Tuesday, 18 October 2016

परिवार और उसका निर्माण

जिस प्रकार हाथ-पाँव, सिर, धड़ आदि से मिलकर एक पूरा शरीर बनता है, उसी प्रकार परिवार के विभिन्न सदस्यों के सम्मिलित स्वरूप से ही मानव-जीवन का समग्र ढाँचा खड़ा होता है । परस्पर मिल-जुल कर रहने और एक दूसरे की सहायता करने की प्रवृत्तियों के आधार पर ही मानव-जीवन की समस्त प्रगतियाँ संभव होती हैं और इन प्रवृत्तियों के अभ्यास का अवसर पारिवारिक-जीवन में ही सहज उपलब्ध हो जाता है । 


एकाकी मनुष्य सर्वथा अपूर्ण है । इस प्रकार जीवन-यापन करने वाले व्यक्ति की क्षमता और प्रतिभा विकसित होने के स्थान पर कुंठित ही होती है । योग-साधन के लिए कुछ समय एकांत सेवन करना पड़े तो वह एक सामयिक व्यवस्था है, पर मूलत: तो जीवन-विकास और सामूहिक उत्कर्ष के लिए मिल-जुल कर ही रहना पड़ता है । 

परिवार लौकिक सुविधाओं की दृष्टि से ही नहीं, आत्मिक सद्गुणों को अभ्यास में लाने के लिए भी आवश्यक है । ईश्वर ने जितनी समाज-सेवा अनिवार्य रूप से हमें सौंपी हैं वह परिवार ही है । किसी भी व्यक्ति की आध्यात्मिक एवं सामाजिक जिम्मेदारी उसके पारिवारिक कर्तव्यों के साथ मजबूती के साथ बँधी हुई है । परिवार को सुविकसित करने के लिए निरंतर सचेष्ट रहना मानवता की सेवा की दृष्टि से नितांत आवश्यक है । 
प्रस्तुत पुस्तक में परिवार के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है और बताया गया है कि राष्ट्र-रचना के इस महान कार्य को कितनी पवित्रता, तत्परता और श्रद्धापूर्वक सम्पन्न किया जाना चाहिए । समाज का छोटा स्वरूप परिवार है । छोटे-छोटे परिवारों से मिलकर ही राष्ट्र या विश्व बनता है । समाज या संसार में जैसा भी कुछ हम बनना चाहते है उसका प्रबंध घर से ही हम सब करने लगें तो नवयुग के निर्माण की विश्वव्यापी सुख-शांति की समस्या सहज ही हल हो सकती है ।  

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