Friday, 4 November 2016

गणेश शंकर विद्यार्थी


 


http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=759त्याग और बलिदान के


आराधक गणेश शंकर विद्यार्थी

सन १९१४- १५ की बात है कि पुलिस का एक बड़ा दल कानपुर के प्रताप प्रेस की तलाशी लेने आ धमका ।। बीसियों पुलिस के सिपाही शहर के कोतवाल खान बहादुर बाकरअली और इन्स्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस, जो अंग्रेज था, सबने प्रेस को एकाएक घेर लिया और विद्यार्थी जी के कमरे में जा पहुँचे ।। उन दिनों प्रताप का कार्य धनाभाव से बड़ी गरीबी में चलाया जाता था ।। ऑफिस में केवल दो ही कुर्सी थी ।। एक पर संपादक विद्यार्थी जी और दूसरी पर मैनेजर शिवनारायण मिश्र बैठकर काम कर रहे थे ।। कोतवाल को अन्य सरकारी नौकरों की तरह ही अपने अंग्रेज अफसर की बड़ी फिकर थी ।। उनको खड़े देखकर कोतवाल साहब ने विद्यार्थी जी से कुर्सी देने को कहा पर वे तो सरकार के ही विरोधी थे उसके अफसरों की आवभगत वह भी पुलिसवालों की क्यों करने लगे ? इस पर कोतवाल ने विद्यार्थी जी को बदतमीज कह दिया ।। यह सुनते ही विद्यार्थी जी की त्यौरियाँ चढ़ गई और अपने को शहर का कर्ता- धर्ता समझने वाले कोतवाल को डाँटकर जोर से कहा बदतमीज तुम और होंगे तुम्हारे साहब ।। साहब हैं तो मैं क्या करूँ, क्या सिर पर चढ़ा लूँ ? वे पब्लिक सर्वेट हैं, तो उसी तरह रहें ।। आप इस प्रकार रौब किस पर झाड़ते हैं ?' इंस्पेक्टर जनरल इस निर्भीकता और खरी- खरी बातों से स्तंभित रह गये और स्वयं क्षमा माँगने लगे ।।

ऐसी ही दूसरी घटना १९२१ की है, जब विद्यार्थी जी को एक अभियोग में जेल भेजा गया ।। जेल के नियमानुसार जेलर उनको लेकर सुपरिटेंडेंट मेजर बकले के सामने गया।। उस समय वे कुर्सी पर बैठे कुछ कागजात देख रहे थे और असिस्टेंट जेलर आदि कई कर्मचारी उनके पास खड़े थे ।। विद्यार्थी जी देर होते देखकर वही पड़ी कुर्सी पर बैठ गये ।। जेलर ने यह देखा तो वह घबरा उठा ।।

 

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