परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के प्रारंभ में ही स्वास्थ्य रक्षा के चौबीस स्वर्णिम सूत्र देते हुए लिखा है कि बिना प्राकृतिक संतुलन से भरा जीवन अपनाए मनःस्थिति ठीक किए व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता । औषधियाँ-सर्जरी आदि बाह्योपचार व्यर्थ हैं, यदि मूल जड़ को नष्ट नहीं किया गया । इसमें उनने आठ आहार संबंधी दस विहार संबंधी छह मनःसंतुलन संबंधी अनुशासन दिए हैं व लिखा है कि इनका अनुपालन करने वाला कभी बीमार हो ही नहीं सकता । आरोग्य को स्वाभाविक व दुर्बलता-रुग्णता को अस्वाभाविक मानते हुए उनने स्वास्थ्य-रक्षा हेतु अनेकानेक निर्देशों द्वारा बहुमूल्य मार्गदर्शन किया है ।
आज के व्यक्ति का जीवन आरामतलबी का है । उपकरणों-मशीनों, घर-घर में उपलब्ध संसाधनों ने व्यक्ति को मशीनों का गुलाम बना दिया है । ऐसे में स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए उनने शरीर पर बहुत अधिक दबाव डालने या थकाने वाले व्यायामों की तुलना शरीर की सूक्ष्म चक्र-उपत्यिकाओं को प्रभावित, उत्तेजित कर स्कूर्ति लाने वाले आसनों को अपनाने पर जोर दिया है । आसन अनेकानेक हैं, किंतु विभिन्न आयु वर्गों के लिए जिन्हें चुना जाए-कौन सा किस रोग की रक्षा के लिए किन अंगों के सूक्ष्म संचालन हेतु प्रयुक्त होता है, उसका सरल मार्गदर्शन इस खंड में है । इसी तरह प्राणायाम को विभिन्न मनोरोगों को दूर करने, तनाव मिटाने, चिरस्थायी प्राणशक्ति का स्रोत बनाए रखने के लिए कैसे प्रयुक्त किया जा सकता है, यह वर्णन विस्तार से इसमें है । प्राणों का व्यायाम-प्राणों के आयाम में प्रवेश ही प्राणायाम है । प्राणतत्त्व की अभिवृद्धि, कौन-कौन से प्राणायाम व्याधि-निवारण हेतु उपयुक्त हैं, उन सभी का दिग्दर्शन इसमें है ।
Buy oneline@
No comments:
Post a Comment