Saturday, 2 July 2016

भव्य समाज का अभिनव निर्माण - 46

Preface

धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियों के अवतरण में समाज व्यवस्था की प्रमुख भूमिका होती है । जनसमाज की मान्यताएँ, गतिविधियाँ, प्रथाएँ जिस स्तर की होती हैं, उसी प्रवाह में सामान्यजन बहते और ढलते जाते हैं । अनुकरणप्रिय मनुष्य का स्तर और रुझान प्राय: सामयिक प्रचलन एवं परिस्थितियों के अनुरूप बनता चला जाता है । यदि उनका स्तर उच्चस्तरीय हो तो व्यक्ति एवं समुदाय का चिन्तन भी उसी के अनुरूप ढलेगा और समाज में स्वर्गीय परिस्थितियाँ पैदा होंगी । जिस समाज में ऐसे लोगों का बाहुल्य होता है, जो परस्पर एक-दूसरे के दु:ख-दर्द में सम्मिलित रहते हैं, दु:खो को बँटाते, सुखों को बाँटते हैं और उदार सहयोग-सहकार का, स्नेह-सौजन्य का, त्याग का परिचय देकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करते हैं, उसे "देव समाज" कहते हैं । जब-जब जन-समूह इस प्रकार का सम्बन्ध बनाये रखता है तब -तब स्वर्गीय परिस्थितियाँ वहाँ विद्यमान रहती हैं । परमपूज्य गुरुदेव ने ऐसे ही सभ्य, भव्य एवं अभिनव समाज की परिकल्पना की है और कहा है कि आने वाले दिनों में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया गतिशील होगी । संकीर्ण स्वार्थपरता-परमार्थ परायणता में बदलेगी और धरती पर स्वर्ग के दर्शन होंगे । 

परमपूज्य गुरुदेव का यह आशावादी चिंतन वाड्मय के इस खण्ड में स्थान-स्थान पर निर्झरित होता हुआ प्रकट हुआ है । "वसुधैव कुटुम्बकम्" के सिद्धान्त के आधार पर 
"नया संसार बसायेंगे-नया इंसान बनायेंगे!" का उद्घोष करने वाले युग प्रवर्तक एवं महाकाल की युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया के सूत्रधार परमपूज्य गुरुदेव ने अन्यान्य अध्यात्मवादी तत्वदर्शकों, चिंतक मनीषियों की तुलना में सशक्त समाज के निर्माण की आवश्यकता को एवं श्रेष्ठ मानकों की भूमिका को स्थान-स्थान पर दुहराया है । 
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