Preface
जीवन की अन्यान्य बातों की अपेक्षा सोचने की प्रक्रिया पर सामान्यत: कम ध्यान दिया गया है, जबकि मानवी सफलताओं-असफलताओं में उसका महत्त्वपूर्ण योगदान है । विचारणा की शुरुआत मान्यताओं अथवा धारणा से होती है जिन्हें या तो मनुष्य स्वयं बनाता है अथवा किन्हीं दूसरे से ग्रहण करता है या वे पढ़ने, सुनने और अन्यान्य अनुभवों के आधार पर बनती हैं । अपनी अभिरुचि के अनुरूप विचारों को मानव मस्तिष्क में प्रविष्ट होने देता है जबकि जिन्हें पसंद नहीं करता उन्हें निरस्त भी कर सकता है । जिन विचारों का वह चयन करता है उन्हीं के अनुरूप चिंतन की प्रक्रिया भी चलती है । चयन किए गए विचारों के अनुरूप ही दृष्टिकोण का विकास होता है । जो विश्वास को जन्म देता है, वह परिपक्व होकर पूर्वधारणा बन जाता है । व्यक्तियों की प्रकृति एवं अभिरुचि की भिन्नता के कारण मनुष्य-मनुष्य के विश्वासों, मान्यताओं एवं धारणाओं में भारी अंतर पाया जाता है । चिंतन पद्धति में अर्जित की गई भली-बुरी आदतों की भी भूमिका होती है । स्वभाव-चिंतन को अपने ढर्रे में घुमा भर देने में समर्थ हो जाता है । स्वस्थ और उपयोगी चिंतन के लिए उस स्वभावगत ढर्रे को भी तोड़ना आवश्यक है जो मानवी गरिमा के प्रतिकूल है अथवा आत्मविकास में बाधक है ।प्राय: अधिकांश व्यक्तियों का ऐसा विश्वास है कि विशिष्ट परिस्थिति में मन द्वारा विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करना मानवी प्रकृति का स्वभाव है, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं । अभ्यास द्वारा उस ढर्रे को तोड़ना हर किसी के लिए संभव है । परिस्थिति विशेष में लोग प्राय: जिस ढंग से सोचते एवं दृष्टिकोण अपनाते हैं, उससे भिन्न स्तर का चिंतन करने के लिए भी अपने मन को अभ्यस्त किया जा सकता है । मानसिक विकास के लिए, अभीष्ट दिशा में सोचने के लिए अपनी प्रकृति को मोड़ा भी जा सकता है ।
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