Saturday, 11 March 2017

पूज्यवर की अमृतवाणी-६८

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=381इस खंड में दी जा रही अमृतवाणी के प्रमुख विषय हैं-मानव में देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण, देव-संस्कृति के दो आधार-गायत्री और यज्ञ, आध्यात्मिक कायाकल्प के सूत्र और सिद्धांत, साधना से सिद्धि तथा महाकाल की प्रज्ञा-परिजनों से अपेक्षाएँ व उनका नवसृजन हेतु आह्वान । मनुष्य देवता कैसे बन सकता है इसके लिए उसे अपनी तैयारी कैसे करनी होगी, संधिकाल में सभी को किस प्रकार अपनी मनोभूमि बनानी होगी ? यह सारा पक्ष पूज्यवर की वाणी से सुस्पष्ट उदाहरणों के माध्यम से इसमें आया है । जीवन जीने की कला के रूप में अध्यात्म को परिभाषित करने वाले पूज्य गुरुदेव संजीवनी विद्या को बडा स्पष्ट समझाते हैं । अपने ब्राह्मणत्व को स्वयं पूज्य गुरुदेव ने किस प्रकार जिंदा रखा, ब्राहाण ही वस्तुत: देवत्व का जागरण है, यह समग्र विवेचन इसमें समझा जा सकता है, यह उनकी वाणी का चमत्कार है कि जन-जन के बीच आसानी से समझ में आने वाले उदाहरणों के द्वारा उनकी वन्दता इतनी रोचक बन गई है कि पढ़ने वाले को कथा का आनंद आने लगता है व बात सीधे हृदय तक पहुँच जाती है ।

अगले प्रकरण में गुरुसत्ता ने गायत्री मंत्र को समग्र धर्मशास्त्र के रूप में, देव संस्कृति के बीजमंत्र के रूप में समझाया है । उनकी ओजस्वी वाणी में प्राणों का त्राण करने वाली गायत्री की स्पष्ट व्याख्या ऐसी हृदयंगम होती चली गई है- कि पाठक के मन के सारे असमंजस निकल जाते हैं । त्रिपदा गायत्री के श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा, आस्तिकता, धार्मिकता एवं कर्तव्यपरायणता रूपी तीन चरणों की स्पष्ट व्याख्या इन प्रवचनों में पाठकगण पढ़ व समझ सकते हैं । 

 

Buy online: 

http://www.awgpstore.com/gallery/product/init?id=381

 


No comments:

Post a Comment