Friday, 3 June 2016

वीर दुर्गादास

Preface

 

धर्म और जाति की रक्षा के लिए समय-समय पर जिन वीरों ने भारत माता की गोद में जन्म लिया और अपने पावन कर्तव्य का पालन करने में सर्वस्व के साथ जीवन तक बलिदान कर दिया, उनमें वीर दुर्गादास का बहुत ऊँचा स्थान है । इतिहास में जो तलवार के धनी योद्धा, नायक आगे दिखलाई देते हैं, उनमें वह संख्या उन्हीं की है, जो या तो राजा थे या राजकुमार, और ये अधिकतर अपने ही भू-खंड की रक्षा-स्वतंत्रता अथवा आन-बान-शान यश, गौरव और अभिमान के लिए मैदान में आये और अपना जौहर दिखलाकर अस्त हो गये । उनके बलिदान अथवा वीरता की निष्पक्ष विवेचना की जाए, तो उनके कर्तृत्व के पीछे उनका आत्म-व्यक्तित्व किसी न किसी अंश में सक्रिय रहा दिखलाई पड़ेगा ।

वीर दुर्गादास एक ऐसे नायक थे, जिनका सारा कर्तृत्व, कर्तव्य और संपूर्ण जीवन परस्वार्थ, परसेवा और परोपकार की पवित्र वेदी पर बलिदान होता रहा । वे न राजा थे और न राजकुमार । न उनका कोई पैतृक राज्य था और न बाद में ही उन्होंने कोई भू-खंड अपने अधिकार में करके उस पर अपना राजतिलक कराया । जबकि उन्होंने अपने बाहुबल और बुद्धिबल से मारवाड़ को स्वतंत्र कराया, मुगलों से तमाम जागीरें छीन ली, दिल्ली के बादशाह औरंगजेब को नीचा दिखाकर आर्य धर्म की पताका ऊँची कर दी । आगामी मुगल बादशाहों के होश इस सीमा तक ठिकाने कर दिये कि भारत में धार्मिक अथवा जातीय अत्याचार का चक्र बंद हो गया और हिंदू-मुसलमानों के बीच समान गौरव की स्थापना हो गई

वीर दुर्गादास एक साधारण सेनानायक के पुत्र थे और आजीवन, बड़ी-बड़ी विजय पाकर भी सिपाही बने रहे । न उन्होंने कभी राज्य का लोभ किया और न राजपद का । वे योद्धा होकर भी जन सेवक और नायक होकर भी अपने को नगण्य बनाये रहे ।

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