Preface
एक ऐसे देश के लिए जहाँ लगभग ३९ करोड़ एकड़ भूमि में फसल बोई जाती हो और जहाँ ७ करोड़ एकड़ भूमि के लिए सिंचाई की व्यवस्था हो, बाहर से अनाज मँगाना न तो उसकी प्रतिष्ठा के लिए और न ही उसके आत्मसम्मान के लिए शोभा की बात है । दुनिया में और भी देश हैं, जो क्षेत्रफल में भारत से छोटे हैं और जिनके पास कृषि योग्य जमीनें भी काफी कम हैं, तो भी वे अपने देशवासियों के लिए अनाज की व्यवस्था पूरी कर लेते हैं, पर आयोजन के ३४ साल बीत जाने पर भी भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर न बन सका, इससे बढ़कर दुःख की और कौन-सी बात हो सकती है ?आयात का आर्थिक दुष्फल-खाद्यान्न के क्षेत्र में हमारी अभाव की स्थिति आर्थिक विषमता उत्पन्न करती है । विदेशों से मँगाए हुए अनाज के बदले में भारत को करोड़ों रुपयों की अर्जित विदेशी मुद्रा गँवानी पड़ती है । यदि हम खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाएँ तो हमारी करोड़ों रुपये की मुद्रा देश की विकास योजनाओं, सैनिक तथा रक्षा संबंधी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के काम आ सकती है । यदि हम विदेशी अन्न के आयात पर निर्भर रहेंगे तो सक्रिय युद्धकाल में यह आयात एकदम बंद हो सकता है, जिससे उस समय देश को अत्यधिक कष्ट भी उठाना पड़ सकता है ।
खाद्य-मोर्चा युद्ध-मोर्चे से बड़ा- आज की रणनीति भी खाद्यान्न के आधार पर बनती और चलती है । गत दो महायुद्धों के अध्ययन से इस संबंध में जो जानकारियाँ मिली हैं, उनका आज हमारे लिए बड़ा महत्त्व है ।
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