Tuesday, 5 July 2016

उध्दरेदात्मनाऽत्मानम्

Preface

 अपना उद्धार करना संसार का उद्धार करने का प्रथम चरण है ।। समाज या संसार कोई अलग वस्तु नहीं, व्यक्तियों का समूह ही समाज या संसार कहलाता है ।। यदि हम संसार का उद्धार या कल्याण करना चाहते हैं तो वह कार्य अपने को सुधारने से शुरू होता है जो सबसे अधिक सरल एवं संभव हो सकता है ।। दूसरे लोग कहना मानें या न मानें, बताए हुए रास्ते पर चलें, या न चलें यह संदिग्ध है, पर अपने ऊपर तो अपना नियंत्रण है ही ।। अपने को तो अपनी मरजी के अनुसार बना या चला सकते ही हैं ।। इसलिए विश्व- कल्याण का कार्य सबसे प्रथम आत्म- कल्याण का कार्य हाथ लेते हुए ही आरंभ करना चाहिए ।। 

संसार का एक अंश हम भी हैं ।। अपना जितना ही हो सुधार हम कर लेते हैं उतने ही अंशों में संसार सुधर जाता है ।। अपनी सेवा भी संसार की ही सेवा है ।। एक बुरा व्यक्ति अनेकों तक अपनी बुराई का प्रभाव फैलाता है और लोगों के पाप- तापों एवं शोक- संतापों में अभिवृद्धि करता है ।। इसी प्रकार एक अच्छा व्यक्ति अपनी अच्छाई से स्वयं ही लाभान्वित नहीं होता वरन दूसरे अनेकों लोगों की सुख- शांति बढ़ाने में सहायक होता है ।। सामाजिक होने के कारण मनुष्य स्वभावत: अपना प्रभाव दूसरों पर छोड़ता है ।। फिर जो जितना ही मनस्वी होगा वह अपनी अच्छाई या बुराई का भला- बुरा प्रभाव भी उसी अनुपात से संसार में फैलाएगा ।।
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