पूज्यवर की अमृतवाणी-६८
इस खंड में दी जा रही अमृतवाणी के प्रमुख विषय हैं-मानव में
देवत्व का उदय, धरती पर स्वर्ग का अवतरण, देव-संस्कृति के दो आधार-गायत्री
और यज्ञ, आध्यात्मिक कायाकल्प के सूत्र और सिद्धांत, साधना से सिद्धि तथा
महाकाल की प्रज्ञा-परिजनों से अपेक्षाएँ व उनका नवसृजन हेतु आह्वान ।
मनुष्य देवता कैसे बन सकता है इसके लिए उसे अपनी तैयारी कैसे करनी होगी,
संधिकाल में सभी को किस प्रकार अपनी मनोभूमि बनानी होगी ? यह सारा पक्ष
पूज्यवर की वाणी से सुस्पष्ट उदाहरणों के माध्यम से इसमें आया है । जीवन
जीने की कला के रूप में अध्यात्म को परिभाषित करने वाले पूज्य गुरुदेव
संजीवनी विद्या को बडा स्पष्ट समझाते हैं । अपने ब्राह्मणत्व को स्वयं
पूज्य गुरुदेव ने किस प्रकार जिंदा रखा, ब्राहाण ही वस्तुत: देवत्व का
जागरण है, यह समग्र विवेचन इसमें समझा जा सकता है, यह उनकी वाणी का चमत्कार
है कि जन-जन के बीच आसानी से समझ में आने वाले उदाहरणों के द्वारा उनकी
वन्दता इतनी रोचक बन गई है कि पढ़ने वाले को कथा का आनंद आने लगता है व बात
सीधे हृदय तक पहुँच जाती है ।
अगले प्रकरण में गुरुसत्ता ने गायत्री मंत्र को समग्र धर्मशास्त्र के रूप
में, देव संस्कृति के बीजमंत्र के रूप में समझाया है । उनकी ओजस्वी वाणी
में प्राणों का त्राण करने वाली गायत्री की स्पष्ट व्याख्या ऐसी हृदयंगम
होती चली गई है- कि पाठक के मन के सारे असमंजस निकल जाते हैं । त्रिपदा
गायत्री के श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा, आस्तिकता, धार्मिकता एवं
कर्तव्यपरायणता रूपी तीन चरणों की स्पष्ट व्याख्या इन प्रवचनों में पाठकगण
पढ़ व समझ सकते हैं ।
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