Preface
स्रष्टा ने मानवी काया में बीज रूप में वे सभी तत्त्व, पदार्थ, वैभव, पराक्रम एवं क्षमताएँ भर दी हैं जो विश्व-ब्रह्मांड के जड़ पदार्थों तथा चेतन प्राणियों में कहीं भी देखे-पाए जा सकते हैं । वह स्वयं में एक चलता-फिरता चुंबक है, उसकी विलक्षण काय-संरचना को एक अच्छा- खासा बिजलीघर कह सकते हैं, जिससे उसकी अपनी मशीन चलती और जिंदगी की गुजर-बसर होती है । इसके अतिरिक्त वह दूसरों को प्रकाशित करने से लेकर भले-बुरे अनुदान दे सकने में भी भली प्रकार सफल होता रहता है । चुंबक होने के नाते, वह जहाँ प्रभावित करता है, वहाँ स्वयं भी अन्यान्यों से आकर्षित किया और दबाया-घसीटा जाता रहता है ।मानवी चुंबकत्व का स्रोत ढूँढने वालों ने अभी इतना ही जाना है कि वह पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से यह अनुदान उसी प्रकार प्राप्त करता है जैसे कि धरती सूर्य से । ब्रह्मांडव्यापी चुंबकत्व से भी उसका आदान-प्रदान चलता रहता है । इस ऊर्जा की मात्रा में न्यूनाधिकता होने तथा सदुपयोग-दुरुपयोग करने से वह आए दिन लाभ-हानि उठाता रहता है । अच्छा हो इस संबंध में अधिक जाना जाय और सफलतापूर्वक हानि से बचने तथा लाभ उठाने में तत्पर रहा जाय ।
मनुष्य का मैगनेट घटता-बढ़ता रहता है । इसकी अल्पता से आँखों का विशेष आकर्षण समाप्त हो जाता है । शरीर रूखा, नीरस, कुरूप, निस्तेज, शिथिल सा दिखाई पड़ने लगता है, साथ ही मनुष्य को विस्मृति, भ्रांति, थकान जैसी अनुभूति होती है जबकि चुंबकत्व के आधिक्य से वह आकर्षक मोहक एवं सुंदर लगने लगता है, उसकी प्रतिभा, स्मृति, स्कूर्ति जैसी विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं । सत्संग और कुसंग के परिणाम भी व्यक्ति की निजी प्राण-ऊर्जा की न्यूनाधिकता के सहारे ही संभव होते हैं ।
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