शाक उगाएँ- अन्न बचाएँ
भारतीय संस्कृति में अन्न की प्रतिष्ठा देवरूप में की गई है ।। उसके
उत्पादन, सुरक्षा और आहार में भरसक आत्मनिर्भरता, सावधानी और पवित्रता रखने
के आदेश दिए गए हैं, ताकि यह अन्न अपनी सूक्ष्म संस्कार अवस्था में
पहुँचने तक पवित्र, निर्मल बना रहे और उससे लोगों की प्रवृत्तियों भी शुद्ध
और सात्त्विक बनी रहें ।।
गायत्री के "भर्गो देवस्य" छंद की व्याख्या में महर्षि मुद्गल ने बताया है
कि- "अन्न ही देवता का भर्ग अर्थात तेज है ।" इस बात को आधार मानकर अन्न को
बीज बोने से लेकर आहार ग्रहण करने तक विभागश: इतने प्रतिबंध
समाजशास्त्रियों ने लगा दिए हैं कि अन्न किसी भी अवस्था में दूषित संस्कार
ग्रहण न करने पावे और उससे लोगों के स्वभाव में दुर्गुणों का समावेश न होने
पावे ।। "जैसा खावे अन्न- वैसा होवे मन्न" के सिद्धांत को ही विकसित करके
आहार संबंधी अनेक आचार निर्धारित किए गए और हर किसी का अन्न न खाने की
प्रेरणा दी गई ।। यह निर्देश धर्मसंगत तो है ही पर साथ ही विज्ञानसम्मत भी
है, भले ही आज के वैज्ञानिक अभी उस सूक्ष्मता तक न पहुँच पाए हों ।।
अमेरिकन दूध के अमेरिकन संस्कार - कुछ दिन पूर्व नई दिल्ली से एक खबर
प्रसारित की गई थी, जिसमें बताया गया था कि अमेरिकी सरकार भारतीय बच्चों के
लिए कई लाख दूध की शीशियाँ दे रही है, जो यहाँ के विद्यालयों में छोटे-
छोटे विद्यार्थियों को निःशुल्क पिलाया जाया करेगा ।। इस समाचार को लेकर
संत विनोबा भावे ने बड़ी चिंता प्रकट की और कहा- " अमेरिका भारतीय बच्चों को
दूध दे रहा है इससे मुझे जरा भी खुशी नहीं हुई, अमेरिका का दूध पीने वाले
बच्चे अमेरिकी बातें सीखेंगे और वहाँ के ही गुणों का बखान करेंगे तो इसमें
हमारी इज्जत घटेगी और हमारी भारतीय संस्कृति पर विदेशी सभ्यता का गहरा असर
छा जाएगा ।।
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