ऋषि टाल्सटाय
"एक समय था जब मैं खुले शब्दों में कह दिया करता था कि हमारा
ईसाई धर्म बिल्कुल झूठ है। किन्तु आगे चलकर इसमें परिवर्तन हो गया। तब मैने
संदेह करने में तो कमी कर दी, किन्तु मुझे इस बात का पक्का विश्वास हो
गया, जिस धर्म को हम मान रहे हैं, उसमें पूरी सच्चाई नहीं है। साधारण
मनुष्यों द्वारा माने जाने वाले धर्म में तो वास्तविकता थी, क्योंकि इसमें
लेशमात्र संदेह नहीं कि सच्चाई के बिना जीवित रहना असम्भव है। यह सच्चाई
मुझे मालूम थी और मैं उसी के अनुसार चलाता था। पर इस सच्चाई के साथ भी झूठ
मिला हुआ था। यह ठीक है कि साधारण लोगों के विचारों में पादरी लोगों
(पंडा-पुरोहित) की अपेक्षा अधिक सच्चाई थी, किन्तु वह असत्य से सर्वथा
मुक्त न थे।"
जब धर्म की नींव कमजोर पड़ जाती है और उसका सार-तत्व निकल जाता है, तो
मनुष्य का चरित्र भी कायम नहीं रह सकता। ऐसा होने पर भी कुछ लोग तो "धर्म"
का नाम लेते रहते हैं और थोड़ा-बहुत दिखावा भी कर देते हैं और कुछ लोग बड़ी
शान के साथ अपने को ऐसी "बेवकूफ़ी" की बातों से अलग बतलाने लगते हैं और
प्राय: धर्म का मज़ाक उड़ाया करते हैं। इन दोनों ही प्रकार के लोगों का
चारित्रिक और नैतिक पतन अनिवार्य होता है। उनकी दृष्टि में खाना, कमाना,
भोग करना ही मनुष्य-जीवन का सार रह जाता है और उसी की पूर्ति में वे सदा
लगे रहते हैं। इस सम्बन्ध में टाल्सटाय के अनुभव वास्तव में बड़े करुणा-जनक
और हृदय-द्रावक हैं। उनका वर्णन करने में उन्होंने जिस स्पष्टता और साहस का
परिचय दिया है, वह अद्वितीय है। वे जन्म से ही एक बहुत प्रतिष्ठित और
राजवंश से संबन्धित घराने से थे और बाद में भी अपने उद्योग तथा त्याग और
तप से जगत्-पूज्य बन गये।. .
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