Preface
पिछले दिनों से पूरे विश्व में एक विचित्र स्थिति देखने को मिल रही है ।। वह हैं- महा शक्तियों का आपसी टकराव ।। बड़े- बड़े राष्ट्रों की धन लिप्सा, युद्ध लिप्सा, शोषण की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गयी है ।। यही कारण है कि उनके सुरक्षा बजट का अधिकांश भाग राष्ट्रनायकों की स्वार्थ पूर्ति में, मारक हथियारों की खोज- खरीद में व्यय हो रहा है ।। जिस प्रकार व्यक्ति को अपने किये का परिणाम भोगना पड़ता है, ठीक उसी तरह बड़ी शक्तियों व जातियाँ भी सदा से अपने भले- बुरे कायों का परिणाम सहती आयी हैं ।। ऊपरी चमक- दमक कुछ भी हो मानवता युद्धोन्माद, प्रकृति विक्षोभों, प्रदूषण व विज्ञान की उपलब्धियों के साथ हस्तगत दुष्परिणामों के कारण त्रस्त है, दुःखी है ।।महाकाल की भूमिका ऐसे में सर्वोपरि है ।। महाकाल का अर्थ है- समय की सीमा से परे एक ऐसी अदृश्य- प्रचण्ड सत्ता जो सृष्टि का सुसंचालन करती है दण्ड- व्यवस्था का निर्धारण करती है एवं जहाँ कहीं भी अराजकता, अनुशासनहीनता, दृष्टिगोचर होती है वहाँ सुव्यवस्था हेतु अपना सुदर्शन चक्र चलाती है ।। इसे अवतार प्रवाह भी कह सकते हैं, जो समय- समय पर प्रतिकूल परिस्थितियों से निपटने व सामान्य सतयुगी स्थिति लाने हेतु अवतरित होता रहा है ।। कैसा है आज के मानव का चिन्तन व किस प्रकार वह अपने विनाश को खाई स्वयं खोद रहा है ? साथ ही महाकाल उसके लिये किस प्रकार की कर्मफल व्यवस्था का विधान कर रहा है ? इसी का विवेचन प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है ।। जो पाप से डरते हैं वे संभवतः: इस पुस्तक में व्यक्त विचारों को पढ़कर भावी विपत्तियों से स्वयं की रक्षा करेंगे एवं औरों को भी सन्मार्ग पर चलने को प्रवृत्त करेंगे ।।
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