Saturday, 2 July 2016

ग्रामोत्थान की ओर

Preface

पिछले दिनों भौतिक विज्ञान व बुद्धिवाद का जो विकास हुआ है । उसने मानव जाति के हर पहलू को भले या बुरे रूप में प्रभावित किया है । लाभ यह हुआ कि वैज्ञानिक आविष्कारों से हमें बहुत सुविधा-साधन मिले और हानि यह हुई कि विज्ञान के प्रत्यक्षवादी दर्शन से प्रभावित बुद्धि ने आत्मा, परमात्मा, कर्मफल एवं परमार्थ के उन आधारों को डगमगा दिया जिन पर नैतिकता, सदाचरण एवं उदारता अवलम्बित थी । धर्म और अध्यात्म की अप्रामाणिकता एवं अनुपयोगिता विज्ञान ने प्रतिपादित की । इससे प्रभावित प्रबुद्ध वर्ग ओछी स्वार्थपरता पर उतर आया । आज संसार का धार्मिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नेतृत्व जिनके हाथ में है उनके आदर्श संकीर्ण स्वार्थों तक सीमित हैं । विश्व कल्याण को दृष्टि में रखकर उदार व्यवहार करने का साहस उनमें रहा नहीं, भले ही वे बढ़-चढ़कर बात उस तरह की करें । ऊँचे और उदार व्यक्तित्व यदि प्रबुद्ध वर्ग में से नहीं निकलते और उस क्षेत्र में संकीर्ण स्वार्थपरता व्याप्त हो जाती है, तो उससे नीचे वर्ग, कम पड़े और पिछड़े लोग अनायास ही प्रभावित होते हैं । संसार में कथन की नहीं, क्रिया की प्रामाणिकता है । बड़े कहे जाने वाले जो करते हैं, जो सोचते हैं, वह विचारणा एवं कार्य पद्धति छोटे लोगों के विचारों में, व्यवहार में आती है । 

इन दिनों कुछ ऐसा ही हुआ है कि आध्यात्मिक आस्थाओं से विरत होकर मनुष्य संकीर्ण-स्वार्थों की कीचड़ में फँस पड़ा है । बाहर से कोई आदर्शवाद र्का बात भले कहता दीखे भीतर से उसका क्रिया-कलाप बहुत ओछा है । एक दूसरे में यह प्रवृत्ति छूत की बीमारी की तरह बढ़ी और अनाचार का बोलबाला हुआ । परिणाम सामने है; रोग, शोक, कलह, क्लेश, पाप, अपराध, शोषण, उपहरण, छल, प्रपंच की गतिविधियाँ बढ़ रही हैं और इन परिस्थितियों को बदलने एवं सुधारने की आवश्यकता है । 
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