Thursday 15 September 2016

अंतर्जगत की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान भाग-1

Preface

परम पूज्य गुरुदेव एवं महर्षि पतंजलि में अद्भुत साम्य है । अध्यात्म जगत् में इन दोनों की उपस्थिति अत्यन्त विरल है । ये दोनों ही अध्यात्म के शिखर पुरुष हैं, परन्तु वैज्ञानिक हैं । वे प्रबुद्ध हैं- बुद्ध, कृष्ण, महावीर एवं नानक की भांति लेकिन इन सबसे पूरी तरह से अलग एवं मौलिक हैं । बुद्ध, कृष्ण महावीर एवं नानक-ये सभी महान् धर्म प्रवर्तक हैँ इन्होंने मानव मन और इसकी संरचना को बिल्कुल बदल दिया है, लेकिन उनकी पहुँच, उनका तरीका वैसा सूक्ष्मतम स्तर पर प्रमाणित नहीं है । जैसा कि पतंजलि का है । 

जबकि महर्षि पतंजलि एवं वेदमूर्ति गुरुदेव अध्यात्मवेत्ताओं की दुनिया के आइंस्टीन हैं । वे अदभुत घटना हैं । वे बड़ी सरलता से आइंस्टीन, बोर, मैक्स प्लैंक या हाइज़ेनबर्ग की श्रेणी में खड़े हो सकते हैं । उनकी अभिवृत्ति और दृष्टि ठीक वही है, जो एकदम विशुद्ध वैज्ञानिक मन की होती है । कृष्ण कवि हैं, कवित्व पतंजलि एवं गुरुदेव में भी है । किन्तु इनका कवित्व कृष्ण की भांति बरबस उमड़ता व बिखरता नहीं, बल्कि वैज्ञानिक प्रयोगों में लीन हो जाता है । पतंजलि एवं गुरुदेव वैसे रहस्यवादी भी नहीं हैं जैसे कि कबीर हैं । ये दोनी ही बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक हैं जो नियमों की भाषा में सोचते-विचारते हैं । अपने निष्कर्षों को रहस्यमय संकेतों के स्वर में नहीं, वैज्ञानिक सूत्रों के रूप में प्रकट करते हैं । 

अदभुत है इन दोनों महापुरुषों का विज्ञान । ये दोनों गहन वैज्ञानिक प्रयोग करते हैं, परन्तु उनकी प्रयोगशाला पदार्थ जगत् में नहीं, अपितु चेतना जगत् में है । वे अन्तर्जगत् के वैज्ञानिक हैं और इस ढंग से वे बहुत ही विरल एवं विलक्षण हैं ।

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Saturday 10 September 2016

संस्कृति संजीवनी भागवत एवं गीता-३१

Preface

परमपूज्य गुरुदेव की यह विशेषता है कि उनने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पक्ष का विवेचन करते समय हरेक का विज्ञानसम्मत आधार ही नहीं बताया, अपितु प्रत्येक का प्रगतिशील प्रस्तुतीकरण किया है । कथा मात्र सुन लेने-एक कान से ग्रहण कर दूसरे से निकाल देने से समय बिगाड़ना मात्र है । यह बात इतनी स्पष्टता के साथ मात्र आचार्यश्री ही लिख सकते थे । पुराणों में श्रीमद्भागवत को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । इसके पारायण, पाठ विभिन्न रूपों में आज भी देश-विदेश में संपन्न होते रहते हैं । अनेकानेक भागवत कथाकार हमें विचरण करते दिखाई देते हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि संसार में चारों ओर धर्म ही संव्याप्त है, कहीं भी अधर्म या अनास्था नहीं है । आस्था का मूल मर्म यह है कि जो सुना गया, उसे जीवन में कितना उतारा गया, आचरण में उतारा गया कि नहीं ? इसके लिए कथा के मात्र शब्दार्थों को नहीं, भावार्थ को, उसके मूल में छिपी प्रेरणाओं को हृदयंगम करना अत्यधिक आवश्यक है । परमपूज्य गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत की प्रेरणाप्रधान प्रस्तुति के साथ-साथ वे शिक्षाएँ दी हैं, जो हमें विभिन्न अवतारों के लीलासंदोह का विवेचन करते समय ध्यान में रखनी चाहिए । श्रीमद्भागवत में अनेकानेक स्थानों पर आलंकारिक विवेचन हैं, उन्हें, उन रूपकों को वास्तविकता में न समझकर लोग बहिरंग को ही सब कुछ मान बैठते है, किंतु आचार्यश्री की लेखनी का कमाल है कि उनने महारास से लेकर- अवतारों की प्रकटीकरण प्रक्रिया-प्रत्येक के साथ प्रेरणाप्रद प्रगतिशील चिंतन प्रस्तुत किया है, जो जीवन में उतरने पर "श्रवण शत गुण मनन सहस्रं निदिध्यासनम्" के शास्त्रबचन को सार्थक करता है । 


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बच्चों का निर्माण परिवार की प्रयोगशाला में

Preface

बच्चों का निर्माण- परिवार को प्रयोगशाला में 

चरित्रवान माता- पिता ही सुसंस्कृत संतान बनाते हैं 

अंग्रेजी में कहावत है- दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स ।। अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज ।। एक बार संत ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया- बच्चे की शिक्षा- दीक्षा कब से प्रारंभ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया- गर्भ में आने के १ ० ० वर्ष पहले से ।। स्त्री भौंचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर संत ने इंगित किया ।। सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का अस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित ही होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा ।। उनकी मन : स्थिति, उनके आचार, उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता- पिता के विचार, उनके रहन- सहन, आहार- विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है ।। कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं ।। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा ? भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्णा का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्य फल था ।। अठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने छोर तप किया था ।। हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बने, इसके लिए मातृत्व और पितृत्व को 
गंभीर अर्थ में लिए बिना जाम नहीं चलेगा ।। 

महाभारत के समय की घटना है ।। द्रोणाचार्य ने पांडवों के वध के लिए चक्रव्यूह की रचना को ।। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए ।। इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज दिया ।।


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Navratri Anusthan Set - (8 items)

1 Mantra Lekhan Pustika (2400 Mantra) :-Note Book 
2 गायत्री की दैनिक साधन :- Book 
3 उपासना के दो चरण जप और ध्यान :- Book 
4 गायत्री चालीसा :- Book 
5 Upavashra - Gayatri Mantra Dupatta (Cotton) :- Puja Accessories 
6 जप माला :- Puja Accessories 
7 देवस्थापना (7x10 Inch) :- Poster 
8 Goumukhi



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Thursday 8 September 2016

आत्मीयता का माधुर्य एवं आनंद


Preface

आत्मीयता की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए दूसरों की सेवा-सहानुभूति, दूसरों के लिए उत्सर्ग का व्यावहारिक मार्ग अपनाना पड़ता है और इससे एक सुखद शांति, प्रसन्नता, संतोष की अनुभूति होती है । इस तरह आत्मीयता एक सहज और स्वाभाविक, आवश्यक वृत्ति है, जिससे मनुष्य को विकास, उन्नति, आत्म-संतोष की प्राप्ति होती है ।

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गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार -11

Preface

गायत्री महामंत्र की साधना व्यक्ति के जीवन में क्या कुछ नहीं देती, यह सारा प्रसंग बहुविदित है । विधिपूर्वक की गई साधना निश्चित ही फलदायी होती है एवं उसके सत्परिणाम साधक को शीघ्र ही अपने आत्मिक-लौकिक दोनों ही क्षेत्रों में दिखाई देने लगते हैं । फिर भी इस छोटे से धर्मशास्त्ररूपी सूत्र में इतना कुछ रहस्य भरा पड़ा है, जिसे यदि परत दर परत खोला जा सके तो व्यक्ति अपने जीवन को धन्य बना सकता है । गायत्री भारतीय संस्कृति का प्राण है, परमात्मसत्ता द्वारा धरती पर भेजा गया वह वरदान है, जिसका यदि मनुष्य सदुपयोग कर सके तो वह अपना धरित्री पर अवतरण सार्थक बना सकता है । 

परमपूज्य गुरुदेव जानते थे कि गायत्री-साधना में प्रवृत्त रहने के बाद जनसामान्य में और अधिक जानने की और अधिक गहराई में प्रवेश करने की उत्सुकता भी बढ़ेगी । इसी को दृष्टिगत रख उनने उसका, जितना एक सामान्य गायत्री- साधक को जानना चाहिए व जीवन में उतारना चाहिए, मार्गदर्शन गायत्री महाविज्ञान के अपने तीनों खंडों में कह दिया । इसी प्रसंग में कुछ गुह्य पक्षों की चर्चा वाङ्मय के इस खंड में की गई है । 

गायत्री के चौबीस अक्षर वास्तविकता में चौबीस शक्तिबीज हैं । सांख्य दर्शन में वर्णित उन चौबीस तत्त्वों का जो पंच तत्वों के अतिरिक्त हैं, गुंफन करते हुए ऋषिगणों ने गायत्री महामंत्ररूपी सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति को प्रकट कर जन-जन के समक्ष रखा । चौबीस मातृकाओं की महाशक्तियों के प्रतीक ये चौबीस अक्षर इस वैज्ञानिकता के साथ एक साथ छंदबद्ध- गुंथित कर दिए गए हैं कि इस महामंत्र के उच्चारण मात्र से अनेकानेक अंदर की प्रसुप्त शक्तियों जाग्रत होती हैं । अंदर की प्राणाग्नि में तीव्र स्तर के स्पंदन होने लगते हैं एवं यह परिवर्तन साधक के वर्चस् के संवर्द्धन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 

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गायत्री महाविज्ञान संयुक्त

Preface

गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है। मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट है कि जिसकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते हैं और कार्यों के परिणाम सुख- दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिसके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम होंगे, उसके चरणों तले सुख- शान्ति लोटती रहेगी। गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े- बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे परामर्श एवं पथ- प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ हुए हैं, हमने अपनी आँखों देखे हैं।

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आकृति देखकर मनुष्य की पहचान


Preface

चेहरा मनुष्य के भीतरी भागों का दर्पण है । मन में जैसे भाव होते है, उन्हें कुछ अत्यन्त सिद्ध हस्त लोगों को छोड़कर कोई आसानी से नहीं छिपा सकता । मनोगत भाव आमतौर से चेहरे पर अंकित हो जाते हैं । मुखाकृति को देखकर मन की भीतरी बातों का बहुत कुछ पता लगालिया जाता है । परन्तु जब कोई भाव अधिक समय तक मन में मजबूती के साथ बैठ जाता है तो उसका प्रभाव आकृति पर स्थाई रूप से पड़ता है और अंगों की बनावट वैसी ही हो जाती है । स्वभाव के परिवर्तन के साथ-साथ चेहरे की बनावट में कितने ही सूक्ष्म अन्तर आ जाते है । 

जब कोई मनोवृत्ति बहुत पुरानी एवं अभ्यस्त होकर मनुष्य के अन्तःकरण में संस्कार रूप से जम जाती है तो वह कई जन्मों तक जीवका पीछा करती है । इस स्वभाव संस्कार के अनुसार माता के गर्भ मेंउस जीव आकृति का निर्माण होता है । बालक के पैदा होने पर जानकार लोग जान लेते है कि किन स्वभावों और संस्कारों की इसके अन्तःकरणपर छाया है और उन संस्कारों के कारण उसे जीवन में किस प्रकार की परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ेगा । 

आकृति विज्ञान का यही आधार है । प्राचीन काल में इस विद्या की सहायता से बालकों के संस्कारों को समझ कर उनकी प्रवृत्तियो को सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न किया जाता था । अब भी इसका यही उपयोग होना चाहिए । इसके चिह्न बुरे हैं इसलिए यह अभागा है इससे घृणा करे, इसके चिह्न अच्छे हैं, यह भाग्यवान है, इसे अधिक आदर दें, यह भावना इसविद्या का दुरूपयोग है ।

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Change Of Thoughts Change Of Era

Preface

Apparently, what a man seems doing, what the society appears as a whole is only the reflection of contemporary ideologies embedded in that. Beliefs and recognitions originate in the inner self in the shape of motivation, desire and all the activities are their repercussion. Everything a man seems doing is simply the outcome of those beliefs deeply seated in his conscience. The different life styles and activities among different persons and societies, is the result of diversity embedded in their beliefs. Virtues and values, that one is adhered to, control every persons activities.

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Wednesday 7 September 2016

गायत्री की युगांतरीय चेतना

यों मनुष्य के पास प्रत्यक्ष सामर्थ्यों की कमी नहीं है और उनका सदुपयोग करके वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ करता है, किन्तु उसकी असीम सामर्थ्य को देखना हो तो मानवी चेतना के अन्तराल में प्रवेश करना होगा ।। व्यक्ति की महिमा को बाहर भी देखा जा सकता है पर गरिमा का पता लगाना हो तो अन्तरंग ही टटोलना पड़ेगा ।। इस अन्तरंग को समझने उसे परिष्कृत एवं समर्थ बनाने, जागृत अन्तःसमता का सदुपयोग कर सकने के विज्ञान को ही ब्रह्मविद्या कहते हैं ।। ब्रह्मविद्या के कलेवर का बीज- सूत्र गायत्री को समझा जा सकता है ।। प्रकारान्तर से गायत्री को मानवी गरिमा के अन्तराल में प्रवेश पा सकने वाली और वहाँ जो रहस्यमय है उसे प्रत्यक्ष में उखाड़ लाने की सामर्थ्य को गायत्री कह सकते हैं ।। नवयुग के सृजन में सर्वोपरि उपयोग इसी दिव्य शक्ति का होगा ।। मनुष्य की बहिरंग सत्ता को भी कई तरह की सामर्थ्य प्राप्त है पर वे सभी सीमित होती हैं और अस्थिर भी ।। सामान्यतया सम्पत्ति, बलिष्ठता शिक्षा, प्रतिभा, पदवी अधिकार जैसे साधन ही वैभव में गिने जाते हैं और इन्हीं के सहारे कई तरह की सफलताएँ भी सम्पादित की जाती हैं ।। इतने पर भी इनका परिणाम सीमित ही रहता है और इसके सहारे व्यक्तिगत वैभव सीमित मात्रा में ही उपलब्ध किया जा सकता है ।। भौतिक सफलताएँ मात्र अपने पुरुषार्थ और साधनों के सहारे ही नहीं मिल जाती वरन् उनके लिए दूसरों की सहायता और परिस्थितियों की अनुकूलता पर भी निर्भर रहना पड़ता है ।।


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पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य

Preface

फ्रांसीसी बालक जान लुई कार्दियेक तीन माह का था तभी अग्रेजी बोलने लगा । अमेरिका का दो वर्षीय बालक जेम्स सिदिमछह विदेशी भाषायें धड़ल्ले से बोल सकता था । इग्लैंड के एक श्रमिक पुत्र जार्ज को चार वर्ष की आयु में कठिनतम गणित का प्रश्न हल करने में दो मिनट लगते थे । जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नही मानते, मनुष्य को एक चलता-फिरता पौधा भर मानते है, शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मरण के साथ ही उसका अंत मानते हैं वे इन असमय उदय हुई प्रतिभाओं की विलक्षणताका कोई समाधान नहीं ढूँढ पायेंगे । वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी सभी अपने प्रगति क्रम से बढते हैं, उनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषताएँ समयानुसार उत्पन्न होती हैं । फिर मनुष्य के असमय ही इतना प्रतिभा सम्पन्न होने का और कोई कारण नहीं रह जाता कि उसने पूर्व जन्म में उन विशेषताओं का संचय किया हो और वे इस जन्म में जीव चेतना के साथ ही जुडी चली आई हों ।

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सफलता के सात सूत्र

Preface

जीवन में सफलता पाने के जितने साधन बतलाए गए हैं, उनमें विद्वानों ने सात साधनों को प्रमुख स्थान दिया है। जो मनुष्य इन सात साधनों का समावेश कर लेता है, वह किसी भी स्थिति का क्यों न हो, अपनी वांछित सफलता का अवश्य वरण कर लेता है। वे सात साधन हैं–परिश्रम एवं पुरुषार्थ, आत्म विश्वास एवं आत्मनिर्भरता, त्याग एवं बलिदान, साहस एवं निर्भयता, स्नेह एवं सहानुभूति, जिज्ञासा एवं लगन, प्रसन्नता एवं मानसिक संतुलन। 

जब तक जीवन में अनुभव जन्य ज्ञान की कमी है, तब तक मनुष्य स्वप्नों के मनोरम लोक में विहार करता रहता है परन्तु जैसे- जैसे उसे संसार की बाधाओं का ज्ञान होता है, वैसे- वैसे उसे प्रतीत होता है कि कल्पनाओं और योजनाओं का जो रूप उसने प्रारम्भ में अपने नेत्रों में देखा था, वास्तव में वह वैसा नहीं है। वास्तविक रूप अज्ञान के अनुभव को ही कहते हैं। अनुभव कर्म से ही प्राप्त होता है। कर्म के साथ ही जीवन में सफलता जुड़ी रहती है। पृ०३२/२ 
पुरुषार्थी बनें और विजयश्री प्राप्त करें: 

वेद भगवान का कथन है – 
"कृत मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहित:। गोजिद् भूयासमश्वजिद् धनंजवो हिरण्यजित:।।" 
हे! मनुष्य तू अपने दाहिने हाथ से पुरुषार्थ कर बायें में सफलता निश्चित है। गोधन, अश्वधन,स्वर्ण आदि को तू स्वयं अपने परिश्रम से प्राप्त कर।

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Saturday 3 September 2016

गायत्री की पंचविधि दैनिक साधना

गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है । इस महामंत्र की उपासना आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आन्तरिक क्षेत्र में एक नई हलचल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है । सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि होने, दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और संयम, नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्कूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी, सत्य-निष्ठा, उदारता, प्रेम, सन्तोष, शान्ति, सेवा-भाव, आत्मीयता आदि सद्गुणों की मात्रा दिन-दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है । फलस्वरूप लोग उनके स्वभाव एवं आचरण से सन्तुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता करते हैं । इसके अतिरिक्त ये सद्गुण स्वयं मधुर होते हैं, जिस हृदय में इनका निवास होगा, वहाँ आत्म-संतोष की परम शान्तिदायक शीतल निर्झरणी सदा बहती रहेगी ।

गायत्री साधना से साधक के मन: क्षेत्र में असाधारण परिवर्तन हो जाता है । विवेक, तत्त्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञान-जन्य दुःखो का निवारण हो जाता है । प्रारब्धवश अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं । हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्युतुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संयम, ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है । बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूँढ निकालता है और मस्ती एवं प्रसन्नता का जीवन बिताता है ।

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मरणोत्तर जीवन तथ्य एवं सत्य -16

Preface

भारतीय संस्कृति में मानवीय काया को एक सराय की एवं आत्मा को एक पथिक की उपमा दी गयी है। यह पंचतत्त्वों से बनी काया तो क्षणभंगुर है, एक दिन इसे नष्ट ही होना है किन्तु आत्मा नश्वर है। यह कभी नष्ट नहीं होती। गीताकार ने बड़ा स्पष्ट इस सम्बन्ध में लिखते हुए जन-जन का मार्गदर्शन किया है- 

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे। 

अर्थात् ‘‘यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योकि यह अजन्मा, नित्य सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।’’

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यज्ञ का ज्ञान - विज्ञान - 25

Preface

स समग्र सृष्टि के क्रियाकलाप "यज्ञ" रूपी धुरी के चारों ओर ही चल रहें हैं ।। ऋषियों ने "अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः" (अथर्ववेद ९. १५. १४) कहकर यज्ञ को भुवन की - इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है ।। स्वयं गीताकार योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा है- 

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापति : । 
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तविष्ट कामधुक् || 

अर्थात- "प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ कर्म के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ।" यज्ञ भारतीय संस्कृति के मनीषी ऋषिगणों द्वारा सारी वसुन्धरा को दी गयी ऐसी महत्त्वपूर्ण देन है, जिसे सर्वाधिक फलदायी एवं पर्यावरण केन्द्र इको सिस्टम के ठीक बने रहने का आधार माना जा सकता है ।। 

गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहात्म्य परक यज्ञों की शृंखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से सम्पन्न यज्ञ के मूल मर्म को जन- जन के मन में उतारा ।। यह इस युग की क्रान्ति है ।। इसे गुरु गोरखनाथ द्वारा तंत्र साधना का दुरुपयोग करने वालों- यज्ञों को मूर्खों- तांत्रिक यज्ञों के स्तर पर ही प्रयोग करने वालों के विरुद्ध की गयी क्रांति के स्तर से भी अत्यधिक ऊँचे स्तर की क्रांति माना जा सकता है कि आज घर- घर गायत्री यज्ञ संपन्न हो रहे हैं व सतयुग की वापसी का वातावरण स्वतः बनता चला जा रहा है ।।


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Hamsa Yoga - The Elixir Of Self Realisation

Preface

The hamsa yoga or sooham sadhana is crowned in the Indian scriptures as the paramount spiritual endeavor that enables natural conjunction of the individual consciousness and the Brahth. Despite being superior in terms of its culminated effects, this sadhana is easiest and free from the ascetic disciplines and difficult practices of yoga that are associated with other higher level spiritual sadhanas. The treatise of Sabda Brahm — Nada Brahm (volume 19 of "Pt. Shriram Sharma Acharya Vangmaya" Series) devotes one full chapter to this important topic. The present book is compiled from the English translation of this invaluable text. 

Meditation on the sounds of "soo " and "ham" — produced continuously by the harmonized inhalation and exhalation in each breathing cycle during a pranayama — is practiced in the initial phase of the hamsa yoga. The hakara (sound of "ha") is regarded as a manifestation of God Shiva in the cosmic energy currents of prana and sakara (the sound of "sa") represents the existence of the eternal power of thy super consciousness in the spiritual impulse of prana. The surya swara (through the solar nerve) is awakened by hakara and the candra swara (through the lunar nerve) by sakara. These swaras are harmonized in the higher level pranayama of the hamsa yoga. The contemplation phase of this sadhana involves total sacrifice of the ego and dissolution of the identity of the "Self" in the supreme consciousness — expression of the Brahm. 

The sooham sadhana enables realization of the Nada Yoga through Prana Yoga. The science and philosophy of this sadhana is also discussed here in the special context of the ajapa japa of the Gayatri Mantra and the Kundalini Sadhana. The author has been through, yet lucid in discussing this esoteric field of the science of spirituality and yoga. He also provides trenchant guidance for practicing this prana yoga in day-to-day life.

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गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-

गायत्री मंत्र लेखन से लाभ- 

१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।
२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।
३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।
४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।
५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।
६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।
७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।
८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।

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Friday 2 September 2016

विश्ववंद्य सन्त वसुधा जिन्हें पाकर धन्य हुई

Preface

भक्तिमार्ग के प्रवर्तक प्रसिद्ध धार्मिक संत स्वामी रामानंद काशी से रामेश्वरम की यात्रा पर निकले थे ।। मार्ग में एक गाँव पड़ता था - आलंदी ।। स्वामी रामानंद ने वहाँ अपना डेरा डाला और कुछ दिनों तक रुक कर जन- साधारण को ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिवेणी में मज्जित कराते रहे ।। स्वामी रामानंद एक मारुति मंदिर में ठहरे हुए थे, उसी मंदिर में गाँव की एक युवती स्त्री भी प्रतिदिन दर्शन और पूजन के लिए आया करती थी ।। संयोग से एक दिन स्वामीजी का उससे सामना हो गया ।। स्त्री ने रामानंद जी को प्रणाम किया तो बरबस उनके मुँह से निकल गया पपुत्रवती भव । आशीर्वाद सुनकर युवती पहले तो हँसी फिर एकाएक चुप हो गई ।। स्वामी जी को कुछ समझ में नहीं आया उन्होंने पूछा… देवी तुम हँसी क्यों हो ? फिर एकाएक चुप क्यों हो गई ? हैं उस युवती ने कहा - मेरी हँसी और फिर चुप्पी का कारण यह है कि आप जैसे महात्मा का आशीर्वाद बिल्कुल निष्फल जाएगा । क्यों बेटी तुम्हारी कोई संतान नहीं है क्या - माथे पर सिंदूर और हाथों में चूडियाँ देखकर स्वामी जी ने उसके सधवा होने का अनुमान लगाते हुए कहा ।।




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Road To Progress

Stories have always been very useful for overall development of children. Short Stories sow the seeds of knowledge and moral ideas in their mind. Through these stories children learn to differentiate between good and bad, friend and foe. Stories are considered to be most effective medium for personality development of children and for giving them good sanskars. Previously, grandmothers (dadi & nani) used to tell inspiring stories to children. But these days this important art is being neglected. Yug Nirman Yojna has published Picture Books containing short stories which will entertain, guide and inspire the children and elders both. 

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गायत्री मन्त्र एक महाविज्ञान

Preface

गायत्री उस बुद्धि का नाम है जो अच्छे गुण एवं कल्याणकारी तत्त्वों से भरी होती है । उसकी प्रेरणा से मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क ऐसे रास्ते पर चलता है, कि कदम-कदम पर कल्याण के दर्शन होते हैं । हर कदम पर आनंद का संचार होता है । हर क्रिया उसे अधिक पुष्ट, सशक्त और मजबूत बनाती है तथा वह दिनोदिन अधिकाधिक गुण व शक्तिवान बनता जाता है; जबकि दुर्बुद्धि से उपजे विचार और काम हमारी प्राणशक्ति को दिन-प्रतिदिन कम करते जाते हैं । दुर्बुद्धि से इस अमूल्य जीवन को यों ही गँवा रहे व्यक्तियों के लिए गायत्री एक प्रकाश है, एक सच्चा सहारा है, एक आशापूर्ण संदेश है, जो उनकी सद्बुद्धि को जगाकर इस दलदल से उबारता है, उनके प्राणों की रक्षा करता है व जीवन में सुख-शांति एवं आनंद का द्वार खोल देता है । 

इस तरह गायत्री कोई देवी, देवता या कल्पितशक्ति नहीं है, बल्कि परमात्मा की इच्छाशक्ति है, जो मनुष्य में सद्बुद्धि के रूप में प्रकट होकर उसके जीवन को सार्थक एवं सफल बनाती है । 

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गायत्री कामधेनु है

Preface

गायत्री उपासना में हमारे जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत हुआ है । अपने साधना काल में हमने लगभग २००० आर्ष ग्रंथों का अध्ययन करके गायत्री संबंधी बहुत ही बहुमूल्य जानकारी प्राप्तकी है । स्वयं २४- २४ लक्ष के २४ पुरश्चरण किए हैं और देशभर के गुप्त-प्रकट गायत्री उपासकों से संबंध स्थापित करके उनके बहुमूल्य सहयोग, अनुभव तथा आशीर्वाद का संग्रह किया है । इस मार्ग पर चलते हुए हमें जो अनुभव प्राप्त हुए हैं, वे इतने महत्त्वपूर्ण एवं आश्चर्यजनक हैं कि गायत्री की महिमा के संबंध में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता है । गायत्री को अमृत, पारस और कल्पवृक्ष कहा गया है । इससे बढ़कर श्री, समृद्धि, सफलता और सुख-शांति का दूसरा मार्ग नहीं है । गायत्री उपासकों को माता का आँचल पकड़ने से जो अनुभव हुए हैं, उनका कुछ का संक्षिप्त वृत्तांत इस पुस्तक में दिया जा रहाहै । इससे असंख्यों गुने महत्त्वपूर्ण अनुभव तो अभी अप्रकाशित ही हैं । इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री-साधना निष्फल नहीं जाती । इस दिशा में बढ़ाया हुआ प्रत्येक कदम कल्याण कारक ही होता है । गायत्री उपासना कैसे करनी चाहिए ? किस-किस कार्य के लिए गायत्री महाशक्ति का उपयोग किस प्रकार, किस विधि-विधान से होना चाहिए इसका विस्तृत वर्णन हमने गायत्री महाविज्ञान ग्रंथ के चारों खंडों में भली प्रकार कर दिया है । पाठक उनसे सहायता लेकर आशाजनक लाभ उठा सकते हैं ।

गायत्री कामधेनु है