Saturday 30 April 2016

संस्कृति संजीवनी भागवत एवं गीता-३१


Preface

परमपूज्य गुरुदेव की यह विशेषता है कि उनने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पक्ष का विवेचन करते समय हरेक का विज्ञानसम्मत आधार ही नहीं बताया, अपितु प्रत्येक का प्रगतिशील प्रस्तुतीकरण किया है । कथा मात्र सुन लेने-एक कान से ग्रहण कर दूसरे से निकाल देने से समय बिगाड़ना मात्र है । यह बात इतनी स्पष्टता के साथ मात्र आचार्यश्री ही लिख सकते थे । पुराणों में श्रीमद्भागवत को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । इसके पारायण, पाठ विभिन्न रूपों में आज भी देश-विदेश में संपन्न होते रहते हैं । अनेकानेक भागवत कथाकार हमें विचरण करते दिखाई देते हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि संसार में चारों ओर धर्म ही संव्याप्त है, कहीं भी अधर्म या अनास्था नहीं है । आस्था का मूल मर्म यह है कि जो सुना गया, उसे जीवन में कितना उतारा गया, आचरण में उतारा गया कि नहीं ? इसके लिए कथा के मात्र शब्दार्थों को नहीं, भावार्थ को, उसके मूल में छिपी प्रेरणाओं को हृदयंगम करना अत्यधिक आवश्यक है । परमपूज्य गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत की प्रेरणाप्रधान प्रस्तुति के साथ-साथ वे शिक्षाएँ दी हैं, जो हमें विभिन्न अवतारों के लीलासंदोह का विवेचन करते समय ध्यान में रखनी चाहिए । श्रीमद्भागवत में अनेकानेक स्थानों पर आलंकारिक विवेचन हैं, उन्हें, उन रूपकों को वास्तविकता में न समझकर लोग बहिरंग को ही सब कुछ मान बैठते है, किंतु आचार्यश्री की लेखनी का कमाल है कि उनने महारास से लेकर- अवतारों की प्रकटीकरण प्रक्रिया-प्रत्येक के साथ प्रेरणाप्रद प्रगतिशील चिंतन प्रस्तुत किया है, जो जीवन में उतरने पर "श्रवण शत गुण मनन सहस्रं निदिध्यासनम्" के शास्त्रबचन को सार्थक करता है । 

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महापुरुषो के जीवन प्रसंग - ५०


Preface

वाड्मय के इस खंड में महापुरुषों के उन अविस्मरणीय जीवन प्रसंगों को लिया गया है, जिनसे अनेकों ने राह पाई है एवं जो आज भी प्रासंगिक हैं । भगवान परशुराम, महात्मा बुद्ध, कुमारजीव, सम्राट अशोक, ईसा, महावीर, संत सुकरात, कन्फ्युशियस, महात्मा जरथुस्त्र, अरस्तु, महर्षि पाणिनि, चाणक्य, शंकराचार्य एवं रामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुषों के जीवन प्रसंगों द्वारा इस खंड में आचरण को ऊँचा उठाने और जीवन के रोजमर्रा की समस्याओं को सुलझाने वाले ऐसे प्रसंग वर्णित हैं जो प्रेरणादाई हैं और सही अर्थो में व्यक्ति की अंतश्चेतना को दिशा देने वाले हैं, इनके विषय में कहा गया है कि "देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर" अर्थात ये मर्मस्थल को स्पर्श करते हुए जीवन की राह को बदल देते हैं । अगले अध्याय में धार्मिक चेतना के उन्नायक ऐसे संत-महात्माओं की जीवनियों के हृदयस्पर्शी प्रसंग वर्णित हैं, जो भारत में जन्मी हमारी संस्कृति के प्राणतत्त्व हैं । संत रैदास, तुकाराम, चैतन्य, नामदेव, ज्ञानेश्वर, स्वामी विवेकानंद, पौहारी बाबा, मत्स्य्रेंद्रनाथ, श्रीअरविंद, महर्षि रमण, स्वामी रामतीर्थ, गुरुनानक एवं अन्य सभी सिख धर्म के गुरु, संत कबीर, राघवेंद्र स्वामी, स्वामी विरजानंद, मलूकदास, रामानुजाचार्य, संत वसवेश्वर, दादू एवं एकनाथ जैसे भारतीय संस्कृति के मील के पत्थर कहे जाने वाले उच्चतम स्तर तक चेतना को पहुँचाकर जन-जन को ईश्वर प्राप्ति का राजमार्ग दिखाने वाले संत-महात्माओं के अविस्मरणीय प्रसंग इसमें हैं ।

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MY LIFE AND ITS LEGACY

Preface

Hamari Vasiyat aur Virasat is the only authentic and authoritative autobiographical account written by Gurudev about himself; notwithstanding the various treatises and reminiscences written by parijans and scholars about his life and work.

special issue of Akhand Jyoti was published in April 1985, in which Gurudev wrote about the appearance of his own Gurudev (Divine Master) who lived in his astral form; his three previous births in the fifteenth, seventeenth and nineteenth centuries; his pilgrimages to the Himalayas and his meetings there with his Gurudev and other Rishi living in their astral forms and the saksmikarana sadhana that he had undertaken in 1984 to make himself a super¬conductive conduit for the flow of all-conquering Divine energy for the banishment of Evil from the human psyche on a global scale and thus facilitate the ushering in of the fast emerging New Era of Peace, Goodwill, Harmony and Love on Earth, notwithstanding the forebodings of the prophets of doom.

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चमत्कारी विशेषताओं से भरा मानवी मस्तिष्क -18

Preface

मानवीय काया अपने आम में एक अजूबा है। इस भगवत्संरचना के एक-एक भाग को देखकर आश्चर्य चकित होकर रह जाना पड़ता है कि किस कुशलता से उस नियन्ता ने इसे विनिर्मित किया होगा। मानवीय काया में जिसे सर्वोच्य व शीर्ष स्थान प्राप्त है तथा जिसकी सक्रियता-निष्क्रियता पर ही सुन्दर काय कलेवर की सार्थकता है, वह है मानवीय मस्तिष्क जिसे प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष, भानुमती का पिटारा, जादुई कम्प्यूटर आदि अनेकानेक उपाधियाँ दी गयी हैं। इस मस्तिष्क का ही चमत्कार है कि शरीर की दृष्टि से मनुष्य यदि कुछ उन्नीस भी है अथवा उसके साथ कोई जन्मजात से लेकर दुर्घटना जन्य विकलांगता जुड़ी हुई है तो भी मस्तिष्क की प्रखरता बनी रहने पर वह बहुत कुछ बुद्धि कौशल संबंधी कार्य संपादित कर सकता है, करा सकता है। मस्तिष्कीय कौशल पर ही मानव की सारी लौकिक-पारलौकिक सफलताएँ, ऋद्धि-सिद्धियाँ टिकी हुई है। यदि मनुष्य अपने पर बहुमूल्य अनुदान को सही ढंग से साध लेता है तो वह दुनियाँ में जो चाहे, वह हस्तगत कर सकता है।

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स्वस्थ रहने के सरल उपाय


Preface

हम खाना क्यों खाते है?

जब से हम जन्म लेते हैं शरीर को शक्ति की आवश्यकता होती है ।। शक्ति के दो प्रमुख स्रोत हैं- १ .नींद २. भोजन

नींद तो अनिवार्यत: सब को लेनी ही पड़ती है ।। एक दो दिन भी कम हो गई तो शरीर हाथ के हाथ उसको पूरा करने को मजबुर होता है ।।

भोजन हम दो कारणों से करते हैं- १. शक्ति के लिये २. स्वाद के लिये

आरम्भ से ही शक्ति और स्वाद में कुश्ती चलती है और देखा यह गया है कि इस कुश्ती में स्वाद जीतता है और शक्ति पीछे रह जाती है ।। कई चीजें तो हम -केवल इसीलिये खा- पी लेते हैं कि वे स्वादिष्ट लगती हैं चाहे उनमें शक्ति है या नहीं या चाहे वे अंतत: नुकसान ही करें ।
कहने को तो कहते हैं कि ' हम जीने के लिये खाते हैं ' पर वस्तुत: यह पाया जाता है कि ' हम खाने के लिये जीते हैं '।

हम खाना पका कर क्यों खाते हैं?
यों तो हम कहते हैं कि खाने की वस्तुओं में कई कीड़े इत्यादि रहने हैं अत: हम पकाकर खाते हैं, पर मुख्यत: स्वाद के लिए ही पकाकर खाते हैं ।। यद्यपि हम जानते हैं कि पकाने से भोजन की पौष्टिकता निश्चित रूप से कम हो जाती है, फिर भी स्वाद व सुविधा के लिए हम पका कर ही खाना खाते हैं ।।

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सफलता के तीन साधन


Preface

सफलता के तीन कारण होते हैं । (१) परिरिथति (२) प्रयत्न(३) भाग्य । बहुत बार ऐसी परिरिथतियाँ प्राप्त होती हैं जिनके कारण स्वल्प योग्यता वाले मनुष्य बिना अधिक प्रयत्न केबड़े-बड़े लाभ प्राप्त करते हैं । बहुत बार अपने बाहुबल से कठिन परिस्थितियो को चीरता हुआ मनुष्य आगे बढ़ता हैऔर लघु से महान बन जाता है । कई बार ऐसा भी देखा गयाहै कि न तो कोई उत्तम परिस्थिति ही सामने है, न कोई योजना, न कोई योग्यता, न कोई प्रयत्न पर अनायास ही कोई आकस्मिक अवसर आया जिससे मनुष्य कुछ से कुछबन गया । इन तीन कारणों से ही लोगों को सफलताएँ मिलती हैं ।

पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं । जन्मजात कारणों से या किसी विशेष उावसरपर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्यके कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ नहीं है ।

हम प्रयत्न को अपना कर ही उापने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं । यही एक साधन हमारे हाथ मे है । इस साधनको तीन भागों में बाँट दिया है-(१) आकांक्षा (२) कष्ट सहिष्णुता(३) परिश्रम शीलता । इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं । इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुरतक में प्रयत्न किया गया है । जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढ़ेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास है ।

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अधिकतम अंक कैसे पाएँ ?

Preface

आज देश एवं समाज की परिस्थितियों बहुत बदल गईं हैं ।। आप पर पढ़ाई का बहुत दबाब है ।। आपके माता- पिता और शिक्षक आपसे बहुत बड़ी- बड़ी अपेक्षाएँ रखते हैं ।। यह प्रतियोगिता का युग है ।। जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए प्रतियोगिता में सफल होना आवश्यक है ।। अत: आप सबसे यह अपेक्षा रहती है कि आप इतने मेधावी, प्रतिभाशाली और योग्य बनें कि प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करें ।। इसी दबाब के कारण आज आप बहुत मानसिक तनाव में रहते हैं और आपके मन में निराशा के विचार आने लगते हैं ।। कमजोर मनोबल के बच्चे आत्महत्या करने को उतारू हो जाते हैं ।। माता- पिता जहाँ अच्छी पढ़ाई और शिक्षा में ऊँची उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु बच्चों को प्रोत्साहित करें, वहीं उन्हें धैर्य और साहस भी प्रदान करें ।। सफलता न मिलने पर उन्हें निराशा से बचाएँ उनसे कहें कि इस प्रतियोगिता में इसलिए नहीं सफल हुए कि ईश्वर किसी और अच्छी ऊँची परीक्षा में उन्हें सफल बनाना चाहता है ।। बच्चों को अध्ययन में परिश्रम के साथ प्यार और धैर्य दिलाना भी आवश्यक है ।।

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बच्चों का निर्माण परिवार की प्रयोगशाला में

Preface

बच्चों का निर्माण- परिवार को प्रयोगशाला में

चरित्रवान माता- पिता ही सुसंस्कृत संतान बनाते हैं

अंग्रेजी में कहावत है- दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स ।। अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज ।। एक बार संत ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया- बच्चे की शिक्षा- दीक्षा कब से प्रारंभ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया- गर्भ में आने के १ ० ० वर्ष पहले से ।। स्त्री भौंचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर संत ने इंगित किया ।। सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का अस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित ही होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा ।। उनकी मन : स्थिति, उनके आचार, उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता- पिता के विचार, उनके रहन- सहन, आहार- विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है ।। कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं ।। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा ? भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्णा का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्य फल था ।। अठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने छोर तप किया था ।। हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बने, इसके लिए मातृत्व और पितृत्व को
गंभीर अर्थ में लिए बिना जाम नहीं चलेगा ।।

महाभारत के समय की घटना है ।। द्रोणाचार्य ने पांडवों के वध के लिए चक्रव्यूह की रचना को ।। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए ।। इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज दिया ।।
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हमारा यज्ञ अभियान

Preface

हमारा यज्ञ अभियान

भारतीय संस्कृति का पिता यज्ञ- यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है ।। यह इसका आदि प्रतीक है ।। हमारी संस्कृति में वेदों का जो महत्व है, वही महत्व यहीं को भी प्राप्त है ।। वेदों में यज्ञ का जितना जिक्र किया गया है, उतना अन्य किसी विषय का नहीं है ।। वास्तव में वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान रहा है ।। यज्ञ को इसका प्राण कहें, तो गलत नहीं होगा ।। प्राचीन भारत की कल्पना करते ही मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ करते हुए ऋषि- मुनियों के चित्र बरबस ही आँखों के सामने आ जाते हैं ।। कपि मुनि ही क्यों, आम जनता धनी- मानी और राजा लोग सभी के हृदय में यज्ञ के प्रति अगाध श्रद्धा थी और इसमें बढ़़चढ़ कर हिस्सा लेते थे ।। साधु- ब्राह्मण लोग तो एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म में ही लगाते थे ।। यज्ञ द्वारा ही मनुष्य संस्कारित होकर शूद्र- पशु से ब्राह्मण- देवत्व को प्राप्त होता है, यह बात प्रचलित थीं ।। उस काल की सुख- समृद्धि शांति में यहीं का सबसे बड़ा हाथ था ।। हो भी क्यों न, आखिर ऋषियों ने इसकी खोज मनुष्य, समाज और सृष्टि के रहस्यों को गहरी समझ के आधार पर की थी ।।

समय बीतने के साथ तमाम उतार- चढ़ावों के बीच हम यज्ञ की उपयोगिता व इसके भूल उद्देश्य को भूल गए। इसे आज की हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कहें, तो गलत न होगा ।। संतोष इतना भर है कि हम अपनी यज्ञीय परम्परा को अभी भुलाए नहीं हैं और प्रतीक पूजा के रूप में ही सही; किन्तु इसकी लकीर पीटते हुए इसकी प्राणशून्य लाश को ढो रहे हैं ।। आज भी यज्ञ इसी रूप में हमारे चौवन- मरण का साथी है ।। हमारा कोई भी शुभ या अशुभ कर्म इसके विना पूरा नहीं होता ।। जन्म से रोकर मृत्यु तक जितने भी सोलह संस्कार हैं, सभी में यज्ञ कम या अधिक रूप में अवश्य किया जाता है और दो में तो इसी को प्रधानता रहती है ।।


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Gayatri Ke Pratyaksha Chamatkar-11

Preface

गायत्री महामंत्र की साधना व्यक्ति के जीवन में क्या कुछ नहीं देती, यह सारा प्रसंग बहुविदित है । विधिपूर्वक की गई साधना निश्चित ही फलदायी होती है एवं उसके सत्परिणाम साधक को शीघ्र ही अपने आत्मिक-लौकिक दोनों ही क्षेत्रों में दिखाई देने लगते हैं । फिर भी इस छोटे से धर्मशास्त्ररूपी सूत्र में इतना कुछ रहस्य भरा पड़ा है, जिसे यदि परत दर परत खोला जा सके तो व्यक्ति अपने जीवन को धन्य बना सकता है । गायत्री भारतीय संस्कृति का प्राण है, परमात्मसत्ता द्वारा धरती पर भेजा गया वह वरदान है, जिसका यदि मनुष्य सदुपयोग कर सके तो वह अपना धरित्री पर अवतरण सार्थक बना सकता है ।
परमपूज्य गुरुदेव जानते थे कि गायत्री-साधना में प्रवृत्त रहने के बाद जनसामान्य में और अधिक जानने की और अधिक गहराई में प्रवेश करने की उत्सुकता भी बढ़ेगी । इसी को दृष्टिगत रख उनने उसका, जितना एक सामान्य गायत्री- साधक को जानना चाहिए व जीवन में उतारना चाहिए, मार्गदर्शन गायत्री महाविज्ञान के अपने तीनों खंडों में कह दिया । इसी प्रसंग में कुछ गुह्य पक्षों की चर्चा वाङ्मय के इस खंड में की गई है ।

गायत्री के चौबीस अक्षर वास्तविकता में चौबीस शक्तिबीज हैं । सांख्य दर्शन में वर्णित उन चौबीस तत्त्वों का जो पंच तत्वों के अतिरिक्त हैं, गुंफन करते हुए ऋषिगणों ने गायत्री महामंत्ररूपी सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति को प्रकट कर जन-जन के समक्ष रखा । चौबीस मातृकाओं की महाशक्तियों के प्रतीक ये चौबीस अक्षर इस वैज्ञानिकता के साथ एक साथ छंदबद्ध- गुंथित कर दिए गए हैं कि इस महामंत्र के उच्चारण मात्र से अनेकानेक अंदर की प्रसुप्त शक्तियों जाग्रत होती हैं । अंदर की प्राणाग्नि में तीव्र स्तर के स्पंदन होने लगते हैं एवं यह परिवर्तन साधक के वर्चस् के संवर्द्धन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।

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Friday 29 April 2016

राष्ट्र के अर्थतन्त्र का मेरुदण्ड गौशाला


Preface

गौवंश की महत्ता व उपयोगिता

हमारे प्राचीन ग्रंथ गौ महिमा से भरे पड़े है। मुक्त कण्ठ से गौ महिमा का गायन किया गया है,जिसका कुछ संकेत भर निम्न श्लोकों में किया जा रहा है :-

गौ माता हमारी सर्वापरी श्रद्धा का केन्द्र है और भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। वस्तुत: गौमाता सर्वदेवमयी है।अथर्ववेद में उसे रुद्रों की माता बसुओं की दुहिता ,आदित्यों की स्वसा और अमृत की नाभी संज्ञा से विभूषित किया गया है।

माता रुद्राणां दुहिता बसूनां।
स्वसाऽऽदित्यानाममृतस्ये नाभि:॥

भारतीय शास्त्रों के अनुसार गौ में तैंतीस करोड़ देवताओं का वास है।उसकी पीठ में ब्रह्मा,गले में विष्णु और मुख में रुद्र आदि देवताओं का निवास है।
यथा-

सर्व देवा: स्थिता देहे सर्वदेवमयी हि गौ:।
पृष्ठे ब्रह्मा गले विष्णु मुखे रुद्र:प्रतिष्ठित:॥

यही कारण है कि यदि सम्पूर्ण तैंतीस कोटि- देव का षोडशोपचार अथवा पञ्चोपचार पूजन करना हो तो केवल एक गौ माता की पूजा और सेवा करने से एक साथ सम्पूर्ण देवी- देवताओं की पूजा सम्पन्न हो जाती है।अत:प्रेय और श्रेय अथवा समृद्धि और कल्याण ,दोनों की प्राप्ति के लिए"गौ सेवा से बढ़कर कोई दूसरा परम साधन नहीं है।
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Thursday 28 April 2016

Gayatri A Unique Solutions For Problems

Preface

It is absolutely easy to be liberated from sins by Gayatri worship. The specialty of Gayatri worship is that when the resonance of the innate powers within its 24 letters occurs within the heart, the sattogun (virtue) within thoughts increases day-by-day and as a result changes occur in the nature and programme of the person. One in whose heart virtuous thoughts increase, the same excellence will also be there in his deeds.

A persons nature is not any definite or permanent thing. It keeps on changing according to situations and sentiments. It is not necessary that a person who is sinful to-day will remain sinful throughout life. Similarly it cannot also be said that a person who is a gentleman with good conduct to-day, will remain so in future also.

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स्वस्थ जीवन - 8 Books

Monday 25 April 2016

Pragya Puran Set


Description

कथा-सहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल में 18 पुराण लिखे गए। उनसे भी काम न चला तो 18 उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर 10,000,000 श्लोक हैं, जबकि चारों वेदों में मात्र 20 हजार मंत्र हैं। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के पलड़े पर रखा जाए और अन्य साहित्य को दूसरे पर कथाऐं भी भारी पड़ेंगी।

समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियाँ, मान्यताएं, प्रथाऐं, समस्याऐं एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती हैं। तदनुरुप ही उनके समाधान खोजने पड़ते हैं। इस आश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रसंगो प्रकाश मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनेकानेक मनःस्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस प्रज्ञा पुराण की रचना की गई, इसे चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।

1. प्रज्ञा पुराण-1
2 प्रज्ञा पुराण-2
3 प्रज्ञा पुराण-3
4 प्रज्ञा पुराण-4
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Sunday 24 April 2016

स्वस्थ रहने के सरल उपाय

Preface

हम खाना क्यों खाते है?

जब से हम जन्म लेते हैं शरीर को शक्ति की आवश्यकता होती है ।। शक्ति के दो प्रमुख स्रोत हैं- १ .नींद २. भोजन

नींद तो अनिवार्यत: सब को लेनी ही पड़ती है ।। एक दो दिन भी कम हो गई तो शरीर हाथ के हाथ उसको पूरा करने को मजबुर होता है ।।

भोजन हम दो कारणों से करते हैं- १. शक्ति के लिये २. स्वाद के लिये

आरम्भ से ही शक्ति और स्वाद में कुश्ती चलती है और देखा यह गया है कि इस कुश्ती में स्वाद जीतता है और शक्ति पीछे रह जाती है ।। कई चीजें तो हम -केवल इसीलिये खा- पी लेते हैं कि वे स्वादिष्ट लगती हैं चाहे उनमें शक्ति है या नहीं या चाहे वे अंतत: नुकसान ही करें ।
कहने को तो कहते हैं कि ' हम जीने के लिये खाते हैं ' पर वस्तुत: यह पाया जाता है कि ' हम खाने के लिये जीते हैं '।

हम खाना पका कर क्यों खाते हैं?
यों तो हम कहते हैं कि खाने की वस्तुओं में कई कीड़े इत्यादि रहने हैं अत: हम पकाकर खाते हैं, पर मुख्यत: स्वाद के लिए ही पकाकर खाते हैं ।। यद्यपि हम जानते हैं कि पकाने से भोजन की पौष्टिकता निश्चित रूप से कम हो जाती है, फिर भी स्वाद व सुविधा के लिए हम पका कर ही खाना खाते हैं ।।

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Human Brain Apparent Boon Of The Omnipotent

Preface

The living state of a human body consists of the five basic elements called Pancha Tatvas and the five basic streams of vital force called Pancha Prana. The Pancha Tatvas constitute the physical body and the Pancha Prana create the mental (subtle) body. The flow of electricity in a circuit is generated by the connection of the two complementary, positive and negative types of currents. The life cycle of a human being also continues to revolve with the help of the two wheels of the physical and mental bodies. The collective contribution of these components is unparalleled in nature.

The known, as well as the undeciphered, structural and functional features of the human body are enormous. Deeper analysis of these brings out more and more amazing results and shows newer layers of mysteries in this splendid action of the Almighty. The structural complexity, functional adaptability and potentials of different sense organs give a glimpse of the magnificent systems that could be constructed in the Jada (material) part of nature.

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Gayatri Ki Dainik Vishisth Sadhana-12

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Preface

गायत्री उपासना हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य बतायी गयी है एवं यह कहा गया है कि न केवल यह सिद्धियों को जगाती है, वरन् हमारे दैनन्दिन जीवन के कषाय-कल्मषों कों हटाने, आत्मसत्ता को स्वच्छ करने के लिए, यह नितान्त अनिवार्य है । गायत्री को कामधेनु कहा गया है अर्थात् इस महाशक्ति की जो देवता, दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है, वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्ध-धारा का पान कर अनन्त आनन्द को पाता है । इसके बाद उसके जीवन में कोई अभाव नहीं रह जाता । उसके सभी कष्ट मिट जाते हैं एवं पाप-प्रारब्ध कट जाते हैं ।

प्राचीन काल का इतिहास हम खोजते हैं तो पाते हैं कि सभी ऋषियों-मुनिजनों, अवतारी सत्ताओं की उपासना का मूल आधार गायत्री ही रहा है । गायत्री साधना से सतोगुणी सिद्धियों व्यक्ति को मिलती हैं एवं उसका जीवन संवेदना-समर्थता-कुशलता-संपन्नता इन चतुर्दिक शक्तियों से ओतप्रोत हो जाता है । गायत्री त्रिगुणात्मक है । इसकी उपासना से जहाँ सतोगुण बढ़ता है, वहीं कल्याणकारी उपयोगी रजोगुण की भी अभिवृद्धि होती है । इस रजोगुणी आत्मबल के संवर्धन से अनेकानेक प्रसुप्त पड़ी शक्तियाँ जाग्रत होती हैं जो सांसारिक जीवन के संघर्ष में अनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न कर व्यक्ति को जीवन समर में विजयी बनाती हैं । गायत्री साधक कभी अभावग्रस्त व दीन हीन नहीं रह सकता, यह परमपूज्य गुरुदेव ने अपने अनुभवों व साधना की सिद्धि के माध्यम से वाड्मय के इस खण्ड में लिखा है।

गायत्री सर्वतोमुखी समर्थता की अधिष्ठात्री है । इसकी साधना कभी किसी को हानि नहीं पहुँचाती ।
 

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गायत्री महाविज्ञान संयुक्त

Preface

गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है। मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट है कि जिसकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते हैं और कार्यों के परिणाम सुख- दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिसके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम होंगे, उसके चरणों तले सुख- शान्ति लोटती रहेगी। गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े- बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे परामर्श एवं पथ- प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं, हमने अपनी आँखों देखे हैं।
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मित्रभाव बढाने की कला

Preface

मनुष्य सामाजिक प्राणी है । उसने इतना अधिक बौद्धिक एवं भौतिक विकास किया है, इसका कारण उसकी सामाजिकता ही है । साथ-साथ प्रेम पूर्वक रहने से आपस में सहयोग करने की भावना उत्पन्न होती है एवं मनुष्य अकेला के वल अपने बल-बूते पर कुछ अधिक उन्नति नहीं कर सकता, दूसरों का सहयोग मिलने से शक्ति की आश्चर्यजनक अभिवृद्धि होती है, जिसके सहारे उन्नति साधन बहुत ही प्रशस्त हो जाते हैं । मैत्री से मनुष्यों का बल बढ़ता है । आगे बढ़ने का, ऊँचेउठने का, क्षेत्र विस्तृत हो जाता है । आपत्तियों और आशंकाओं का मैत्री के द्वारा आसानी से निराकरण किया जा सकता है । आंतरिक उद्वेगों का समाधान करने में संधि-मित्रता से बढ़कर और कोई दवानहीं है । आत्मा का स्वाभाविक गुण प्रेम है, प्रेम को परमेश्वर कहा जाता है । प्रेम के बिना जीवन में सरसता नहीं आती । यह संभव है जहाँ सुदृढ़ मैत्री हो । स्वास्थ्य, धन और विद्या के समान मैत्री भी आवश्यक है । परंतु दुःख की बात है कि बहुत से मनुष्य न तो मैत्री का महत्व समझते है और न उसके जमाने, मजबूत करने एवं स्थायी रखने के नियम जानते है । उन्हें जीवन भर में एक भी सच्चा मित्र नही मिलता । यह पुस्तक इसी उद्देश्य को लेकर लिखी गई है कि लोग मैत्री के महत्त्व को समझें, उसे सुदृढ़ बनायें तथा स्थाई रखने की कला को जानें और मित्रता से प्राप्त होने वाले लाभों के द्वारा अपने को सुसंपन्न बनाएँ । हमारा विश्वास है कि इस पुस्तक से जनता को लाभ होगा ।





 

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शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म-19


Preface

मनन करने से जो त्राण करे, उसे मंत्र कहते हैं ।। मंत्रविद्या का विस्तार असीम है, उसमें अनेकानेक शब्दगुच्छक हैं ।। अनेक शब्दों में मंत्रों का विस्तार हुआ है ।। उनके जप तथा सिद्धिपरक अनेकानेक योगाभ्यास भी हैं, कर्मकांड भी, किंतु उन सबके मूल में एक ही ध्वनि आती है- वह है ओंकार ।। यही शब्दब्रह्म- नादब्रह्म की धुरी है ।। शब्दब्रह्म यदि मंत्र विज्ञान की पृष्ठभूमि बनाता है तो नादब्रह्म की साधना नादयोग का आधार बनती है ।। ओंकार के विराट ब्रह्मांड में गुंजन से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, यदि यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।। नाद या शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति व ताप, प्रकाश, आदि शक्तियों का आविर्भाव उसके बाद होता चला गया ।। इस प्रकार सृष्टि का मूल- इस निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त ब्राह्मी चेतना की धुरी यदि कोई है तो वह शब्द का नाद ही है ।।

परमपूज्य गुरुदेव ने इस अनूठे किंतु जटिल विषय पर जिस सरलता से प्रतिपादन प्रस्तुत किया है, वह देखकर उसे पढ़कर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है ।। समस्त योगाभ्यासों का मूल ही- यहाँ तक कि परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग का द्वार ही शब्दब्रह्म- नादब्रह्म है ।। इसे समझ कर उसे कैसे आत्मसात् किया जाए कैसे अपने अंदर छिपे पड़े प्रसुप्त के जखीरे को जगाया जाए यह सारा मार्ग दर्शन वाड्मय के इस खंड में है ।।

शब्दब्रह्म- नादब्रह्म की विधा भारतीय अध्यात्म की एक महत्त्वपूर्ण धारा है ।। जहाँ शब्दब्रह्म में मंत्र- जप, नामोच्चारण, प्रार्थना, समूहिक साधना आदि की महत्ता है, वहाँ नादब्रह्म में नादयोग एवं संगीत की ।। यह तो मोटा वर्गीकरण हुआ ।।

इस खंड में शब्दब्रह्म की साधना व नादब्रह्म की साधना के जटिल पक्षों को खोला गया है एवं जन-जन के लिए उसे सुगम बनाने का प्रयास किया गया है ।

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साधु की महान परंपरा और जिम्मेदारी

Preface

भारतवर्ष की साधुता विश्वविख्यात है ।। यहाँ साधु- संतों का सदा से बाहुल्य रहा है, गृहस्थो के रूप में भी और विरक्तों के रूप में भी ।। साधु सज्जन को कहते हैं ।। जिसमें निष्कलंक सज्जनता है, उसे साधु ही कहा जाएगा ।। यह सज्जनता का उच्चतम स्तर है कि अपने समय, श्रम, ज्ञान एवं मनोभाव अपने व्यक्तिगत एवं पारिवारिक प्रयोजनों में सीमित न रखकर उसे समस्त विश्व के लिए समर्पित कर दे ।। अपने व्यक्तित्व को सार्वजनिक संपति समझे और उसका उपयोग इस प्रकार करे कि उसका लाभ अपने शरीर को एवं परिवार को ही नहीं, वरन समस्त विश्व को प्राप्त हो ।। वसुधैव कुटुम्बकम् की उदारता एवं महानता जिस किसी अन्तःकरण में उदय हो रही होगी, वह अपनी आंतरिक महानता के कारण इस धरती का देवता माना जाएगा, उसे साधु- महात्मा कहकर पूजा जाएगा ।।

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गायत्री के जगमगाते हीरे

Preface

गायत्री-मंत्र के प्रारंभ में ऊँ लगाया जाता है । ऊँ परमात्मा का प्रधान नाम है । ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति उस एक ही परमात्मा को ब्रह्मवेत्ता अनेक प्रकार से कहते हैं । विभिन्न भाषाओं और संप्रदायों में उसके अनेक नाम हैं । एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं फिर भी वह एक ही है । इन नामों में ऊँ को प्रधान इसलिए माना है कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गतिविधियों को अपने योग-बल से देखने वाले ऋषियों ने समाधि लगाकर देखा है कि प्रकृति के अंतराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है जो ऊँ शब्द से मिलती-जुलती है । सूक्ष्म प्रकृति इस ईश्वरीय नाम का प्रतिक्षण जप और उद्घोष करती है इसलिए अकृत्रिम, दैवी,स्वयं घोषित, ईश्वरीय नाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । आस्तिकता का अर्थ है-सतोगुणी, दैवी, ईश्वरीय, पारमार्थिक भावनाओं को हृदयंगम करना । नास्तिकता का अर्थ है-तामसी, आसुरी, शैतानी, भोगवादी, स्वार्थपूर्ण वासनाओं में लिप्त रहना । यों तो ईश्वर भले-बुरे दोनों तत्त्वों में है पर जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, भजते हैं ।

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मन: स्थिति बदले तो परिस्थिति बदले


Preface

संसार में चिरकाल से दो प्रचण्ड-धाराओं का संघर्ष होता चला आया है। इसमें से एक की मान्यता है कि अपेक्षित साधनों की बहुलता से ही प्रसन्नता और प्रगति सम्भव है। इसके विपरीत दूसरी विचारधारा यह है कि मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। उसके आधार पर ही साधनों का आवश्यक उपार्जन और सत्प्रयोजनों के लिए सदुपयोग बन पड़ता है। वह न हो, तो इच्छित वस्तु पर्याप्त मात्रा में रहने पर भी अभाव और असन्तोष पनपता दीख पड़ता है।

एक विचारधारा कहती है कि यदि मन को साध सँभाल लिया जाये, तो निर्वाह के आवश्यक साधनों में कमी कभी नहीं पड़ सकती। कदाचित् पड़े भी, तो उस अभाव के साथ संयम, सहानुभूति, सन्तोष जैसे सद्गुणों का समावेश कर लेने पर जो है, उतने में ही भली प्रकार काम चल सकता है। कोई अभाव नहीं अखरता। दूसरी का कहना है कि जितने अधिक साधन, उतना अधिक सुख। समर्थता और सम्पन्नता होने पर दूसरे दुर्बलों के उपार्जन-अधिकार को भी हड़प कर मन चाहा मौज-मजा किया जा सकता है।

दोनों के अपने अपने तर्क, आधार और प्रतिपादन हैं। प्रयोग भी दोनों का ही चिरकाल से होता चला आया है, पर अधिकांश लोग अपनी-अपनी पृथक मान्यतायें बनाये हुये चले आ रहे हैं। ऐसा सुयोग नहीं आया कि सभी लोग कोई सर्वसम्मत मान्यता अपना सकें। अपने अपने पक्ष के प्रति हठपूर्ण रवैया अपनाने के कारण, उनके बीच विग्रह भी खड़े होते रहते हैं। इसी को देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। पदार्थ ही सब कुछ हैं-यह मान्यता दैत्य पक्ष की है। वह भावनाओं को भ्रान्ति और प्रत्यक्ष को प्रामाणिक मानता है। देव पक्ष, भावनाओं को प्रधान और पदार्थ को गौण मानता है। दर्शन की पृष्ठभूमि पर इसी को भौतिकता और आध्यात्मिकता नाम दिया जाता है। हठवाद ने दोनों ही पक्षों को अपनी ही बात पर अड़े रहने के लिए भड़काया है।








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Saturday 23 April 2016

गायत्री पंचमुखी एक मुखी

 
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• गायत्री के पाँच मुख

• अन्नमय कोश

• प्राणमय कोश

• मनोमय कोश

• विज्ञानमय कोश

• आनन्दमय कोश

• गायत्री माता की दस भुजाएँ

• आत्मज्ञान

• आत्मदर्शन

• आत्म अनुभव

• आत्मलाभ

• आत्म कल्याण

• नीरोगिता

• समृद्धि

• विद्या

• कौशल

• मैत्री

• प्रतीक का निष्कर्ष

• गायत्री का भावनात्मक एवं वैज्ञानिक महत्त्व

स्वस्थ और सुंदर बनने की विद्या

Preface

यह अच्छी तरह अनुभव कर लिया गया है कि खिलखिलाकर हँसने से अच्छी भूख लगती है, पाचनशक्ति बढ़ती है और रक्त का संचार ठीक गति से होता है ।। क्षय जैसे भयंकर रोगों में हँसना अमृत- तुल्य गुणकारी सिद्ध हुआ है ।। खिल- खिलाकर हँसने से मुँह, गरदन, छाती और उदर के बहुत उपयोगी स्नायुओं को आवश्यकीय कसरत करनी पड़ती है, जिससे वे प्रफुल्लित और दृढ़ बनते हैं ।। इसी तरह मांसपेशियों, ज्ञानतंतुओं और दूसरी आवश्यक नाड़ियों को हँसने से बहुत दृढ़ता मिलती है ।। हँसने का मुँह, गाल और जबड़े पर बड़ा अच्छा असर पड़ता है ।। मुँह की मांसपेशियों और नसों का यह सबसे अच्छा व्यायाम है ।। जिन्हें हँसने की आदत होती है, उनके गाल सुंदर, गोल और चमकीले रहते हैं ।। फेफड़ों के छोटे- छोटे भागों में अकसर पुरानी हवा भरी रहती है, आराम की साँस लेने से बहुत- थोड़ी वायु फेफड़ों में जाती है और प्रमुख भागों में ही हवा का आदान- प्रदान होता है, शेष भाग यों ही सुस्त और निकम्मा पड़ा रहता है, जिससे फेफड़े संबंधी कई रोग होने की आशंका रहती है, किंतु जिस समय मनुष्य खिल- खिलाकर हँसता है, उस समय फेफड़ों में भरी हुई पहले की हवा पूरी तरह बाहर निकल जाती है और उसके स्थान पर नई हवा पहुँचती है ।। मुँह की रसवाहिनी गिलटियाँ हँसने से चैतन्य होकर पूरी मात्रा में लार बहाने लगती हैं ।। पाठक यह जानते ही होंगे कि भोजन में पूरी मात्रा में लार मिल जाने पर उसका पचना कितना आसान होता है? जो आदमी स्वस्थ रहना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि हँसने की आदत डालें ।

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Pragya Yoga For Happy And Healthy Life

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Preface

Our sagacious ancestors of the Vedic Age had gifted with precious heritage of the yoga-science of well-being. However, with changing civilizations and attitudes towards life, in the course of time, people largely became materialistic and ignored the ancient sciences. Subsequent single-tracked commercialized civilization and inclination towards bodily comforts and sensual pressures has raised several problems in the present times. One is so busy making money and seeking more and more comforts that one tends to neglect the fact that the mind-body system is also like a machine, which needs careful maintenance and "re-charging" of its components and power units. As a result, one is facing unprecedented threats and challenges on the health front. Preventive measures and augmentation of stamina and resistance are crucial if one wants to sustain a healthy and hearty life. Revival of sound practice of yoga therefore assumes greater relevance and importance today than ever before. This book introduces the real meaning and scope of yoga and presents a new method of practicing it for strengthening and rejuvenation of body and mind. The method named "Pragya Yoga" is fast and feasible, yet, comprehensive-in-effect. It can be practiced by people of all age groups without any cost or time constraints.

 

Thursday 21 April 2016

मैं क्या हूँ ?

Preface

इस संसार में जानने योग्य अनेक बातें है । विद्या के अनेकों सूत्र हैं, खोज के लिए, जानकारी प्राप्त करने के लिए, अमित मार्ग है । अनेकों विज्ञान ऐसे हैं, जिनकी बहुत कुछ जानकारी मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है । क्यों ? कैसे ? कहाँ ? कब ? के प्रश्न हर क्षेत्रमें वह फेंकता है । इस जिज्ञासा भाव के कारण ही मनुष्य अब तक इतना ज्ञान संपन्न और साधन संपन्न बना है । सचमुच ज्ञान ही जीवन का प्रकाश स्तंभ है । जानकारी की अनेक वस्तुओं में से अपने आपकी जानकारी सर्वोपरि है । हम बाहरी अनेक बातों को जानते है याजानने का प्रयत्न करते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हम स्वयं क्या है ? अपने आपके ज्ञान प्राप्त किए बिना जीवन क्रम बड़ाडाँवाडोल. अनिश्चित और कंटकाकीर्ण हो जाता है । अपने वास्तविक स्वरूप की जानकारी न होने के कारण मनुष्य न सोचने लायक बातें सोचता है और न करने लायक कार्य करता है । सच्चीसुख-शांति का राजमार्ग एक ही है, और वह है- आत्मज्ञान ।

इस पुस्तक में आत्मज्ञान की शिक्षा है । मैं क्या हूँ ? इस प्रश्न का उत्तर शब्दों द्वारा नहीं, वरन् साधना द्वारा हृदयंगम करानेका प्रयत्न इस पुस्तक में किया गया है । यह पुस्तक अध्यात्म मार्गके पथिकों का उपयोगी पथ प्रदर्शन करेगी, ऐसी हमें आशा है ।


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Sunday 17 April 2016

Loose Not Your Heart

Preface

Before looking at the faults of others, find your own faults. Before exposing others evils, see if you have any evils. If so, first remove them. The time you spend in censuring others, better spend in your self-development. You will agree that instead of increasing ill will due to ensuring others, you are proceeding on the path of eternal pleasure. 

Oh men! Who want to conquer the whole world, first try to conquer yourself? If you are able to do it, then one day you will fulfil your dream of conquering the world. Being the master of your senses, you will be able to guide all the living beings. None will be your opponent in this world.

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स्वस्थ रहना है तो ये खाइए!

Preface

हमारे जीवन का आधार जिन बातों पर है, उनमें आहार का स्थान प्रमुख है ।। वैसे हम वायु के बिना पाँच मिनट भी नहीं जी सकते; जल के बिना भी दो- चार दिन तक जीवन धारण कर सकना कठिन हो जाता है, तो भी इनकी प्राप्ति में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता न होने से उनके महत्त्व की तरफ हमारा ध्यान प्राय: नहीं जाता ।। पर आहार की स्थिति इससे भिन्न है ।। यदि यह कहें कि अनेक मनुष्यों का जीवनोद्देश्य केवल आहार प्राप्त करना ही होता है और उनकी समस्त गतिविधियाँ केवल भोजन की व्यवस्था पर ही केंद्रित रहती हैं, तो इसमें कुछ भी गलती नहीं ।। सामान्य मनुष्य के लिए संसार में सबसे प्रथम और सबसे बड़ी आवश्यकता आहार की ही जान पड़ती है और महान से महान व्यक्ति को भी उसकी तरफ कुछ ध्यान देना ही पड़ता है ।। इस प्रकार आहार समस्या से हमारा संबंध बड़ा घनिष्ठ है ।। पर ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय में भी सर्वसाधारण की जानकारी अत्यंत कम है ।। लोग अपनी रुचि का भोजन पा जाने से संतुष्ट हो जाते हैं अथवा परिस्थितिवश जो कुछ खाद्य पदार्थ मिल जाए उसी से काम चलाने का प्रयत्न करते हैं ।। पर वह भोजन हमारे लिए वास्तव में कितना अनुकूल और उपयोगी है? उससे जीवन- तत्त्वों की कहाँ तक उपलब्धि हो सकती है? हमारे देह और मन के विकास के लिए वह कितना लाभदायक है ?

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ईश्वर विश्वास और उसकी फलश्रुतिया-५६

Preface

आस्तिकता मानव जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता है । बिना ईश्वर के मनुष्य इतनी लम्बी अपनी जीवन-यात्रा पूरी नहीं कर सकता । ईश्वर पर, उसके अनुशासन पर, उसके कण-कण में समाए अस्तित्व में विश्वास पर ही इस धरित्री का सारा क्रिया-कलाप टिका हुआ है । जिस दिन यह व्यापक परिमाण में उठ जाएगा एवं धरती स्वच्छन्द, भोगवादी विचारधारा पर, विश्वास रखने वाले नास्तिकों से भरी होगी, सृष्टि का अस्तित्त्व ही खतरे में पड जाएगा । परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के साहित्य की मूल धुरी "आस्तिकवाद" रही है । विभिन्न तर्कों, प्रतिपादनो-दृष्टान्तों एवं प्रमाणों के माध्यम से जन-जन के मनों में आस्तिकवाद की प्रेरणा भरने का प्रयास किया है । वाड्मय के इस खण्ड में ईश्वर-विश्वास करने वाले के जीवन में प्रतिक्रिया-स्वरूप क्या-क्या परिवर्तन-फलितार्थ देखने को मिलते हैं, विस्तार से पाठक पढ़ सकते हैं । 

आस्तिकता का अर्थ है- आत्मविश्वास, दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मनोबल की प्रचुरता । जिसे अपने आप पर पूर्णत: विश्वास है, वही सच्चे अर्थो में आस्तिक है, यह परिभाषा पूरी तरह वेदान्त के अध्यात्म ब्रह्म, तत्त्वमसि की भावना को चरितार्थ करती पूरे खण्ड में देखी जा सकती है । आज तथाकथित प्रच्छन्न आस्तिकता मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करने के रूप में दिखाई देती है, परन्तु यह पूज्यवर की दृष्टि में विवेक की कसौटी पर कसने पर यह मात्र एक छलावा जान पड़ती है । जिसे ईश्वर पर विश्वास है, वह दिखावा नहीं करता । अपने आपको प्रगाढ़ आत्मविश्वास संपन्न बनाता है । यह एक ऐसी विभूति है जिसके माध्यम से अन्यान्य ऋद्धि-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं । ऐसा पूज्यवर का मत है । 

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Diagnose, Cure And Empower Yourself By Currents Of Breath

Preface

Swara Yoga refers to an Independent and complete in Itself branch of yoga. It deals with the physiological, psychological and spiritual aspects of the rhythmic notes of breathing and the associated flow of bio-electrical currents and prana (vital spiritual energy). The preeminent science (swara-vijnana) of this powerful yoga was derived by the Vedic Sages, whose enlightened acumen had a reach into the deepest depths of perceivable and sublime components of Nature and the diverse forms of life manifested in it…..


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Paranormal Acheivements Through Self Discipline

Preface

"Sadhana" or self-discipline means an endeavor to exercise a voluntary control over personal traits. The deities being invoked are in fact. Symbolical representations of ones own inherent divine attributes and ethical self. When these characteristics are in a dormant state, man suffers from unhappiness and deprivations. But as soon as they are recognized, accentuated and activated, the individual begins to sense his extra-ordinary potential of control over sensory and extra-sensory elements (Ridhi-Siddhi) of the world. A human being is basically omnipotent (a living Kalpavrikcha). God has bestowed him with many capabilities-with everything required by him. The human existence is in fact a repository of innumerable potentialities. Their number is infinite like the deposits of precious stones and minerals buried deep in the earth and lying in the abyssal depths of the ocean. However, not unlike the wealth of these deposits, the supra-normal talents of man are not within the reach of all and sundry. A persistent endeavor is required to unearth them. Those who are unable to gather sufficient enterprise do not gain anything. On the other hand, who make an effort, are rewarded in each and every field of life. This very endeavor is known as "sadhana" or self discipline. Evidently, invocation of a deity has only one objective, i.e. to activate ones inherent potentialities, make oneself adequately competent and imbibe a high level of morality in character.


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Thursday 14 April 2016

युग गीता भाग-३

Preface

पाँचवें अध्याय द्वारा जो अति महत्त्वपूर्ण है, में कर्म संन्यास योग प्रकरण में सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय प्रस्तुत करते हैं, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा का ज्ञान कराते हैं। फिर वे ज्ञानयोग की महत्ता बताते हुए भक्ति सहित ध्यानयोग का वर्णन भी करते हैं। ध्यान योग की पूर्व भूमिका बनाकर वे अपने प्रिय शिष्य को एक प्रकार से छठे अध्याय के प्रारम्भिक श्लोकों द्वारा आत्म संयम की महत्ता समझा देते हैं। यही सब कुछ परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन के परिप्रेक्ष्य में युगगीता- ३ में प्रस्तुत किया गया है। इससे हर साधक को कर्मयोग के संदर्भ में ज्ञान की एवं ज्ञान के चक्षु खुलने के बाद ध्यान की भूमिका में प्रतिष्ठित होने का मार्गदर्शन मिलेगा। जीवन में कैसे पूर्णयोगी बनें- युक्तपुरुष किस तरह बनें, यह मार्गदर्शन छठे अध्याय के प्रारंभिक ९ श्लोकों में हुआ है। इस तरह पंचम अध्याय के २९ एवं छठे अध्याय के ९ श्लोकों की युगानुकूल व्याख्या के साथ युगगीता का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण समाप्त होता है।

अर्जुन ने प्रारंभ में ही एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि कर्मसंन्यास व कर्मयोग में क्या अंतर है। उसे संशय है कि कहीं ये दोनों एक ही तो नहीं। दोनों में से यदि किसी एक को जीवन में उतारना है, तो उसके जैसे कार्यकर्त्ता- एक क्षत्रिय राजकुमार के लिए कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। वह एक सुनिश्चित जवाब जानना चाहता है। उसके मन में संन्यास की एक पूर्व निर्धारित पृष्ठभूमि बनी हुई है, जिसमें सभी कर्म छोड़कर गोत्र आदि- अग्रि को छोड़कर संन्यास लिया जाता है। भगवान् की दृष्टि में दोनों एक ही हैं। ज्ञानयोगियों को फल एक में मिलता है तो कर्मयोगियों को दूसरे में, पर दोनों का महत्त्व एक जैसा ही है।

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गायत्री का सूर्योपस्थान

Preface

गायत्री मंत्र की व्याख्या का विस्तार चारों वेदों के रुप में हुआ इसी से गायत्री को वेदमाता कहते हैं ।। वेद जननी होते हुए भी गायत्री एक वेद मन्त्र है ।। वेद के प्रत्येक मन्त्र का एक छन्द एक ऋषि और एक देवता होता है ।। उसका स्मरण, उच्चारण करते हुए विनियोग किया जाता है ।। गायत्री महामन्त्र का गायत्री छन्द विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता है ।। वोलचाल की भाषा में सविता को सूर्य कहते हैं ।। सविता और सावित्री का युग्म माना गया है ।। प्राथमिक उपासना में गायत्री का मातृ सत्ता के दिव्य शक्ति के रुप में नारी कलेवर का निर्धारण हुआ है ।। मानवी आकृति में उसे देवी प्रतीक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है ।। यह उचित भी है ।। इसमें पवित्रता सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा- साधना जैसे मातृ- शक्ति में विशिष्ट रुप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है ।। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है ।। सद्बुद्धि, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को साहित्य में स्त्रीलिंग माना गया है ।। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रुप से नारी प्रतीक के रुप में चित्रित किया गया है तो उसे उचित ही कहा जा सकता है ।। इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता ।।

साकार उपासना में भी गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मडल के मध्य में विराजमान महाशक्ति के रुप में किया जाता हे ।। सूर्यमण्डल मध्यस्था विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है ।। साकार उपासना करने वाले पुस्तक, पुष्प, कमण्डल धारण किए हुए मातृ- शक्ति का सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं ।। http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=763
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वैभव नही महानता का वरण करें


Table of content

• ऐश्वर्य को अतिरंजित महत्त्व न दें
• विचारणा में दूरदर्शिता हो आचरण में शालीनता
• उत्कृष्टता का वरण एक महान पुरुषार्थ
• चरित्रनिष्ठा-सर्वोपरि शक्ति
• श्रेष्ठता के दो आधार सादा जीवन, उच्च विचार
• अंत:करण पवित्र भावों से अनुप्राणित हो
• गुणग्राही बनें, दुर्गुणों से दुर रहें
• व्यक्तित्व का श्रृंगार-सदगुण
• समस्त दुर्गुणों का मूल कारण अंहकार
• बिना मोल की अमूल्य संपत्ति शालीनता

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Wednesday 13 April 2016

१०८ उपनिषद्-साधना खण्ड


१०८ उपनिषद्-साधना खण्ड

 उपनिषद् में उप और नि उपसर्ग हैं । सद् धातु गति के अर्थ में प्रयुक्त होती है। गति शब्द का उपयोग ज्ञान, गमन और प्राप्ति इन तीन संदर्भो में होता है । यहाँ प्राप्ति अर्थ अधिक उपयुक्त है । उप सामीप्येन, नि-नितरां, प्राम्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाताहै, वह उपनिषद् है ।

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बाल संस्कारशालाएँ इस तरह चलें

Preface

संवेदनशील- अनुकरणीय आयु

बचपन सीखने की सबसे बड़ी अवधि है ।। उस अवधि में अचेतन इतना अधिक सचेतन होता है कि जो कुछ ग्रहण कर लेता है उसे आजीवन अपनाए रहता है ।। बच्चों की प्रत्यक्ष समझ तो कमजोर होती है पर उनकी सूक्ष्म ग्रहण- शक्ति इतनी अधिक होती है कि उसे आधारशिला कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति न होगी ।।

दस वर्ष तक बालकपन माना गया है और इसके बाद के दस वर्ष तक का बालक बीस वर्ष की आयु तक का किशोर होता है ।। यही आयु है, जिसमें अभिभावकों की, संबंधी हितैषियों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ।। बीस वर्ष में प्राय: मनुष्य समझदार हो जाता है, अपना भला- बुरा समझने लगता है और अपनी बुद्धि के सहारे अपने भले- बुरे का निर्णय कर सकता है ।। यों इस आयु में भी श्रेष्ठ- सज्जनों की संगति की आवश्यकता रहती है ।।

दस वर्ष तक के गुण, कर्म, स्वभाव का निर्माण अभिभावक और परिवार के लोग करते हैं ।। दस वर्ष तक बच्चा प्राय: माता- पिता और अभिभावकों के बीच रहता है ।। स्कूल पढ़ने जाता है तो वहाँ सभी अजनबी होते हैं ।। ज्यादातर समय उसे घर- परिवार में ही व्यतीत करना पड़ता है ।। उस समय में वह जो कुछ सीखता- समझता है, परिवार के लोग ही उसके वास्तविक शिक्षक होते हैं ।।

 

बाल संस्कारशालाएँ इस तरह चलें 

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विश्व वसुधा जिनकि ऋणि रहेगी-५२

परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से वाड्मय के इस खंड में इसी तरह के महामानवों के जीवन- प्रसंगों को लिया गया है ।। महामनीषी कल्लट, खलील जिब्रान, रवींद्रनाथ टैगोर, विष्णु शर्मा, दांते, बाबू गुलाब राय से लेकर शोपेन हॉवर, विलियम शेक्सपीयर, पियर्सन, रूसो, टॉल्स्टॉय आदि तक विश्व के मूर्द्धन्य दार्शनिक चिंतक मनीषी एवं विचार- क्रांति के द्रष्टा महामानवों के जीवन- चरित्रों को प्रथम अध्याय में स्थान दिया गया है ।। जन जागृति के प्रणेता युग मनीषियों को दूसरे अध्याय में लिया गया है ।। मानवी चिंतन चेतना को जाग्रत कर उसे निश्चित दिशा एवं गति प्रदान करने का कार्य जिन महामानवों ने किया है, उनमें से अधिकांश के हृदयोद्गार कविता की निर्झरिणी के रूप में प्रस्कुटित हुए हैं ।। महाकवि कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई आदि से लेकर दांते, चंदवरदायी एवं निराला तक समय के पृष्ठों पर अग्नि- काव्य लिखने वाले साहित्यसाधको के व्यक्तित्व एवं कृतित्व आज भी जनमानस में रचे बसे हैं और उन्हें अनुप्राणित- उद्देलित करते रहते हैं ।। अर्नेस्ट जोन्स, पुश्किन, जाइगेर, इलियट, पाब्लोनेरूदा जैसे पाश्चात्य सद्ज्ञान साधकों के जीवन- प्रसंग भी जन- जाग्रति के प्रणेताओं में अग्रणी हैं ।।

परमपूज्य गुरुदेव का सदैव यही उद्देश्य रहा है कि सार्वभौम एकता एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श साहित्य तक ही सीमित रहने से आगे बढ़कर जन- जन के व्यवहार में उतारा जाय और उसी एकता के आधार पर बाह्य एवं आंतरिक जीवन की सुख- शांति को उपलब्ध किया जाय ।। यही कारण है कि भारतीय समाज के प्राय समस्त धर्मग्रंथों- वेदों से लेकर पुराणों तक अंतकरण को झकझोरकर रख देने वाली मर्मस्पर्शी, सरल भाषा शैली में अनुवादित और प्रकाशित किए गए हैं ।।

विश्व वसुधा जिनकि ऋणि रहेगी-५२

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मीमांसा दर्शन

किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ निर्णय करने की विधि को मीमांसा कहते हैं । भारतीय धर्म का मूल ग्रन्थ वेद है । वेद के दो भाग हैं-एकको कर्मकाण्ड, दूसरे को ज्ञानकाण्ड कहते हैं । कर्मकाण्ड में याज्ञिक क्रियाओं एवं अनुष्ठान की विधियों का वर्णन किया गया है ज्ञानकाण्ड में ईश्वर, जीव एवं प्रकृतिगत पदार्थों के स्वरूप और सम्बन्ध का निरूपण किया गया है । एक परिभाषाके अनुसार इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट-परिहार के अलौकिक उपाय बतलाने वाले ग्रन्थ को वेद कहा जाता है । इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट का परिहार धर्माचरण से ही हो सकता है । हमें जो करना चाहिए और जैसा होना चाहिए जैसे प्रश्नों का समाधान धर्मशास्त्र या वेद ही कर सकते हैं, मीमांसादर्शन की उत्पत्ति इन्हीं प्रश्नों की वास्तविक जानकारी के लिए हुई है । कर्मकाण्ड एवं ज्ञान के निरूपण में दिखाई पड़ने वाले आपातत: विरोधोंको दूर करने का लक्ष्य लेकर मीमांसा दर्शन की प्रवृत्ति होती है । इसे कर्म मीमांसा भी कहते हैं,क्योंकि इसमें कर्मकाण्ड की मीमांसा की गई है; परन्तु सामान्य तौर पर इसे मीमांसा नाम से ही अभिहित किया गया है । ज्ञानकाण्ड का यथार्थ निरूपण करने वाले दर्शन को ज्ञान मीमांसा कहते हैं, जिसे सामान्यतया वेदान्त कहते हैं । वेद का पूर्व खण्ड कर्मकाण्ड तथा उत्तरखण्ड ज्ञानकाण्ड होने के कारण मीमांसा को पूर्व मीमांसा तथा वेदान्त को उत्तर मीमांसा कहते हैं । मीमांसा दर्शन में वैदिक कर्मकाण्डों की समस्याओं और शंकाओं का समाधान किया गया है, इसी कारण दूसरे सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए भी इसकी उपादेयता बढ़ जाती है; परन्तु दूसरा पक्ष इसीलिए इसे दर्शन मानने से इनकार भी करता है । उसका कहना है कि इसके मूल सूत्र ग्रन्ध में प्रमाणों के अतिरिक्त और किसी भी दार्शनिक तत्त्व का समावेश नहीं है ।

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Applied Science Of Yagya For Health And Environment

Yagya-therapy is an ancient method of herbal/plant medicinal treatment derived from the. Vedic texts. In yagya natural herbal/plant products are processed in fire and medicinal vapors, gases and photo chemicals are released. It is basically an inhalation therapy that promises wider healing applications without any risk, of side effects or drug-resistance. It is cost effective and natural and provides added benefits of purifying the environment and balancing the Eco-system.

This book aims to introduce the readers to the ancient knowledge and modern scientific findings on yagya (fire-ritual) with special focus on preventive and therapeutic applications for holistic healthcare. It also presents detailed information and guidelines for yagya-threapy of several diseases and disorders — including the dreaded ones like Cancer and AIDS — that have challenged the world today.

Yagya Therapy –The key to Holistic Health

Yagya Therapy is an ethno-botanical inhalation therapy derived from the ancient Medical Science of India, The multiple benefits of yagya experiments include purification of atmospheric environment and healthy fertilization of the soil. Scientific validity and technical evaluation of this Vedic ritual in recent times indicate its enormous potential for reducing air-water pollution and for agricultural and therapeutic applications.

Applied Science Of Yagya For Health And Environment

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Monday 11 April 2016

दो ही संपत्ति, दो ही विभूति योग एवं तप

Preface

लोकमंगल के लिए किए प्रयास भगवान की सर्वोत्तम पूजा है। ईश्वरीय प्यार को प्राप्त करने के लिए अपना आन्तरिक स्तर परिष्कृत करना ही सर्वश्रेष्ठ तप साधना है। इन दिनों यही युग साधना है। योग साधनात्मक विशेष तप संचय के लिए अपना एक शक्तिशाली संयंत्र काम कर रहा है उसका उपार्जन हम सबके लिए है। उसमें से जिस-जिस प्रयोजन के लिए जितनी शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, सहज ही मिलती रहेगी। अलग-अलग छुट्पुट तप साधना और योगाभ्यास के झंझट में पड़ने का यह समय बिलकुल नहीं है। एक बड़ी भट्ठी पर सबका भोजन पक रहा है तो अलग-अलग चूल्हे जलाने की क्या आवश्यकता है ? इन दिनों आत्मकल्याण का सबसे उत्तम माध्यम आत्मनिर्मांण और युग निर्माण के महान अभियान का अंग बनकर काम करना भी है। 

योगी बनने के तरीके क्या हो सकते हैं ? बेटे ! योगी बनने के लिए वही तरीके हो सकते हैं, जिनका हर नमूना पेश करने के लिए हमको अपनी जिंदगी दान करनी पड़ी और हमको जन्म लेना पड़ा। हमको आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए इसका स्वरूप क्या होना चाहिए, यह समझाने के लिए जन्म लेना पड़ा है, अन्यथा हमको जन्म नहीं लेना पड़ता। लोग यह भूल गए थे कि अध्यात्म क्या हो सकता है और भगवान की सिद्धियाँ कैसे प्राप्त हो सकती हैं? हमने अपनी जिंदगी में लोगों को समझाया भी है, सिखाया भी है, पुस्तकें भी लिखी हैं, लेकिन सबसे बड़ी पुस्तक हमारी जिंदगी है। हमने इतनी लम्बी जिंदगी जी और उस लम्बी जिंदगी में यह बात बताई कि देखिए आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के तरीके ये हैं। इसके फायदे ये हैं। नहीं साहब ! किताबों में लिखा है। नहीं बेटे ! किताब की बात सच नहीं होती। यकीन करने की जरूरत नहीं है।


दो ही संपत्ति, दो ही विभूति योग एवं तप

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