सन्त सुकरात
ईसा मसीह के जन्म से भी चार सौ वर्ष पहले एथेन्स (यूनान) के
न्यायालय में एक सत्तर वर्षीय वृद्ध मनुष्य खड़ा हुआ था। उसके ऊपर अभियोग
लगाया गया था कि वह नवयुवकों को विपरीत उपदेश देकर गलत रास्ते पर ले जाता
है। दूसरा अभियोग यह भी था कि उसने प्रजातंत्र के अधिकारियों के आदेश की
अवहेलना की है। यह अभियुक्त और कोई नहीं, पश्चिमी संसार का एक अति प्राचीन
दार्शनिक सुकरात था।
पाठक देख सकते हैं कि सुकरात ने ज्ञानी व्यक्ति का जो लक्षण बतलाया, वह
हमारे ऋषि-मुनियों के सिद्धांतों से पूर्ण रूप से मिलता हुआ है। हमारे यहाँ
कहा गया है कि ज्ञान की कोईसीमा नहीं। सामान्य रूप से ज्ञानी कहा जाने
वाला व्यक्ति जितना जानता है, वह संपूर्ण ज्ञानराशि की तुलना में एक घड़े
में एक बूंद के समान भी नहीं है। जिनको "महाज्ञानी" कहा जाता है, वे भी कभी
यह नहीं कह सकते कि हमने पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। उदाहरण के
लिए सांख्य और वैशेषिक जैसे जगत प्रसिद्ध दर्शनों के रचयिता भी शिल्प,
संगीत, काव्य के विषय में अपने को निष्णात नहीं कह सकते। फिर
अध्यातम-ईश्वर, जीव, आत्मा, परलोक जैसे सर्वथा अप्रत्यक्ष और अव्यक्त विषय
में तो कोई दावे के साथ कुछ कैसे कह सकता है ? इसलिए भारतीय ऋषि-मुनियों
ने सब कुछ वर्णन कर देने के बाद भी कहा है – "नेति-नेति" ? अर्थात् जितना
हम जानते थे उतना हमने बतला दिया, पर यह इस विषय की अन्तिम सीमा नहीं है।
इसके बाद भी जानने की बहुत सी बातें हैं, जिनका पता हमको नहीं, पर संभव है
और किसी को हो, अथवा आगे चलकर जिनकी जानकारी हो सके।
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