Friday 27 May 2016

Vedas Set - (8 Books)

Description

1. ऋग्वेद-1 
2. ऋग्वेद-2 
3. ऋग्वेद-3 
4. ऋग्वेद-4
5. अथर्ववेद-01 
6. अथर्ववेद-02 
7. यजुर्वेद 
8. सामवेद  




Thursday 26 May 2016

विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरुप

Preface

पदार्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्रोत- उद्गम और कार्यक्षेत्र पृथक हैं। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुंदर और सुविधा- साधनों से भरा- पूरा बन सका, उसका श्रेय उस विज्ञान को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता कहा जाता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक सुखी- समृद्ध है, यह तभी बन पड़ा है जब विज्ञान का उद्भव करना और उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न करना सम्भव हुआ।

पदार्थ से अधिक शक्तिवान है - चेतना। उसी का कौशल और चमत्कार है कि पदार्थ को अनगढ़ से सुगढ़ स्थिति तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त हुई। फिर भी एक आश्चर्य और भी शेष रह जाता है कि वह ज्ञान की जन्मदात्री होने पर भी चेतना अपने आप के सम्बन्ध में भी कम दिग्भ्रान्त नहीं रहती। अपने को भी अपना मकड़जाल बुनकर फँसाने और असाधारण संत्रास सहते रहने के लिए बाधित होती है। यह और भी जटिल स्थिति है। दूसरों के सम्बन्ध में समीक्षा करना सरल पड़ता है। दूसरे के रूप का भला- बुरा वर्णन किया जा सकता है, पर आत्म- समीक्षा कैसे बन पड़े ?? अपने प्रति पक्षपात भी रहता और सर्वोत्तम होने का आग्रह भी। ऐसी दशा में दृष्टिकोण गड़बड़ाता है, कुकल्पनाएं उठती हैं। अपने को सही सिद्ध करने वाले अनेकानेक तर्क साथ देते हैं।. . . अपनी मान्यता और आस्था में ऐसी विशेषता है कि वह दूसरों के सभी परामर्शों को भी निरस्त कर देती है, जो अपनी संचित मान्यताओं को निरस्त करती हैं। 

लोक व्यवहार में अध्यात्म और विज्ञान की दो पृथक धारा बन गई हैं। दोनों ने अपने- अपने दुर्ग अलग- अलग खड़े कर लिए हैं। भ्रान्तियाँ दोनों पर ही अपने- अपने ढंग की सवार हैं। वे जिस भी स्थिति में हैं अपने को पूर्ण मानकर चल रहे हैं।


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चेतना की प्रचंड़ क्षमता एक दर्शन

Preface

शरीर रचना से लेकर मन:संस्थान और अंतःकरण की संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही दृष्टिगोचर होता है, यह सोद्देश्य होना चाहिए अन्यथा एक ही घटक पर कलाकार का इतना श्रम और कौशल नियोजित होने की क्या आवश्यकता थी ? 

पौधे और मनुष्य के बीच पाये जाने वाले अंतर पर दृष्टिपात करने से दोनों के बीच हर क्षेत्र में मौलिक अंतर दृष्टिगत होता है । विशिष्टता मानवी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है । आत्मिक गरिमा पर विचार न भी किया जाय, तो भी मात्र काय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो भी इस क्षेत्र में कम अद्भुत नहीं है ।

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आर्थिक स्वावलंबन भाग-३


Preface

साबुन एक ऐसा उत्पाद है जो हर व्यक्ति, हर घर-परिवार द्वारा इस्तेमाल किया जाता है । कभी समय रहा होगा जब ग्रामीण क्षेत्र के लोग कपड़ा धोने का कार्य रेत अथवा कपड़ा धोने के सोडा के साथ उबाल कर कर लिया करते थे और नहाने के लिए यदा-कदा कपड़ा धोने का साबुन ही इस्तेमाल कर लेते थे । महिलाएँ सिर धोने का काम मुलतानी मिट्टी से करती थीं । परन्तु अब बदलते हुए समय के साथ क्या शहर क्या गाँव सभी जगह नहाने के लिए या कपड़ा धोने के लिये साबुन वैसी ही दैनिक आवश्यकता बन गई है जैसी दैनिक भोजन व आहार की । अपने अपने स्तर के हिसाब से क्या क्वालिटी इस्तेमाल करते हैं ये दीगर बात है परन्तु गाँव के हर घर परिवार में न्यूनतम २-३ किलो साबुन माह में इस्तेमाल होता ही है । पूरे गाँव की आवश्यकता का यदि ऑकलन करें तो क्विंटलों में आयेगा । इसकी पूर्ति के लिए गाँव नजदीक के शहर उाथवा कस्बे पर निर्भर करते हैं । यदि गाँव की इतनी बड़ी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति की व्यवस्था व्यवसायिक स्तर पर गाँव की गाँव में ही हो जाये और गाँव की आवश्यकता का साबुन गाँव में ही बनने लगे तो इससे जहाँ कई बेकारों को अपने स्वावलम्बन का आधार मिल सकता है, वहीं अनेक गरीब लोगों की आवश्यकता की पूर्ति सस्ते में हो सकती है । यही नहीं गाँव के स्वावलम्बन की दृष्टि से भी यह इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हो सकता है । यद्यपि साबुन अथवा उसके वर्ग का कोई भी उत्पाद बनाना बहुत सरल है और लोग अपने घर-परिवार की आवश्यकता का साबुन बहुत कम समय में, कम कीमत में आसानी से बना सकते हैं परन्तु कठिनाई यह है कि इसका तकनीकी ज्ञान लोगों को नहीं है, प्रशिदाण की व्यवस्था नहीं है ।



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आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

Preface

जीवन रोगों के भार और मार से बुरी तरह टूट गया है ।। जब तन के साथ मन भी रोगी हो गया हो, तो इन दोनों के योगफल के रूप में जीवन का यह बुरा हाल भला क्यों न होगा ? ऐसा नहीं है कि चिकित्सा की कोशिशें नहीं हो रही ।। चिकित्सा तंत्र का विस्तार भी बहुत है और चिकित्सकों की भीड़ भी भारी है ।। पर समझ सही नहीं है ।। जो तन को समझते हैं, वे मन के दर्द को दरकिनार करते हैं ।। और जो मन की बात सुनते हैं, उन्हें तन की पीड़ा समझ नहीं आती ।। चिकित्सकों के इसी द्वन्द्व के कारण तन और मन को जोड़ने वाली प्राणों की डोर कमजोर पड़ गयी है ।। 

पीड़ा बढ़ती जा रही है, पर कारगर दवा नहीं जुट रही ।। जो दवा ढूँढी जाती है, वही नया दर्द बढ़ा देती है ।। प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में से प्राय: हर एक का यही हाल है ।। यही वजह है कि चिकित्सा की वैकल्पिक विधियों की ओर सभी का ध्यान गया है ।। लेकिन एक बात जिसे चिकित्सा विशेषज्ञों को समझना चाहिए उसे नहीं समझा गया ।। समझदारों की यही नासमझी सारी आफतो- मुसीबतों की जड़ है ।। यह नासमझी की बात सिर्फ इतनी है कि जब तक जिन्दगी को सही तरह से नहीं समझा जाता, तब तक उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा भी नहीं की जा सकती ।। 

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Tuesday 24 May 2016

महाकाल और उसकी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

Preface

पिछले दिनों से पूरे विश्व में एक विचित्र स्थिति देखने को मिल रही है ।। वह हैं- महा शक्तियों का आपसी टकराव ।। बड़े- बड़े राष्ट्रों की धन लिप्सा, युद्ध लिप्सा, शोषण की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गयी है ।। यही कारण है कि उनके सुरक्षा बजट का अधिकांश भाग राष्ट्रनायकों की स्वार्थ पूर्ति में, मारक हथियारों की खोज- खरीद में व्यय हो रहा है ।। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने किये का परिणाम भोगना पड़ता है, ठीक उसी तरह बड़ी शक्तियों व जातियाँ भी सदा से अपने भले- बुरे कायों का परिणाम सहती आयी हैं ।। ऊपरी चमक- दमक कुछ भी हो मानवता युद्धोन्माद, प्रकृति विक्षोभों, प्रदूषण व विज्ञान की उपलब्धियों के साथ हस्तगत दुष्परिणामों के कारण त्रस्त है, दुःखी है ।।

महाकाल की भूमिका ऐसे में सर्वोपरि है ।। महाकाल का अर्थ है- समय की सीमा से परे एक ऐसी अदृश्य- प्रचण्ड सत्ता जो सृष्टि का सुसंचालन करती है दण्ड- व्यवस्था का निर्धारण करती है एवं जहाँ कहीं भी अराजकता, अनुशासनहीनता, दृष्टिगोचर होती है वहाँ सुव्यवस्था हेतु अपना सुदर्शन चक्र चलाती है ।। इसे अवतार प्रवाह भी कह सकते हैं, जो समय- समय पर प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने व सामान्य सतयुगी स्थिति लाने हेतु अवतरित होता रहा है ।। कैसा है आज के मानव का चिन्तन व किस प्रकार वह अपने विनाश को खाई स्वयं खोद रहा है ? साथ ही महाकाल उसके लिये किस प्रकार की कर्मफल व्यवस्था का विधान कर रहा है ? इसी का विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है ।। जो पाप से डरते हैं वे संभवतः: इस पुस्तक में व्यक्त विचारों को पढ़कर भावी विपत्तियों से स्वयं की रक्षा करेंगे एवं औरों को भी सन्मार्ग पर चलने को प्रवृत्त करेंगे ।।


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आदर्श ग्राम योजना (मार्गदर्शिका)

Preface

आध्यात्मिकता व जीवन साधना को आधार बनाते हुए सामाजिक क्रांति मूलतः हमारे मिशन का लक्ष्य है अर्थात् समाज की समस्याओं का समाधान ।। हमारा देश ग्राम प्रधान है और यहाँ की 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में बसती हे ।। आजादी के बाद विकास प्रक्रिया का लाभ लेकर यद्यपि कुछ मुट्ठीभर लोग साधन व सुविधा सम्पन्न अवश्य हुए हैं परन्तु ग्रामीण क्षेत्र का बहुसंख्यक समाज आज भी न केवल अभाव व पीडाग्रस्त हैं बल्कि दयनीय स्थिति में है ।। बेरोजगारी व गरीबी, कृषि एवं पशुपालन, स्वास्थ्य एवं शिक्षा, सूखा व जलसंकट, अनीति व भ्रष्टाचार, विभिन्न प्रकार के व्यसन व प्रदर्शन आदि से सम्बंधित अनेक समस्याओं से लोग पीड़ित है परन्तु इनका समुचित समाधान उन्हें मिल नहीं पा रहा है ।। अत: हमारी गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु अब ग्रामीण क्षेत्र है ।। हमारी आराध्यसत्ता परम पूज्य गुरुदेव की उद्घोषणा भी तो यही है कि भावी दुनिया गाँवों के विकास पर केन्द्रित होगी ।। उपरोक्त को दृष्टिगत रखते हुए मिशन अब ग्राम्य विकास कार्यक्रम को एक अभियान का रुप देना चाहता है ।। आदर्श गाँव बनाने हेतु परिजनों के लक्ष्य भी निर्धारित किए गये हैं ।। परिणामत :अब अनेकों कार्यकर्त्ता ग्राम्य विकास कार्य में जुट रहे होंगे, परन्तु गाँव को आदर्श व स्वावलम्बी बनाने के लिए क्या- क्या कार्यक्रम व गतिविधियाँ चलाई जाएँ कैसे चलाई जाएँ उसकी विधिव्यवस्था क्या हो, गाँव विशेष में किन कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी जाए, ग्राम्य विकास प्रक्रिया में स्थायित्व कैसे लाया जाए, एक ग्राम सु धारक के रूप में उन्हें किन दायित्वों का निर्वहन करना है आदि से सम्बन्धित अनेक बिन्दुओं पर उन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है ।। इसे दृष्टिगत रखते हुए ही यह पुस्तिका तैयार की गई है ।।

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आर्थिक स्वावलंबन भाग - १

Preface

मिशन के स्वावलम्बन आन्दोलन ने भी गति पकड़ी है ।। स्वावलम्बन आन्दोलन के बढ़ते कदम व तदनुरूप उसकी आवश्यकता को देखते हुए पुस्तक के परिवर्द्धित स्वरूप की आवश्यकता काफी समय से महसूस की जा रही थी ।। अब इसे अलग- अलग ३ भागों में प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है ।।

ये ३ भाग हैं
१ आर्थिक स्वावलम्बन भाग- १ तत्वदर्शन एवं निर्माण विधि,
२ आर्थिक स्वावलम्बन भाग- २ सब्जी एवं फल परिरक्षण,
३ आर्थिक स्वावलम्बन भाग- ३ साबुन एवं डिटर्जेण्ट ।।

आर्थिक स्वावलम्बन भाग- १ का प्रथम खण्ड स्वावलम्बन के तत्वदर्शन से सम्बंधित है जो कि मिशन के स्वावलम्बन आन्दोलन का आधार है ।। इस की पाठ्य सामग्री को अधिक व्यवस्थित व अधिक मार्गदर्शनमूलक बनाने का प्रयास किया गया है ।। युग निर्माण अभियान के अन्तर्गत स्वावलम्बन आन्दोलन अब तेजी से गति पकड़ने लगा है ।। इस समय इस दिशा में जन उत्साह को उभारना, उसे नियोजित करना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी यह भी है कि आन्दोलन की दिशाधारा को सही रखा जाए ।। हमारा स्वावलम्बन आन्दोलन अन्य लोगों एवं संस्थानों के आन्दोलनों की अपेक्षा कुछ विशिष्टता लिए हुए है ।। यह व्यक्ति, परिवार एवं समाज के विकास का एक अंग है, जन सेवा की एक धारा है, अपने उद्यमी या व्यवसायिक कौशल का एक अंश अभाव निवारण यज्ञ में आहुति के रूप में समर्पित करते रहने की एक साधना है ।। अतः युग निर्माण अभियान से जुड़े हर परिजन/उद्यमी व्यक्ति को युग ऋषि द्वारा दी गई दिशाधारा को ध्यान मे रख कर ही स्वावलम्बन यज्ञ में अपने अनुभव, कौशल तथा साधनों की आहुतियाँ समर्पित करनी चाहिए ।।

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Wednesday 18 May 2016

Revival Of Satyug

Preface

In His vast creation, God has bestowed the human species with some unique privileges. Amongst the innumerable creatures, man is the only one capable of having instinctive compassion for the fellow beings. Barring a few self centred human beings, for whom besides their own existence, no matter or event is of any consequence; a normal man is instinctively moved by human miseries like floods, earthquakes and famines etc. On such occasions, empathy implores some individuals to contribute their best to alleviate the situation and a super human is born. History abounds in such examples. The well known first ever Sanskrit poet, Valmiki was inspired to his first verse by an injured wailing curlew bird. Heaps of carcasses of the brutally annihilated sages compelled Lord Ram to take a pledge for. deliverance of the earth from the marauders.

The climax of human evolution may be considered as the stage where the field of empathy becomes so pervasive as to encompass the entire biological kingdom.

The human race has failed to utilise its prudence, caution and intelligence in fruitful utilisation of the gains.

The big question is, "Are we heading towards a total extinction ?" Certainly not. There is a ray of hope.

Nature has not gifted man with higher status for wasting his superior calibre.... for accumulation and utilisation of resources. He has been assigned some higher goals by the Almighty.
The period preceeding the golden age of twenty-first century expects everyone to contribute earnestly towards inculcating sentient consciousness and empathy in fellow beings. There is little doubt that through the efforts of all dedicated persons humanity will regain its happiness and lost virtues.

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गायत्री की दैनिक साधना एवं यज्ञ पद्धति


Preface

गायत्री मंत्र का सच्चे हृदय से जप करने से मनुष्य का आत्मिक कायाकल्प हो जाता है और उसे ऐसा जान पड़ता है कि उसके हृदय से सब प्रकार के विकार दूर होकर, सतोगुणी तत्त्वों की अभिवृद्धि हो रही है । इसके प्रभाव से विवेक दूरदर्शिता, तत्त्वज्ञान का उदय होकर अनेक अज्ञान जनित दुःखों का निवारण होता है । गायत्री-साधना से मनुष्य के अंतर्मन में ऐसी दृढ़ श्रद्धा का आविर्भाव होता है कि वह सब प्रकार की विघ्न-बाधाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों को हँसते-हँसते सहन कर लेता है । भली-बुरी सब प्रकार की अवस्थाओं में वह साम्यभाव रखकर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करता है । उसको संसार की सबसे बड़ी शक्ति आत्मबल प्राप्त हो जाता है, जिसके द्वारा वह अनेक प्रकार के सांसारिक लाभों और मनोकामनाओं को भी सहज में प्राप्त कर लेता है ।

गायत्री का मुख्य प्रभाव केवल कुछ सांसारिक लाभ प्राप्त कर लेना अथवा विपत्तियों सें रक्षा पा जाना नहीं है । उसका सबसे बड़ा प्रभाव तो यह है कि वह मनुष्य के मन को, अंत करण को, मस्तिष्क को एवं विचारधारा को सन्मार्ग की तरफ प्रेरित करती है और एक सच्चे मनुष्यत्व का विकास करती है, सत्तेत्त्व की वृद्धि करना ही इसका प्रधान कार्य है ।

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Prepare Yourself To Excel


Preface

Every particle in the world is a motion; everything moves ahead, develops and continues its journey. This movement is the nature of creation. Induced by this nature, every inanimate and live element of nature has to continue its journey. Man is also bound by this rule. He goes ahead with the developments in his life from birth till death. Even after this the evolution continues.

It is essential for every wise man and woman to know the science of how to progress and complete this mandatory journey with grace and excellence. Just as it is necessary for a blacksmith to know the work of smithy, for a confectioner to know how to prepare sweets and for a farmer to know farm-work, so it is necessary for a person undertaking a journey to have substantial details associated with it, know its goal and know the optimal path. Planning, preparation and organization are essential before execution of every great task. Great tasks are accomplished only when they are properly planned ahead of starting Journey of life is also a very big project and there is no alternative to preparation beforehand to complete its successfully.

Our life is moving ahead. It is essential to make preparations so that this journey moves adeptly in an organized way in the right direction. This books is written to fulfill this need. I hope that is would prove helpful to the reader in rightly organizing and augmenting his physical, metal and spiritual resources.

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Dignity Of Organisational Skill


Preface

God has given man freedom to think and act according to his own choice. No other living being on this planet has this unusual privilege. Consequently, man has to bind himself with the disciplines of nature it by exercising self-control (samyam). Man is expected to regulate his thinking, character and behavior by codes of modesty, incorporated in various doctrines of religion.

The faculty to differentiate between right and wrong enables a person to make a prudent choice of those natural disciplines which are conducive to progress, whereas with the help of organizational skill one carries this choice to fruition by working and making others work accordingly. The monotonous, unvarying patterns of living in the life of animals indicate their lack of organizational skill. Persons who do not make an endeavor to develop and use this exclusive divine gift of organizational skill are doomed to live like animals.
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Sunday 15 May 2016

हारिए न हिम्मत

दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्रों को टटोलो। किसी और की बुराई करने से पहले यह देख लो कि हम में तो कोई बुराई नहीं है। यदि हो तो पहले उसे दूर क रो। दूसरों की निन्दा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ। तब स्वयं इससे सहमत होंगे कि परनिंदा से बढऩे वाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो।
संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यों! पहले अपने केा जीतने की चेष्टा करो। यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा। तुम अपने जितेंद्रिय रूप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे। संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा।





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गायत्री और यज्ञोपवीत

Preface

यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है । इसे द्विजत्वका प्रतीक माना गया है । द्विजत्व का अर्थ है- मनुष्यता के उत्तरदायित्वको स्वीकार करना । जो लोग मनुष्यता की जिम्मेदारियों को उठाने के लिये तैयार नहीं, पाशविक वृत्तियों में इतने जकड़े हुए हैं कि महान्मानवता का भार वहन नहीं कर सकते, उनको अनुपवीत शब्द से शास्त्रकारों ने तिरस्कृत किया है और उनके लिए आदेश किया है कि वे आत्मोन्नति करने वाली मण्डली से अपने को पृथक-बहिष्कृत समझें । ऐसे लोगों को वेद पाठ, यज्ञ तप आदि सत्साधनाओं का भी अनधिकारी ठहराया गया है, क्योंकि जिसका आधार ही मजबूत नहीं, वह स्वयं खड़ानहीं रह सकता, जब स्वयं खड़ा नहीं हो सकता, तो इन धार्मिक कृत्यों का भार वहन किस प्रकार कर सकेगा ? भारतीय धर्म-शास्त्रों की दृष्टि से का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वह अनेक योनियों में भ्रमण के कारण संचित हुए पाशविक संस्कारों का परिमार्जन करके मनुष्योचित संस्कारों को धारण करे । इस धारणा को ही उन्होंने द्विजत्व के नाम से घोषित किया है । कोई व्यक्ति जन्म से द्विज नहीं होता, माता के गर्भ से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते हैं । शुभ संस्कारों को धारण करने से वे द्विज बनते हैं । महर्षि अत्रि का वचन है- जन्मना जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते ।जन्म-जातपाशविक संस्कारों को ही यदि कोई मनुष्य धारण किये रहे, तो उसे आहार,निद्रा, भय, मैथुन की वृत्तियों में ही उलझा रहना पड़ेगा । कंचन-कामिनीसे अधिक ऊँची कोई महत्त्वाकांक्षा उसके मन में न उठ सकेगी । इसस्थिति से ऊँचा उठना प्रत्येक मनुष्यताभिमानी के लिए आवश्यक है ।इस आवश्यकता को ही हमारे प्रात: स्मरणीय ऋषियों ने अपने शब्दों में उपवीत धारण करने की आवश्यकता बताया है ।

 

Gayatri Mantra The Genesis Of Divine Culture

Preface

Let us begin with the collective chanting of the Gayatri Mantra:
"Om Bhar Buvah Swah, Tatsaviturvarenyam, Bhargo Devasya Dhimahi, Dhiyo Yonah Prachodayat II"

Sisters and Brothers,

A mother is the highest manifestation of God in human form. Our scriptures say "Matri Devobhav, Pitri Devobhav, Acharya Devobhav" Indeed there is no one greater than a mother. We all know that each one of us is born and is surviving because of mothers grace. She bears the offspring for nine months, nourishes the embryo in the womb by her own blood and continues to do so after the


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Prepare Yourself To Excel

Preface

Every particle in the world is a motion; everything moves ahead, develops and continues its journey. This movement is the nature of creation. Induced by this nature, every inanimate and live element of nature has to continue its journey. Man is also bound by this rule. He goes ahead with the developments in his life from birth till death. Even after this the evolution continues.

It is essential for every wise man and woman to know the science of how to progress and complete this mandatory journey with grace and excellence. Just as it is necessary for a blacksmith to know the work of smithy, for a confectioner to know how to prepare sweets and for a farmer to know farm-work, so it is necessary for a person undertaking a journey to have substantial details associated with it, know its goal and know the optimal path. Planning, preparation and organization are essential before execution of every great task. Great tasks are accomplished only when they are properly planned ahead of starting Journey of life is also a very big project and there is no alternative to preparation beforehand to complete its successfully.

Our life is moving ahead. It is essential to make preparations so that this journey moves adeptly in an organized way in the right direction. This books is written to fulfill this need. I hope that is would prove helpful to the reader in rightly organizing and augmenting his physical, metal and spiritual resources.

 

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बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं गुण दें

Preface

लोग कारोबार करते, परिश्रम-पुरुषार्थ करते और जरूरत से कहीं ज्यादा धन-दौलत जमीन-जायदाद इकट्ठी कर लेते हैं । किसलिए ? इसलिए कि वे यह सब अपने बच्चों को उत्तराधिकार में दे सकें । बच्चे उनके अपने रूप होते हैं । सभी चाहते हैं कि उनके बच्चे सुखी और समुन्नत रहें, इसी उद्देश्य से वे कुछ न कुछ सम्पत्ति उनको उत्तराधिकार में दे जाने का प्रयत्न किया करते हैं ।

किसी हद तक ठीक भी है । जिनको कुछ सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल जाती है उनको कुछ न कुछ सुविधा हो ही जाती है । किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिनको धन-दौलत, जमीन- जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाए उनका जीवन सुखी ही रहे । यदि जीवन का वास्तविक सुख धन-दौलत पर ही निर्भर होता तो आज भी सभी धनवानों को हर प्रकार से सुखी होना चाहिए था । बहुत से लोग आए दिन धन-दौलत कमाते और उत्तराधिकार में पाते रहते हैं । किन्तु फिर भी रोते-तड़पते और दुःखी होते देखे जाते हैं । जीवन में सुख-शान्ति के दर्शन नहीं होते ।

सुख का निवास सद्गुणों में है, धन-दौलत में नहीं । जो धनी है और साथ में दुर्गुणी भी, उसका जीवन दुःखों का आगार बन जाता है । दुर्गुण एक तो यों ही दुःख के स्रोत होते हैं फिर उनको धन-दौलत का सहारा मिल जाए तब तो वह आग जैसी तेजी से भड़क उठते हैं जैसे हवा का सहारा पाकर दावानल । मानवीय व्यक्तित्व का पूरा विकास सद्गुणों से ही होता है ।

 

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उत्तिष्ठत् जाग्रत !

Preface

दो शब्द

मनुष्य अनन्त -अद्भुत विभूतियों का स्वामी है ।। इसके बावजूद उसके जीवन में पतन -पराभव -दुर्गति का प्रभाव क्यों दिखाई देता है ? कारण एक ही है कि मनुष्य अपने  लिए मानवीय गरिमा के अनुरुप उपयुक्त लक्ष्य नहीं चुन पाता ।।

वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने ऋषियों के सनातन जीवन सूत्रों को वर्तमान युग के अनुरुप व्यावहारिक स्वरुप देकर प्रस्तुत किया है। उन सूत्रों का अध्ययन ,मनन ,चिन्तन, अनुगमन करके कोई भी व्यक्ति जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों का निर्धारण करके उन्हें प्राप्त करने में सफल, समर्थ सिद्ध हो सकता है ।। जीवन को एक
महत्त्वपूर्ण अवसर मानकर उसका सदुपयोग करने के इच्छुक हर नर- नारी के लिए इस संग्रह में संकलित विचार जीवन में सफलता ,सार्थकता प्रदायक सिद्ध हो सकते हैं।

- प्रकाशक

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Old And New Herbal Remedies


Preface

Yoga and Herbal Therapy have become subject matters of common curiosity and pursuit for those caring for sustenance of good health by inexpensive and natural means and also for those who have suffered side-effects of antibiotics or in general, the lacunae of modern science of medicine. While a lot of training courses and dedicated schools on yoga are helping people across the globe, the scientific testing and implementation of herbal therapies are still confined to research labs and few pharmaceutical companies. Ayurveda is known to be the origin of herbal therapeutic science. Most importantly, the fact that its prescription is risk-free and does not generate any negative or suppressive effects on other kinds of medicaments or modes of treatments that might be used simultaneously makes it an excellent complementary mode of healing.

More and more people are getting interested these days in knowing about easy but effective modes of herbal remedies these days. Our major objective in presenting this new book on herbal remedies is to provide useful, authentic and innovative information in this direction. The main focus is laid on the use of Himalayan herbal medicines based on first of its land research carried out at the Brahmvarchas Research Center, Shantikunj, Hardwar (India). Thousands of people have been benefited from this therapy and got rid of diseases of different types and severity. Rare knowledge from the scriptures will be presented here.



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काय - उर्जा एवं उसकी चमत्कारी सामर्थ्य


Preface

स्रष्टा ने मानवी काया में बीज रूप में वे सभी तत्त्व, पदार्थ, वैभव, पराक्रम एवं क्षमताएँ भर दी हैं जो विश्व-ब्रह्मांड के जड़ पदार्थों तथा चेतन प्राणियों में कहीं भी देखे-पाए जा सकते हैं । वह स्वयं में एक चलता-फिरता चुंबक है, उसकी विलक्षण काय-संरचना को एक अच्छा- खासा बिजलीघर कह सकते हैं, जिससे उसकी अपनी मशीन चलती और जिंदगी की गुजर-बसर होती है । इसके अतिरिक्त वह दूसरों को प्रकाशित करने से लेकर भले-बुरे अनुदान दे सकने में भी भली प्रकार सफल होता रहता है । चुंबक होने के नाते, वह जहाँ प्रभावित करता है, वहाँ स्वयं भी अन्यान्यों से आकर्षित किया और दबाया-घसीटा जाता रहता है ।

मानवी चुंबकत्व का स्रोत ढूँढने वालों ने अभी इतना ही जाना है कि वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से यह अनुदान उसी प्रकार प्राप्त करता है जैसे कि धरती सूर्य से । ब्रह्मांडव्यापी चुंबकत्व से भी उसका आदान-प्रदान चलता रहता है । इस ऊर्जा की मात्रा में न्यूनाधिकता होने तथा सदुपयोग-दुरुपयोग करने से वह आए दिन लाभ-हानि उठाता रहता है । अच्छा हो इस संबंध में अधिक जाना जाय और सफलतापूर्वक हानि से बचने तथा लाभ उठाने में तत्पर रहा जाय ।

मनुष्य का मैगनेट घटता-बढ़ता रहता है । इसकी अल्पता से आँखों का विशेष आकर्षण समाप्त हो जाता है । शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, निस्तेज, शिथिल सा दिखाई पड़ने लगता है, साथ ही मनुष्य को विस्मृति, भ्रांति, थकान जैसी अनुभूति होती है जबकि चुंबकत्व के आधिक्य से वह आकर्षक मोहक एवं सुंदर लगने लगता है, उसकी प्रतिभा, स्मृति, स्कूर्ति जैसी विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं । सत्संग और कुसंग के परिणाम भी व्यक्ति की निजी प्राण-ऊर्जा की न्यूनाधिकता के सहारे ही संभव होते हैं ।




 


Saturday 14 May 2016

अब्राहम लिंकन

Preface

अमेरिका आज संसार में धन और शक्ति की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। संसार कं अधिकांश राष्ट्र उसके कर्जदार और सबसे अधिक सैन्य- साम्रगी उसके ही पास है। पर इतनी समृद्धि और सामर्थ्य होने पर भी वहीं सामाजिक शांति का बड़ा अभाव है। लूटमार, अपहरण, हत्या, आत्महत्या की जितनी घटनायें वहीं होती हैं, उतनी शायद ही किसी अन्य देश ने होती होंगी। सब प्रकार के साधन होते हुए भी इस तरह का अशांत, असंतुष्ट -जीवन व्यतीत करना, इस बात का चिह्न है कि वहीं के समाज में कोई ऐसी बड़ी त्रुटि है, जिससे वे वास्तविक सुख से वंचित ही रह जाते है।

न मालूम वह कौन -सी अशुभ घड़ी थी, जब धन के लोनी कुछ नर- पिशाचों ने अफ्रीका कं निरीह हबशियों को जबर्दस्ती पकड़कर गुलाम के रूप में अमेरिका में बेचना शुरू जिया ।। उस समय अमेरिका की आबादी कम थी। जमीन जितनी चाहे पडी़ हुई थी बस वहाँ वहीं के गोरी ने इन काले लोगों से पशुओं की तरह काम लेकर अपने वैभव की वृद्धि करनी आरंभ की। वे लोग हबशियों को मनुष्य नहीं समझते थे और उसके साथ कैसा भी व्यवहार कर सकते थे। हबशी दास को मार डालने पर भी कोई कानूनों प्रतिबंध न था और वास्तव में प्रति वर्ष सैकड़ों दास अधिक क्रुर प्रकृति के मालिकों द्वारा मार दिये जाते थे। हबशियों की संतान, स्त्री, बच्चे सब मालिक की अचल संपत्ति की तरह माने जाते थे और उनको पीढ़ी- दर एक ही मालिक की दासता करनी पड़ती थी जब तक यह स्वयं उसे किसी दूसरे के हाथ बेच न दे। अगर भीषण कष्टों को सहन न कर सकने के कारण कोई दास भाग जाता, तो जानवरों की तरह उसका पीछा और खोज की जाती थी और उसे पकड़कर पहले से अधिक यंत्रणायें दी जाती थी।
 


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The Great Moments Of Change

Preface

With the twentieth century gradually coming to an end, times have perceptibly changed. During the golden Era of human existence, when man depended more on faith, a clay statuette of Dronacharya was capable of inspiring and training an expert archer like Eklavya. Then only a casual desire of Meera was sufficient to make Krishna appear and accompany her to dance. Inspired by her total devotion and dedication to her blind husband, Gandhari had chosen to cover her eyes with a bandage. The energy her unexposed sight had accumulate, generated such a great supernatural visual force that by just casting a glance she could make the body of Duryodhan invincible. During those days blessings were considered no less important than invaluable gifts. On the other hand, an elevated saintly person could inflict irreparable damage to an errant simply by throwing a curse. Such miracles were dependent on the intensity of feelings and faith in the objective. The efficacy of boons and banes were time tested and could be relied upon in any eventuality.

Now, times have changed for worse. The human race is incapable of thinking beyond its physical existence. "Soul" has ceased to have any meaning. Human need is now-a-days confined to the narrow field of acquisition of tools of physical comforts, luxury and social status. This is unadulterated materialism (Pratyakshavad). We have on our own adopted a culture where seeing is believing and the sanctity of truth lies only in immediate physical demonstration. Any other virtuous thought or action, which is likely to bear fruit after a period of gestation, is looked down upon with disgust. Since soul is invincible and Almighty God does not appear performing tasks in a particular visible form at a particular place, both soul and God are considered non-existent.

 

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Four Pillars Of Self Devlopment

Preface

(Translation of a discourse by Poojya Gurudev Pandit Shriram Sharma Acharya on Atmonnati Ke Char Adhara delivered in 1980)
Let us begin with the collective chanting of the Gayatri Mantra:
Om Bhur Buvah Swah, Tatsaviturvarenyath Bhargo Devasya Dhimahi, Dhiyo Yonah Prachodayat !

Sisters and Brothers,
Our Yug Nirman mission has been organized as a laboratory. In a laboratory of chemistry, new chemicals and compounds are invented and presented to the world with a demonstration of their properties and use. Our mission is experimenting on the formulae, on the workable and viable plans for spiritual ascent and reconstruction of the world. Our Yug Nirman mission is a man-making odyssey. It is developed like a nursery to nurture good qualities, to produce enlightened talents. As you know, saplings of a variety of plants and trees are grown in a nursery and supplied to different gardens where they blossom with beautiful flowers and nutritious fruits.


ग्रामोत्थान की ओर

 


Preface

पिछले दिनों भौतिक विज्ञान व बुद्धिवाद का जो विकास हुआ है । उसने मानव जाति के हर पहलू को भले या बुरे रूप में प्रभावित किया है । लाभ यह हुआ कि वैज्ञानिक आविष्कारों से हमें बहुत सुविधा-साधन मिले और हानि यह हुई कि विज्ञान के प्रत्यक्षवादी दर्शन से प्रभावित बुद्धि ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल एवं परमार्थ के उन आधारों को डगमगा दिया जिन पर नैतिकता, सदाचरण एवं उदारता अवलम्बित थी । धर्म और अध्यात्म की अप्रामाणिकता एवं अनुपयोगिता विज्ञान ने प्रतिपादित की । इससे प्रभावित प्रबुद्ध वर्ग ओछी स्वार्थपरता पर उतर आया । आज संसार का धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नेतृत्व जिनके हाथ में है उनके आदर्श संकीर्ण स्वार्थों तक सीमित हैं । विश्व कल्याण को दृष्टि में रखकर उदार व्यवहार करने का साहस उनमें रहा नहीं, भले ही वे बढ़-चढ़कर बात उस तरह की करें । ऊँचे और उदार व्यक्तित्व यदि प्रबुद्ध वर्ग में से नहीं निकलते और उस क्षेत्र में संकीर्ण स्वार्थपरता व्याप्त हो जाती है, तो उससे नीचे वर्ग, कम पड़े और पिछड़े लोग अनायास ही प्रभावित होते हैं । संसार में कथन की नहीं, क्रिया की प्रामाणिकता है । बड़े कहे जाने वाले जो करते हैं, जो सोचते हैं, वह विचारणा एवं कार्य पद्धति छोटे लोगों के विचारों में, व्यवहार में आती है ।

इन दिनों कुछ ऐसा ही हुआ है कि आध्यात्मिक आस्थाओं से विरत होकर मनुष्य संकीर्ण-स्वार्थों की कीचड़ में फँस पड़ा है । बाहर से कोई आदर्शवाद र्का बात भले कहता दीखे भीतर से उसका क्रिया-कलाप बहुत ओछा है । एक दूसरे में यह प्रवृत्ति छूत की बीमारी की तरह बढ़ी और अनाचार का बोलबाला हुआ । परिणाम सामने है; रोग, शोक, कलह, क्लेश, पाप, अपराध, शोषण, उपहरण, छल, प्रपंच की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं और इन परिस्थितियों को बदलने एवं सुधारने की आवश्यकता है ।

समस्त विश्व को भारत के अजस्त्र अनुदान -35

Preface

भारत जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी "स्वर्गादपि गरीयसी" कहा जाता था, एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है, जिसके अनुदानों से विश्व- वसुधा का चप्पा- चप्पा लाभान्वित हुआ है ।। भारत ने ही अनादि काल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है ।। ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ, पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा- यह यहाँ से सारे विश्व में फैल गया ।। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष, जिसकी परिधि कभी सारी विश्व- वसुधा थी, आज अपने दो सहस्रवर्षीय अंधकारयुग के बाद पुन: उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है ।। परमपूज्य गुरुदेव ने जन- जन को उसी गौरव की जानकारी कराने के लिए यह शोधप्रबंध १९७३ -७४ में अपने विदेश प्रवास से लौटकर लिखाया एवं यह प्रतिपादित किया कि देव संस्कृति ही सारे विश्व को पुन: वह गौरव दिला सकती है, जिसके आधार पर सतयुगी संभावनाएँ साकार हो सकें ।। उसी शोधप्रबंध को सितंबर १११० में पुन: दो खंडों में प्रकाशित किया गया था ।। इस वाङ्मय में उस शोधप्रबंध के अतिरिक्त देव संस्कृति की गौरव- गरिमा परक अनेकानेक निबंध संकलित कर उन्हें एक जिल्द में बाँधकर प्रस्तुत किया गया है ।।

"सा प्रथमा संस्कृति: विश्ववारा ।" यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति- हिंदू संस्कृति- देव संस्कृति ही सर्वप्रथम वह संस्कृति थी, जो विश्वभर में फैल गई ।। अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हें होना चाहिए वे ही भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उमुख होने लगें तो इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा ।।

 


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सात्विक जीवनचर्या और दीर्घायुष्य

Preface

स्वास्थ्य रक्षा के नियमों में सभी सरल और स्वाभाविक हैं। उनमें न कोई कठोर है और न कष्ट साध्य। कठिन तो दुष्कर्म होते हैं। चोरी, उठाईगीरी, छल आदि दुष्कर्म करने के लिए असाधारण चतुरता और कुशलता की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु सच्चाई, ईमानदारी की राह पर चलना किसी अल्प बुद्धि वाले के लिए भी सरल है। इसी प्रकार प्रकृति प्रेरणा के अनुरूप जीवन- यापन पशु- पक्षी भी कर लेते हैं और आजीवन निरोग बने रहते हैं। सृष्टि के सभी जीवधारी जन्मते, बढ़ते, वृद्ध होते और मरते हैं, पर बीमार कोई नहीं पड़ता। अन्य पशु- पक्षियों में कदाचित ही कभी कोई रोगी देखा गया हो। संसार में एक ही मूर्ख प्राणी है, जो आए दिन बीमार पड़ता है, वह है -मनुष्य। उसके चंगुल में फँसे हुए पालतू पशु भी बीमार होते पाए जाते हैं। मनुष्य ही है जो स्वयं बीमार पड़ता है और अपने संपर्क अधिकार के अन्य प्राणियों को बीमार करता है। यह अभिशाप असंयम का- प्रकृति प्रेरणा के विपरीत आचरण करने का है। यदि कुचाल चलने की मूर्खता को छोड़ दिया जाय, तो सृष्टि के अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य के लिए सभी सक्षम और निरोग जीवनयापन नितांत सरल एवं संभव हो सकता है।

जब वह (कार्नेरी) मर रहा था, तो उसके ओंठ बुदबुदाए।
“आपका अन्तिम संदेश क्या है ?”
अटक-अटक कर लड़खड़ाते शब्दों में वे बोले- “जो मनुष्य मेरे आत्म अनुभूत जीवन के सात मूल मंत्रों के अनुसार जीवन संचालित करेगा, मेरा आशीर्वाद है कि वह कम से कम सौ साल की स्वस्थ्य जिन्दगी भोग कर सुखपूर्वक संसार से विदा होगा।
"आपके सात अनुभूत महामंत्र क्या हैं ?”
वे बोले - गिन लो और इन्हें भूलो मत । १. निसर्ग सामंजस्य, २. समय का संयम, ३. युक्त आहार , ४. परिष्कृत विचार, ५. पवित्र आचार , ६. पुरुषार्थ और ७. परोपकार ।

 


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जडी बूटी चिकित्सा एक संदर्शिका

Preface

प्रकृति ने मनुष्य के लिए हर वस्तु उत्पन्न की है । औषधि उपचार के लिए जड़ी-बूटियों भी प्रदान की हैं । इस आधार पर चिकित्सा को सर्वसुलभ, प्रतिक्रियाहीन तथा सस्ता बनाया जा सकता है । जड़ी-बूटी चिकित्सा बदनाम इसलिए हुई कि उसकी पहचान भुला दी गई-विज्ञान झुठला दिया गया । सही जड़ी-बूटी उपयुक्त क्षेत्र से, उपयुक्त मौसम में एकत्र की जाए उसे सही ढंग सें रखा और प्रयुक्त किया जाए तो, आज भी उनका चमत्कारी प्रभाव देखा जा सकता है ।

युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य के आशीर्वाद से, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान ने इस दिशा में सफल शोध-प्रयोग किए हैं । गिनी-चुनी जड़ी-बूटियों से लगभग ८० प्रतिशत रोगों का उपचार सहज ही किया जा सकता है । ऐसी सरल, सुगम, सस्ती परंतु प्रभावशाली चिकित्सा-पद्धति जन-जन तक पहुँचाने के लिए यह पुस्तक प्रकाशित की गई है । जड़ी-बूटियों की पहचान, गुण, उपयोग- विधि सभी स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया गया है ।

इस पुस्तक में ऐसी जडी़-बूटियों को प्राथमिकता दी गई है, जो भारत में अधिकांश क्षेत्रों में पाई जाती हैं अथवा उगाई जा सकती हैं । आचार्यवर की इच्छा है कि यह विधा विकसित हो और रोग निवारण के साथ-साथ जन-जन को प्राण शक्ति संवर्द्धन का लाभ भी प्राप्त हो । ऋषियों द्वारा विकसित इस विधा का लाभ पुन: जन-जन को मिले ।
 


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Friday 13 May 2016

गायत्री की दैनिक साधना

Preface

गायत्री उपासना प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म-कृत्य है । वैसे द्विज, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को कहते हैं । जो लोग यज्ञोपवीत धारण कर सकते हैं, वे द्विज हैं । ऐसे सभी लोगों को गायत्री का अधिकार है । द्विज वह है, जिसका दूसरा जन्म हुआ हो । एक जन्म माता-पिताके रज-वीर्य से सभी का होता है, इसलिए मनुष्य और पशु सभी समान हैं । दूसरा आध्यात्मिक जन्म गायत्री माता और यज्ञ पिता के संयोग से होता है । गायत्री अर्थात सद्बुद्धिरूपिणी माता और यज्ञ अर्थात परमार्थ रूपी पिता को जिन्होंने अपना आध्यात्मिक माता-पिता समझ लिया है, जीवन की वस्तु समझकर परमार्थ एवं आत्म-कल्याण का साधन स्वीकार किया है, वस्तुत: वे द्विज हैं । गायत्री उपासक इसी श्रेणी के होते हैं । जो गायत्री उपासना में लगे रहते हैं,वे ऐसे हो जाते हैं । इसी प्रकार गायत्री और द्विजत्व एक साथ रहते हैं । इसी एकता के अभाव को संस्कृत में अनधिकारी कहा है । जिनमें इस प्रकार की एकता न हो, वे अनधिकारी कहे जाते हैं । उच्चभावना और गायत्री से संबंध बनाये रखने के लिए अधिकार की प्रतिष्ठा की गई है । यज्ञोपवीत को गायत्री की मूर्ति-प्रतिमा कहना चाहिए । गायत्री को हर घड़ी छाती से लगाए रखना, हृदय पर धारण किए रहना यज्ञोपवीत का उद्देश्य है । जनेऊ में तीन तार होते हैं-गायत्री में तीनचरण हैं । उपवीत में नौ लड़ें हैं, गायत्री में नौ शब्द हैं ।

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Thursday 12 May 2016

योग के वैज्ञानिक प्रयोग

Preface

कुल मिलाकर रास्ता सिर्फ एक बचता है। योग को वैज्ञानिक पैमाने पर खरा सिद्ध किया जाए। विज्ञान के प्रयोगों के आधार पर जो प्राचीन यौगिक पद्धतियाँ उपयोगिता सिद्ध करती है, उन्हे सहर्ष स्वीकार किया जाए,शेष को आज की जरुरत के अनुसार ढाला जाए।इससे जहाँ देश के आम आदमी को शारीरिक-मानसिक और आध्यात्मिक रुप से सशक्त कर स्वस्थ और समर्थ राष्ट की नींव रखी जा सकेगी, वहीं दुनिया के सामने भी अपने पारम्परिक ज्ञान की महत्ता सिद्ध की जा सकेगी। संभवत:सुनहरा कल इसी रास्ते से सामने आयेगा।

मानवीय मन के विशेषज्ञ कार्ल रोजर्स दीर्घकालीन अनुसंधान प्रकिया का निष्कर्ष बताते हुए कहते है कि स्वास्थ्य संकट के प्रश्न कंटक को निकालने के लिए मानवीय प्रकृति की संरचना व उसकी क्रियाविधि का समग्र ज्ञान चाहिए। तभी उसमें आयी विकृति की पहचान व निदान सम्भव है।यह समस्त विज्ञान योग शास्त्रों में पहले से ही उपलब्ध है।

गायत्री की गुप्त शक्तियाँ

Preface

गायत्री सनातन एवं अनादि मंत्र है। पुराणों में कहा गया है कि ‘‘सृष्टिकर्त्ता ब्रह्मा को आकाशवाणी द्वारा गायत्री मंत्र प्राप्त हुआ था, इसी गायत्री की साधना करके उन्हें सृष्टि निर्माण की शक्ति प्राप्त हुई। गायत्री के चार चरणों की व्याख्या स्वरूप ही ब्रह्माजी ने चार मुखों से चार वेदों का वर्णन किया। गायत्री को वेदमाता कहते हैं। चारों वेद, गायत्री की व्याख्या मात्र हैं।’’ गायत्री को जानने वाला वेदों को जानने का लाभ प्राप्त करता है।

गायत्री के 24 अक्षर 24 अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं के प्रतीक हैं। वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद् आदि में जो शिक्षाएँ मनुष्य जाति को दी गई हैं, उन सबका सार इन 24 अक्षरों में मौजूद है। इन्हें अपनाकर मनुष्य प्राणी व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुख-शान्ति को पूर्ण रूप से प्राप्त कर सकता है। गायत्री गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधारशिलायें हैं, इन सबमें गायत्री का स्थान सर्व प्रथम है। जिसने गायत्री के छिपे हुए रहस्यों को जान लिया, उसके लिए और कुछ जानना शेष नहीं रहता।


SLEEP DREAM AND SPIRITUAL REFLECTIONS

Preface

Dreams have always been the focus of curiosity, interest, and quest of the human mind. These have led to varieties of false convictions and mystic notions on the one hand, and have accelerated research in Psychology, Neurology and Parapsychology on the other. The reality, origin, reflections and implications of dreams are discussed in great detail in this book, which is compiled from the translation of the Chapters 4 and 5 of the volume 18 of "Pt. Shriram Sharma Acharya Vangmaya" series.

A detailed description of the history and trends in the oriental and occidental philosophy and science of dreams is presented here. The myths and facts about acquisition of extra sensory knowledge, precognition, and psychological depths of the unconscious mind and the unknown subtle world of the inner self through dreams are elucidated here. Thorough reviews of Freuds, Jungs and contemporary psychological theories vis-a-vis the relevant aspects of the ancient science of spirituality are discussed under broad perspectives.

The current status and future scope of research on dreams is discussed with substantial references. Special attention is focused on dream based early detection, diagnosis and therapies in the context of reported scientific experiments. The readers will also get to know how the decipheration of dreams could help resolving the complexities of psychosomatic disorders and elevating ones psychology.

Sleep is an integral part of his the variegated experiences of dreams also become possible in this phase. In normal case, for most of us sleep is almost an automatic, mechanical, or routine process. We do realize its importance in relaxing and recharging of the body and the mind but hardly pay any attention to its significant role in harmonizing the brain functions, mental stability and self-development. The present book unfolds the multiple facets of this natural and crucial process of daily-life.


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आत्मा न नारी है न नर

Preface

मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न उसकी इच्छाएँ - आकांक्षाएँ ।। बल्कि आत्मा ही मनुष्य का मूल स्वरूप है ।। यह आत्मा न किसी प्राणी में कोई अतिरिक्त विशेषताएँ लिये रहता है, न कोई न्यूनताएँ ही ।। आत्मा की सभी विशेषताएँ समान रूप से सभी प्राणियों में विद्यमान रहती हैं और वह अपने मूल स्वरूप में रहता हुआ ही विभिन्न शरीर धारण करता है ।।

विशेषता और अविशेषता की दृष्टि से आत्मा में इतना भी भेद नहीं है कि उसका लिंग की दृष्टि से कोई निर्धारण किया जा सके ।। संस्कृत में आत्मा शब्द नपुंसक लिंग है, इसका कारण यही है आत्मा वस्तुत: लिंगातीत है ।। वह न स्त्री है, न पुरुष ।।

आत्म तत्त्व के इस स्वरूप का विश्लेषण करते हुए प्राय: प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है और न पुरुष, तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है ?

इस अंतर का आधार जीव से जुड़ी मान्यताएँ ही है ।। जीव चेतना भीतर से जैसी इच्छा करती है, वैसे संस्कार उसमें गहरे हो जाते हैं ।। अपने प्रति जो मान्यता दृढ़ हो जाती है, वही व्यक्तित्व रूप में प्रतिपादित होती है ।। ये मान्यताएँ स्थिर नहीं रहती ।। फिर भी सामान्यत: इनमें एक दिशाधारा का सातत्य रहता है ।। किसी विशेष अनुभव की प्रतिक्रिया से मान्यताओं में आकस्मिक परिवर्तन भी आ सकता है या फिर सामान्य क्रम में धीरे- धीरे क्रमिक परिवर्तन भी होता रह सकता है ।।

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आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

Preface

जीवन रोगों के भार और मार से बुरी तरह टूट गया है ।। जब तन के साथ मन भी रोगी हो गया हो, तो इन दोनों के योगफल के रूप में जीवन का यह बुरा हाल भला क्यों न होगा ? ऐसा नहीं है कि चिकित्सा की कोशिशें नहीं हो रही ।। चिकित्सा तंत्र का विस्तार भी बहुत है और चिकित्सकों की भीड़ भी भारी है ।। पर समझ सही नहीं है ।। जो तन को समझते हैं, वे मन के दर्द को दरकिनार करते हैं ।। और जो मन की बात सुनते हैं, उन्हें तन की पीड़ा समझ नहीं आती ।। चिकित्सकों के इसी द्वन्द्व के कारण तन और मन को जोड़ने वाली प्राणों की डोर कमजोर पड़ गयी है ।।

पीड़ा बढ़ती जा रही है, पर कारगर दवा नहीं जुट रही ।। जो दवा ढूँढी जाती है, वही नया दर्द बढ़ा देती है ।। प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में से प्राय: हर एक का यही हाल है ।। यही वजह है कि चिकित्सा की वैकल्पिक विधियों की ओर सभी का ध्यान गया है ।। लेकिन एक बात जिसे चिकित्सा विशेषज्ञों को समझना चाहिए उसे नहीं समझा गया ।। समझदारों की यही नासमझी सारी आफतो- मुसीबतों की जड़ है ।। यह नासमझी की बात सिर्फ इतनी है कि जब तक जिन्दगी को सही तरह से नहीं समझा जाता, तब तक उसकी सम्पूर्ण चिकित्सा भी नहीं की जा सकती ।।


Sunday 8 May 2016

Spritual Science Of Sex Elements


Mans quest for the origin of the universe and emergence of life has been at the root of scientific investigations of all ages. Modern science has taken significant strides in its research from atom to levels of sub atomic and smaller particles and it now hypotheses that the universe has been created by sparks of cosmic energy. The Spiritual Science begins its search from still subtle form of eternal energy and considers the existence and affirms that the universe has originated from the coupling of Prakriti (the omnipresent cosmic energy) and Purusha (the ultimate form of Spirit). These vital powers are also described in the ancient Indian scriptures as Rayi and Prana, Shakti and Shiva or Soma and Agni. Their complementary roles can easily be discerned in their physical manifestations as positive and negative electrical charge whose combination gives rise to the flow of electrical current.

The holy Upanishads describe that the eternally perpetual cycle of combination and separation of Prakriti and Purusha result in the creation of Para (physical energy) and Apara (consciousness manifested in thoughts and sentiments) forms of the Universe, the spontaneity and periodicity of the natural movements

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Saturday 7 May 2016

यज्ञ एक समग्र उपचार प्रक्रिया- 26

Preface

यज्ञ- प्रक्रिया को अपने संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित कर वाड्मय के इस खण्ड में परमपूज्य गुरुदेव ने बड़े विस्तार से यज्ञोपचार की प्रक्रिया की व्याख्या की है ।। यज्ञ एक सर्वांगपूर्ण उपचार पद्धति है- पर्यावरण संशोधन के लिए, सूक्ष्म जगत में संव्याप्त प्रदूषण मिटाने के लिए तथा मानव की स्थूल- सूक्ष्म हर स्तर पर चिकित्सा करने के लिए ।। सविता देवता की उपासना गायत्री महामंत्र का प्राण है एवं उसी सविता को समर्पित आहुतियाँ किस प्रकार अपनी मंत्र शक्ति एवं यज्ञ ऊर्जा के समन्वित स्वरूप के माध्यम से होता को लाभ पहुँचाती है, यही यज्ञोपचार प्रक्रिया है ।। आत्मसत्ता पर छाये कषाय- कल्मषों की सफाई से लेकर- गुणसूत्रों, क्रोमोसोम्स जीन्स तक पर यज्ञ प्रक्रिया प्रभाव डालती है एवं इसमें किस प्रकार यज्ञ कुण्ड एक यंत्र की भूमिका निभाकर वृहत सोम के अवतरण द्वारा सोम की- पर्जन्य की वर्षा में एक महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं, इसका वैज्ञानिक आधार क्या है, ज्यामिती किस प्रकार यज्ञधूम्रों की बहुलीकरण प्रक्रिया को प्रभावित करती है, यह सारा प्रतिपादन इस खण्ड में हुआ है ।।

यज्ञाग्नि व सामान्य अग्नि में अन्तर है ।। परमपूज्य गुरुदेव ने "यज्ञोपैथी" के नाम से एक नूतन चिकित्सा पद्धति जो भविष्य की उपचार पद्धति बनने जा रही है, को जन्म देकर वस्तुत: वैदिक विज्ञान के मूल आधार को पुनर्जीवित किया है ।। यज्ञों से रोग निवारण में समिधाओं, शाकल्य तथा मंत्रों का चयन कैसे किया जाता है, यह पूरी प्रक्रिया अपने में एक समग्र विज्ञान है ।। परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं कि पृथ्वी तत्त्व का पंचभूतों से बनी इस काया में प्राधान्य है तथा पृथ्वी सदा वायु से गंधों का शोषण करती रहती है ।।

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गहना कर्मणोगति (कर्मफल का सुनिश्चित सिद्धांत्)

निःसंदेह कर्म की गति बड़ी गहन है । धर्मात्माओं को दुःखपापियों को सुख, आलसियों को सफलता, उधोगशीलों को असफलता, विवेकवानों पर विपत्ति, के यहाँ संपत्ति, दंभियोंको प्रतिष्ठा, सत्यनिष्ठों को तिरस्कार प्राप्त होने के अनेक उदाहरण इस दुनियाँ में देखे जाते हैं कोई जन्म से ही वैभव लेकर पैदा होते हैं, किन्हीं को जीवन भर दुःख ही दुःख भोगने पड़ते हैं? सुख और सफलता के जो नियम निर्धारित हैं, वेसर्वाश पूरे नहीं उतरते ।

इन सब बातों को देखकर भाग्य, ईश्वर की मर्जी, कर्म कीगीत के संबंध में नाना प्रकार के प्रश्न और संदेहों की झड़ी लगजाती है । इन संदेहों और प्रश्नों का जो समाधान प्राचीन पुस्तकों में मिलता है, उससे आज के तर्कशील युग में ठीक प्रकार समाधान नहीं होता । फलस्वरूप नई पीढी, उन पाश्वात्य सिद्धांतोंकी ओर झुकती जाती है, जिनके द्वारा ईश्वर और धर्म को ढोंग और मनुष्य को पंचतत्त्व निर्मित बताया जाता है एवं आत्मा के अस्तित्व से इंकार किया जाता है कर्म फल देने की शक्ति राज्यशक्ति के अतिरिक्त और किसी में नहीं है ईश्वर और भाग्य कोई वस्तु नहीं है आदि नास्तिक विचार हमारी पीढ़ी में घर करते जा रहे हैं

इस पुस्तक में वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण से कर्मकी गहन गति पर विचार किया गया है और बताया गया है किजो कुछ भी फल प्राप्त होता है, वह अपने कर्म के कारण ही है । हमारा विचार है कि पुस्तक कर्मफल संबंधी जिज्ञासाओं का किसी हद तक समाधान अवश्य करेगी |

 
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Thursday 5 May 2016

Thought Revolution

Preface

The subject of this discourse is the root cause and the solution of the crisis of our times. Because the results of our actions will match the level of our desires, we must conclude that it is the level of our consciousness that created the unfavorability of the circumstances within which we now live.
-Acharya Shriram Sharma

Part of what it means to be alive at the beginning of the 21st Century is bearing the burden of the awareness that the ecosystem of our planet, the web of life upon which we depend, is in jeopardy. To live in an authentic way today, we are required to integrate the reality of global crisis, not only into our consciousness and understanding, but also into our lifestyles, economies and social structures. Needless¬to-say, this integration will not be easy.

Coming to terms with the state of our global health is not easy due to the force of our momentum towards a lifestyle that willfully denies it.

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Old And New Herbal Remedies


Preface

Yoga and Herbal Therapy have become subject matters of common curiosity and pursuit for those caring for sustenance of good health by inexpensive and natural means and also for those who have suffered side-effects of antibiotics or in general, the lacunae of modern science of medicine. While a lot of training courses and dedicated schools on yoga are helping people across the globe, the scientific testing and implementation of herbal therapies are still confined to research labs and few pharmaceutical companies. Ayurveda is known to be the origin of herbal therapeutic science. Most importantly, the fact that its prescription is risk-free and does not generate any negative or suppressive effects on other kinds of medicaments or modes of treatments that might be used simultaneously makes it an excellent complementary mode of healing.

More and more people are getting interested these days in knowing about easy but effective modes of herbal remedies these days. Our major objective in presenting this new book on herbal remedies is to provide useful, authentic and innovative information in this direction. The main focus is laid on the use of Himalayan herbal medicines based on first of its land research carried out at the Brahmvarchas Research Center, Shantikunj, Hardwar (India). Thousands of people have been benefited from this therapy and got rid of diseases of different types and severity. Rare knowledge from the scriptures will be presented here.
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Wednesday 4 May 2016

आत्मा न नारी है न नर

Preface

मनुष्य की मूल सत्ता न शरीर है और न उसकी इच्छाएँ - आकांक्षाएँ ।। बल्कि आत्मा ही मनुष्य का मूल स्वरूप है ।। यह आत्मा न किसी प्राणी में कोई अतिरिक्त विशेषताएँ लिये रहता है, न कोई न्यूनताएँ ही ।। आत्मा की सभी विशेषताएँ समान रूप से सभी प्राणियों में विद्यमान रहती हैं और वह अपने मूल स्वरूप में रहता हुआ ही विभिन्न शरीर धारण करता है ।।

विशेषता और अविशेषता की दृष्टि से आत्मा में इतना भी भेद नहीं है कि उसका लिंग की दृष्टि से कोई निर्धारण किया जा सके ।। संस्कृत में आत्मा शब्द नपुंसक लिंग है, इसका कारण यही है आत्मा वस्तुत: लिंगातीत है ।। वह न स्त्री है, न पुरुष ।।

आत्म तत्त्व के इस स्वरूप का विश्लेषण करते हुए प्राय: प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है और न पुरुष, तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है ?

इस अंतर का आधार जीव से जुड़ी मान्यताएँ ही है ।। जीव चेतना भीतर से जैसी इच्छा करती है, वैसे संस्कार उसमें गहरे हो जाते हैं ।। अपने प्रति जो मान्यता दृढ़ हो जाती है, वही व्यक्तित्व रूप में प्रतिपादित होती है ।। ये मान्यताएँ स्थिर नहीं रहती ।। फिर भी सामान्यत: इनमें एक दिशाधारा का सातत्य रहता है ।। किसी विशेष अनुभव की प्रतिक्रिया से मान्यताओं में आकस्मिक परिवर्तन भी आ सकता है या फिर सामान्य क्रम में धीरे- धीरे क्रमिक परिवर्तन भी होता रह सकता है ।।

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Table of content

1. आत्मा न स्त्री है, न पुरुष
2. चाहें तो नर बन जाएँ चाहें तो नारी
3. एक ही शरीर में विद्यमान नर और नारी
4. अमैथुनी सृष्टि होती है, हो सकती है
5. गर्भस्थ शिशु का इच्छानुवर्ती निर्माण
6. ब्रह्मचर्य से शक्ति और संचम द्वारा प्रसन्नता
7. संयम अर्थात् शक्ति अर्थात् समर्थता

शिष्य संजीवनी

Preface

प्रत्येक साधक की सर्वमान्य सोच यही रहती है कि यदि किसी तरह सदगुरु कृपा हो जाय तो फिर जीवन में कुछ और करना शेष नहीं रह जाता है । यह सोच अपने सारभूत अंशों में सही भी है । सदगुरु कृपा है ही कुछ ऐसी-इसकी महिमा अनन्त- अपार और अपरिमित है । परन्तु इस कृपा के साथ एक विशिष्ट अनुबन्ध भी जुड़ा हुआ है । यह अनुबन्ध है शिष्यत्व की साधना का । जिसने शिष्यत्व की महाकठिन साधना की है, जो अपने गुरु की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरा है- वही उनकी कृपा का अधिकारी है । शिष्यत्व का चुम्बकत्व ही सदगुरु के अनुदानों को अपनी ओर आकर्षित करता है । जिसका शिष्यत्व खरा नहीं है- उसके लिए सदगुरु के वरदान भी नहीं हैं ।

गुरुदेव का संग-सुपास-सान्निध्य मिल जाना, जिस किसी तरह से उनकी निकटता पा लेना, सच्चे शिष्य होने की पहचान नहीं है । हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है, कि ऐसा हो पाना पिछले जन्मों के किसी विशिष्ट पुण्य बल से ही होता है । परन्तु कई बार ऐसा भी होता है जो गुरु के पास रहे, जिन्हें उनकी अति निकटता मिली, वे भी अपने अस्तित्त्व को सदगुरु की परम चेतना में विसर्जित नहीं कर पाते ।

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Table of content

• अनुभव के अक्षर
• सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े
• गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें
• सभी में गुरु ही है समाया
• देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी
• गुरु चेतना में समाने की साहसपूर्ण इच्छा
• स्वयं को स्वामी ही सच्चा स्वामी
• हों, सदगुरु की चेतना से एकाकार
• जैविक प्रवृत्तियों को बदल देती है सदगुरु की चेतना
• एक उलटबाँसी काटने के बाद बोने की तैयारी
• सदगुरु संग बनें साधना-समर के साक्षी
• गुरु के स्वर को हृदय के संगीत में सुनें
• सदगुरु से संवाद की स्थिति कैसे बनें
• समग्र जीवन का सम्मान करना सीखें
• अन्तरात्मा का सम्मान करना सीखें
• संवाद की पहली शर्त-वासना से मुक्ति
• व्यवहारशुद्धि, विचारशुद्धि, संस्कारशुद्धि
• परमशान्ति की भावदशा

Monday 2 May 2016

बच्चों का निर्माण परिवार की प्रयोगशाला में

Preface

बच्चों का निर्माण- परिवार को प्रयोगशाला में

चरित्रवान माता- पिता ही सुसंस्कृत संतान बनाते हैं

अंग्रेजी में कहावत है- दि चाइल्ड इज ऐज ओल्ड ऐज हिज एनसेस्टर्स ।। अर्थात् बच्चा उतना पुराना होता है जितना उसके पूर्वज ।। एक बार संत ईसा के पास आई एक स्त्री ने प्रश्न किया- बच्चे की शिक्षा- दीक्षा कब से प्रारंभ की जानी चाहिए ? ईसा ने उत्तर दिया- गर्भ में आने के १ ० ० वर्ष पहले से ।। स्त्री भौंचक्की रह गई, पर सत्य वही है जिसकी ओर संत ने इंगित किया ।। सौ वर्ष पूर्व जिस बच्चे का अस्तित्व नहीं होता, उसकी जड़ तो निश्चित ही होती है, चाहे वह उसके बाबा हों या परबाबा ।। उनकी मन : स्थिति, उनके आचार, उनकी संस्कृति पिता पर आई और माता- पिता के विचार, उनके रहन- सहन, आहार- विहार से ही बच्चे का निर्माण होता है ।। कल जिस बच्चे को जन्म लेना है, उसकी भूमिका हम अपने में लिखा करते हैं ।। यदि यह प्रस्तावना ही उत्कृष्ट न हुई तो बच्चा कैसे श्रेष्ठ बनेगा ? भगवान राम जैसे महापुरुष का जन्म रघु, अज और दिलीप आदि पितामहों के तप की परिणति थी, तो योगेश्वर कृष्णा का जन्म देवकी और वसुदेव के कई जन्मों की तपश्चर्या का पुण्य फल था ।। अठारह पुराणों के रचयिता व्यास का आविर्भाव तब हुआ था, जब उनकी पाँच पितामह पीढ़ियों ने छोर तप किया था ।। हमारे बच्चे श्रेष्ठ, सद्गुणी बने, इसके लिए मातृत्व और पितृत्व को
गंभीर अर्थ में लिए बिना जाम नहीं चलेगा ।।

महाभारत के समय की घटना है ।। द्रोणाचार्य ने पांडवों के वध के लिए चक्रव्यूह की रचना को ।। उस दिन चक्रव्यूह का रहस्य जानने वाले एकमात्र अर्जुन को कौरव बहुत दूर तक भटका ले गए ।। इधर पांडवों के पास चक्रव्यूह भेदन का आमंत्रण भेज दिया ।।


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