श्री विश्वेश्वरैया जिन दिनों मैसूर के दीवान थे, एक दिन सरकारी काम से कहीं दौरे पर जा रहे थे।। यह सूचना किसी प्रकार मार्ग में एक स्कूल में पहुँच गई।। मास्टर इस अवसर को उत्तम समझकर सड़क पर पहुँचकर खड़ा हो गया और जब श्री विश्वेश्वरैया की कार आई तो उसे रोककर उसने प्रार्थना की कि वे स्कूल के बच्चों को दर्शन दें ।। यद्यपि उनको जाने की जल्दी थी, पर छोटे बच्चों के आग्रह को वे टाल न सके और गाड़ी से उतरकर पाँच- सात मिनट के लिये स्कूल के कमरे में चले गये ।। मास्टर ने कहा- "कृपया बच्चों के दो शब्द कह दीजिये ।" विश्वेश्वरैया बिना पहले से सोचे- समझे और तैयारी किये कसी सार्वजनिक संस्था में नहीं बोलते थे, पर बच्चों के प्रेमवश उन्होंने यों ही दो- चार बातें कह दी ।। बच्चे खुश हो गये और उनको बारंबार धन्यवाद देने लगे ।। पर विश्वेश्वरैया ने अनुभव किया कि उनका भाषण छात्रों के उपयुक्त न था ।। इसलिये वे मास्टर को सूचना देकर दो- चार दिन बाद फिर उस स्कूल में पहुँचे और लड़कों के सामने एक सारगर्भित और शिक्षाप्रद भाषण दिया, जिससे छात्रवृंद ही नहीं, अपितु समस्त ग्रामवासी बहुत प्रभावित हुये ।। अगर वे यह सोचकर रह जाते कि छोटे लड़के अच्छे या साधारण भाषण के अंतर को नहीं समझ सकते तो उनसे कोई कुछ कहने वाला नहीं था।। पर उनका आरंभ से ही यह सिद्धांत था कि कोई भी काम कभी घटिया ढंग से नहीं करना चाहिए ।। हल्के ढंग से उस समय काम भले ही चल जाय पर उसमें स्थायित्व नहीं आ सकता ।। इसलिये कैसा भी अवसर क्यों न हो, मनुष्य को अपना स्तर नहीं घटाना चाहिये ।। ऊँचा स्तर रखने से उसका प्रभाव अच्छा ही पड़ता है और आज नहीं तो कल लोग उसकी तरफ आकर्षित होते ही हैं ।।
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