Saturday, 13 August 2016

ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि विद्या

Preface

साधना के सिद्धांत को अत्युक्तिपूर्ण और अतिरंजित तभी कहा जा सकता है, जब उसमें से आत्म- परिष्कार के तथ्य को हटा दिया जाए और मात्र क्रिया- कृत्यों के सहारे चमत्कारी उपलब्धियों का सपना देखा जाए ।।

मानवी सत्ता में परमात्म सत्ता की सभी विशिष्टताएँ बीज रूप में विद्यमान हैं ।। इस अनुदान में स्रष्टा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अपने अनुग्रह का अंत कर दिया ।। इतने पर भी उसने इतना रखा है कि पात्रता के अनुरूप उन विशिष्टताओं से लाभान्वित होने का अवसर मिले ।। जिस पात्रता का परिचय देने पर सिद्धियों का द्वार खुलता है वह और कुछ नहीं जीवन परिष्कार के निमित्त प्रस्तुत की गई पुरुषार्थपरायणता भर है ।।

साधना विधानों में प्रयुक्त होने वाले क्रिया- कृत्य अगणित हैं ।। पर उन सबका मूल उद्देश्य एक है- जीवन के अंतरंग पक्ष को सुसंस्कृत और बहिरंग पक्ष को समुन्नत बनाना ।। जो साधना अपने विधि- विधानों के सहारे साधक को सुसंस्कारिता की दिशा में जितना अग्रसर कर पाती है वह उतनी ही सफल होती है ।।

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ब्रह्मवर्चस की पंचाग्नि विद्या



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