Preface
योग सम्बन्धी अनेक विधाओं (लययोग, तपयोग, हठयोग नादयोग, राजयोग आदि) में राजयोग सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपयोगी, सुगम प्रचलित विधा माना गया है ।। पातंजलि योग को ही राजयोग कहा जाता है ।। इसके आठ अंग हैं ।। इसे अष्टांगयोग भी कहा गया है ।। जीवन के समग्र विकास- तथा साधनामय बनाने के लिए प्रस्तुत पुस्तक में इसका सरल विवेचन किया गया है ।। (१) यम (२) नियम (३) आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा (७) ध्यान (८) समाधि ।। इन आठों में आवश्यक नहीं कि इन्हें एक के बाद ही दूसरे, इस क्रम में प्रयोग किया जाय, बल्कि सबका सम्मिलित प्रयोग चलता रहना आवश्यक है ।। जिस प्रकार अध्ययन, व्यायाम, व्यापार, कृषि आदि को एक ही व्यक्ति एक ही समय में योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित करता रह सकता है ।। उसी प्रकार राजयोग के अंगों को भी दिनचर्या में उनका स्थान एवं स्वरूप निर्धारित करते हुए सुसंचालित रखा जा सकता है ।। प्रस्तुत पुस्तक में पातंजलि राजयोग के सभी पक्षों पर तात्विक प्रकाश डाला गया है; ताकि उसके सर्वांगपूर्ण स्वरूप से अवगत हुआ जा सके ।।प्रस्तुत पुस्तक का दूसरा पक्ष है प्राकृतिक चिकित्सा, शरीर माध्यम खलु धर्म साधनम्। जीवन को योगमय बनाने के लिए पंचतत्वों से निर्मित शरीर विशेष का महत्त्व है ।। यों राजयोग यम, नियम के साथ- साथ आसन- प्रणायाम का विधान, स्वस्थ शरीर और शिवसंकल्पमय मन का संकेत करता है ।।
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