कथा-सहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल में 18 पुराण लिखे गए। उनसे भी काम न चला तो 18 उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर 10,000,000 श्लोक हैं, जबकि चारों वेदों में मात्र 20 हजार मंत्र हैं। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के पलड़े पर रखा जाए और अन्य साहित्य को दूसरे पर कथाऐं भी भारी पड़ेंगी।
समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियाँ, मान्यताएं, प्रथाऐं, समस्याऐं एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती हैं। तदनुरुप ही उनके समाधान खोजने पड़ते हैं। इस आश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रसंगो प्रकाश मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनेकानेक मनःस्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस प्रज्ञा पुराण की रचना की गई, इसे चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।
1. प्रज्ञा पुराण-1
2 प्रज्ञा पुराण-2
3 प्रज्ञा पुराण-3
4 प्रज्ञा पुराण-4
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