्रूरता मनुष्य का नहीं, पाशविकता का लक्षण है । फिर भला इस प्रकार की पाशविक प्रवृत्ति रखने वाला मनुष्य अपने को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी किस मुँह से कहता है!
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मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले

Preface

संसार में चिरकाल से दो प्रचण्ड-धाराओं का संघर्ष होता चला आया है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की बहुलता से ही प्रसन्नता और प्रगति सम्भव है। इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। उसके आधार पर ही साधनों का आवश्यक उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग बन पड़ता है। वह न हो, तो इच्छित वस्तु पर्याप्त मात्रा में रहने पर भी अभाव और असन्तोष पनपता दीख पड़ता है। 

एक विचारधारा कहती है कि यदि मन को साध सँभाल लिया जाये, तो निर्वाह के आवश्यक साधनों में कमी कभी नहीं पड़ सकती। कदाचित् पड़े भी, तो उस अभाव के साथ संयम, सहानुभूति, सन्तोष जैसे सद्गुणों का समावेश कर लेने पर जो है, उतने में ही भली प्रकार काम चल सकता है। कोई अभाव नहीं अखरता। दूसरी का कहना है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। समर्थता और सम्पन्नता होने पर दूसरे दुर्बलों के उपार्जन-अधिकार को भी हड़प कर मन चाहा मौज-मजा किया जा सकता है। 

दोनों के अपने अपने तर्क, आधार और प्रतिपादन हैं। प्रयोग भी दोनों का ही चिरकाल से होता चला आया है, पर अधिकांश लोग अपनी-अपनी पृथक मान्यतायें बनाये हुये चले आ रहे हैं। ऐसा सुयोग नहीं आया कि सभी लोग कोई सर्वसम्मत मान्यता अपना सकें। अपने अपने पक्ष के प्रति हठपूर्ण रवैया अपनाने के कारण, उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहते हैं। इसी को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। पदार्थ ही सब कुछ हैं-यह मान्यता दैत्य पक्ष की है। वह भावनाओं को भ्रान्ति और प्रत्यक्ष को प्रामाणिक मानता है। देव पक्ष, भावनाओं को प्रधान और पदार्थ को गौण मानता है। दर्शन की पृष्ठभूमि पर इसी को भौतिकता और आध्यात्मिकता नाम दिया जाता है। हठवाद ने दोनों ही पक्षों को अपनी ही बात पर अड़े रहने के लिए भड़काया है। 
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बुद्धि बढ़ाने की वैज्ञानिक विधि

Preface

पूर्णत: बुद्धिहीन मनुष्य शायद कोई भी न होगा । जिसे हम मूर्ख या बुद्धिहीन कहते हैं, उसमें बुद्धि का बिलकुल अभाव नहीं होता । एक अध्यापक की दृष्टि में किसान मूर्ख है, क्योंकि वह साहित्य के विषय में कुछ नहीं जानता, किंतु परीक्षा करने परमालूम होगा कि किसान को खेती के संबंध में पर्याप्त होशियारी, सूझ और योग्यता है । एक वकील की दृष्टि में अध्यापक मूर्ख है, क्योंकि कानून की पेचीदगियों के बारे में कुछ नहीं जानता । इसी प्रकार एक डाक्टर की दृष्टि में वकील मूर्ख ठहरेगा, क्योंकि वह यह भी नहीं जानता कि जुकाम हो जाने पर उसकी क्या चिकित्सा करनी चाहिए ? सेठ जी की दृष्टि में पंडित भिख मंगे हैं, तो महात्मा जी की दृष्टि में सेठ जी चौकीदार हैं । इन सब बातों परविचार करते हुए ऐसा मनुष्य मिलना कठिन है, जो सर्वथा निर्बुद्धि कहा जा सके । दो मनुष्य यदि आपस में एक समान विषय काज्ञान रखते हैं, तो वे एक-दूसरे की दृष्टि में बुद्धिमान् हैं । यदि दोनों की योग्यताएँ अलग-अलग विषयों में हैं, तो वे प्राय:एक्-दूसरे को बुद्धिमान् न कहेंगे । 

यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते है-( १) क्या बुद्धि का विकास बचपन में ही संभव है ? (२) क्या सभी मनुष्य बुद्धिमान् हैं ? पहले प्रश्न के उत्तर में कहना चाहिए कि आरंभिक काल की शिक्षा अवश्य ही महत्वपूर्ण एवं सरल है । इनमें बीस वर्ष की आयु तकजो संस्कार जम जाते हैं, वे अगले चार-पाँच वर्षों में पुष्ट होकर जीवन भर बने रहते हैं ।
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प्रेरणाप्रद दृष्टांत-६७

Preface

कथा-कहानी के अनेक रूप हैं । हजारों पन्नों के विशालकाय उपन्यास और दस-बीस पंक्तियों के दृष्टांत सबकी गणना उसी विभाग में होती है । पुराणों की कथाएँ उपाख्यान आदि की रचना भी इसी उद्देश्य से की गई है । जो लोग वेद, उपनिषद् दर्शन, स्मृतियों में वर्णित धार्मिक उपदेशों को नहीं समझ सकते, वे उनको कथाओं के माध्यम से रुचिपूर्वक सुन लेते हैं और कुछ लाभ भी उठा सकते हैं । 

मनोरंजन में अक्सर धूर्तता, अंधविश्वास और अवांछनीयता तक का समर्थन रहता है । प्रचलित कहानियों में से नैतिक चेतना की प्रेरणा देने वाली कितनी हैं, यदि इसकी तलाश की जाए तो उनमें से खरी नहीं, खोटी ही सिद्ध होंगी । उन्हें सुनने- सुनाने से मनोरंजन तो हो जाता है, पर परोक्ष रूप से मस्तिष्क को अनैतिक एवं अवांछनीय तृष्णा ही प्राप्त होती है । 

इस दृष्टिकोण को सामने रखकर परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसे छोटे-छोटे दृष्टांतों, लघु कथाओं का निर्माण किया है, जिनको लोग दस-पाँच मिनट में पढ़कर हृदयंगम कर सकें और उनमें से हर कोई उपयोगी शिक्षा ग्रहण कर सकें । ऐसी रचनाएँ भावनात्मक एवं घटनाप्रधान होने के कारण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती हैं, क्योंकि जब पढ़ने वाला देखता है कि इस स्वार्थी और शोषण प्रवृत्ति की प्रधानता वाले जमाने में भी कुछ लोग परोपकार, कर्त्तव्यपरायणता एवं सिद्धातनिष्ठा के लिए इस प्रकार तन, मन, धन निछावर करने को सर्वस्व उत्सर्ग करने को उद्यत हो जाते हैं, तो उनके मन पर निश्चित रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है और अगर उसी दिशा में बढ़ते रहा जाए तो धीरे- धीरे स्थायी भी हो सकता है । 
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प्राण शक्ति एक दिव्य विभूति-१७

Preface

प्राण शक्ति को एक प्रकार की सजीव शक्ति कहा जा सकता है जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर,-प्लाज्मा की तरह समायी हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है। वह उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी, साहसी दिखाई पड़ता है। शरीर में संव्यास इसी तत्त्व को जीवनीशक्ति अथवा ‘ओजस’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर ही तत्त्व प्रतिभा ‘तेजस्’ कहलाता है। अपनी शक्ति क्षरण के द्वारा बंद कर लेने के कारण शारीरिक एवं मानसिक ब्रह्मचर्य साधने वाले साधकों को मनस्वी एवं तेजस्वी इसी कारण कहा जाता है। यह प्राणशक्ति ही है जो कहीं बहिरंग के सौंदर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता व प्रखरता में, कहीं प्रतिभा के रूप में, कहीं कला-कौशल व कहीं भक्ति भाव के रूप में देखी जाती है। वस्तुतः प्राणशक्ति एक बहुमूल्य विभूति है। यदि इसे संरक्षित करने का मर्म समझा जा सके तो स्वयं को ऋद्धि-सिद्धि संपन्न-अतीन्द्रिय सामर्थ्यों का स्वामी बनाया जा सकता है। 
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नैतिक शिक्षा भाग-2

Preface

अपना देश हजार वर्ष की गुलामी से अभी-अभी छूटा है । इस लंबी अवधि में उसे दयनीय उत्पीड़न में से गुजरना पडा़ है । यह दुर्दिन उसेअपनी हजार वर्ष से आंरभ हुई बौद्धिक भ्रांतियो, अनैतिक आकांक्षाओं और सामाजिक ढाँचे की अस्त व्यस्तता ओं के कारण सहना पडा़ । अन्यथा इतने बडे- इतने बहादुर- इतने साधन-सपन्न देश को मुट्ठी भर आक्रमण कारियोंका इतने लंबे समय तक उत्पीडन न सहना पड़ता । 

सौभाग्य से राजनैतिक स्वतंत्रता मिल गई । इससे अपने भाग्य को बनाने-बिगाडने का अधिकार हमें मिल गया । उपलब्धि तो यह भी बडी़ है,पर काम इतने भर से चलने वाला नहीं है । जिन कारणें से हमें वे दुर्दिन देखने पडे़, वे अभी भी ज्यों के त्यों मौजूद हैं । इन्हें हटाने के लिए प्रबल प्रयत्न करने की आवश्यकता है । अन्यथा फिर कोई संकट बाहर या भीतर से खडा़ हो जाएगा और अपनी नई स्वाधीनता खतरे में पड़ जाएगी । व्यक्ति और समाज को दुर्बल करने वाली विकृतियो की ओर ध्यान देना ही पडे़गा और जो अवांछनीय अनुपयुक्त है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसको बदले बिना काम नहीं चल सकता । साथ ही उन तत्वों का अपनी रीति-नीति में समावेश करना पडेगा, जो प्रगति, शांति और समृद्धि के लिए अनिवार्य रूपसे आवश्यक हैं ।
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नैतिक शिक्षा भाग-1

Preface

व्यक्ति के निर्माण और समाज के उत्थान में शिक्षा का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान होता है । प्राचीन काल की भारतीय गरिमा ऋषियों द्वारा संचालित गुरुकुल पद्धति के कारण ही ऊँची उठ सकी थी । पिछले दिनों भी जिन देशों ने अपना भला-बुरा निर्माण किया है, उसमें शिक्षा को ही प्रधान साधन बनाया है । जर्मनी, इटली का नाजीवाद, रूस और चीन का साम्यवाद, जापान का उद्योगवाद, यूगोस्लाविया, स्विटजरलेंड, क्यूबा आदिने अपना विशेष निर्माण इसी शताब्दी में किया है । यह सब वहाँ की शिक्षाप्रणाली में क्रातिकारी परिवर्तन लाने से ही सभव हुआ । व्यक्ति का बौद्धिकऔर चारित्रिक निर्माण बहुत करके उपलब्ध शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है । व्यक्तियों का समूह ही समाज है । जैसे व्यक्ति होंगे वैसा ही समाज बनेगा ।किसी देश का उत्थान या पतन इस बात पर निर्भर करता है कि इसके नागरिक किस स्तर के है और यह स्तर बहुत करके वहाँ की शिक्षा-पद्धतिपर निर्भर रहता है ।
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अपरिमित सम्भावना मानवीय व्यक्तित्व-२१

Preface

मनुष्य पूज्यवर के शब्दों में एक भटका हुआ देवता है, जिसे यदि सच्ची राह दिखाई जा सके, उसके देवत्त्व को उभारा जा सके जो आज प्रसुप्त पड़ा हुआ है, तो उसके व्यक्तित्त्व रूपी समुच्चय में इतनी शक्ति भरी पड़ी है कि वह जो चाहे वह कर सकता है, असंभव से भी असंभव दीख पड़ने वाले पुरुषार्थ संपन्न कर सकता है । विडम्बना यही है कि मनुष्य इस प्रसुप्त पड़े भाण्डागार को जिसमें अपरिमित संभावनाएँ हैं, पहचान नहीं पाता एवं विषम परिस्थितियों में पड़ ज्यों त्यों कर जिन्दगी गुजारता देखा जाता है । पाश्चात्य वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य मूलत: पशु है व वहाँ से उठकर बंदर की योनि से मनुष्य बना है । पूज्यवर वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की कसौटी पर कसे गए आध्यात्मिक विकासवाद की दुहाई देते हुए कहते हैं यह नितान्त एक कल्पना है । मनुष्य मूलत: देवता है, पथ से भटक गया है, यह योनि उसे इसलिए दी है कि वह देवत्त्व की दिशा में अग्रगमन कर सके । यदि यह संभव हो सका तो वह देवत्त्व को अर्जित कर स्वयं को क्षमता संपन्न विभूतिवान बना सकता है । 

मानवी व्यक्तित्व को एक कल्पवृक्ष बताते हुए उससे मनोवांछित उपलब्धियाँ पाने की बात कहते हुए गुरुदेव कहते हैं कि यदि मनुष्य चाहे तो अपने को सर्वशक्तिमान बना सकता है । विचारों की शक्ति बड़ी प्रचण्ड है । आत्मसत्ता को जिन विचारों से सम्प्रेषित- अनुप्राणित किया गया है उसी आधार पर इसका बहिरंग का ढाँचा विनिर्मित होगा । अपूर्णता से पूर्णता की ओर चलते चलना व सतत विधेयात्मक चिन्तन बनाए रखना ही मनुष्य के हित में है । 
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The Secret Of A Healthy Life

Preface

Good health and ability for proper understanding—both these are the best blessings in life. 

Good health is closely related to proper understanding. It is said that a stable mind resides in a healthy body. The mind, thoughts and understanding of a person having indifferent health will never be mature. One can judge a man from the status of his health. People with good moral conduct are healthy, strong and free from diseases. They always have a smiling face. These people have some sort of a magnetism so that everyone wishes to talk to them, make friends with them and always be with them. 
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Spiritual Science Of Sex Elements

Preface

Mans quest for the origin of the universe and emergence of life has been at the root of scientific investigations of all ages. Modern science has taken significant strides in its research from atom to levels of sub atomic and smaller particles and it now hypotheses that the universe has been created by sparks of cosmic energy. The Spiritual Science begins its search from still subtle form of eternal energy and considers the existence and affirms that the universe has originated from the coupling of Prakriti (the omnipresent cosmic energy) and Purusha (the ultimate form of Spirit). These vital powers are also described in the ancient Indian scriptures as Rayi and Prana, Shakti and Shiva or Soma and Agni. Their complementary roles can easily be discerned in their physical manifestations as positive and negative electrical charge whose combination gives rise to the flow of electrical current. 

The holy Upanishads describe that the eternally perpetual cycle of combination and separation of Prakriti and Purusha result in the creation of Para (physical energy) and Apara (consciousness manifested in thoughts and sentiments) forms of the Universe, the spontaneity and periodicity of the natural movements 
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Practical Ways To Sharpen The Memory

Preface

The subject of this discourse is the root cause and the solution of the crisis of our times. Because the results of our actions will match the level of our desires, we must conclude that it is the level of our consciousness that created the unfavorability of the circumstances within which we now live. 
-Acharya Shriram Sharma 

Part of what it means to be alive at the beginning of the 21st Century is bearing the burden of the awareness that the ecosystem of our planet, the web of life upon which we depend, is in jeopardy. To live in an authentic way today, we are required to integrate the reality of global crisis, not only into our consciousness and understanding, but also into our lifestyles, economies and social structures. Needless¬to-say, this integration will not be easy. 

Coming to terms with the state of our global health is not easy due to the force of our momentum towards a lifestyle that willfully denies it.
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Human Brain Apparent Boon Of The Omnipotent

Preface

The living state of a human body consists of the five basic elements called Pancha Tatvas and the five basic streams of vital force called Pancha Prana. The Pancha Tatvas constitute the physical body and the Pancha Prana create the mental (subtle) body. The flow of electricity in a circuit is generated by the connection of the two complementary, positive and negative types of currents. The life cycle of a human being also continues to revolve with the help of the two wheels of the physical and mental bodies. The collective contribution of these components is unparalleled in nature. 

The known, as well as the undeciphered, structural and functional features of the human body are enormous. Deeper analysis of these brings out more and more amazing results and shows newer layers of mysteries in this splendid action of the Almighty. The structural complexity, functional adaptability and potentials of different sense organs give a glimpse of the magnificent systems that could be constructed in the Jada (material) part of nature.
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Four Pillars Of Self Devlopment

Preface

(Translation of a discourse by Poojya Gurudev Pandit Shriram Sharma Acharya on Atmonnati Ke Char Adhara delivered in 1980)
Let us begin with the collective chanting of the Gayatri Mantra: 
Om Bhur Buvah Swah, Tatsaviturvarenyath Bhargo Devasya Dhimahi, Dhiyo Yonah Prachodayat ! 

Sisters and Brothers, 
Our Yug Nirman mission has been organized as a laboratory. In a laboratory of chemistry, new chemicals and compounds are invented and presented to the world with a demonstration of their properties and use. Our mission is experimenting on the formulae, on the workable and viable plans for spiritual ascent and reconstruction of the world. Our Yug Nirman mission is a man-making odyssey. It is developed like a nursery to nurture good qualities, to produce enlightened talents. As you know, saplings of a variety of plants and trees are grown in a nursery and supplied to different gardens where they blossom with beautiful flowers and nutritious fruits. 
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Be Saved From Mental Tension

Preface

This booklet is a bouquet of spiritual thoughts.
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समय का सदुपयोग

Preface

यदि हमें जीवन से प्रेम है तो यही उचित है कि समय को व्यर्थनष्ट न करें। मरते समय एक विचारशील व्यक्ति ने अपने जीवन के व्यर्थ ही चले जाने पर अफसोस प्रकट करते हुए कहा था- मैंने समय को नष्ट किया, अब समय मुझे नष्ट कर रहा है। 

खोई दौलत फिर कमाई जा सकती है । भूली हुई विद्या फिरयाद की जा सकती है । खोया स्वास्थ्य चिकित्सा द्वारा लौटाया जासकता है, पर खोया हुआ समय किसी प्रकार नहीं लौट सकता,उसके लिए केवल पश्चाताप ही शेष रह जाता है । 

जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ठित वस्तुएँ खरीदी जास कती हैं, उसी प्रकार समय के बदले में भी विद्या, बुद्धि, लक्ष्मीकीर्ति आरोग्य, सुख-शांति, आदि जो भी वस्तु रुचिकर हो खरीदी जा सकती है । ईश्वर समय रूपी प्रचुर धन देकर मनुष्यको पृथ्वी पर भेजा है और निर्देश दिया है कि इसके बदले में ससारकी जो वस्तु रुचिकर समझें खरीद लें । कितने व्यक्ति है जो समय का मूल्य समझते और उसका सदुपयोग करते है ? अधिकांश लोग आलस्य और प्रमाद में पड़े हुए जीवन के बहुमूल्य क्षणों को यों ही बर्बाद करते रहे हैं। एक-एक दिन करके सारी आयु व्यतीत हो जाती है और अंतिम समय वे देखते हैंकि उन्होंने कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जिंदगी के दिन यों ही बितादिए । इसके विपरीत जो जानते हैं कि समय का नाम ही जीवन है, वेएक-एक क्षण कीमती मोती की तरह खर्च करते हैं और उसके बदले में बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं । हर बुद्धिमान व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता का सबसे बडा परिचय यही दिया है कि उसने जीवन के क्षणों को व्यर्थ बर्बाद नहीं होने दिया ।अपनी समझ के अनुसार जो अच्छे से अच्छाउपयोग हो सकता था, उसी में उसने समय को लगाया । उसका यही कार्यक्रम अंतत: उसे इस स्थिति तक पहुँचा सका, जिस पर उसकी आत्मा संतोष का अनुभव करे ।
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सफलता के सात सूत्र

Preface

जीवन में सफलता पाने के जितने साधन बतलाए गए हैं, उनमें विद्वानों ने सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है। जो मनुष्य इन सात साधनों का समावेश कर लेता है, वह किसी भी स्थिति का क्यों न हो, अपनी वांछित सफलता का अवश्य वरण कर लेता है। वे सात साधन हैं–परिश्रम एवं पुरुषार्थ, आत्म विश्वास एवं आत्मनिर्भरता, त्याग एवं बलिदान, साहस एवं निर्भयता, स्नेह एवं सहानुभूति, जिज्ञासा एवं लगन, प्रसन्नता एवं मानसिक संतुलन। 

जब तक जीवन में अनुभव जन्य ज्ञान की कमी है, तब तक मनुष्य स्वप्नों के मनोरम लोक में विहार करता रहता है परन्तु जैसे- जैसे उसे संसार की बाधाओं का ज्ञान होता है, वैसे- वैसे उसे प्रतीत होता है कि कल्पनाओं और योजनाओं का जो रूप उसने प्रारम्भ में अपने नेत्रों में देखा था, वास्तव में वह वैसा नहीं है। वास्तविक रूप अज्ञान के अनुभव को ही कहते हैं। अनुभव कर्म से ही प्राप्त होता है। कर्म के साथ ही जीवन में सफलता जुड़ी रहती है। पृ०३२/२ 
पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें: 

वेद भगवान का कथन है – 
"कृत मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहित:। गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनंजवो हिरण्यजित:।।" 
हे! मनुष्य तू अपने दाहिने हाथ से पुरुषार्थ कर बायें में सफलता निश्चित है। गोधन, अश्वधन,स्वर्ण आदि को तू स्वयं अपने परिश्रम से प्राप्त कर।
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सफलता के तीन साधन

Preface

सफलता के तीन कारण होते हैं । (१) परिरिथति (२)प्रयत्न(३) भाग्य । बहुत बार ऐसी परिरिथतियाँ प्राप्त होती हैं जिनके कारण स्वल्प योग्यता वाले मनुष्य बिना अधिक प्रयत्न केबड़े-बड़े लाभ प्राप्त करते हैं । बहुत बार अपने बाहुबल से कठिन परिस्थितियो को चीरता हुआ मनुष्य आगे बढ़ता हैऔर लघु से महान बन जाता है । कई बार ऐसा भी देखा गयाहै कि न तो कोई उत्तम परिस्थिति ही सामने है, न कोई योजना, न कोई योग्यता, न कोई प्रयत्न पर अनायास ही कोई आकस्मिक अवसर आया जिससे मनुष्य कुछ से कुछबन गया । इन तीन कारणों से ही लोगों को सफलताएँ मिलती हैं । 

पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं । जन्मजात कारणों से या किसी विशेष उावसरपर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्यके कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ नहीं है । 

हम प्रयत्न को अपना कर ही उापने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं । यही एक साधन हमारे हाथ मे है । इस साधनको तीन भागों में बाँट दिया है-(१) आकांक्षा (२) कष्ट सहिष्णुता(३) परिश्रम शीलता । इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं । इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुरतक में प्रयत्न किया गया है । जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढ़ेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास है ।
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शक्ति का सदुपयोग

Preface

गायत्री का तीसरा अक्षर स शक्ति की प्राप्ति और उसके सदुपयोग की शिक्षा देता है - सत्तावन्तस्ताथा शूरा: क्षत्रिया लोकरक्षका: । अन्याया शक्ति संभूतान ध्वंसयेयुहि व्यापदा । । अर्थात-सत्ताधारी, शूरवीर तथा संसार के रक्षक क्षत्रिय अन्याय और अशक्तिसे उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को नष्ट करें । क्षत्रियत्व एक गुण है । वह किसी वंश विशेष में न्यूनाधिक भले ही मिलता हो, पर किसी एक वंश या जाति तक ही सीमित नहीं हो सकता । क्षत्रियत्व के प्रधान लक्षण हैं । शूरता अर्थात- धैर्य, साहस, निर्भयता, पुरुषार्थ,दृढ़ता, पराक्रम आदि । ये गुण जिसमें जितने न्यूनाधिक हैं, वह उतने ही अंश में क्षत्रिय है । 

शारीरिक प्रतिभा, तेज, सामर्थ्य, शौर्य, पुरुषार्थ और सत्ता का क्षात्रबल जिनके पास है, उनका पवित्र कर्त्तव्य है कि वे अपनी इस शक्ति के द्वारा निर्बलोंकी रक्षा करें, ऊपर उठाएँ तथा अन्याय, अत्याचार करने वाले दुष्ट प्रकृति के लोगों से संघर्ष करने में अपने प्राणों का भी मोह न करें । शक्ति और सत्ता ईश्वर की कृपा से प्राप्त होने वाली एक पवित्र धरोहर है,जो मनुष्य को इसलिए दी जाती है कि वह उसके द्वारा निर्बलों की रक्षा करे । जो उसके द्वारा दुर्बलों को सहायता पहुँचाने के बजाय उलटा उनका शोषण, दमन,त्रास, उत्पीड़न करता है, वह क्षत्रिय नहीं असुर है ।
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वर्तमान चुनौतियाँ युवावर्ग

Preface

हमारे युवाओं में कभी भी प्रतिभा क्षमता कीकमी नहीं रही है । आज भी उनके समक्ष अपार संभावनाएँ हैं । कुछ भी असंभव नहीं है । समस्या केवल यही है कि उन्हें अनेकानेक विकट एवं विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है । समाज में अनेक केकड़ा प्रवृतिके लोग उनकी टांग खीच कर नीचे गिराने हर समय तत्पर रहते हैं । यदि वे अपने मानव जीवन के उद्देश्य को भलीभाँति पहचान कर उचित पुरुषार्थ करेंगे तो वे अवश्यही इस काजल की कोठरी से बेदाग बाहर निकलने में सफलहो जाएंगे । इस पुस्तक के द्वारा युवावर्ग को यही संदेश देने का प्रयास किया गया है । थोडी़ सी समझदारी उनके जीवनको सफलता की स्वर्णिम आभा से आलोकित कर देगी । इस प्रकाश को अधिक से अधिक युवाओं तक अवश्य पहुँचाएँ ।
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