Preface
भारत जिसमें कभी तैंतीस कोटि देवता निवास करते थे, जिसे कभी "स्वर्गादपि गरीयसी" कहा जाता था, एक स्वर्णिम अतीत वाला चिर पुरातन देश है, जिसके अनुदानों से विश्व- वसुधा का चप्पा- चप्पा लाभान्वित हुआ है ।। भारत ने ही अनादि काल से समस्त संसार का मार्गदर्शन किया है ।। ज्ञान और विज्ञान की समस्त धाराओं का उदय, अवतरण भी सर्वप्रथम इसी धरती पर हुआ, पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहा- यह यहाँ से सारे विश्व में फैल गया ।। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा भारतवर्ष, जिसकी परिधि कभी सारी विश्व- वसुधा थी, आज अपने दो सहस्रवर्षीय अंधकारयुग के बाद पुन: उसी गौरव की प्राप्ति की ओर अग्रसर है ।। परमपूज्य गुरुदेव ने जन- जन को उसी गौरव की जानकारी कराने के लिए यह शोधप्रबंध १९७३ -७४ में अपने विदेश प्रवास से लौटकर लिखाया एवं यह प्रतिपादित किया कि देव संस्कृति ही सारे विश्व को पुन: वह गौरव दिला सकती है, जिसके आधार पर सतयुगी संभावनाएँ साकार हो सकें ।। उसी शोधप्रबंध को सितंबर १११० में पुन: दो खंडों में प्रकाशित किया गया था ।। इस वाङ्मय में उस शोधप्रबंध के अतिरिक्त देव संस्कृति की गौरव- गरिमा परक अनेकानेक निबंध संकलित कर उन्हें एक जिल्द में बाँधकर प्रस्तुत किया गया है ।।"सा प्रथमा संस्कृति: विश्ववारा ।" यह उक्ति बताती है कि हमारी संस्कृति- हिंदू संस्कृति- देव संस्कृति ही सर्वप्रथम वह संस्कृति थी, जो विश्वभर में फैल गई ।। अपनी संस्कृति पर गौरव जिन्हें होना चाहिए वे ही भारतीय यदि इस तथ्य से विमुख होकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर उमुख होने लगें तो इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा ।।
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