घर के वातावरण में स्वर्ग का अवतरण
भारतीय संस्कृति में पारिवारिक जीवन को एक उच्चस्तरीय योगाभ्यास
कहा है ।। योग साधना का अर्थ है- अपने सीमित और संकुचित अहं को असीम और
विराट चेतना से एकाकार कर देना ।। गृहस्थाश्रम सीमित से असीम की ओर अग्रसर
होने के लिए क्रमश: आगे बढ़ने का अभ्यास करने के लिए ऋषि प्रणीत एक
प्रयोगशाला है ।। प्राचीनकाल में अधिकांश ऋषि विवाहित ही होते थे ।।
आश्रमों में ऋषि- मुनि ऋषिकुमारों को पढ़ाते थे, तो उनकी पत्नियाँ ऋषि
कन्याओं को शिक्षा देती थीं ।। हमारी संस्कृति के अनुसार विवाह एक पवित्र
बंधन और प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक धर्मकृत्य है ।।
इस धर्मकृत्य को संपन्न करते हुए ही कोई व्यक्ति अपने "अहं" का विस्तार
आरंभ करता था और परिवार के अन्य सदस्यों तक अपनी आत्मभावना की परिधि को
व्यापक बनाता था ।। स्वाभाविक ही है कि विवाह के उपरांत पुरुष या स्त्री की
आत्मीयता का क्षेत्र और व्यापक बन जाता है तथा उसमें स्त्री, पति, संतान,
स्वजन, सगे- संबंधी, पड़ोसी और घर के पशु- पक्षी तक सम्मिलित हो जाते हैं ।।
इस प्रकार विवाहित स्त्री या पुरुष यदि विवाह- बंधन के मर्म को समझें तो
क्रमश: अपनी उन्नति की ओर बढ़ते चलते हैं ।। दूसरों के लिए अपने को भूल जाने
की, अपने स्वार्थ को कम करने तथा परिवारीजनों की हित चिंता को महत्त्व
देने की अभ्यास साधना से ही गृहस्थ साधक आगे बढ़ सकते हैं और शनैशनै:
तुच्छता को महानता में, संकीर्णता को उदारता में परिणत करते चल सकते हैं ।।
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