उपासना समर्पण योग-३
परमपूज्य गुरुदेव ने उपासना, जो परमात्मा की की जाती है, को
आत्मा की एक अनिवार्य खुराक बताया है । दैनंदिन जीवन की अन्यान्य
आवश्यकताओं की तरह उपासना भी एक ऐसा पुरुषार्थ है जो नित्य की जानी चाहिए ।
रोजमर्रा के जीवन में हमारी आत्मसत्ता पर सूक्ष्मजगत से आ रही प्रदूषणों
की कालिमा का आवरण छाता रहता है । इस कालिमा की नित्य सफाई ही उपासनात्मक
पुरुषार्थ है । श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे-"अपने लोटे को रोज माँजो
अर्थात अपनी आत्मसत्ता की सफाई नित्य नियमित रूप से करते रहें । उसमें कभी
आलस्य या प्रमाद न बरतें । परमपूज्य गुरुदेव ने अनेकानेक उदाहरण देकर
उपासना की महत्ता बताई है । गरम वस्तु के पास रखे पदार्थ गरम हो जाने, पारस
के संपर्क में आकर अनगढ़ लोहे के स्वर्ण बन जाने, वृक्ष का संपर्क पाकर
पाँवों से कुचल जाने वाली बेल के ऊपर आकाश चूमने तथा गंदे नाले के गंगा में
मिलकर गंगा नदी ही कहलाने की उपमाएँ देकर पूज्यवर ने व्याख्या की है कि
यही चमत्कार उपासना से मिल सकता है, यदि व्यक्ति उसका तत्त्वदर्शन विज्ञान
समझकर करें । अनेकानेक भ्रांतियों के शिकार व्यक्ति मर्म न समझकर
बाह्योपचार, बहिरंग के कर्मकांड को ही सब कुछ मान बैठते हैं । उपासना के
साथ जुड़ा हुआ शब्द है समर्पण योग । समर्पण-तादात्म्यता तद्रूपता लाए बिना
उपासना में प्राण कहाँ ? इसीलिए उपासना अधिकांश की सफल नहीं होती क्योंकि
उसमें करुण स्तर की परमात्मसत्ता से एकाकार होने की समर्पण भावना का अभाव
रहता है । जिस दिन यह हो जाता है, उस दिन परमात्मा का, महानता का,
श्रेष्ठता का जीवन में वास्तविक प्रवेश हो जाता है एवं व्यक्तित्त्व
आमूलचूल बदल जाता है ।
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