गृहस्थ:एक तपोवन -61
‘धन्यो गृहस्थाश्रम:’ कहकर हमारे ऋषि-मुनियों ने चारों आश्रमों
में गृहस्थाश्रम ही धन्य कहे जाने योग्य है, ऐसा श्रुति में कहा है। जिस
तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम
गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं। वस्तुत: किसी भी समाज या राष्ट्र के विकास के
लिए परिवार संस्था का स्वस्थ, समर्थ व सशक्त होना जरूरी है। यह सहजीवन के
व्यावहारिक शिक्षण की प्रयोगशाला है। बिना किसी बाह्य दण्ड, भय या कानून के
चलने वाली संस्था एकमात्र ऐसी संस्था है जो आनुवांशिक संस्कारों एवं
पारस्परिक विश्वास पर निर्भर रह, अविच्छृंखल स्थिति में न जाकर सतत गतिशील
रहती आयी है। बिना स्वार्थों का त्याग किए सहजीवन की कल्पना भी नहीं की जा
सकती एवं त्याग, सहिष्णुता, सेवा की धुरी पर यह संस्था मात्र भारतीय
संस्कृति की ही विशेषता है एवं सदा रहेगी।
गृहस्थ तप और त्याग का जीवन कहा गया है। इस धर्म के परिपालन के लिए किया
गया कोई भी प्रयास किसी तप से कम नहीं है। गृहस्थ में स्वयं को अपनी
वृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। चिकित्सा, भोजन, बच्चों की
शिक्षा-दीक्षा के लिए सब प्रबन्धन करने हेतु अपना पेट काट कर सारी व्यवस्था
करनी होती है, एक जिम्मेदारी से भरा जीवन जीना पड़ता है। सचमुच
गृहस्थाश्रम एक यज्ञ है, जिसमें प्रत्येक सदस्य उदारता पूर्वक सहज ही एक
दूसरे के लिए कष्ट सहते हैं, एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं। गृहस्थाश्रम
समाज के संगठन, मानवीय मूल्यों की स्थापना, समाजनिष्ठा, भौतिक विकास के
साथ-साथ मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक विकास का भी क्षेत्र है एवं इस
प्रकार समाज के व्यवस्थित स्वरूप का मूलाधार है।
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