Preface
गाँव अपने में विश्व को पुष्ट करने वाली ऐसी इकाई है, जिस में किसी भी प्रकार की व्यग्रता व आतुरता न हो, अर्थात भविष्य के प्रति पूर्ण निश्चिन्तता व आश्वस्तता हो । वास्तव में हमारे गाँव इस सूत्र के अनुरूप पूर्णतया स्वावलम्बी हुआ करते थे, उन्हें अपनी आवश्यकता के लिए बाहर की ओर नहीं देखना होता था । विकास उनकी पूर्णतया विकेन्द्रीकृत सामाजिक व्यवस्था थी । परन्तु विभिन्न राज तंत्रीय व्यवस्थाओं से गुजरते हुए ग्राम्य का वह स्वरूप एवं ढाँचा धीरे धीरे कर प्राय: लोप हो गया ।भारत ग्राम प्रधान देश है और गांवों में बसी 2 तिहाई आबादी का उत्कर्ष एवं उत्थान ही राष्ट्र का वास्तविक विकास है । परन्तु यह विडम्बना ही है कि आजादी के बाद पिछले 55 वर्षों में गांवों के विकास को वह स्वरूप व दिशा-धारा नहीं दी जा सकी जो यहाँ की परिस्थितियों व आवश्यकता के अनुकूल होती और गांवों में वह स्थिति पैदा करती जिससे गांवों से शहरों की ओर तेजी से हुए पलायन एवं गंदी बस्तियों के रूप में बढती शहरी आबादी की गंभीर समस्याओं से बचा जा सकता । साथ ही शहरीकरण, औद्योगिकरण, प्रदूषण, प्राकृतिक असन्तुलन एवं प्रकोपों की मार से भी बचा जा सका होता ।
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