समग्र प्रगति सहकारिता पर निर्भर
आप अकेले नहीं हैं, समाज की एक इकाई हैं ।।
सामाजिक सहयोग से ही मानवी प्रगति संभव हुई है ।। एकाकी श्रम प्रयासों से
तो वह अन्न, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा, आजीविका जैसी दैनिक जीवन की
आवश्यकता तक पूरी नहीं कर सकता ।। निर्वाह से लेकर उल्लास तक की सभी
आवश्यकताएँ जिसे सामूहिक सहयोग से उपलब्ध होती हैं, उसमें मनुष्य का यह भी
कर्त्तव्य- उत्तरदायित्व है कि समाज को सुखी बनाने वाले परमार्थ प्रयोजनों
को भी जीवनक्रम में सम्मिलित रखे ।। परमार्थ की बात सोचे ।। लोक- कल्याण
में रुचि ले और उपकारों का ऋण चुकाए ।। जब अपने को असंख्यों का सहयोग मिला
है तो कृतज्ञता की अभिव्यक्ति भी आवश्यक है ।। इसके लिए दाँत निपोर देने या
शब्द- जंजाल बुन देने से काम नहीं चलेगा, सक्रिय प्रयासों की आवश्यकता
पड़ेगी ।। इन्हीं प्रयासों को लोग मंगल की साधना कहते हैं ।। धर्मशास्त्रों
में इसी को पुण्य परमार्थ कहा गया है और स्वर्ग मुक्ति का, जीवनलक्ष्य की
पूर्ति का आधारभूत कारण माना गया है ।। पूजा- पाठ, स्वाध्याय- सत्संग आदि
कृत्यों का उद्देश्य इसी सत्प्रवृत्ति को प्रसुप्ति से उबारकर प्रखर बनाने
की भूमिका निभाना है ।।
वस्तुत: भाग्य या किस्मत जैसी चीज न तो कोई मनुष्य लिखा कर आता है और न ही
ऐसी कोई सत्ता है जो विधाता के रूप में प्रत्येक मानव- शिशु के कपाल पर
उसके सारे जीवन की घटनाएँ लिखती हो ।। मनुष्य प्रयत्नों से ही सफल होता है
और पुरुषार्थ के बल पर ही अपने भाग्य का निर्माण करता है ।। लेकिन अपनी
मान्यताओं को यहीं तक रखकर दूसरों के हित की उपेक्षा करना या समाज का जरा
भी ध्यान न रखना, किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।।
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