Preface
समय के साथ मान्यताएँ भी बदलती रहनी चाहिए । उन्हें जिस देश-काल में प्रवर्तित किया जाता है, तब वे उस समय के अनुकूल तथा आवश्यक होती हैं, पर ज्यों-ज्यों परिस्थितियाँ बदलती जाती हैं उनकी उपयोगिता घटती जाती है और धीरे-धीरे व्यर्थ बन जाती हैं । ऐसा होने पर भी जब उन्हें समय के अनुसार बदला नहीं जाता है, तब वे सामाजिक रूढ़ि बनकर एक बंधन के रूप में बदल जाती हैं, समाज की प्रगति में बाधक बनती हैं और अनेक प्रकार से हानिकारक सिद्ध होती हैं । संभव है कभी यह मान्यता रही हो कि विवाह की सफलता तथा सार्थकता संतान होने में ही है । यदि विवाह होने पर संतानों की उत्पत्ति नहीं हो पाती, तो वह विवाह दांपत्य जीवन असफल समझा जाता था । बहुत संतान होना सौभाग्य का लक्षण माना जाता था । कहना न होगा कि जब यह मान्यता रही होगी तब सामाजिक तथा पारिवारिक दृष्टि से इसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता रही होगी । ऐसा न मानने अथवा न करने से समाज को हानि की संभावना रहती होगी । उस समय यह मान्यता समाज के विकास तथा प्रगति में सहायक होती होगी ।उस समय इस मान्यता का कारण क्या रहा होगा, इस पर विचार करने से यही समझ में आता है कि उस समय पर जनसंख्या की बहुत कमी थी । भूमि तथा साधन अधिक थे । संसार सूना और बीहड़ दीखता था । साथ ही उस समय एक परिवार के अधिक व्यक्ति मिलकर दूसरे कम संख्या वाले परिवार को दबा कर उस पर शासन करते थे । उस युग में अधिक संतान उपयोगी थी ।
Buy online @
No comments:
Post a Comment