Saturday, 10 September 2016

संस्कृति संजीवनी भागवत एवं गीता-३१

Preface

परमपूज्य गुरुदेव की यह विशेषता है कि उनने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक पक्ष का विवेचन करते समय हरेक का विज्ञानसम्मत आधार ही नहीं बताया, अपितु प्रत्येक का प्रगतिशील प्रस्तुतीकरण किया है । कथा मात्र सुन लेने-एक कान से ग्रहण कर दूसरे से निकाल देने से समय बिगाड़ना मात्र है । यह बात इतनी स्पष्टता के साथ मात्र आचार्यश्री ही लिख सकते थे । पुराणों में श्रीमद्भागवत को विशिष्ट स्थान प्राप्त है । इसके पारायण, पाठ विभिन्न रूपों में आज भी देश-विदेश में संपन्न होते रहते हैं । अनेकानेक भागवत कथाकार हमें विचरण करते दिखाई देते हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि संसार में चारों ओर धर्म ही संव्याप्त है, कहीं भी अधर्म या अनास्था नहीं है । आस्था का मूल मर्म यह है कि जो सुना गया, उसे जीवन में कितना उतारा गया, आचरण में उतारा गया कि नहीं ? इसके लिए कथा के मात्र शब्दार्थों को नहीं, भावार्थ को, उसके मूल में छिपी प्रेरणाओं को हृदयंगम करना अत्यधिक आवश्यक है । परमपूज्य गुरुदेव ने श्रीमद्भागवत की प्रेरणाप्रधान प्रस्तुति के साथ-साथ वे शिक्षाएँ दी हैं, जो हमें विभिन्न अवतारों के लीलासंदोह का विवेचन करते समय ध्यान में रखनी चाहिए । श्रीमद्भागवत में अनेकानेक स्थानों पर आलंकारिक विवेचन हैं, उन्हें, उन रूपकों को वास्तविकता में न समझकर लोग बहिरंग को ही सब कुछ मान बैठते है, किंतु आचार्यश्री की लेखनी का कमाल है कि उनने महारास से लेकर- अवतारों की प्रकटीकरण प्रक्रिया-प्रत्येक के साथ प्रेरणाप्रद प्रगतिशील चिंतन प्रस्तुत किया है, जो जीवन में उतरने पर "श्रवण शत गुण मनन सहस्रं निदिध्यासनम्" के शास्त्रबचन को सार्थक करता है । 


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