Friday, 25 March 2016

हमारी वसीयत और विरासत

आज ऋषि लोक का पहली बार दर्शन हुआ। हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों-देवालय, सरोवरों, सरिताओं का दर्शन तो यात्रा काल में पहले से भी होता रहा। उस प्रदेश को ऋषि निवास का देवात्मा भी मानते रहे हैं, पर इससे पहले यह विदित न था कि किस ऋषि का किस भूमि से लगाव है? यह आज पहली बार देखा और अंतिम बार भी। वापस छोड़ते समय मार्गदर्शक ने कह दिया कि इनके साथ अपनी ओर से सम्पर्क साधने का प्रयत्न मत करना। उनके कार्य में बाधा मत डालना। यदि किसी को कुछ निर्देशन करना होगा, तो वे स्वयं ही करेंगे। हमारे साथ भी तो तुम्हारा यही अनुबंध है कि अपनी ओर से द्वार नहीं खटखटा ओगे। जब हमें जिस प्रयोजन के लिए जरूरत पड़ा करेगी, स्वयं ही पहुँचा करेंगे और उसी पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटा दिया करेंगे। यही बात आगे से तुम उन ऋषियों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हो, जिनके कि दर्शन प्रयोजनवश तुम्हें आज कराए गए हैं। इस दर्शन को कौतूहल भर मत मानना, वरन् समझना कि हमारा अकेला ही निर्देश तुम्हारे लिए सीमित नहीं रहा। यह महाभाग भी उसी प्रकार अपने सभी प्रयोजन पूरा कराते रहेंगे, जो स्थूल शरीर के अभाव में स्वयं नहीं कर सकते। जनसम्पर्क प्रायः तुम्हारे जैसे सत्पात्रों-वाहनों के माध्यम से कराने की ही परम्परा रही है। आगे से तुम इनके निर्देशनों को भी हमारे आदेश की तरह ही शिरोधार्य करना और जो कहा जाए सो करने के लिए जुट पड़ना। मैं स्वीकृति सूचक संकेत के अतिरिक्त और कहता ही क्या? वे अंतर्ध्यान हो गए। 

हमारा परिजनों से यही अनुरोध है कि हमारी जीवनचर्या को घटना क्रम की दृष्टि से नहीं वरन् पर्यवेक्षक की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए कि उसमें दैवी अनुग्रह के अवतरण होने से ‘‘साधना से सिद्धि’’ वाला प्रसंग जुड़ा या नहीं।
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