Monday, 7 November 2016

स्वामी श्रद्धानंद

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1245सन ५६८ की बात है, आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने धर्म और जातीयता की शिक्षा देने के लिए भारतवर्ष के प्राचीन आदर्श पर एक गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव पास किया । सभा में वक्ताओं ने कहा कि अंग्रेजी ढंग की विदेशी शिक्षा के प्रभाव से नवयुवकों में से अपने धर्म और संस्कृति की भावना दिन पर दिन घटती जाती है, वे विदेशी सभ्यता की तरफ आकर्षित होते जाते है । यदि इस पतनोन्मुख प्रवाह को रोकना है, तो वैदिक सिद्धांतों के अनुकूल एक आदर्श शिक्षा-संस्था की स्थापना अत्यावश्यक है ।

प्रस्ताव तो पास कर दिया गया, पर ऐसे गुरुकुल के लिए धन और विद्यार्थी प्राप्त करना सहज न था । उस समय तक लोगों ने गुरुकुल का नाम भी न सुना था । जब उनको प्राचीन शास्त्रों में वर्णित ऋषि के उन गुरुकुलों का वर्णन जाता था, जिनमें विद्यार्थी ब्रह्मचारी बनकर अपने निर्वाह की व्यवस्था स्वयं करके अठारह-बीस वर्ष तक वेदादि विद्याओं का अध्ययन करते थे और उतने समय तक गुरुओं के आश्रम में ही रहते थे, तो लोग आश्चर्य करने लगते थे । वे हँसकर कहते-" श्रीमान् जी! इस अंग्रेजी शिक्षा के जमाने में कौन दस-बीस वर्ष तक सिर मुंडाकर जंगलों में रहेगा और संस्कत जैसी मृत-भाषा को पड़ेगा । पर आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष लाला जी (१८५६ से १९२६) (बाद में स्वामी श्रद्धानंद जी), जिन्होनें इस प्रस्ताव को पास कराया था, दूसरी धातु के बने मनुष्य थे । वे इस योजना में आने वाली महान् कठिनाइयों और लोगों की उदासीनता की बात को अच्छी तरह समझते थे । इसलिए प्रस्ताव के पास होते ही सभा-स्थल पर उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं गुरुकुल के लिए तीस हजार रुपया इकट्ठा न कर लूँगा, घर में पैर नहीं रखूँगा। 

 

Buy online: 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=1245


No comments:

Post a Comment