Friday, 3 June 2016

विज्ञान एवं अध्यात्म का समन्वित स्वरुप


 Preface

 

पदार्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। इसी प्रकार चेतना के भी स्रोत- उद्गम और कार्यक्षेत्र पृथक हैं। इस पृथकता के रहते हुए भी संसार इतना सुंदर और सुविधा- साधनों से भरा- पूरा बन सका, उसका श्रेय उस विज्ञान को ही दिया जा सकता है जिसे पदार्थ से लाभान्वित होने की कुशलता कहा जाता है। सामान्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य कहीं अधिक सुखी- समृद्ध है, यह तभी बन पड़ा है जब विज्ञान का उद्भव करना और उससे लाभ उठाने की प्रक्रिया को अधिकाधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न करना सम्भव हुआ।

पदार्थ से अधिक शक्तिवान है - चेतना। उसी का कौशल और चमत्कार है कि पदार्थ को अनगढ़ से सुगढ़ स्थिति तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त हुई। फिर भी एक आश्चर्य और भी शेष रह जाता है कि वह ज्ञान की जन्मदात्री होने पर भी चेतना अपने आप के सम्बन्ध में भी कम दिग्भ्रान्त नहीं रहती। अपने को भी अपना मकड़जाल बुनकर फँसाने और असाधारण संत्रास सहते रहने के लिए बाधित होती है। यह और भी जटिल स्थिति है। दूसरों के सम्बन्ध में समीक्षा करना सरल पड़ता है। दूसरे के रूप का भला- बुरा वर्णन किया जा सकता है, पर आत्म- समीक्षा कैसे बन पड़े ?? अपने प्रति पक्षपात भी रहता और सर्वोत्तम होने का आग्रह भी। ऐसी दशा में दृष्टिकोण गड़बड़ाता है, कुकल्पनाएं उठती हैं। अपने को सही सिद्ध करने वाले अनेकानेक तर्क साथ देते हैं।. . . अपनी मान्यता और आस्था में ऐसी विशेषता है कि वह दूसरों के सभी परामर्शों को भी निरस्त कर देती है, जो अपनी संचित मान्यताओं को निरस्त करती हैं।

लोक व्यवहार में अध्यात्म और विज्ञान की दो पृथक धारा बन गई हैं। दोनों ने अपने- अपने दुर्ग अलग- अलग खड़े कर लिए हैं। भ्रान्तियाँ दोनों पर ही अपने- अपने ढंग की सवार हैं। वे जिस भी स्थिति में हैं अपने को पूर्ण मानकर चल रहे हैं।


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