Sunday 31 July 2016

स्वस्थ रहना है तो ये खाइए!


Preface

हमारे जीवन का आधार जिन बातों पर है, उनमें आहार का स्थान प्रमुख है ।। वैसे हम वायु के बिना पाँच मिनट भी नहीं जी सकते; जल के बिना भी दो- चार दिन तक जीवन धारण कर सकना कठिन हो जाता है, तो भी इनकी प्राप्ति में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता न होने से उनके महत्त्व की तरफ हमारा ध्यान प्राय: नहीं जाता ।। पर आहार की स्थिति इससे भिन्न है ।। यदि यह कहें कि अनेक मनुष्यों का जीवनोद्देश्य केवल आहार प्राप्त करना ही होता है और उनकी समस्त गतिविधियाँ केवल भोजन की व्यवस्था पर ही केंद्रित रहती हैं, तो इसमें कुछ भी गलती नहीं ।। सामान्य मनुष्य के लिए संसार में सबसे प्रथम और सबसे बड़ी आवश्यकता आहार की ही जान पड़ती है और महान से महान व्यक्ति को भी उसकी तरफ कुछ ध्यान देना ही पड़ता है ।। इस प्रकार आहार समस्या से हमारा संबंध बड़ा घनिष्ठ है ।। पर ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय में भी सर्वसाधारण की जानकारी अत्यंत कम है ।। लोग अपनी रुचि का भोजन पा जाने से संतुष्ट हो जाते हैं अथवा परिस्थितिवश जो कुछ खाद्य पदार्थ मिल जाए उसी से काम चलाने का प्रयत्न करते हैं ।। पर वह भोजन हमारे लिए वास्तव में कितना अनुकूल और उपयोगी है? उससे जीवन- तत्त्वों की कहाँ तक उपलब्धि हो सकती है? हमारे देह और मन के विकास के लिए वह कितना लाभदायक है ? 

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Saturday 30 July 2016

चेतना की शिखर यात्रा भाग-२

Preface

राष्ट की आजादी के बाद एक बहुत बड़ा वर्ग तो उसका आनन्द लेने में लग गया किन्तु एक महामानव ऐसा था जिसने भारत के सांस्कृतिक आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु अपना सब कुछ नियोजित कर देने का संकल्प लिया। यह महानायक थे श्रीराम शर्मा आचार्य। उनने धर्म को विज्ञान सम्मत बनाकर उसे पुष्ट आधार देने का प्रयास किया। साथ ही युग के नवनिर्माण की योजना बनाकर अगणित देव मानव को उसमें नियोजित कर दिया। चेतना की शिखर यात्रा का यह दूसरा भाग आचार्य श्री 1947 से 1971 तक की मथुरा से चली पर देश भर में फैली संघर्ष यात्रा पर केन्द्रित है।हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है। समस्त ऋषिगण यहीं से विश्वसुधा की व्यवस्था का सूक्ष्म जगत् से नियंत्रण करते हैं। इसी हिमालय को स्थूल रूप में जब देखते हैं, तो यह बहुरंगी-बहुआयामी दिखायी पड़ता है। उसमें भी हिमालय का ह्रदय-उत्तराखण्ड देवतात्मा-देवात्मा हिमालय है। हिमालय की तरह उद्दाम, विराट्-बहुआयामी जीवन रहा है, हमारे कथानायक श्रीराम शर्मा आचार्य का, जो बाद में पं. वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ कहलाये, लाखों ह्रदय के सम्राट बन गए। तभी तक अप्रकाशित कई अविज्ञात विवरण लिये उनकी जीवन यात्रा उज्जवल भविष्य को देखने जन्मी इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी को-इसी आस से जी रही मानवजाति को समर्पित है।

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मित्रभाव बढाने की कला

Preface

मनुष्य सामाजिक प्राणी है । उसने इतना अधिक बौद्धिक एवं भौतिक विकास किया है, इसका कारण उसकी सामाजिकता ही है । साथ-साथ प्रेम पूर्वक रहने से आपस में सहयोग करने की भावना उत्पन्न होती है एवं मनुष्य अकेला के वल अपने बल-बूते पर कुछ अधिक उन्नति नहीं कर सकता, दूसरों का सहयोग मिलने से शक्ति की आश्चर्यजनक अभिवृद्धि होती है, जिसके सहारे उन्नति साधन बहुत ही प्रशस्त हो जाते हैं । मैत्री से मनुष्यों का बल बढ़ता है । आगे बढ़ने का, ऊँचेउठने का, क्षेत्र विस्तृत हो जाता है । आपत्तियों और आशंकाओं का मैत्री के द्वारा आसानी से निराकरण किया जा सकता है । आंतरिक उद्वेगों का समाधान करने में संधि-मित्रता से बढ़कर और कोई दवानहीं है । आत्मा का स्वाभाविक गुण प्रेम है, प्रेम को परमेश्वर कहा जाता है । प्रेम के बिना जीवन में सरसता नहीं आती । यह संभव है जहाँ सुदृढ़ मैत्री हो । स्वास्थ्य, धन और विद्या के समान मैत्री भी आवश्यक है । परंतु दुःख की बात है कि बहुत से मनुष्य न तो मैत्री का महत्व समझते है और न उसके जमाने, मजबूत करने एवं स्थायी रखने के नियम जानते है । उन्हें जीवन भर में एक भी सच्चा मित्र नही मिलता । यह पुस्तक इसी उद्देश्य को लेकर लिखी गई है कि लोग मैत्री के महत्त्व को समझें, उसे सुदृढ़ बनायें तथा स्थाई रखने की कला को जानें और मित्रता से प्राप्त होने वाले लाभों के द्वारा अपने को सुसंपन्न बनाएँ । हमारा विश्वास है कि इस पुस्तक से जनता को लाभ होगा ।

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बाल संस्कारशाला मार्गदर्शिका

Preface

पुस्तिका में विभिन्न धर्म- सम्प्रदायों में श्रद्धा रखने वाले छात्र- छात्राओं का विशेष ध्यान रखते हुए प्रार्थना आदि में तथा प्रेरक प्रसंगों आदि में किन बातों पर ध्यान दिया जाय, आदि टिप्पणियाँ देने का प्रयास किया गया है। जैसे- प्रार्थना के बाद अपने इष्ट का ध्यान, उनसे ही सद्बुद्घि माँगने के लिए गायत्री जप, अन्य मंत्र या नाम जप करें। विभिन्न सम्प्रदायों के श्रेष्ठ पुरुषों के प्रसंग चुने जाएँ। बच्चों से भी उनके जीवन एवं आदर्शों के बारे में पूछा जा सकता है, उन पर विधेयात्मक समीक्षा करें, आदि। विभिन्न स्कूलों में जाने वाले बच्चों को गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में कोचिंग देने, होमवर्क में सहयोग करने, योग- व्यायाम सिखाने जैसे आकर्षणों के माध्यम से एकत्रित किया जा सकता है। सप्ताह में एक बार इस पुस्तिका के आधार पर कक्षा चलाई जा सकती है। प्रति दिन के क्रम में प्रारंभ में प्रार्थना, अंत में शांतिपाठ जैसे संक्षिप्त प्रसंग जोड़े जा सकते हैं। पढ़ी- लिखी बहिनें, सृजन कुशल भाई, रिटायर्ड परिजन इस पुण्य प्रयोजन में लग जाएँ तो प्रत्येक मोहल्ले में ‘बाल संस्कार शालाओं’ का क्रम चल सकता है। विद्यालय के ‘संस्कृति मंडलों’ में भी यह प्रयोग बखूबी किया जा सकता है। हमें विश्वास है कि भावनाशील परिजन लोक मंगल, आत्मनिर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का पथ प्रशस्त करने वाले इस पुण्य कार्य में तत्परता पूर्वक जुट पड़ेंगे।

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प्राण शक्ति एक दिव्य विभूति-१७

Preface

प्राण शक्ति को एक प्रकार की सजीव शक्ति कहा जा सकता है जो समस्त संसार में वायु, आकाश, गर्मी एवं ईथर,-प्लाज्मा की तरह समायी हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है। वह उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी, साहसी दिखाई पड़ता है। शरीर में संव्यास इसी तत्त्व को जीवनीशक्ति अथवा ‘ओजस’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर ही तत्त्व प्रतिभा ‘तेजस्’ कहलाता है। अपनी शक्ति क्षरण के द्वारा बंद कर लेने के कारण शारीरिक एवं मानसिक ब्रह्मचर्य साधने वाले साधकों को मनस्वी एवं तेजस्वी इसी कारण कहा जाता है। यह प्राणशक्ति ही है जो कहीं बहिरंग के सौंदर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता व प्रखरता में, कहीं प्रतिभा के रूप में, कहीं कला-कौशल व कहीं भक्ति भाव के रूप में देखी जाती है। वस्तुतः प्राणशक्ति एक बहुमूल्य विभूति है। यदि इसे संरक्षित करने का मर्म समझा जा सके तो स्वयं को ऋद्धि-सिद्धि संपन्न-अतीन्द्रिय सामर्थ्यों का स्वामी बनाया जा सकता है।

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वर्तमान चुनौतियाँ युवावर्ग

Preface

हमारे युवाओं में कभी भी प्रतिभा क्षमता की कमी नहीं रही है । आज भी उनके समक्ष अपार संभावनाएँ हैं । कुछ भी असंभव नहीं है । समस्या केवल यही है कि उन्हें अनेकानेक विकट एवं विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है । समाज में अनेक केकड़ा प्रवृतिके लोग उनकी टांग खीच कर नीचे गिराने हर समय तत्पर रहते हैं । यदि वे अपने मानव जीवन के उद्देश्य को भलीभाँति पहचान कर उचित पुरुषार्थ करेंगे तो वे अवश्यही इस काजल की कोठरी से बेदाग बाहर निकलने में सफलहो जाएंगे । इस पुस्तक के द्वारा युवावर्ग को यही संदेश देने का प्रयास किया गया है । थोडी़ सी समझदारी उनके जीवनको सफलता की स्वर्णिम आभा से आलोकित कर देगी । इस प्रकाश को अधिक से अधिक युवाओं तक अवश्य पहुँचाएँ ।


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Be Saved From Mental Tension

This booklet is a bouquet of spiritual thoughts.

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साधना से सिद्धि- 1

Preface

साधना से सिद्ध प्राप्त होती है, साधक अनेकानेक विभूतियों को प्राप्त करता है, यह तथ्य जहाँ सही है, वहाँ यह भी साधना के पीछे उद्देश्य क्या था, साधक ने सही अर्थों में साधना के मर्म को जीवन में उतारा या नहीं एवं वस्तुत: स्वयं को साध सकने में वह सफल हुआ या नहीं। ‘साधना से सिद्धि’ अकाट्य तथ्य को परमपूज्य गुरुदेव ने अपनी अंत: तक उतर जाने वाली शैली में समझाते हुए साधना का तात्त्विक पृष्ठभूमि को समझाया है। अंत:करण की परिष्कृति जब तक संभव नहीं हो पाती व्यक्ति अपने ऊपर अपने विचारों- अपने मनोभावों पर जब तक नियंत्रण स्थापित नहीं कर लेता तब तक उसे सिद्धि नहीं मिल सकती। सिद्धि मिलती भी है तो पहले व्यक्तित्व के परिष्कार, चुम्बकीय आकर्षण तथा औरों के लिए कुछ कर गुजरने की प्रवृत्ति के विकास के रूप में।

साधना से सिद्धि- 1

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प्रेम ही परमेश्वर है

Preface

संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक वह जौ शक्तिशाली होते हैं, जिनमें अहंकार की प्रबलता होती है ।। शक्ति के बल पर वे किसी को भी डरा- धमकाकर वश में कर लेते हैं ।। कम साहस के लोग अनायास ही उनकी खुशामद करते रहते हैं किंतु भीतर- भीतर उन पर सभी आक्रोश और घृणा ही रखते हैं ।। थोडी सी गुँजाइश दिखाई देने पर लोग उससे दूर भागते हैं, यहीं नहीं कई बार अहंभावना वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार भी होता है और वह अंत में बुरे परिणाम भुगतकर नष्ट हो जाता है ।। इसलिए शक्ति का अहंकार करने वाला व्यक्ति अंततः बड़ा ही दीन और दुर्बल सिद्ध होता है ।।

एक दूसरा व्यक्ति भी होता है- भावुक और करुणाशील ।। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ाएँ देखकर उसके नेत्र तुरंत छलक उठते हैं ।। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है, वहीं जा पहुँचता है और कहता है लो मैं आ गया- और कोई हो न हो, तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम्हारे पास जो कुछ नहीं है, वह मैं दूँगा ।। उस प्रेमी अंत:करण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है, इसलिए वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है ।। प्रेम वह रचनात्मक भाव है, जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है ।। इसीलिए विश्व- प्रेम को ही भगवान की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है ।।

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Wednesday 20 July 2016

तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति

Preface

जो कुछ हम देखते, जानते या अनुभव करते हैं-क्या वह सत्य है ? इस प्रश्न का मोटा उत्तर हॉ में दिया जा सकता है, क्योंकि जो कुछ सामने है, उसके असत्य होने का कोई कारण नहीं । चूँकि हमें अपने पर, अपनी इंद्रियों और अनुभूतियों परविश्वास होता है इसलिए वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में जो समझते हैं, उसे भी सत्य ही मानते हैं । इतने पर भी जब हम गहराई में उतरते है तो प्रतीत होता है कि इंद्रियों के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले जाते है; वे बहुत अधूरे, अपूर्ण और लगभग असत्यही होते हैं । शास्त्रों और मनीषियों ने इसलिए प्रत्यक्ष इंद्रियों द्वारा अनुभव किये हुए को ही सत्य न मानने तथा तत्त्वदृष्टि विकसित करने के लिए कहा है । यदि सीधे-सीधे जो देखा जाता व अनुभव किया जाता है, उसे ही सत्य मान लिया जाए तो कई बार बड़ी दुःस्थितिबन जाती है । इस संबंध में मृगमरीचिका का उदाहरण बहुत पुराना है । रेगिस्तानी इलाके या ऊसर क्षेत्र में जमीन का नमक उभर कर ऊपर आ जाता है । रात की चाँदनी में वह पानी से भरे तालाब जैसा लगता है । प्यासा मृग अपनी तृषा बुझाने के लिये वहाँ पहुँचता है और अपनी आँखों के भ्रम में पछताता हुआ निराश वापस लौटता है । इंद्रधनुष दीखता तो है, पर उसे पकड़ने के लिये लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ हाथ लगने वाला नहीं है । जल बिंदुओं पर सूर्य की किरणों की चमक ही ऑखों पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालती है और हमें इंद्रधनुष दिखाई पड़ता है, जिसका भौतिक अस्तित्व कहीं नहीं होता ।
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प्राण चिकित्सा विज्ञान

Preface

प्राण मनुष्य शरीर की सार वस्तु है । इसके द्वारा न केवल हमजीवन धारण किए हुए हैं, वरन बाहरी प्रभावों से अपनी रक्षा भी करते हैं और दूसरों पर असर भी डालते हैं । ये दोनों ही कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । डॉक्टर पिच के मतानुसार इस कार्य में एकछोटे-मोटे बिजली घर के बराबर विद्युत शक्ति खरच होती रहती है ।हम अपनी इस शक्ति के बारे में कुछ अधिक जानकारी नहीं रखते इसलिए इन बातों को सुनकर आश्चर्य करते हैं । वह शक्ति हमारे जानने, न जानने की परवाह नहीं करती और जन्म से मृत्यु पर्यंत कम-बढ़ मात्रा में सदैव बनी रहती है । प्राणशक्ति का एक-एक परमाणु अपने अंदर अनंत शक्ति का भंडार छिपाए बैठा है । इसका उपयोग करके मनुष्य देवताओंजैसे अद्भुत कार्य कर सकता है । प्राण की रोग निवारक शक्ति प्रसिद्ध है, यदि उसके अंदर यह गुण न होता, तो इतने विकारों सेभरे हुए संसार में एक क्षण भी नीरोग रहना कठिन होता । उस शक्तिको यदि ठीक प्रकार से काम में लाने की विधि जान ली जाए तो नकेवल स्वयं नीरोग रहें, वरन दूसरों को भी रोग मुक्त कर सकते हैं । इस पुस्तक में कुछ ऐसी ही विधियाँ बताई गई हैं, जिनके द्वारा तुम अपने पीड़ित भाइयों को रोग मुक्त करके उनकी सेवा-सहायता करते हुए अपने जीवन को सफल बना सकते हो । जब तुम इनका प्रयोग करोगे, तो हमारी ही तरह इनकी अव्यर्थता पर श्रद्धा करने लगोगे ।

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Procedure Of Yagya

Preface

The Yajnas and other modes of worship described in the karma-kanda section of Vedic Scriptures are not mere routine rituals. They are extraordinarily potent means of producing creative and occult energies of deeper and higher realms of subtle and invisible dimensions of consciousness. They are a culmination of long and deep research done by Indian Rishis. They provide an audio-visual structure to the human Endeavour of realizing the divine consciousness within themselves by the practice of the subtle yoga-sadhana.

The unseen powers that lie hidden within us are awakened and given an organized direction by these rituals. Even medicinal qualities can be produced in ordinary substances by applying various ritualistic means to the procedures of making medicines. A very definite role is played by ritual worship in the awakening of illumined thoughts, positive inclinations and right values. Therefore ritual worship should not be ignored, nor should it be practiced only as a means of getting cheap and easy worldly gains. It is dangerous both to look upon rituals as being the beginning and end all of worship as well as to treat then as meaningless Their limitations must be properly understood without forgetting their inherent value. Ritual worship may be simplified and shortened but its influence can only become powerful enough to achieve the desired goal if it is performed with a heart full of unflinching faith.

The invocation of gods through the medium of yajnas, the chanting of mantras, the purity of feelings, the decision, determination and discipline required for performing the yajna, all put together have such a tremendous power that they can generate a mass of blazing energy which can easily bum the impurities of our lower nature as well as transmute them into virtues.


 

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Human Brain Apparent Boon Of The Omnipotent

Preface

The living state of a human body consists of the five basic elements called Pancha Tatvas and the five basic streams of vital force called Pancha Prana. The Pancha Tatvas constitute the physical body and the Pancha Prana create the mental (subtle) body. The flow of electricity in a circuit is generated by the connection of the two complementary, positive and negative types of currents. The life cycle of a human being also continues to revolve with the help of the two wheels of the physical and mental bodies. The collective contribution of these components is unparalleled in nature.

The known, as well as the undeciphered, structural and functional features of the human body are enormous. Deeper analysis of these brings out more and more amazing results and shows newer layers of mysteries in this splendid action of the Almighty. The structural complexity, functional adaptability and potentials of different sense organs give a glimpse of the magnificent systems that could be constructed in the Jada (material) part of nature.

 

Thursday 14 July 2016

बच्चों का निर्माण परिवार की प्रयोगशाला में

Preface

बच्चों का निर्माण- परिवार को प्रयोगशाला में
चरित्रवान माता- पिता ही सुसंस्कृत संतान बनाते हैं

अंग्रेजी में कहावत है- दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स ।। अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज ।। एक बार संत ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया- बच्चे की शिक्षा- दीक्षा कब से प्रारंभ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया- गर्भ में आने के १ ० ० वर्ष पहले से ।। स्त्री भौंचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर संत ने इंगित किया ।। सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का अस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित ही होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा ।। उनकी मन : स्थिति, उनके आचार, उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता- पिता के विचार, उनके रहन- सहन, आहार- विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है ।। कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं ।। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा ? भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्णा का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्य फल था ।। अठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने छोर तप किया था ।। हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बने, इसके लिए मातृत्व और पितृत्व को
गंभीर अर्थ में लिए बिना जाम नहीं चलेगा ।।

महाभारत के समय की घटना है ।। द्रोणाचार्य ने पांडवों के वध के लिए चक्रव्यूह की रचना को ।। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए ।। इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज दिया ।।

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The Spiritual Training And Adoration Of Life Deity

Preface

It is human nature to ignore things which are too close or at a great distance. This applies to every aspect of life. We live every moment of life but do not understand its glory. We are unaware of super natural divine powers which can be attained by proper use of life. Man takes birth, fulfils his natural instincts of food, sex indulgence, earning livelihood and ultimately posses away. There are rarely moments when it is pondered that human life is the greatest gift of gods treasure. One who has been gifted so kindly with human life is expected to make its best use, fulfill his imperfections and become great. He is expected like an efficient gardener to maintain and beautify this garden of universe and prove that he has appropriate knowledge of what is selfishness and what is universal good. Our interest lies in getting rid of unwholesomeness of sensuality and imbibing righteousness in adequate proportion. Those who succeed in utilizing trust get admission in the class of divine man. They not only safeguard their own welfare but help countless people in crossing over difficulties. Only such persons are great, praise- worthy and imitable. They get triple pleasures of fulfillment, satisfaction and peace.

Human life is a precious gift of god. When it is en-trusted, it is believed that the person concerned is deserving.

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मन के हारे हार है मन के जीते जीत

मस्तिष्क मानवी सत्ता का ध्रुवकेंद्र है ।। उसकी शक्ति असीम है ।। इस शक्ति का सही उपयोग कर सकना यदि संभव हो सके, तो मनुष्य अभीष्ट प्रगति- पथ पर बढ़ता ही चला जाता है ।। मस्तिष्क के उत्पादन इतने चमत्कारी हैं कि इनके सहारे भौतिक ऋद्धियों में से बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है ।। मस्तिष्क जितना शक्तिशाली है, उतना ही कोमल भी है ।। उसकी सुरक्षा और सक्रियता बनाए रहने के लिए यह आवश्यक है कि अनावश्यक गरमी से बचाए रखा जाए ।। पेंसिलिन आदि कुछ औषधियाँ ऐसी हैं, जिन्हें कैमिस्टों के यहाँ ठंढे वातावरण में, रेफ्रीजरेटरों में सँभालकर रखा जाता है ।। गरमी लगने पर वे बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं ।। औषधियाँ ही क्यों अन्य सीले खाद्य पदार्थ कच्ची या पक्की स्थिति में गरम वातावरण में जल्दी बिगड़ने लगते हैं ।। उन्हें देर तक सही स्थिति में रखना हो तो ठंढक की स्थिति में रखना पड़ता है ।। मस्तिष्क की सुरक्षा के मोटे नियमों में एक यह भी है कि उस पर गरम पानी न डाला जाए गरम धूप से बचाया जाए ।। बाल रखाने और टोपी पहनने का रिवाज इसी प्रयोजन के लिए चला है कि उस बहुमूल्य भंडार को यथासंभव गरमी से बचाकर रखा जाए ।। सिर में ठंढी प्रकृति के तेल या धोने के पदार्थ ही काम में लाए जाते हैं ।। इससे स्पष्ट है कि मस्तिष्क को अनावश्यक उष्णता से बचाए रहने की सुरक्षात्मक प्रक्रिया को बहुत समय से समझा और अपनाया जाता रहा है ।।
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परिवर्तन के महान क्षण

Preface

बीसवीं सदी का अंत आते- आते समय सचमुच बदल गया है। कभी संवेदनाएँ इतनी समर्थता प्रकट करती थीं कि मिट्टी के द्रोणाचार्य एकलव्य को धनुष विद्या में प्रवीण- पारंगत कर दिया करते थे। मीरा के कृष्ण उसके बुलाते ही साथ नृत्य करने के लिए आ पहुँचते थे। गान्धारी ने पतिव्रत भावना से प्रेरित होकर आँखों में पट्टी बाँध ली थी और आँखों में इतना प्रभाव भर लिया था कि दृष्टिपात करते ही दुर्योधन का शरीर अष्ट- धातु का हो गया था। तब शाप- वरदान भी शस्त्र प्रहारों और बहुमूल्य उपहारों जैसा काम करते थे। वह भाव- संवेदनाओं का चमत्कार था। उसे एक सच्चाई के रूप में देखा और हर कसौटी पर सही पाया जाता था।

अब भौतिक जगत ही सब कुछ रह गया है। आत्मा तिरोहित हो गई। शरीर और विलास- वैभव ही सब कुछ बनकर रह गए हैं। यह प्रत्यक्षवाद है। जो बाजीगरों की तरह हाथों में देखा और दिखाया जा सके वही सच और जिसके लिए गहराई में उतरना पड़े, परिणाम के लिए प्रतीक्षा करनी पड़े, वह झूठ। आत्मा दिखाई नहीं देती। परमात्मा को भी अमुक शरीर धारण किए, अमुक स्थान पर बैठा हुआ और अमुक हलचलें करते नहीं देखा जाता इसलिए उन दोनों की ही मान्यता समाप्त कर दी गई।

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Sunday 10 July 2016

सफलता के तीन साधन

Preface

सफलता के तीन कारण होते हैं । (१) परिरिथति (२)प्रयत्न(३) भाग्य । बहुत बार ऐसी परिरिथतियाँ प्राप्त होती हैं जिनके कारण स्वल्प योग्यता वाले मनुष्य बिना अधिक प्रयत्न केबड़े-बड़े लाभ प्राप्त करते हैं । बहुत बार अपने बाहुबल से कठिन परिस्थितियो को चीरता हुआ मनुष्य आगे बढ़ता हैऔर लघु से महान बन जाता है । कई बार ऐसा भी देखा गयाहै कि न तो कोई उत्तम परिस्थिति ही सामने है, न कोई योजना, न कोई योग्यता, न कोई प्रयत्न पर अनायास ही कोई आकस्मिक अवसर आया जिससे मनुष्य कुछ से कुछबन गया । इन तीन कारणों से ही लोगों को सफलताएँ मिलती हैं ।

पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं । जन्मजात कारणों से या किसी विशेष उावसरपर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्यके कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ नहीं है ।

हम प्रयत्न को अपना कर ही उापने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं । यही एक साधन हमारे हाथ मे है । इस साधनको तीन भागों में बाँट दिया है-(१) आकांक्षा (२) कष्ट सहिष्णुता(३) परिश्रम शीलता । इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं । इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुरतक में प्रयत्न किया गया है । जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढ़ेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास है ।
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सफलता के तीन साधन

Preface

सफलता के तीन कारण होते हैं । (१) परिरिथति (२)प्रयत्न(३) भाग्य । बहुत बार ऐसी परिरिथतियाँ प्राप्त होती हैं जिनके कारण स्वल्प योग्यता वाले मनुष्य बिना अधिक प्रयत्न केबड़े-बड़े लाभ प्राप्त करते हैं । बहुत बार अपने बाहुबल से कठिन परिस्थितियो को चीरता हुआ मनुष्य आगे बढ़ता हैऔर लघु से महान बन जाता है । कई बार ऐसा भी देखा गयाहै कि न तो कोई उत्तम परिस्थिति ही सामने है, न कोई योजना, न कोई योग्यता, न कोई प्रयत्न पर अनायास ही कोई आकस्मिक अवसर आया जिससे मनुष्य कुछ से कुछबन गया । इन तीन कारणों से ही लोगों को सफलताएँ मिलती हैं ।

पर इन तीन में से दो को कारण तो कह सकते हैं साधन नहीं । जन्मजात कारणों से या किसी विशेष उावसरपर जो विशेष परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनका तथा भाग्यके कारण अकस्मात टूट पड़ने वाली सफलताओं के बारे में कोई मार्ग मनुष्य के हाथ नहीं है ।

हम प्रयत्न को अपना कर ही उापने बाहुबल से सफलता प्राप्त करते हैं । यही एक साधन हमारे हाथ मे है । इस साधनको तीन भागों में बाँट दिया है-(१) आकांक्षा (२) कष्ट सहिष्णुता(३) परिश्रम शीलता । इन तीन साधनों को अपनाकर भुजबल से बड़ी सफलताएँ लोगों ने प्राप्त की हैं । इसी राजमार्ग पर पाठकों को अग्रसर करने का इस पुरतक में प्रयत्न किया गया है । जो इन तीन साधनों को अपना लेंगे, वे अपने अभीष्ट उद्देश्य की ओर दिन-दिन आगे बढ़ेंगे ऐसा हमारा सुनिश्चित विश्वास है ।
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Saturday 9 July 2016

Upanishad Set - 3 Books

1 १०८ उपनिषद्-ब्रह्मविद्या खण्ड
2 १०८ उपनिषद्-ज्ञानखण्ड
3 १०८ उपनिषद्-साधना खण्ड

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SLEEP DREAM AND SPIRITUAL REFLECTIONS

Preface

Dreams have always been the focus of curiosity, interest, and quest of the human mind. These have led to varieties of false convictions and mystic notions on the one hand, and have accelerated research in Psychology, Neurology and Parapsychology on the other. The reality, origin, reflections and implications of dreams are discussed in great detail in this book, which is compiled from the translation of the Chapters 4 and 5 of the volume 18 of "Pt. Shriram Sharma Acharya Vangmaya" series.

A detailed description of the history and trends in the oriental and occidental philosophy and science of dreams is presented here. The myths and facts about acquisition of extra sensory knowledge, precognition, and psychological depths of the unconscious mind and the unknown subtle world of the inner self through dreams are elucidated here. Thorough reviews of Freuds, Jungs and contemporary psychological theories vis-a-vis the relevant aspects of the ancient science of spirituality are discussed under broad perspectives.

The current status and future scope of research on dreams is discussed with substantial references. Special attention is focused on dream based early detection, diagnosis and therapies in the context of reported scientific experiments. The readers will also get to know how the decipheration of dreams could help resolving the complexities of psychosomatic disorders and elevating ones psychology.

Sleep is an integral part of his the variegated experiences of dreams also become possible in this phase. In normal case, for most of us sleep is almost an automatic, mechanical, or routine process. We do realize its importance in relaxing and recharging of the body and the mind but hardly pay any attention to its significant role in harmonizing the brain functions, mental stability and self-development. The present book unfolds the multiple facets of this natural and crucial process of daily-life.

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Preface

शब्द शक्ति से ही इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई, ऐसा कहा जाता है ।। गायत्री महामंत्र प्रणव नाद से प्रकट व इस धरती की विश्व ब्रह्माण्ड की अनादि कालीन सर्वप्रथम ऋचा है जिससे वेदों की उत्पत्ति हुई, ऐसा कहा जाता है ।। गायत्री महामंत्र का ज्ञान- विज्ञान वाला पक्ष इतना अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उसे भली प्रकार समझे बिना यह नहीं जाना जा सकता कि इस साधना के लाभ किसी को क्यों व कैसे मिलते हैं ।। मंत्र तो अनेकानेक हैं ।। अनेक मत- सम्प्रदायों में भी ढेरों मंत्र ऐसे मिलते हैं जिनका जप करने का विधान बताया गया है एवं उनके माहात्म्य से समग्र धर्म शास्त्र भरे पड़े हैं ।। किन्तु छन्दों में मंत्र गायत्री छन्द के रूप में, मंत्र शक्ति के रूप में परमात्मा की सत्ता विद्यमान है, यह गीताकार ने "गायत्री छन्दसामहम्" के माध्यम से स्पष्ट कर दिया है ।। इस मंत्र की विलक्षणता के पीछे वैज्ञानिक आधार क्या है, यह परमपूज्य गुरुदेव के वाड्मय के इस खण्ड को पढ़कर समझा जा सकता है ।।

यों तो गायत्री में असंख्यों शक्तियाँ, दैवी स्फुरणाएँ हैं किन्तु इसकी श्रेष्ठता का मूल आधार मंत्र विज्ञान के आधार पर इसका सर्वश्रेष्ठ होना है ।। इस मंत्र का अरबों- खरबों बार इस धरती पर उच्चारण हो चुका है ।। इसके कम्पन अभी भी सूक्ष्म जगत में विद्यमान हैं ।। मात्र इसका सविता के ध्यान के साथ भाव विह्वल होकर जप करने से वे सारे "वाइब्रेशन्स" सूक्ष्म जगत के कम्पन आकर व्यक्ति के प्रभामंडल को घेर लेते हैं एवं उसकी अनगढ़ताओं को मिटाकर उसे एक सुव्यवस्थित व्यक्ति बना देते हैं ।। गायत्री महामंत्र की संरचना में जिस प्रकार विभिन्न शक्ति बीजों को गुंफित किया गया है वह "साइंस आफ एकास्टिक्स" ध्वनि विज्ञान पर आधारित है ।।
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Tuesday 5 July 2016

उध्दरेदात्मनाऽत्मानम्

Preface

 अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है ।। समाज या संसार कोई अलग वस्तु नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार कहलाता है ।। यदि हम संसार का उद्धार या कल्याण करना चाहते हैं तो वह कार्य अपने को सुधारने से शुरू होता है जो सबसे अधिक सरल एवं संभव हो सकता है ।। दूसरे लोग कहना मानें या न मानें, बताए हुए रास्ते पर चलें, या न चलें यह संदिग्ध है, पर अपने ऊपर तो अपना नियंत्रण है ही ।। अपने को तो अपनी मरजी के अनुसार बना या चला सकते ही हैं ।। इसलिए विश्व- कल्याण का कार्य सबसे प्रथम आत्म- कल्याण का कार्य हाथ लेते हुए ही आरंभ करना चाहिए ।। 

संसार का एक अंश हम भी हैं ।। अपना जितना ही हो सुधार हम कर लेते हैं उतने ही अंशों में संसार सुधर जाता है ।। अपनी सेवा भी संसार की ही सेवा है ।। एक बुरा व्यक्ति अनेकों तक अपनी बुराई का प्रभाव फैलाता है और लोगों के पाप- तापों एवं शोक- संतापों में अभिवृद्धि करता है ।। इसी प्रकार एक अच्छा व्यक्ति अपनी अच्छाई से स्वयं ही लाभान्वित नहीं होता वरन दूसरे अनेकों लोगों की सुख- शांति बढ़ाने में सहायक होता है ।। सामाजिक होने के कारण मनुष्य स्वभावत: अपना प्रभाव दूसरों पर छोड़ता है ।। फिर जो जितना ही मनस्वी होगा वह अपनी अच्छाई या बुराई का भला- बुरा प्रभाव भी उसी अनुपात से संसार में फैलाएगा ।।
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What am I?

Preface

There are several things worth knowing in this world. There are various fields of knowledge and many paths needing exploration. There are several branches of science which come within the normal purview of mans curiosity. Why, How, Where, When, are the questions in every field. This inquisitive tendency of knowing is mainly responsible for such rich store of knowledge. In reality, knowledge is the light house of life.The question about knowledge of self is most important amongst various objects of inquiry. We know several superficial things or make efforts to know them but we forget What we are in ourselves. Without knowing the Self the life becomes agitated, uncertain and prickly. In the absence of this knowledge regarding his real self, a person spends his time in deliberating about insignificant things and indulges in unbelievable acts. The only path to true happiness and comfort is Knowledge of Self.This book contains instructions about the knowledge of Self. What am I?. The answer to this question has not been given in words, but an effort has been made to impart it through austerity and practice.It is hoped that this book will prove useful to the aspirants of spiritualism.
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Support Is Needed For Self Evolution

Preface

The credit for higher qualifications is generally given to the students own hard Endeavour, though factually, the success also depends indirectly on the extraordinary role played by guardians dedication and expertise and hard work of teachers. It is true that welfare of a person and development of personality are by and large related to persons own thinking, character, behavior, strong determination and courage. Nevertheless, in this process, some indirect paranormal influences and divine grace too take part, a communication with which is established through the medium of the spiritual guide known as Guru. The latter builds up the foundation for strengthening power of faith and devotion (shraddha) in the disciple. It is this attribute of Shraddha with the help of which the disciple is able to achieve his spiritual goal without difficulty. 

In this element of shraddha are hidden infinite possibilities. Profound faith of Meera had compelled the deity Girdhar Gopal to live with her in human form. When Dronacharya had declined to accept Eklavya as his disciple, the latter had sculptured it clay-model of his person and visualizing it as Guru by virtue of shraddha had derived greater expertise from it than Dronacharya himself was capable of imparting. With his shraddha Ramkrishna Paramhans was this to…..
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ODYSSY OF THE ENLIGHTENED

Preface

On the Ram navami day of Samvat 2040 (April 10, 1984), Gurudev (Pandit Sriram Sharma, Acharya) went into complete seclusion. He stopped meeting people. The inspiring physical contact that the Sadhaks and Karyakarta (volunteers) were privileged to have with him till then was abruptly broken. All of us were completely benumbed by this unexpected decision. Till then he had been undertaking extensive tours in connection with the Pran — Pratishtha Samaroh (ceremony of consecration of idols) in Shakti peethas (temples of Mother Gayatri) established in different parts of India. Suddenly, this "seclusion" and silence! What will happen next? The Teacher, under whose direct guidance we had been doing "Sadhana" of The Advent of Divinity in Mankind" and "The Descent of Heaven on Earth" , till then, was denying at the heavenly joy of his physical proximity. How would we get his guidance? What would we do without his physical proximity? However this uncertainty did not last long, but for whatever time it was there it was really a terrifying experience. Our agony was deep because at that time he didnt disclose any reason for his withdrawal into complete solitude.
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Loose Not Your Heart

Preface

Before looking at the faults of others, find your own faults. Before exposing others evils, see if you have any evils. If so, first remove them. The time you spend in censuring others, better spend in your self-development. You will agree that instead of increasing ill will due to ensuring others, you are proceeding on the path of eternal pleasure. 

Oh men! Who want to conquer the whole world, first try to conquer yourself? If you are able to do it, then one day you will fulfil your dream of conquering the world. Being the master of your senses, you will be able to guide all the living beings. None will be your opponent in this world.
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Jivan Sadhana

Preface

Svayam vajimstanvam kalpayasva 
svayam yajasva svayam jusasva 
Mahima tenyena na sannase. 

Yajurveda 23 /15 

"0 mighty yajna purusa (sacrificer)! Make your own body strong and capable. Perform the yajna yourself. Engage personally in religious pursuits. No one else can attain the glory that belongs you." 

Dear reader! The spring breeze charged with the subtle vital energy of Yugdevata (Time Spirit) has come in the form of these printed exhortations to fill you with new life, new spur and new hope. This breeze will blow off all the dust which the passing time may have deposited over the smouldering embers in you and rekindle it into leaping flames. You will experience the upsurge of a radiant glow, energy, warmth and ardour inside you that will propel you vigorously in the direction of jivana sadhana - the way of leading a healthy, vibrant, enlightened, happy and balanced life. 

If you are sensing the stir of these feelings inside you, surely the Yugdevatas subtle pranic force has touched you somewhere. Otherwise, you would not have felt this new alertness and enthusiasm. Do not quibble about who is outwardly penning the words or framing the sentences. 
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Guidelines For Aspiring Loksevi

Preface

Pujya Gurudev has written a great deal about the characteristics and habits of an ideal loksevi. Most of his writings on the subject have been published in the Akhand jyoti column "Apno Se Apni Baat." These articles are intended to help guide volunteers as Gurudev had intended. 

Upon request from many active volunteers, these articles have been presented here in this booklet. It is hoped that this book will help workers mold their lives in accordance with Gurudevs ideals, which will enable them to be successful in their service endeavors. 

Today, due to corruption and self-serving attitudes among loksevi, selfish success sometimes takes priority over societys welfare. At times like these, Gurudevs thoughts can work as pillars of support for the workers, helping them on the path of spiritual discipline. This will enable them to work with cooperation and compassion. These guidelines are applicable for any organization involved in social work. 

Pujya Gurudev always wanted the loksevi to think positively. He has explained that applying these precepts to their daily lives will help them achieve self-satisfaction, respect from society, and divine blessings. By following his guidelines, loksevi can achieve eminence and greatly contribute to the building of nations and the restructuring of this era. 
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Dignity Of Organisational Skill

Preface

God has given man freedom to think and act according to his own choice. No other living being on this planet has this unusual privilege. Consequently, man has to bind himself with the disciplines of nature it by exercising self-control (samyam). Man is expected to regulate his thinking, character and behavior by codes of modesty, incorporated in various doctrines of religion. 

The faculty to differentiate between right and wrong enables a person to make a prudent choice of those natural disciplines which are conducive to progress, whereas with the help of organisational skill one carries this choice to fruition by working and making others work accordingly. The monotonous, unvarying patterns of living in the life of animals indicate their lack of organisational skill. Persons who do not make an endeavor to develop and use this exclusive divine gift of organisational skill are doomed to live like animals. 
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Saturday 2 July 2016

हरीतिमा संवर्धन

Preface

पृथ्वी का जीवन प्राणियों और वनस्पतियों में विभक्त है । दोनों एक दूसरे के पूरक और पोषक हैं । पृथ्वी पर घास पात के रूप में छोटी वनस्पतियां और बड़े पौधों के रूप में झाड और वृक्ष बढ़ते हैं । प्राणियों को इन्हीं के सहारे जीवन धारण करने का अवसर मिलता है । पशु पक्षी मनुष्य सभी घास पात पर जीवित हैं । शाक भाजी फल पत्ते यह भी वनस्पति हैं । मनुष्य इन्हीं को खाकर जीवित रहते हैं । वनस्पतियों के अभाव में पशु पक्षी मनुष्य कोई भी जीवित नहीं रह सकता । 

समुद्र और तालाबों में भी कई प्रकार की हलके किस्म की घास पाई जाती है । प्राय: उसी पर जल जंतुओं का निर्वाह होता है । हिंस्र प्राणी मांस खाते पाए जाते हैं पर मांस भी आखिर वनस्पतियों का एक विशेष उत्पादन ही तो है । दूध की पृथक सत्ता नहीं । पशु घास खाते हैं और वह घास ही दूध बन जाती है । 
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हरिजन उत्कर्ष के लिए बडे़ कदम उठें

Preface

भारतीय समाज को दुर्बल और कलंकित करने वाली कुप्रथाओं में ऊँच-नीच और छूत-छात का स्थान सबसे ऊँचा है । मनुष्य-मनुष्य एक समान हैं । ईश्वर ने उन्हें एक ही साँचे-ढाँचे में बनाया है । धर्म और जाति का विभागीकरण मनुष्यकृत है । कार्य-पद्धति की सुविधा के लिए कोई वर्ण, वर्ग बन सकते हैं उनके नाम संकेत भी अलग हो सकते हैं पर इसका अर्थ यह नहीं कि किसी को मानवोचित नागरिक अधिकारों से इसलिए वंचित किया जाय कि वह तथाकथित पिछड़ी हुई जाति में पैदा हुआ है । इसी प्रकार किसी को इस कारण भी अपने को ऊँचा समझने का अहंकार न करना चाहिए कि वह अमुक तथाकथित उच्च कुल में पैदा हुआ है । मनुष्यों की उत्कृष्टता-निकृष्टता उसके गुण, कर्म स्वभाव पर निर्भर रहती है वंश पर नहीं । यही उचित और यही विवेक संगत है । किन्तु दुर्भाग्य से हिन्दू समाज में ऐसी प्रथा चल पड़ी है कि अपने ही समाज धर्म एक वंश, देश और संस्कार के व्यक्तियों को नीच अछूत आदि कहकर उन्हें तिरस्कृत-बहिष्कृत जैसी स्थिति में पटक दिया गया है । 

आज के जनतान्त्रिक और मानवीय अधिकारों की मान्यता वाले युग में इस प्रकार की अन्याययुक्त मान्यताओं के लिए कोई स्थिति नहीं हो सकती कि गुण कर्म स्वभाव की दृष्टि से अपने ही जैसे लोगों को अछूत कहकर अलग-अलग कर दिया जाय । इससे हिन्दू समाज की पिछले दिनों अपार हानि हुई है यदि समय रहते इस मूढ़ता में सुधार न किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दू-जाति को अपने अस्तित्व से वर्चस्व से हाथ धोने के लिए तैयार रहना होगा । छूआछूत और ऊँच-नीच की इस अन्यायमूलक सामाजिक दुष्प्रवृत्ति को दूर किए बिना भारतीय राष्ट्र वांछित गति से प्रगति नहीं कर पायेगा । भारत की प्रगति का पथ-प्रशस्त करने के लिए अनेक शर्तो में एक शर्त यह भी है कि भारत की अछूत जाति का उद्धार किया जाये ।
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हर घर बने देव मंदिर और ज्ञान मंदिर

Preface

बेटे, इस वसंत पर हमने आपको बुलाया है और एक मंदिर का रूप हमने दिखाया है, जिसका आप उद्घाटन वसंत पंचमी के दिन करेंगे। हम चाहते हैं कि ये मंदिर बिना एक सेकंड का विलंब लगे, सारे देश भर में फैल जाएँ । नहीं महाराज जी! पैसा इकट्ठा करूँगा, जमीन लूँगा । बेटे, जमीन लेगा और पैसा इकट्ठा करेगा, तब का तब देखा जाएगा । मुझे तो इतना टाइम नहीं है और फुरसत भी नहीं है । मैं तो तुझे इतनी छुट्टी भी नहीं दे सकता कि जब तू पैसा, जमीन इकट्ठी करे, नक्शा पास कराए बिल्डिंग बनवाए तब काम हो । मैं तो चाहता हूँ कि इस हाथ ले और इस हाथ दे । आपके घर में वसंत पंचमी से मंदिर बनने चाहिए । इतनी जल्दी मंदिर कैसे बन सकते हैं? इस तरीके से बनें कि आप एक पूजा की चौकी बना लीजिए । चौकी पर भगवान का चित्र स्थापित कर दीजिए और घर के हरेक सदस्य से कहिए कि न्यूनतम उपासना आप सबको करनी पड़ेगी । उनकी खुशामद कीजिए चापलूसी कीजिए मिन्नतें कीजिए। प्यार से घर में सबसे कहिए कि आप इस भगवान को रोजाना प्रणाम तो कर लिया करें ।
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हथकरघा प्रोद्योगिकी - एक परिचय

Preface

निःसंदेह परम पूज्य गुरुदेव की युग निर्माण योजना एवं ग्राम विकास की ग्रामतीर्थ अन्योन्याश्रित है, क्योकि आज भी दो तिहाई भारत गाँवो मे बसता है, जनगणना के जो प्रारम्भिक आँकडे़ प्रकाशित हुए है, वह इस बात की पुष्टि भी करते है। अतः युग परिवर्तन की प्रत्येक योजना हमे ग्राम केन्द्रित ही रख्नी होगी ।। युगऋषि पूज्य गुरुदेव का यह मानना है कि अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक विरोधाभासी पहलू यह रहा है कि भारत का विकास, भारतीय सोच एवं भारतीय मानसिकता के साथ न करके उसे यूरोप एवं अमेरिकी मॉडल पर आधारित किया गया है, जबकि इन देशों की परिस्थितियाँ भारतीय परिवेश से सर्वदा भिन्न रही ।। प्रचुर श्रमशक्ति जो कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान हो सकती थी, वह अर्थव्यवस्था के गलत मॉडल का चयन करने के कारण एक अभिशाप बनकर हमारे लिए बेरोजगारी, अशिक्षा एवं गरीबी का मूल कारण सिद्ध हो रही है ।। गाँवों से पलायन शहरों का असंतुलित विस्तार, अमीरों एवं गरीबों के बीच चौड़ी होती खाई इसी गलत अर्थव्यवस्था के चयन का दुष्परिणाम है ।। 

युग परिवर्तन के इस संक्रमण काल में हमें युगऋषि के संकेतों को समझते हुए ग्रामतीर्थ योजना के विराट कलेवर को अंगीकार करना होगा ।। जब तक भारत के गाँवों का समग्र विकास नही होगा, तब तक भारत के विकास की परिकल्पना कोरा दीवास्वप्न ही है ।। एक संस्कारयुक्त- व्यसनमुक्त, स्वच्छ- स्वस्थ शिक्षित स्वावलम्बी गाँव ही युग परिवर्तन के विशाल वट वृक्ष को बीज रूप में अपने में समाहित किये हुए है ।। हमें तो बस अपने स्तर से अनुकूल वातावरण तैयार करना है ।। गाँव में बसने वाली प्रचुर युवा श्रम शक्ति स्वयं ही अपने विकास की राह अपने संसाधनों से खोज लेगी ।। गाँवों का विकास ऋषि सूत्रों पर आधारित आध्यात्मिक अर्थ व्यवस्था से ही सम्भव है ।।
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स्वावलंबी ग्राम्य विकास

Preface

गाँव अपने में विश्व को पुष्ट करने वाली ऐसी इकाई है, जिस में किसी भी प्रकार की व्यग्रता व आतुरता न हो, अर्थात भविष्य के प्रति पूर्ण निश्चिन्तता व आश्वस्तता हो । वास्तव में हमारे गाँव इस सूत्र के अनुरूप पूर्णतया स्वावलम्बी हुआ करते थे, उन्हें अपनी आवश्यकता के लिए बाहर की ओर नहीं देखना होता था । विकास उनकी पूर्णतया विकेन्द्रीकृत सामाजिक व्यवस्था थी । परन्तु विभिन्न राज तंत्रीय व्यवस्थाओं से गुजरते हुए ग्राम्य का वह स्वरूप एवं ढाँचा धीरे धीरे कर प्राय: लोप हो गया । 

भारत ग्राम प्रधान देश है और गांवों में बसी 2 तिहाई आबादी का उत्कर्ष एवं उत्थान ही राष्ट्र का वास्तविक विकास है । परन्तु यह विडम्बना ही है कि आजादी के बाद पिछले 55 वर्षों में गांवों के विकास को वह स्वरूप व दिशा-धारा नहीं दी जा सकी जो यहाँ की परिस्थितियों व आवश्यकता के अनुकूल होती और गांवों में वह स्थिति पैदा करती जिससे गांवों से शहरों की ओर तेजी से हुए पलायन एवं गंदी बस्तियों के रूप में बढती शहरी आबादी की गंभीर समस्याओं से बचा जा सकता । साथ ही शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रदूषण, प्राकृतिक असन्तुलन एवं प्रकोपों की मार से भी बचा जा सका होता । 
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स्वाध्याय मण्डलों की स्थापना - कल्पवृक्ष का आरोपण

Preface

अज्ञानता के कारण मानव जीवन दुःखों से भरा रहता है ।। यदि ज्ञान हो तो अभावों में भी प्रसन्न रहा जा सकता है ।। युग द्रष्टा पूज्य गुरुदेव ने दिव्य दृष्टि से समझ लिया था कि सभी दुःखों का मूल कारण अज्ञान है ।। इसी अज्ञान को दूर करने हेतु उन्होंने ज्ञानयज्ञ की योजना चलाई ।। ज्ञानयज्ञ के दो माध्यम हैं- सत्संग और स्वाध्याय ।। ग्रंथ प्रकाशन की व्यवस्था आसान एवं सर्वसुलभ होने से अब स्वाध्याय ही बेहतर साधन हो सकता है ।। दुश्चिंतन को मिटाने वाले, सद्साहित्य की आवश्यकता की पूर्ति पूज्यवर ने युग साहित्य का सृजन करके की ।। युग साहित्य को जन- जन तक पहुँचाने के लिए तरह- तरह के प्रयोग किए जिनमें स्वाध्याय मंडलों की स्थापना को पूज्यवर ने कल्पवृक्ष की संज्ञा दी ।। इसके माध्यम से युग निर्माण मिशन के सभी कार्यक्रम स्वल्प साधनों से पूरा होने की योजना बनाई ।। स्वाध्याय मंडल की स्थापना पाँच प्रारंभिक सदस्यों द्वारा स्वाध्याय से प्रारंभ होती है, जो तीस सदस्यों द्वारा स्वाध्याय तक पहुँच जाती है ।। तीस सदस्यों का यह स्वाध्याय मंडल शक्तिपीठ, प्रज्ञापीठ आदि भवनों वाले प्रज्ञा संस्थानों के समतुल्य मिशन की गतिविधियों को चलाते हैं ।। स्वाध्याय मंडल के पास चल- अचल संपत्ति न होने के कारण वित्तैषणा- लोकैषणा से बचे रहना आसान होता है ।। पूज्यवर ने इस पुस्तक में युग साहित्य का महत्त्व, स्वाध्याय की आवश्यकता, स्वाध्याय मंडलों की स्थापना एवं उनकी गतिविधियों पर प्रकाश डाला है और हम सबसे स्वाध्याय मंडल बनाने की आशा सँजोई है ।। उनकी आकांक्षा को आदेश मानते हुए सभी को अपने क्षेत्र में स्वाध्याय मंडल की स्थापना करनी चाहिए ।।
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समाज की अभिनव रचना

Preface

विश्व मानव की आत्मा एक और अखंड है ।। समस्त जड़- चेतन उसी के अंतर्गत अवस्थित हैं ।। इस आत्मा में अपनी एक दिव्य आभा, स्वर्गीय ज्योति जगमगाती है ।। अनेक मल आवरणों ने उसे ढ़क रखा है ।। यदि वह ज्योति इन आवरणों को चीरकर अपने शुद्ध स्वरूप में जगमगाने लगे, तो उसका आलोक जहाँ भी पड़े वहीं आनंद का परम आह्लादकारी दृश्य दिखाई दे सकता है ।। इस प्रकाश की सीमा में आने वाली हर वस्तु स्वर्गीय बन सकती है ।। ऐसी बहुमूल्य ज्योति हमारे अंदर मौजूद है ।। स्वर्ग की सारी साज- सज्जा हमारे भीतर प्रस्तुत है, पर अविद्या के प्रतिरोधी तत्त्वों ने उसे भीतर ही अवरुद्ध कर रखा है ।। फलस्वरूप मानव प्राणी स्वयं नारकीय स्थिति में पड़ा हुआ है और वैसा ही नरक तुल्य वातावरण अपने चारों ओर बनाए बैठा है ।। 

आत्मा स्वार्थ की संकुचित सीमा में अवरुद्ध होकर आज खंडित हो रही है ।। हर व्यक्ति अपने को दूसरों से अलग खंडित देखता है, फलस्वरूप चारों ओर संघर्ष और कलह का वातावरण उत्पन्न होता है ।। 

वस्तुत: हम सब एक हैं, अखंड हैं, सब एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक का सुख- दुःख, दूसरे का सुख- दुःख है ।। उठना है तो सबको एक साथ उठना होगा, सुख ढूँढना है तो सबको उसे बाँटना होगा ।।

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सभ्य समाज की अभिनव संरचना में जुटें

Preface

जिस समाज में लोग एक -दूसरे के दु:ख -दर्द में सम्मिलित रहते हैं , सुख- संपति को बाँटकर रखते हैं और परस्पर स्नेह, सौजन्य का परिचय देते हुए स्वयं कष्ट सहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं उसे देव समाज कहते हैं। जब जहाँ जनसमूह इस प्रकार पारस्परिक संबंध बनाए रहता है तब वहाँ स्वर्गीय परिस्थितियाँ बनी रहती हैं ।। पर जब कभी लोग न्याय -अन्याय का, उचित- अनुचित का , कर्त्तव्य -अकर्त्तव्य का विचार छोड़कर उपलब्ध सुविधा या सत्ता का अधिकाधिक प्रयोग स्वार्थ में करने लगते हैं तब क्लेश ,द्वेश और असंतोष की प्रबलता बढ़ ने लगती है। शोषण और उत्पीड़न का बाहुल्य होने से वैमनस्य और संघर्ष के दृश्य दिखाई पड़ने लगते हैं।
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विवाह संस्कारो मे विकृतियाँ न जोडे़ं

Preface

किसी महान प्रयोजन को लक्ष्य मानकर जाने वाले धर्मसेवी, लोकसेवी, परिव्राजक स्तर के महापूरुष तो अविवाहित जीवन में भी सुविधा अनुभव करते हैं, पर सामान्यजनों को सामान्य जीवन में विवाहित रहकर काम चलाना ही सुविधाजनक पड़ता हैं ।। इसमें प्रकृति की प्रेरणायेँ भी पूरी होती हैं ।। पेट की भूख कमाने के लिये बाधित करती हैं और वंश वृद्धि की ललक कामुकता के रुप में गृहस्थी बसाने की प्रेरणा देती हैं ।। साधारणतया इन्हीं दो कार्यों की शृंखला जीवन अवधि को व्यस्तता के बीच पूरी कर देती है। जीवन संकट इन्हीं दो प्रयासों की लोक पर घिसटता रहता है और आयुष्य की अवधि पूरी कर लेता है। यही प्रचलन भी है और यही सर्वसुलभ और सुविधाजनक भी। तरुणाई के आगमन वाले दिनों में सामान्यता ऐसी प्रकृति प्रेरणा होती है की जोड़ा बनाकर रहें।नये रक्त के साथ जुड़ी हुई उमगें इसके लिये प्रेरित भी करती है,उन्हें छोड़कर सामान्यजन विवाह की इच्छा करते और उसका सरंजाम भी जुटाते है। 

इस संदर्भ में उससे अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है, जितनी कि आमतौर से बरती जाती है। लोग सुंदर शरीर वाला साथी पाने की फिराक में रहते है। चयन प्राय: इसी आधार पर हो सका तो प्रसन्नता व्यक्त की जाती है।इसके अतिरिक्त लड़के का कमाऊ और लड़की का चुलबुलापन भी पसन्दगी का कारण माना जाता है।
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