Saturday, 2 July 2016

समाज की अभिनव रचना

Preface

विश्व मानव की आत्मा एक और अखंड है ।। समस्त जड़- चेतन उसी के अंतर्गत अवस्थित हैं ।। इस आत्मा में अपनी एक दिव्य आभा, स्वर्गीय ज्योति जगमगाती है ।। अनेक मल आवरणों ने उसे ढ़क रखा है ।। यदि वह ज्योति इन आवरणों को चीरकर अपने शुद्ध स्वरूप में जगमगाने लगे, तो उसका आलोक जहाँ भी पड़े वहीं आनंद का परम आह्लादकारी दृश्य दिखाई दे सकता है ।। इस प्रकाश की सीमा में आने वाली हर वस्तु स्वर्गीय बन सकती है ।। ऐसी बहुमूल्य ज्योति हमारे अंदर मौजूद है ।। स्वर्ग की सारी साज- सज्जा हमारे भीतर प्रस्तुत है, पर अविद्या के प्रतिरोधी तत्त्वों ने उसे भीतर ही अवरुद्ध कर रखा है ।। फलस्वरूप मानव प्राणी स्वयं नारकीय स्थिति में पड़ा हुआ है और वैसा ही नरक तुल्य वातावरण अपने चारों ओर बनाए बैठा है ।। 

आत्मा स्वार्थ की संकुचित सीमा में अवरुद्ध होकर आज खंडित हो रही है ।। हर व्यक्ति अपने को दूसरों से अलग खंडित देखता है, फलस्वरूप चारों ओर संघर्ष और कलह का वातावरण उत्पन्न होता है ।। 

वस्तुत: हम सब एक हैं, अखंड हैं, सब एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक का सुख- दुःख, दूसरे का सुख- दुःख है ।। उठना है तो सबको एक साथ उठना होगा, सुख ढूँढना है तो सबको उसे बाँटना होगा ।।

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