प्रफुल्ल चन्द्र राय
सन् १८८९ का वर्ष था। इंग्लैंड में रसायनशास्त्र की सर्वोच्च
परीक्षा डी० एस-सी० पास करके एक बंगाली तरुण बंगाल के शिक्षा-विभाग के
प्रधान अधिकारी मि० क्राफ़्ट के सामने यह शिकायत करने पहुँचा कि जब उसकी
योग्यता वाले अँग्रेजों को ११००-१२०० वेतन पर नियुक्त किया जाता है, उसको
२५० रुपया मासिक की सहायक प्रोफेसर की जगह ही दी जा रही है। मि० क्रफ़्ट ने
कुछ नाराजगी के साथ कहा – "जिन्दगी में सभी तरह के काम-धन्धे तुम्हारे लिए
खुले हैं। तुम इसी नौकरी को स्वीकार करो, इसके लिए तुम्हारे ऊपर किसी
प्रकार का दबाव तो नहीं डाला जा रहा है। अगर तुम अपनी योग्यता को इतना अधिक
समझते हो तो व्यावहारिक क्षेत्र में कोई स्वतन्त्र कार्य करके उसे प्रकट
करो।” अंग्रेज अफ़सर के यह व्यंगपूर्ण शब्द उसके कलेजे में चुभ गए, पर उस
समय अपनी परिस्थिति को समझकर वह चुप रह गया और उसने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी
कालेज में २५० रु० की नौकरी ही स्वीकार कर ली। पर साथ ही उसने यह भी
स्वीकार कर लिया कि, अवसर पाते ही मैं इनको कोई स्वतंत्र काम करके
दिखलाऊँगा।
इस महत्वपूर्ण संस्था के संस्थापक थे – आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय
(१८६१ से १९४४) जो भारतवर्ष में रसायन-विज्ञान के सर्वप्रथम उच्च कोटि के
ज्ञाता थे और उनकी योग्यता को अन्त में विदेशी सरकार ने भी स्वीकार करके
"सर" की उपाधि प्रदान की थी। यद्यपि उनके पश्चात् और भी कई भारतीयों ने
विज्ञान में उल्लेखनीय प्रसिद्धि प्राप्त की थी और उनके समकालीन श्री जे०
सी० बोस ने भी ज्ञान-विज्ञान में बहुत अधिक नाम कमाया था, पर प्रफ़ुल्ल बाबू
ने इतनी अधिक विद्या और पदवी पाकर, उसको जिस तरह लोक कल्याण के उद्देश्य
से उत्सर्ग कर दिया, उसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है।
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