जीवन शरद शतम-४१
स्वस्थ रहना मनुष्य का अधिकार है, एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ।
इसी आधार पर हमारे ऋषिगणों ने मनुष्य के लिए “जीवेम शरद: शतम्”-व्यक्ति सौ
वर्ष तक जिए नीरोग जीवन जीकर सौ वर्षों की आयुष्य का आनंद ले, सूत्र दिया
था । सौ वर्ष से भी अधिक जीने वाले, स्वास्थ्य के मौलिक सिद्धांतों को जीवन
में उतारने वाले अनेकानेक व्यक्ति कभी वसुधा पर थे एवं इसे एक सामान्य सी
बात माना जाता था । स्वस्थवृत्त को जीवन में उतारने वाला सौ वर्ष तक जीकर
ही अपना सारा जीवन-व्यापार पूरा कर ही मोक्ष को प्राप्त होगा, यह हमारी
संस्कृति का कभी जीवनदर्शन था । किंतु आज यह सब एक विलक्षणता मानी जाती है,
जब सुनने में आता है कि किसी ने सौ वर्ष पार कर लिए व अभी भी नीरोग है ।
परमपूज्य गुरुदेव ने वाड्मय के इस खंड में जहाँ बिना औषधि के कायाकल्प की
बात कही है, वहीं जडी़-बूटियों द्वारा स्वास्थ्य-संरक्षण, कल्प के विभिन्न
शरीरपरक बार्धक्य कभी न लाने वाले सुगम प्रयोग भी दिए हैं, जो आज भी
परीक्षित करने पर कसौटी पर खरे सिद्ध हो सकते हैं ।
रोग क्यों होते हैं, उनका कारण क्या है व कौन-कौन से घटक इसके लिए
जिम्मेदार होते हैं ? यहाँ से यह खंड आरंभ होता है । रोगों की उत्पत्ति की
जड़ हमारी जीवनशैली का त्रुटिपूर्ण होना है तथा कब्ज से लेकर आहार के असंयम
रहन-सहन से लेकर मानसिक तनाव तथा दैवी प्रतिकूलताओं से लेकर
बैक्टीरिया-वायरस के कारण होने की व्याख्या के पीछे पूज्यवर का मंतव्य एक
ही है कि हमारी जीवनीशक्ति-प्राणशक्ति यदि अक्षुण्ण रहे व जीवनशैली सही रहे
तो हमें कभी रोग-शोक सता नहीं सकते । पंचभूतों से बनी इस काया को जिसे अंत
में मिट्टी में ही मिल जाना है, क्या हम पंचतत्त्वों-आकाश, वायु जल,
मिट्टी, अग्नि के माध्यम से स्वस्थ बना सकते हैं, इसका समग्र विवेचन इस खंड
में विस्तार से हुआ है ।
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