प्रायोगिक वनौषधि-विज्ञान
जिस भोगवादी युग में आज हम जी रहे हैं, मनुष्य का रोगी होना
स्वाभाविक है ।। कभी व्यक्ति नैसर्गिक जीवन जीता था, प्रकृति के साहचर्य
में परिश्रम से युक्त जीवनचर्या अपनाता था, रोगमुक्त जीवन एक सामान्य बात
मानी जाती थी ।। रोजमर्रा की जिन्दगी में तब ऐसे तत्त्वों का समावेश था,
जिनसे व्यक्ति के जीवन का उल्लास सहज ही अभिव्यक्त होता था ।। हमारी
संस्कृति में प्रत्येक दिन एक पर्व- त्यौहार के रूप में माना जाता रहा है
।। इसी कारण आनंद हर क्षण झरता रहता था ।। यही कारण था कि मानव तनाव ग्रस्त
भी नहीं होता था ।। आज की जीवन पद्धति दूषित, असांस्कृतिक कृत्रिम एवं
यांत्रिकता से युक्त है ।। जीने की शैली आधुनिकता के साधनों के बाहुल्य के
कारण कुछ ऐसी हो गयी है कि उसमें शरीर को श्रम अधिक नहीं करना पड़ता- मन कुछ
जरूरत से ज्यादा ही तनाव से युक्त रहता है एवं यह एक वास्तविकता है कि
बहुत से व्यक्ति जीवन जीने की कला से परिचित नहीं हैं ।। यही कारण है कि ये
अनगढ़ की तरह जीवन जीते देखे जाते हैं एवं अकारण रोगों के शिकार हो
संश्लेषित पद्धति पर आधारित आधुनिक चिकित्सा प्रणाली के शिकार हो कर धन तो
गँवाते ही हैं, साथ ही स्वास्थ्य जैसी अमूल्य निधि भी गँवा बैठते हैं ।।
परम पूज्य गुरुदेव ने " आयुर्वेद " को अपने मूल रूप में पुनर्जीवित कर इसे
सार्वजनीन - सर्वसुलभ बनाया है ।। आयुर्वेद आयुष्य को नीरोग रूप में दीर्घ
बनाए रखने का विज्ञान है।। यह आहार- विहार के नियमों- उपनियमों से लेकर
अपनी प्राकृतिक रूप में पायी जाने वाली वनौषधियों द्वारा रोगों के मूल तक
पहुँचकर उनकी चिकित्सा करना सिखाता है ।।
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