Preface
हमारा यज्ञ अभियानभारतीय संस्कृति का पिता यज्ञ- यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है ।। यह इसका आदि प्रतीक है ।। हमारी संस्कृति में वेदों का जो महत्व है, वही महत्व यहीं को भी प्राप्त है ।। वेदों में यज्ञ का जितना जिक्र किया गया है, उतना अन्य किसी विषय का नहीं है ।। वास्तव में वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान रहा है ।। यज्ञ को इसका प्राण कहें, तो गलत नहीं होगा ।। प्राचीन भारत की कल्पना करते ही मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ करते हुए ऋषि- मुनियों के चित्र बरबस ही आँखों के सामने आ जाते हैं ।। कपि मुनि ही क्यों, आम जनता धनी- मानी और राजा लोग सभी के हृदय में यज्ञ के प्रति अगाध श्रद्धा थी और इसमें बढ़़चढ़ कर हिस्सा लेते थे ।। साधु- ब्राह्मण लोग तो एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म में ही लगाते थे ।। यज्ञ द्वारा ही मनुष्य संस्कारित होकर शूद्र- पशु से ब्राह्मण- देवत्व को प्राप्त होता है, यह बात प्रचलित थीं ।। उस काल की सुख- समृद्धि शांति में यहीं का सबसे बड़ा हाथ था ।। हो भी क्यों न, आखिर ऋषियों ने इसकी खोज मनुष्य, समाज और सृष्टि के रहस्यों को गहरी समझ के आधार पर की थी ।।
समय बीतने के साथ तमाम उतार- चढ़ावों के बीच हम यज्ञ की उपयोगिता व इसके भूल उद्देश्य को भूल गए। इसे आज की हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कहें, तो गलत न होगा ।। संतोष इतना भर है कि हम अपनी यज्ञीय परम्परा को अभी भुलाए नहीं हैं और प्रतीक पूजा के रूप में ही सही; किन्तु इसकी लकीर पीटते हुए इसकी प्राणशून्य लाश को ढो रहे हैं ।। आज भी यज्ञ इसी रूप में हमारे चौवन- मरण का साथी है ।। हमारा कोई भी शुभ या अशुभ कर्म इसके विना पूरा नहीं होता ।। जन्म से रोकर मृत्यु तक जितने भी सोलह संस्कार हैं, सभी में यज्ञ कम या अधिक रूप में अवश्य किया जाता है और दो में तो इसी को प्रधानता रहती है ।।
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