जन्म के पहले जिस प्रकार हम थे, उसी प्रकार मृत्यु भी कोई ऐसी घटना नहीं
है, जिससे जीवन का नाश सिद्ध होता हो। नाश शब्द भी जन्म की तरह ‘‘नश
अदर्शने’’ धातु से बना है; जिसका अर्थ होता है, जो अभी तक दिखायी दे रहा
था, अब वह अव्यक्त हो गया। वह अपनी सूक्ष्म अवस्था में चला गया। शरीर स्थूल
था-उसमें प्रविष्ट होने के कारण संरचना दिखायी दे रही थी, चेतना व्यक्त
थी-पर शरीर के बाद वह नष्ट हो गई हो ऐसा नहीं है। अब इस तथ्य को विज्ञान भी
मानने लगा है, अलबत्ता विज्ञान प्रकट का संबंध अभी तक मनोमय विज्ञान से
जोड़ नहीं पाया, इसलिए वह परलोक, पुनर्जन्म, लोकोत्तर जीवन, भूत-प्रेत,
देव-योनि, यक्ष-किन्नर, पिशाच, बैताल आदि अतींद्रिय अवस्थाओं की विश्लेषण
नहीं कर पाता। पर मृत्यु के बाद जीवन नष्ट नहीं हो जाता है, यह एक अकाट्य
तथ्य है और इसी आधारभूत सिद्धान्त के कारण भारतीय जीवन पद्धति का निर्धारण
इस प्रकार किया गया है कि वह मृत्यु के बाद भी अपने जीवन के अनंत प्रवाह को
अपने यथार्थ लक्ष्य स्वर्ग, मुक्ति और ईश्वर दर्शन की ओर मोड़े रह सके।
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